कैसे होता है प्राचीन अवशेषों का काल-निर्धारण

साबूदाना, जो भारत भर में उपवास के दिन फलाहार के रूप में खाया जाता है, क्या है? क्या यह खेत-जमीन में उगाया जाता है? या पेड़ पर लगता है?

- सुरेश कुमार भावसार (एएच व्हीलर एंड कं. बुक स्टल, रेलवे स्टेशन, खंडवा-450001 म.प्र.)साबूदाना (सैगो पर्ल्स) न तो पेड़ पर लगता है और न जमीन पर उगाया जाता है। अलबत्ता यह वानस्पतिक उत्पाद है और पूरी तरह शाकाहार है। यह छोटे-छोटे मोती की तरह सफेद और गोल होता है। यह सैगो पाम नामक पेड़ के तने के गूदे से निर्मित स्टार्च है। सैगो, ताड़ की तरह का एक पौधा होता है। मलय द्वीप-समूह के न्यूगिनी क्षेत्र में यह मुख्य भोजन है और आटे के रूप में भी मिलता है। भारत में साबुदाने का उत्पादन सबसे पहले तमिलनाडु के सेलम में हुआ था। इसमें टैपियोका की जड़ों को कुचल कर उसके तरल को छानकर उबालते और गाढ़ा करते हैं। फिर इस लेई जैसे गाढ़े पदार्थ को छन्ने से छानकर उसकी बूँदी की तरह छोटी-छोटी गोलियाँ बनाकर सेंक लेते हैं। साबूदाना में कार्बोहाइड्रेट की प्रमुखता होती है और इसमें कुछ मात्रा में कैल्शियम व विटामिन सी भी होता है। पकने के बाद यह हल्का पारदर्शी, नर्म और स्पंजी हो जाता है। भारत में इससे पापड़ खीर और खिचड़ी बनाते हैं।

प्राचीन अवशेषों तथा खुदाई में प्राप्त वस्तुओं के निर्माण-काल का निर्धारण किस प्रकार किया जाता है?
- सैयद अख्तर हसन (मुम्बई आॅप्टिकल, टेलीफोन एक्सचेंज रोड़ अल्लपट्टी, पोस्ट: डी.एम.सी. जिलाः दरभंगा-846003)पुरातत्व विज्ञान में उत्खनन का काफी इस्तेमाल होता है इसे सरल रूप में ‘खुदाई’ कहते हैं, पर यह सामान्य खुदाई नहीं है। यह कई तरह के विज्ञानों की मिली-जुली गतिविधि है। इसमें इंजीनियरी, गणित, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान और जीव रसायन विज्ञान सहित कई तरह के विज्ञानों का सहारा लिया जाता है। पुरातात्विक अवशेषों की उपस्थिति या अनुपस्थिति को रिमोट सेंसिंग, यानी जमीन के भीतर देख सकने वाले रेडाॅर की मदद से स्थापित किया जाता है। इसमें इंफ्रारेड और अल्ट्रावाॅयलेट फोटोग्राफी भी सहायक होती है।

उत्खनन के दौरान वस्तुओं को निकालने में विशेषज्ञ की भूमिका होती है जो संबद्ध स्थान के समय निर्धारण को लेकर पहले से उपलब्ध जानकारी देता है। मनुष्य समाज में धातुओं और तकनीकों के विकास का एक कालक्रम है। हमें पता है कि मनुष्य ने कब पत्थर के औजार बनाए, मिट्टी को पकाने का काम कब किया, धातुओं का इस्तेमाल कब से किया, वगैरह। पहली नजर में वस्तु को देखकर उसका समय समझ में आ जाता है। फिर डेटिंग पद्धतियाँ अपनाई जाती हैं। इसमें भी अलग-अलग सामग्री के लिए अलग-अलग पद्धतियाँ हैं। जैविक सामग्री के लिए रेडियो कार्बन डेटिंग का इस्तेमाल होता है, पेड़ों और लकड़ी से जुड़ी सामग्री के लिए डेंड्रोक्रोनोलाॅजी का इस्तेमाल किया जाता है, गैर-जैविक पदार्थों के लिए थर्मोल्युमिनेंस डेटिंग का इस्तेमाल होता है। जीवाश्मों के लिए पोटेशियम आर्गन डेटिंग होती है।

ग्लोबल वाॅर्मिंग क्या है?


.- रमेश शिशु (160/9, फरीदाबाद-121006 हरियाणा)ग्लोबल वार्मिंग का मतलब है पृथ्वी की सतह और महासागरों के तापमान का बढ़ना। धरती की सतह पर हवा के औसत तापमान में 1906 से 2005 तक के 100 वर्षों में 0.74 (+ -) 0.18 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। जलवायु परिवर्तन पर बैठे अंतरशासन पैनल (आईपीसीसी) ने सन 2014 में अपने पाँचवें आँकलन में कहा है कि वैज्ञानिक इस बारे में 95 फीसदी आश्वस्त हैं कि औसतन तापमान में जो वृद्धि हुई है उसका मुख्य कारण एंथ्रोपोजेनिक (मनुष्य निर्मित) ग्रीन हाउस गैसों की अधिक मात्रा के कारण हुआ। उनका यह अनुमान भी है कि इक्कीसवीं सदी में यदि इन गैसों का उत्सर्जन कड़ाई से न्यूनतम स्तर पर रोका जा सका, तब भी इस तापमान में 0.3 से 1.7 डिग्री सेल्सियस तक का इजाफा होगा और यदि उत्सर्जन को नहीं रोका जा सका, तो यह वृद्धि 2.6 से 4.8 डिग्री तक बढ़ सकती है। यों धरती प्राकृतिक कारणों से भी गर्म होती है, ज्वालामुखियों और सूर्य के मिजाज में बदलाव जैसी प्राकृतिक घटनाओं के कारण सन 1950 से पहले वाले औद्योगिक काल तक कम गर्मी के प्रभाव दिखाई देते थे।

सन 1950 के बाद इसके ठंडा होने के अल्प प्रभाव भी दिखाई दिए। वैज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले दिनों में सूखा बढ़ेगा, बाढ़ की घटनाएँ बढ़ेंगी और मौसम का मिजाज बुरी तरह बिगड़ा हुआ दिखेगा। ग्लेशियर पिघल रहे हैं और रेगिस्तान बढ़ रहे हैं। इसके कारण मौसम में भारी बदलाव हो रहा है। कहीं असामान्य बारिश हो रही है, तो कहीं असमय ओले पड़ रहे हैं। कहीं सूखा है, तो कहीं नमी कम नहीं हो रही है।

ग्रीन हाउस गैसों को सी.एफ.सी. या क्लोरो फ्लोरो कार्बन कहते हैं। इनमें कार्बन डाई आॅक्साइड, मीथेन, नाइट्रस आॅक्साइड और भाप शामिल हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि ये गैसें वातावरण में बढ़ती जा रही हैं और इससे ओजोन परत में छेद बन गया है, जिसका दायरा बढ़ता जा रहा है। ओजोन की परत ही सूरज और पृथ्वी के बीच एक कवच की तरह है। इसके पीछे तेज औद्योगीकरण, वन क्षेत्र में कमी, पेट्रोलियम पदार्थों का धुआँ और फ्रिज एयरकंडीशनर आदि का बढ़ता प्रयोग है।

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