हर रोज की तरह आज कछला घाट सूना सूना नहीं था। रविवार की दोपहर से ही वहां दूर दराज से लोगों का आना शुरू हो गया था। शाम होते-होते हजारों की तादाद में लोगों से भरे वाहनों की भीड़ गंगा किनारे आ लगी थी। इससे भी ज्यादा भीड़ थी सोरों में जो अगले दिन के इंतजार में सोरों में ही रात गुजारने की तैयारी में थी। उत्तरप्रदेश के जनपद काशीरामनगर (एटा) स्थित सोरों के पास महज 13 किलोमीटर की दूरी पर ही है गंगा का कछला घाट। सोरों एक छोटा सा कस्बा है।
सोमवती अमावस्या, (22 जून 2009) निश्चित रूप से हिंदू धार्मिक मान्यता के अनुसार यह बहुत ही बडा पर्व था। इस दिन बडी संख्या में लोग गंगा स्नान के लिए सोरों पहुंचते हैं।
पर मेरा पुण्य कमाने से ज्यादा ध्यान इस भीड़ को देखकर मन विचलित हो रहा था कि गंगा जैसी पावन नदी जो पहले ही इतनी प्रदूषित है इतनी भीड़ तो उसे और मैला कर देगी । लेकिन एक आश्चर्य जो नजर आया वह था कि जनता तो बगैर साबुन सर्फ के नहा धो रही थी मगर कछला घाट पर अस्थाई रूप से सजी दुकानों में ऐसा नहीं था।
इन दुकानदारों को सिर्फ अपने मुनाफे कमाने से मतलब था। इसके लिए चाहे गंगा की पवित्रता का और पर्यावरण का कितना भी बड़ा नुकसान क्यों ना हो। इन दुकानों ने शासन प्रशासन की व्यवस्था की कलई भी खोल दी। यहां तमाम योजनाओं को धता बताते प्लास्टिक की थैलियों में बिकते प्रसाद व अन्य सामान से यह अंदाजा लगाना सहज हो गया कि किस प्रकार सरकारी पदों पर आसीन पर्यावरण के हितैशी गंगा का कितना ख्याल रखते हैं। सैकडों की संख्या में मौजूद इन दुकानों को आखिर गंगा घाट पर खोलने की अनुमति किसने दी और क्यों ? फिर इन दुकानों को सरकारी स्तर पर यह ताकीद क्यों नहीं की गई कि वे ऐसी कोई वस्तु नहीं बेचेंगे जो गंगा के प्रदूषण को बढावा देती हों ? जाहिर है कि भ्रष्टाचार इसकी मूल वजह है। इसी भ्रष्टाचार के चलते गंगा एक्शन प्लान अपने प्रथम चरण में 15 साल के दौरान 900 करोड़ की राशि खर्च होने के बावजूद पूरी तरह फेल हो गया था।
गौरतलब है कि हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी तक लगभग 2500 किलोमीटर का रास्ता तय करने वाली गंगा नदी के साथ भारत के लोगों का आध्यात्मिक और भावनात्मक लगाव है। करीब 300 छोटे बड़े शहर और लाखों कंपनियां इसके किनारे स्थित हैं। इनका गंदा पानी गंगा में मिल जाता हैं। इसके अलावा एक अनुमान के मुताबिक 2 करोड से ज्यादा लोग रोज गंगा में नहाते और अन्य धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न करते हैं। इतनी बड़ी मात्रा में गंगा के पानी का प्रयोग नदी के स्वास्थ्य के लिए कितना घातक है। यह आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। सोरों स्थित कछला घाट तो सिर्फ एक छोटी सी तस्वीर भर है।
आशीष अग्रवाल, सचिव
फ्रेण्ड्स ‘सोसायटी फॉर रिहेब्लिटेशन, इलनेस, एजुकेशन, नेचर एण्ड डेवलपमेंट’
सोमवती अमावस्या, (22 जून 2009) निश्चित रूप से हिंदू धार्मिक मान्यता के अनुसार यह बहुत ही बडा पर्व था। इस दिन बडी संख्या में लोग गंगा स्नान के लिए सोरों पहुंचते हैं।
पर मेरा पुण्य कमाने से ज्यादा ध्यान इस भीड़ को देखकर मन विचलित हो रहा था कि गंगा जैसी पावन नदी जो पहले ही इतनी प्रदूषित है इतनी भीड़ तो उसे और मैला कर देगी । लेकिन एक आश्चर्य जो नजर आया वह था कि जनता तो बगैर साबुन सर्फ के नहा धो रही थी मगर कछला घाट पर अस्थाई रूप से सजी दुकानों में ऐसा नहीं था।
इन दुकानदारों को सिर्फ अपने मुनाफे कमाने से मतलब था। इसके लिए चाहे गंगा की पवित्रता का और पर्यावरण का कितना भी बड़ा नुकसान क्यों ना हो। इन दुकानों ने शासन प्रशासन की व्यवस्था की कलई भी खोल दी। यहां तमाम योजनाओं को धता बताते प्लास्टिक की थैलियों में बिकते प्रसाद व अन्य सामान से यह अंदाजा लगाना सहज हो गया कि किस प्रकार सरकारी पदों पर आसीन पर्यावरण के हितैशी गंगा का कितना ख्याल रखते हैं। सैकडों की संख्या में मौजूद इन दुकानों को आखिर गंगा घाट पर खोलने की अनुमति किसने दी और क्यों ? फिर इन दुकानों को सरकारी स्तर पर यह ताकीद क्यों नहीं की गई कि वे ऐसी कोई वस्तु नहीं बेचेंगे जो गंगा के प्रदूषण को बढावा देती हों ? जाहिर है कि भ्रष्टाचार इसकी मूल वजह है। इसी भ्रष्टाचार के चलते गंगा एक्शन प्लान अपने प्रथम चरण में 15 साल के दौरान 900 करोड़ की राशि खर्च होने के बावजूद पूरी तरह फेल हो गया था।
गौरतलब है कि हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी तक लगभग 2500 किलोमीटर का रास्ता तय करने वाली गंगा नदी के साथ भारत के लोगों का आध्यात्मिक और भावनात्मक लगाव है। करीब 300 छोटे बड़े शहर और लाखों कंपनियां इसके किनारे स्थित हैं। इनका गंदा पानी गंगा में मिल जाता हैं। इसके अलावा एक अनुमान के मुताबिक 2 करोड से ज्यादा लोग रोज गंगा में नहाते और अन्य धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न करते हैं। इतनी बड़ी मात्रा में गंगा के पानी का प्रयोग नदी के स्वास्थ्य के लिए कितना घातक है। यह आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। सोरों स्थित कछला घाट तो सिर्फ एक छोटी सी तस्वीर भर है।
आशीष अग्रवाल, सचिव
फ्रेण्ड्स ‘सोसायटी फॉर रिहेब्लिटेशन, इलनेस, एजुकेशन, नेचर एण्ड डेवलपमेंट’
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