कैसी चली है अबकी हवा तेरे शहर में


गालिब का एक शेर है-
मगस को बाग में जाने न देना,
खून नाहक परवाने का होगा...।


.मगस का अर्थ है मधुमक्खी। मधुमक्खी के बाग में जाने और परवाने का खून होने के बीच का रिश्ता कई लोग नहीं देख पाते। पर आप थोड़ा सोचें तो यह बात तुरंत समझ में आएगी। जब मधुमक्खी बाग में जाएगी, फूलों का रस लेकर शहद बनाएगी तो फिर उस शहद के सह-उत्पाद के रूप में मोम भी बनेगा। मोम से बनेगी मोमबत्ती और उसकी रोशनी की तरफ जब परवाना खिंचा चला आएगा तो उसकी लौ उसे जलाकर खत्म कर देगी। यह एक शायर की नजर है। इसे दार्शनिक स्तर पर देखें तो इसमें आपको पूरी सृष्टि के बीच एक शाश्वत गहरे अंतरसंबंध की प्रतिध्वनि सुनाई देगी। प्रकृति में होनेवाली हर घटना आपस में संबंधित है और उनका संबंध हमारे साथ भी है। स्वतंत्र रूप से किसी वस्तु का अस्तित्व है ही नहीं। यह संबंध जितना हम समझते हैं, यह जितना समझा जा सकता है, उससे कहीं ज्यादा गहरा और सूक्ष्म है।

पिछले हफ्ते दो खबरें ऐसी रहीं जो राजनीतिक न होते हुए भी भीतर तक झकझोरने वाली थीं। राजनीति और मनोरंजन में मगन सामूहिक चेतना को जगाने के लिये ये घटनाएँ पर्याप्त रूप से सशक्त थीं। इनमें एक थी दिल्ली के प्रदूषण के संबंध में और दूसरी थी दुनिया में आधे जीव-जंतुओं के खत्म होने के बारे में। दिल्ली का धुआँ और कोहरा-स्मॉग कइयों को लंदन में 1052 के स्मॉग की याद दिला गया, जिसमें चार हजार लोगों की मौत हो गई थी। इधर वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फेडरेशन ने बताया कि पिछले 40 वर्षों में धरती के आधे पशु लुप्त हो चुके हैं! लंदन की जुओलॉजिकल सोसायटी की यह रिपोर्ट भी चिंतित करने वाली है कि वर्ष 2020 तक धरती से दो-तिहाई वन्य जीवन खत्म हो जाएगा। यह सब बदलते मौसम, गर्म होती धरती और हमारी आक्रामकता के कारण हो रहा है। यह आशंका इसलिए निराधार नहीं है कि पृथ्वी पर करीब बारह करोड़ वर्षों तक रहने वाले डायनासोर जैसे विशाल जीवों के खत्म होने का कारण मूलत: जलवायु परिवर्तन ही था। अगर जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से नहीं लिया गया तो आने-वाले वर्षों में धरती से जीवों का अस्तित्व मिटना तय है। उन जीवों में हम भी होंगे।

यह भी बताया गया है कि इस दुखद विनाश का मुख्य कारण है मानवीय शोषण और जीव-जंतुओं के रहने की जगह का कम होते जाना। इसका शिकार हुए हैं सिंह, बाघ, डॉलफिन, कई तरह के सरीसृप, कई प्रजाति के वानर और समुद्री जीव भी। ध्यान देने की बात यह भी है कि आधे से अधिक प्रजातियाँ लुप्त नहीं हुईं, बल्कि अलग-अलग प्रजातियों के आधे से अधिक जीव-जंतु विलुप्त हुए हैं।

ठंडे आंकड़ों और मृत गणितीय संख्याओं के बीच भावनाएं और संवेदनाएं गुम हो जाती हैं। गौरतलब है कि धरती पर पशुओं की आठ अरब प्रजातियाँ हैं। इनमें से सिर्फ दस फीसदी के बारे में हम जानते हैं। इन दस फीसदी में 97 प्रतिशत अपृष्ठवंशी हैं। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फेडरेशन के आंकड़े सिर्फ जानवरों, मछलियों और पक्षियों से संबंधित हैं। अभी तक तो इनकी भी 35 हजार प्रजातियों का ही पता चल पाया है।

प्रकृति अपने तरीके से लगातार अपने अभाव, अपने घटते कुटुंब के साथ तालमेल बैठाती दिखाई देती है। यह भी गौरतलब है कि जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों की ऐसी अनगिनत प्रजातियाँ हैं, जिनके बारे में अभी कोई जानकारी ही नहीं। हो सकता है उनमें से भी कई खत्म हो रही हों। एक ओर प्राकृतिक आपदाओं से जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ नष्ट हो रही हैं, वहीं रही-सही कसर इंसानी लालच और शिकार का उसका शौक पूरा कर दे रहा है। इंटरनेशनल फंड फॉर एनिमल वेलफेयर ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पिछले एक दशक में प्रतीक के लिये दुनिया भर में सत्रह लाख वन्यजीवों का शिकार ट्रोफी हंटिंग किया गया। इनमें दो लाख विलुप्तप्राय जीव हैं। हालात रूह कंपा देनेवाले हैं। वन्यजीवों के टुकड़े-टुकड़े बिकते हैं और अन्तरराष्ट्रीय बाजार में इनकी मुंहमांगी कीमत मिलती है। अन्तरराष्ट्रीय बाजार में एक हाथी 50 से 60 हजार डॉलर का है। एक बाघ 25 से 50 हजार और तेंदुआ 20 से 35 हजार डॉलर तक का है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि शौकिया शिकार यानी ट्रॉफी हंटिंग को अमेरिका समेत दुनिया के कई देशों ने मान्यता दे रखी है। एक आंकड़े के मुताबिक, पिछले एक दशक में दुनिया भर में जितने बाघों का शिकार किया गया, उनमें 50 प्रतिशत को अमेरिकी शिकारियों ने मारा है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन का कहना है कि अगर कानूनी दायरे में ट्रोफी हंटिंग हो तो वन्य जीवों के संरक्षण में मदद मिलेगी!

अमीर और ताकतवर देश अपनी हर वाहियात हरकत को सही ठहराने में कितने माहिर होते हैं, यह काबिले गौर है! जब हम प्रकृति के साथ संबंध की बात करते हैं तो उसमें भी एक तरह का द्वैत होता है। संबंध में निहित हैं दो इकाइयां। सच्चाई तो यह है कि हम कुदरत का हिस्सा हैं। जन्म, व्याधि, जरा, मृत्यु के नियम प्रकृति के सभी जीव-जंतुओं पर समान रूप से लागू होते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो प्रकृति के साथ संबंध की बात निरर्थक हो जाती है। हम जो खुद ही हैं, उसके साथ हम क्या संबंध रख सकते हैंं और कैसे? जब हम खुद ही प्रकृति हैं तो खुद के साथ कैसे संबंधित हों? पर यह समझ सिर्फ जानकारी या ज्ञान के स्तर पर न होकर प्रत्यक्ष बोध पर आधारित होनी चाहिए। क्योंकि प्रकृति का हिस्सा होने की जानकारी या ज्ञान तो हमें हमेशा से रहा है, पर इसके बावजूद हम इसका संहार क्यों कर रहे हैं?

इस सवाल की पड़ताल कैसे की जाए, यही अपने आप में एक बड़ा सवाल है। ऐसे में यह कैसे दिखे कि जब हम प्रकृति को, उसके जीव-जंतुओं को नुकसान पहुँचा रहे हैं, तब हम वास्तव में खुद को ही नष्ट कर रहे हैं। प्रख्यात वैज्ञानिक स्टीवन हॉकिंग लगातार कह रहे हैं कि मानवता की समाप्ति निश्चित है और इसका मुख्य कारण उसकी आक्रामकता है। यह आक्रामकता एक-दूसरे के प्रति ही नहीं, प्रकृति के प्रति भी है और इसका निहितार्थ यह भी है कि हम खुद को प्रकृति का हिस्सा समझ ही नहीं रहे। किसी वृक्ष को काटते समय हम यह महसूस नहीं करते कि हम वास्तव में खुद को ही काट रहे हैं। और, जबतक यह बात हृदय में महसूस नहीं होगी, हमारे संबंधों में मूलभूत परिवर्तन नहीं हो पाएगा।

हम बौद्धिक आक्रोश का अनुभव कर सकते हैं, उसे व्यक्त कर सकते हैं, पर हमारे रोजमर्रा के आचरण में यह एक तथ्य के रूप में व्यक्त नहीं होगा। बस एक विचार की तरह रहेगा, हमारे डीएनए का हिस्सा नहीं बनेगा। गहरी अनुभूति नहीं बनेगा यानी समझ में तो आएगा पर दिल में नहीं उतरेगा। मार्टिन रीस की किताब ‘द फाइनल आवर’ कुछ बहुत ही खतरनाक संकेत देती है। टेंपल्टन पुरस्कार के विजेता और बहुत ही प्रख्यात वैज्ञनिक रीस का कहना है कि सामूहिक मानवीय क्रिया-कलापों से जैव विविधता पूरी तरह और हमेशा के लिये खत्म होने जा रही है और अब यही हमारी आखिरी सदी है। वैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया है कि विकास के नाम पर प्रत्येक वर्ष सात करोड़ हेक्टेयर वनक्षेत्र नष्ट हो रहा है। वनों के विनाश से वातावरण विषैला होता जा रहा है और प्रतिवर्ष दो अरब टन अतिरिक्त कार्बन डाइआक्साइड वायुमंडल में घुल-मिल रहा है। देखिए, कैसा दुश्चक्र निर्मित हो रहा है। प्रदूषण की खबरें अभी लगातार सुर्खियों में रही हैं।

उद्योगों और वाहनों के कारण होनेवाला प्रदूषण और साथ ही दीपावली की आतिशबाजी के कारण होनेवाला प्रदूषण, विकास के साथ चलने वाला विष, दूरदर्शिता का अभाव, दूसरों की असुविधा देख पाने की असमर्थता और आमतौर पर एक असंवेदनशील संस्कृति का हिस्सा बनकर उसे संवर्धित करते जाना- यही तो कारण हैं प्रदूषण का! आंकड़ों और तकनीकी जानकारी के खेल में पड़कर ज्यादा कुछ नहीं होना, यह सब निर्जीव ज्ञान में परिवर्तित होता जाता है, जबकि स्थितियाँ ज्ञान से नहीं, प्रत्यक्ष बोध से बदल सकती हैं। सिर्फ बौद्धिक तल पर नहीं, बल्कि भावनात्मक तल पर और समस्या का प्रत्यक्ष बोध ही कोई परिवर्तन ला सकता है। ज्ञान तो इस मामले में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। दीपावली से पहले और उसके बाद प्रमुख अखबारों में प्रदूषण को लेकर करीब 900 लेख लिखे गए।

इसके कई पहलुओं पर लोगों ने प्रकाश डाला। पर क्या इतना काफी है? नहीं। बाहरी दुनिया और खुद के बीच के गहरे, अटूट अंतरसंबंध को अच्छी तरह समझने से ही इस दिशा में परिवर्तन की कोई संभावना है। साथ ही कानूनी और प्रशासनिक स्तर पर होनेवाले काम होते रहें। उनकी अपनी भूमिका तो है, पर उसके परिणाम अस्थाई और सीमित हैं। ये परिणाम समझ से नहीं, बल्कि भय के कारण आते हैं।

लोभ और क्रूरता, अदूरदर्शिता और हमारे कारण दूसरों को होनेवाली परेशानी और तकलीफ के प्रति असंवेदनशीलता- यह प्रदूषण की आंतरिकता है। बाहरी उपायों के साथ ही इनपर भी ध्यान देना ही पड़ेगा। इस बारे में ब्रिटिश दार्शनिक एकहार्ट टोल की बात कीमती है। वे कहते हैं- धरती का प्रदूषण तो हमारे भीतरी मानसिक प्रदूषण का प्रतिबिंब मात्र है। यह तो इसलिए है, क्योंकि करोड़ों बेहोश इंसान अपने आतंरिक जीवन की दशा के लिये बिल्कुल भी जिम्मेदार महसूस नहीं कर रहे।

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