काली नदी का काला सफर


गंगा की सहायक नदी के रूप में जानी जाने वाली लगभग 300 किलोमीटर लम्बी काली नदी (पूर्व) मुजफ्फरनगर जनपद की जानसठ तहसील के अंतवाड़ा गांव से प्रारम्भ होकर मेरठ, गाजियाबाद, बुलन्दशहर, अलीगढ़, एटा व फर्रूखाबाद के बीच से होते हुए अन्त में कन्नौज में जाकर गंगा में मिल जाती है। कुछ लोग इसका उद्गम अंतवाड़ा के एक किलोमीटर ऊपर चितौड़ा गांव से मानते हैं। यह नदी उद्गम स्रोत से मेरठ तक एक छोटे नाले के रूप में बहती है जबकि आगे चलकर नदी का रूप ले लेती है। हमेशा टेढी-मेढी व लहराकर बहने वाली इस नदी को नागिन के नाम से भी जाना जाता है, जबकि कन्नौज के पास यह कालिन्दी के नाम से मशहूर है।

कभी शुद्ध व निर्मल जल लेकर बहने वाली यह नदी आज उद्योगों (शुगर मिलों, पेपर मिल, रासायनिक उद्योग), घरेलू बहिस्राव, मृत पशुओं का नदी में बहिस्राव, शहरों, कस्बों, बूचड़-खानों व कृषि का गैर-शोधित कचरा ढोने का साधन मात्र बनकर रह गई है।

मेरठ सहित सभी शहरों व कस्बों का शहरी कचरा भी इसी नदी में समाहित होता है। केंद्रीय भू-जल बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार इस नदी के पानी में अत्यधिक मात्रा में सीसा, मैग्नीज व लोहा जैसे भारी तत्व व प्रतिबंधित कीटनाशक अत्यधिक मात्रा में घुल चुके हैं। इसका पानी वर्तमान में किसी भी प्रयोग का नहीं है। इसके पानी में इतनी भी ऑक्सीजन की मात्रा नहीं बची है जिससे कि मछलियां व अन्य जलीय जीव जीवित रह सकें। नदी के प्रदूषण का आलम यह है कि पहले इसके पानी में सिक्का डालने पर वह तली में पड़ा हुआ चमकता रहता था लेकिन आज उसके पानी को हथेली में लेने से हाथ की रेखाएं भी नहीं दिखती हैं।

गौरतलब है कि उद्गम से लेकर गंगा में मिलने तक की दूरी में इसके किनारे करीब 1200 गांव, बड़े शहर व कस्बे बसे हुए हैं। इतनी बड़ी संख्या में इसके किनारे आबादी का बसा होना यही तय करता है कि सभ्यताएं वहीं बसती थीं जहां पानी के उचित साधन मौजूद हों। लेकिन इसके किनारे बसी आबादी नदी के प्रदूषण से बुरी तरह ग्रस्त हैं यही कारण है कि जो सभ्यताएं इसके किनारे बसीं व विकसित हुई थीं वे अब प्रगति के चरम पर पहुंचकर मिटने के कगार पर पहुंच गई हैं। इस नदी में भयंकर प्रदूषण के चलते आस-पास बसे गांवों का भूजल भी प्रदूषित हो गया है। इन गांवों के हैण्डपम्पों से निकलने वाले पानी में वही भारी तत्व मौजूद हैं जो कि नदी के पानी में बहते हैं। कोई अन्य वैकल्पिक व्यवस्था न होने के कारण ग्रामीण इसी प्रदूषित पानी को पी रहे हैं तथा गंभीर व जानलेवा बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। इस पानी की विषाक्तता के चलते ग्रामीणों को कैंसर, पेट संबंधी, दिल संबंधी व दिमाग संबंधी बीमारियों ने घेर लिया है तथा पुरुषों की पौरुषता व महिलाओं की प्रजनन क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।

गौरतलब है कि कुछ वर्ष पूर्व मेरठ जनपद स्थित आढ़ व कुढ़ला गांवों में नदी के प्रदूषण से प्रभावित हैण्डपम्प का पानी पीने से बच्ची की मौत तक हो गई थी। यही नहीं मेरठ के कुनकुरा गांव में नदी का पानी पीने से दो दर्जन मोर तत्काल मौत की नींद सो गए थे। जो पशु भी गलती से इसका पानी पी लेता है तो उसकी मौत हो जाती है। पशुओं व अन्य जानवरों की इसके पानी को पीने के कारण मरने की खबरें समय-समय पर सुनने को मिलती ही रहती हैं। यही नहीं जलालपुर गांव में पुल के अभाव में पशुओं को नदी में से निकलकर दूसरे छोर पर जाना पड़ता है जिससे कि उनकी त्वचा में घाव हो जाते हैं। नदी किनारे बसे ग्रामीणों का जीवन नरक बना हुआ है। ये ग्रामीण बुझे मन से बखान करते हैं कि आज से बीस बरस पूर्व तक इस नदी का पानी पीने में व नहाने तक में इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन आज इसमें हाथ भी नहीं दे सकते। एक चीज जो नहीं बदली है वह यह कि किसानों द्वारा इस नदी के पानी से आज भी सिंचाई की जाती है। लेकिन आज भारी तत्वों व कीटनाशकों से प्रभावित इस पानी से फसलों की सिंचाई करने से जहां फसलों में भारी तत्व व कीटनाशक प्रवेश कर गए हैं वहीं मिट्टी में भी ये तत्व मिल चुके हैं। नीर फाउंडेशन के एक अध्ययन में पाया गया था कि नदी किनारे के गांवों में जो सब्जियां पैदा की जाती हैं उनमें भरपूर मात्रा में कीटनाशक मौजूद हैं। ये सब्जियां ही बाजार में बेची जा रही हैं तथा उपभोक्ताओं के घरों तक पहुंच रही हैं। यह भी दुःखद है कि जिन सब्जियों को शारीरिक स्वास्थ्य के लिए खाया जाता है वे सब्जियां आज बीमारियां परोस रही हैं।

मानव के साथ-साथ इसके प्रदूषण से पशु भी बुरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं। वर्ष 1999-2001 केंद्रीय भू-जल बोर्ड की अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार, नदी की कुल लम्बाई में से एकत्र किए गए सैंकड़ों जलीय नमूनों (नदी जल व हैण्डपम्प) के परीक्षण से बहुत ही चौंकाने वाले तथ्य निकलकर सामने आए थे। इन नमूनों में सीसा, क्रोमियम, लोहा, कॉपर व जिंक आदि तत्व पाए गए थे। रिपोर्ट के अनुसार मुजफ्फरनगर जनपद के चिढोड़ा, याहियापुर व जामड, मेरठ जनपद के धन्जु, देदवा, उलासपुर, बिचौला, मैंथना, रसूलपुर, गेसूपुर, कुढ़ला, मुरादपुर बढ़ौला, कौल, जयभीमनगर व यादनगर, गाजियाबाद में अजराड़ा व हापुड़, बुलन्दशहर जनपद के अकबरपुर, साधारनपुर व उत्सरा, अजीतपुर, लौगहरा, मनखेरा, बकनौरा व आंचरूकला, अलीगढ़ के मैनपुर, सिकन्दरपुर व रसूली तथा कन्नौज के राजपुरा, बालीपुरा व नवीनगंज आदि गांव नदी के प्रदूषण से बुरी तरह से ग्रस्त हैं। इन गांवों का जीवन शुद्ध पेयजल की अनुपलब्धता के चलते मुश्किलों भरा हो चुका है। रिपोर्ट के अनुसार मेरठ व गाजियाबाद क्षेत्र के आस-पास 30-35मीटर नीचे तक की गहराई में भारी तत्व तय सीमा से अत्यधिक मात्रा में पाए गए हैं।

प्रदूषित नाला बन चुकी इस नदी के सुधार के लिए मानवाधिकार आयोग के दबाव में उत्तर प्रदेश सरकार के नियोजन विभाग द्वारा नदी को प्रदूषण मुक्त करने हेतु 88 करोड़ रुपयों की योजना बनाई गई है। इस कार्य हेतु राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय, भारत सरकार व जापान बैंक ऑफ इंटरनेशनल को-ऑपरेशन से इस कार्य हेतु राशि उपलब्ध कराने का आग्रह किया गया है। लेकिन बैंक द्वारा पूर्व की योजनाओं को सही ढंग से लागू ने कर पाने की स्थिति में यह राशि उपलब्ध कराने से मना कर दिया गया है।

प्रदूषण नियंत्रण विभाग तो जैसे गहरी नींद में है। उसकी नाक के नीचे किनारे लगे उद्योगों द्वारा नदी में खुलेआम गैर-शोधित कचरा उड़ेला जा रहा है लेकिन उनके खिलाफ किसी भी कार्यवाही का न होना समझ से परे है। हां, संगम मेले के दौरान जब साधु-संतों ने ऐलान किया था कि वे मैली गंगा में स्नान नहीं करेंगे तो दबाव स्वरूप विभाग द्वारा कुछ उद्योगों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, इसमें मेरठ के भी तीन पेपर मिल शामिल थे। लेकिन आज ये सभी उद्योग पुनः धड़ल्ले से अपना कचरा नदी में डाल रहे हैं। मेरठ के छोटे-बड़े दर्जन-भर नाले शहर का गैर-शोधित कचरा इस नदी में उड़ेलते हैं, यहीं नहीं यहां मौजूद बूचड़-खाना का कचरा भी नदी में बहाया जाता है।

बूचड़-खाना का कचरा सीधे नाले में बहाये जाने से पशुओं के अवशेष नदी में चले जाते हैं। इन अवशेषों को कुत्ते गांवों में खींच कर ले आते हैं जिससे कि गांव में संक्रमण का खतरा हमेशा बना रहता है। मेरठ का विकास जवाहरलाल नेहरू अर्बन रिन्यूवल मिशन कार्यक्रम के तहत किया जाना है जिसमें व्यवस्था है कि पानी का शोधन संयंत्र लगाया जाए जिससे शोधित होकर ही शहर का तमाम कचरा नदी में जाए। लेकिन यह योजना कब और कैसे लागू होगी इस सवाल का जवाब भविष्य के गर्त में है।

काली नदी (पूर्व) के काले सफर के लिए कहीं न कहीं हम कसूरवार हैं क्योंकि आधुनिकता की अंधी दौड़ में हमने अपने मूल्यों व कर्तव्यों की बलि दे दी है। मनु संहिता के अनुसार अगर कोई मनुष्य नदी के पानी को किसी भी प्रकार से गंदा करता है तो उसे कडी सजा दी जानी चाहिए। आखिर कहां गईं हमारी आस्थाएं जो कि नदियों के प्रति हुआ करती थीं? आखिर किस ओर जा रहा है हमारा समाज और हम ? यह गंभीर चिन्तन का।
 
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