कालीबेई संत का सत्कर्मण

kali bein river
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2003 में कालीबेई की दुर्दशा ने संत की शक्ति को गुरु वचन पूरा करने की ओर मोड़ दिया-पवन गुरु, पानी पिता, माता धरती मात। कहते हैं कि कीचड़ में घुसोगे तो मलीन ही होओगे। सींचवाल भी कीचड़ में घुसे लेकिन मलीन नहीं हुए। उसे ही निर्मल कर दिया। यही असली संत स्वभाव है। संत ने खुद शुरुआत की। समाज को कारसेवा का करिश्मा समझाया। कालीबेई से सिख इतिहास का रिश्ता बताया।

मैं, अलवर के तरुण आश्रम में राजेन्द्र सिंह का काम देखने गया था। पंज प्यारे खड़े थे। दो लंबी दाढ़ियां आपस में मिल रही थीं। पूछा, तो पता चला कि दूसरी सिख शख्सियत पंजाब के संत बलबीर सिंह सींचवाल हैं। बाकी कुछ बताने की जरूरत नहीं थी। मन आनंद से भर गया। एक, सूखी नदियों को पानी से भर देने वाली प्रेरक शक्ति! दूसरी, कचरे से भरी 160 किमी लंबी कालीबेई की सफाई जैसे दुसाध्य कार्य को साध लेने वाली संतात्मा! अच्छे अच्छे काम करते जाना! अच्छे-अच्छे का संग निभाना !!

होशियारपुर के धनोआ गांव से निकलकर कपूरथला तक जाती है कालीबेई। इसे कालीबेरी भी कहते हैं। कुछ खनिज के चलते काले रंग की होने के कारण ‘काली’ कहलाई। इसके किनारे बेरी का दरख्त लगाकर गुरुनानक साहब ने 14 साल, नौ महीने और 13 दिन साधना की। एक बार नदी में डुबे तो दो दिन बाद दो किमी आगे निकले। मुंह से निकला पहला वाक्य था : न कोई हिंदू, न कोई मुसलमां। उन्होंने जपुजी साहब कालीबेईं के किनारे ही रचा। उनकी बहन नानकी भी उनके साथ यहीं रही। यह 500 साल पुरानी बात है। अकबर ने कालीबेईं के तटों को सुंदर बनाने का काम किया। ब्यास नदी इसे पानी से सराबोर करती रही। एक बार ब्यास ने जो अपना पाट क्या बदला; अगले 400 साल कालीबेई पर संकट रहा। उपेक्षा व संवेदनहीनता इस कदर रही कि कपूरथला कोच फैक्टरी से लेकर तमाम उद्योगों व किनारे के पांच शहरों ने मिलकर कालीबेई को कचराघर बना दिया।

इसी बीच कॉलेज की पढ़ाई पूरी न सका एक नौजवान नानक की पढ़ाई पढ़ने निकल पड़ा था : संत बलबीर सिंह सींचवाल! संत सींचवाल ने किसी काम के लिए कभी सरकार की प्रतीक्षा नहीं की। पहले खुद काम शुरू किया; बाद में दूसरों से सहयोग लिया। उन्होंने कारसेवा के जरिए गांवों की उपेक्षित सड़कों को दुरुस्त कर ख्याति पाई। 2003 में कालीबेई की दुर्दशा ने संत की शक्ति को गुरु वचन पूरा करने की ओर मोड़ दिया-पवन गुरु, पानी पिता, माता धरती मात। कहते हैं कि कीचड़ में घुसोगे तो मलीन ही होओगे। सींचवाल भी कीचड़ में घुसे लेकिन मलीन नहीं हुए। उसे ही निर्मल कर दिया। यही असली संत स्वभाव है।

संत ने खुद शुरुआत की। समाज को कारसेवा का करिश्मा समझाया। कालीबेई से सिख इतिहास का रिश्ता बताया। प्रवासी भारतीयों ने इसे रब का काम समझा। उन्होंने धन दिया, अनुनायियों ने श्रम। सब इंतजाम हो गया। काम के घंटे तय नहीं; कोई मजदूरी तय नहीं। बस! तय था, एक सपने को सच करने के लिए एक जुनून- ‘यह गुरु का स्थान है। इसे पवित्र होना चाहिए।’ नदी से कचरा निकालने का सिलसिला कभी रुका नहीं। 27 गांवों के कचरा नाले नदी में आ रहे थे। तालाब खोदे। नालों का मुंह उधर मोड़ा। पांच शहरों के कचरे की सफाई के लिए ट्रीटमेंट प्लांट की मांग बुलंद की। पूरे तीन साल यह सिलसिला चला। ए पी जे अब्दुल कलाम इस काम को देखने सुल्तानपुर लोदी आये। एक वैज्ञानिक राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस जैसे तकनीकी रुचि के मौके पर संत के सत्कर्म की सराहना की। प्रशासन को भी थोड़ी शर्म आई। उसने पांच करोड़ की लागत से सुलतानपुर लोदी शहर में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाया। 10 करोड़ की लागत से कपूरथला में। टांडा, बेगोवाल जैसे औद्योगिक नगरों में भी तैयारी शुरू कर दी गई। 'वीड टेक्नॉलॉजी’ पर आधारित तालाबों ने नतीजे देने शुरू कर दिए हैं। कालीबेई के किनारे बसे 64 गाँवों से आगे बढ़कर यह संदेश समंदर पार चला गया है। कपूरथला में कालीबेई के किनारे संत की निर्मल कुटिया पूरी दुनिया को निर्मलता का संदेश दे रही है। क्या भारत सुनेगा?

नसीहत


किसी भी काम से लोगों को जोड़ने के लिए लोगों को उससे उनका रिश्ता समझाना पड़ता है। आस्था, इतिहास और नियमित संसर्ग इसमें बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं। अच्छी नीयत व निस्वार्थ भाव से काम शुरू कीजिए। संसाधन खुद-ब- खुद जुट जाएंगे। शासन-प्रशासन भी एक दिन साथ आ ही जाएंगे।

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