कृषि को विकसित करने के लिये नवीनतम तकनीकों का प्रयोग करने की सख्त जरूरत है। दलहन व तिलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिये नए किसानों और क्षेत्रों की पहचान करनी होगी। कृषि शोध पर जोर देने की बात भी होनी चाहिए जिससे भारत में उच्च कोटि का कृषि अनुसंधान, कृषि प्रसार व कृषि शिक्षा का ढाँचा स्थापित किया जा सके। बिना किसी देरी के कृषि क्षेत्र के चहुँमुखी विकास के लिये योजनाएँ बनाई जानी चाहिए। कृषि उत्पादन मुख्यतः दलहन के उत्पादन को वर्ष 2020 तक 2.4 करोड़ टन तक पहुँचाना होगा जिससे खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ लगातार बढ़ रही जनसंख्या का भरण-पोषण हो सके।
आज सरकार कृषि क्षेत्र पर सबसे ज्यादा ध्यान दे रही है। पिछले दो वर्षों में खाद्यान्नों, दलहनों और तिलहनों की कई उन्नतशील प्रजातियों का विकास किया गया है। इससे देश में गेहूँ, दलहन और तिलहनों की पैदावार में बढ़ोत्तरी होगी। जरूरी चीजों खासकर दलहन और खाद्य तेलों की कीमतों को काबू में रखने के लिये उनका उत्पादन बढ़ाना जरूरी है। सन 2007-08 में देश में 23 करोड़ टन अनाज का उत्पादन हुआ था जो आज बढ़कर 25.27 करोड़ टन हो गया। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2020 तक देश की जनसंख्या के लिये 36 करोड़ टन अनाज की आवश्यकता होगी जोकि एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के ‘हर बूँद ज्यादा फसल’ के नारे के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए जल संरक्षण और उसके सही इस्तेमाल के लिये किसानों को प्रोत्साहित करना चाहिए। भारत में 750 मिमी. से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में वर्षा की अनिश्चितता अधिक रहती है। इन क्षेत्रों में नमी संरक्षण की तकनीकें और उन्नत सस्य विधियाँ अपनाकर उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है। दूसरी तरफ, कृषि की रीढ़ माने जाने वाले प्राकृतिक संसाधनों जैसे मृदा, जल और वायु की मात्रा और गुणवत्ता में लगातार गिरावट होती जा रही है। देश की तेजी से बढ़ती जनसंख्या के लिये खाद्यान्न की आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करना नितांत आवश्यक है। अतः भविष्य में खाद्यान्न आपूर्ति के लिये असरदार कार्य व्यापक तौर पर करने की आवश्यकता है।
उपलब्धियाँ
तिलहन, दलहन, दूध और दुग्ध पदार्थ, फल एवं सब्जियों, आम, केला, गन्ना एवं नारियल आदि की दृष्टि से विश्व में हमारा पहला स्थान है जबकि चावल, सरसों व गेहूँ के मामले में दूसरा स्थान है। कृषि पर सबसे अधिक दबाव बढ़ती जनसंख्या का है। देश के 32.9 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल में से केवल 14.3 करोड़ हेक्टेयर पर खेती की जाती है। जहाँ पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों को बिना नुकसान पहुँचाए उत्पादन व उत्पादकता बढ़ानी होगी। खाद्यान्न का उत्पादन वर्ष 1950 में 5 करोड़ टन था। वर्ष 2010-11 के दौरान देश में 24.15 करोड़ टन खाद्यान्न का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ था जो आज बढ़कर वर्ष 2015-16 में 25.27 करोड़ टन हो गया। वर्ष 2010-11 में देश में 8.59 करोड़ टन गेहूँ का उत्पादन हुआ जबकि वर्ष 2015-16 में 9.35 करोड़ टन का उत्पादन हुआ। इसी प्रकार वर्ष 2010-11 में 9.53 करोड़ टन धान का उत्पादन हुआ था जो वर्ष 2015-16 में बढ़कर 10.37 करोड़ टन हो गया। भारत में वर्ष 2013-14 में दलहन की पैदावार 1.92 करोड़ टन हुई थी जबकि वर्ष 2015-16 में यह 1.73 करोड़ टन रही। वर्ष 2015-16 में तिलहनों का उत्पादन 3.11 करोड़ टन था जोकि वर्ष 2007-08 के उत्पादन 2.97 करोड़ टन से अधिक है। गत 67 वर्षों में आधुनिक कृषि प्रौद्योगिकी जैसे संकर बीज, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक व नवीनतम कृषि यंत्रों की सहायता से खाद्यान्न उत्पादन में कई गुना वृद्धि हुई है।
सरकार ने फसल विविधीकरण पर एक योजना तैयार की है। इसके लिये वर्ष 2013-14 के बजट में 500 करोड़ रुपये का कोष बनाकर फसल विविधता पर राष्ट्रीय मिशन की शुरुआत की गई है। इसके तहत धान-गेहूँ उत्पादक राज्यों में मोटे अनाजों, दलहन, तिलहन, बागवानी और कृषि वानिकी को बढ़ावा दिया जायेगा। इसकी जरूरत लम्बे अरसे से महसूस की जा रही थी। कुछ क्षेत्रों में दलहन, तिलहन, मोटे अनाज व साग-सब्जी की खेती की जायेगी। इससे न केवल भूजल व ऊर्जा की खपत में कमी आएगी, बल्कि धान-गेहूँ की प्रति हेक्टेयर उपज में आ रही गिरावट या स्थिरता को दूर करने में भी मदद मिलेगी। इसके अलावा कई दशकों बाद खेसारी दाल की खेती पर फिर चर्चा शुरू हो गई है। अब भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने इसकी तीन प्रजातियों को हरी झंडी दी है। खेसारी की इन तीनों किस्मों का विकास भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने किया है।
इन किस्मों में नर्वस सिस्टम को नुकसान पहुँचाने वाले तत्वों की मात्रा बहुत कम है। खेसारी दाल को ‘गरीबों की दाल’ भी कहा जाता है। इन्हें रतन, प्रतीक और महातेओरा नाम दिये गये हैं। हाल ही में जैविक खेती को बढ़ावा देने और कृषि रसायनों पर निर्भरता को कम करने के लिये राष्ट्रीय कृषि विकास योजना की शुरुआत की गई है। इससे न केवल उच्च गुणवत्तायुक्त, स्वास्थ्यवर्धक एवं पौष्टिक खाद्य पदार्थों की उपलब्धता बढ़ेगी, बल्कि खेती में उत्पादन लागत कम करने में भी मदद मिलेगी। हाल ही में सिक्किम में जैविक खेती अनुसंधान केंद्र की स्थापना की गई है। खाद्य तेलों की कमी को दूर करने के लिये वैज्ञानिकों ने सरसों की डी एम एच-11 एक नई जीएम किस्म विकसित की है। वैज्ञानिकों का मानना है कि नई जीएम तकनीक से विकसित सरसों की उपज सामान्य सरसों से 20-30 प्रतिशत अधिक होगी।
खाद्यान्न उत्पादन के समक्ष चुनौतियाँ
संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट में कहा जा चुका है कि वर्ष 2050 तक दुनिया की कुल आबादी 9.1 अरब के आँकड़े तक पहुँच सकती है। अभी विश्व की कुल जनसंख्या करीब 6.8 अरब है। जनसंख्या बढ़ने के साथ ही खाद्य पदार्थों की माँग करीब दोगुनी हो जाएगी। यही नहीं, संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुमान के मुताबिक जलवायु परिवर्तन, कृषि योग्य भूमि में कमी, जल संकट आदि के चलते खाद्यान्न उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की सम्भावना है। एक तरफ जनसंख्या बढ़ रही है तो दूसरी तरफ कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल भी घट रहा है। प्रस्तुत लेख में खाद्य सुरक्षा से सम्बन्धित कुछ महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का उल्लेख किया गया है-
भंडारण की समस्या
यूएन हंगर रिपोर्ट-2015 के अनुसार दुनियाभर में कुल उत्पादन का एक तिहाई अनाज विभिन्न कारणों से नष्ट हो जाता है। खाद्य पदार्थों की बर्बादी के कारण सभी को भरपेट भोजन नहीं मिल पाता है। साथ ही इससे खाद्य पदार्थों की कीमतें भी बढ़ जाती हैं। अंततः इसका अर्थव्यवस्था पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है। साथ ही यह पर्यावरण के लिये भी हानिकारक है। बचे हुए सड़े-गले खाद्य पदार्थों से बने लैंडफिल से ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा मिलता है क्योंकि इससे काफी मात्रा में मिथेन गैस बनती है जो पर्यावरण के लिये हानिकारक है। हमारे देश में पैदावार के स्तर पर ही लगभग 40 प्रतिशत खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है जिसका प्रमुख कारण यातायात के साधनों की कमी, खराब सड़कें, पैकेजिंग व भंडारण जैसी तकनीकी समस्याएँ हैं। भारत जैसे देश में वार्षिक रूप से 22 से 23 करोड़ टन अनाज की जरूरत पड़ती है।
हमारे देश में अनाज भंडारण की समस्या गम्भीर चिंता का विषय है। हर वर्ष हजारों टन अनाज भंडारण की उचित व्यवस्था न होने के कारण सड़कर नष्ट हो जाता है। यह बर्बाद खाद्य सामग्री दुनिया में भुखमरी के शिकार लोगों से छह गुना अधिक लोगों के पेट की आग बुझा सकती है। किसी भी परिस्थिति में गोदामों में पड़ा अनाज खराब नहीं होना चाहिए। अतः भुखमरी और कुपोषण जैसी विश्वव्यापी समस्याओं से निजात पाने के लिये भविष्य में अनाज भंडारण की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए। किसानों के पास अपने माल को स्टोर करने की क्षमता नहीं है। फसल के मौसम में किसान अपने फसल उत्पाद औने-पौने दामों में बेचने को मजबूर होता है।
शुष्क खेती या बारानी खेती
हमारे देश की कुल 14.3 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि का लगभग 65 प्रतिशत वर्षा-आधारित तथा बरानी खेती के अंतर्गत आता है। देश में लगभग 95 प्रतिशत ज्वार व बाजरा तथा 90 प्रतिशत मोटे अनाजों का उत्पादन वर्षा-आधारित क्षेत्रों से ही आता है। इसके अलावा 91 प्रतिशत दालों और 85 प्रतिशत तिलहनों की पैदावार भी बरानी क्षेत्रों में होती है। परंतु दुर्भाग्यवश इन बरानी क्षेत्रों से कुल उत्पादन का मात्र 45 प्रतिशत ही प्राप्त होता है। इसका प्रमुख कारण वर्षा का असमय, अल्पवृष्टि या अतिवृष्टि है। साथ ही इन क्षेत्रों में वर्षाजल का सही प्रबंध न होना है। हमारे देश में अधिकांश फसलें वर्षा के भरोसे होती हैं। हमारे देश में वर्षा-आधारित खेती करने योग्य पर्याप्त क्षेत्रफल है। यह क्षेत्र शुष्क खेती या बारानी खेती कहलाता है। इन क्षेत्रों में आधुनिक प्रौद्योगिकियों को अपनाकर पौष्टिक व स्वास्थ्यवर्धक खाद्यान्न उत्पन्न किया जा सकता है। इन क्षेत्रों में थोड़ी वर्षा और पर्याप्त प्राकृतिक संसाधन प्रकृति की ओर से दिया गया निःशुल्क उपहार है। देश में बहुत बड़ा क्षेत्र सूखाग्रस्त है जो कुल खाद्यान्न उत्पादन में लगभग 44 प्रतिशत योगदान करता है। इसके साथ-साथ 40 प्रतिशत मानव एवं 60 प्रतिशत पशुपालन में सहयोग करता है।
कृषि योग्य भूमि का घटता क्षेत्रफल
स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर आज तक हमारा खाद्यान्न उत्पादन पाँच गुना हो गया है जबकि कृषि भूमि का क्षेत्र घटा है। वर्तमान परिवेश में बढ़ते शहरीकरण, औद्योगिकीकरण और आधुनिकीकरण की वजह से कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल दिनों-दिन घटता जा रहा है। वर्ष 1951 में प्रति व्यक्ति भूमि 0.46 हेक्टेयर थी जो 1992-93 में घटकर 0.19 हेक्टेयर हो गई। वह वर्ष 2001-02 तक घटकर 0.16 हेक्टेयर रह गई है। आज प्रति व्यक्ति कृषि योग्य भूमि 0.46 हेक्टेयर (1950-51) से घटकर 0.14 हेक्टेयर (2011-12) रह गई है जिसका मुख्य कारण पिछले तीन दशकों में गाँवों की लगभग 20 लाख हेक्टेयर जमीन शहरों की चपेट में आ गई है जिसका सीधा प्रभाव खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है। देश में जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है उस गति से खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। देश की बढ़ती आबादी की खाद्यान्न आपूर्ति के लिये प्रति इकाई क्षेत्र कृषि भूमि की उत्पादकता बढ़ाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। इस सम्बन्ध में खाद्यान्नों और तिलहनों की उत्पादकता बढ़ाने में नवीनतम तकनीक, जैव प्रौद्योगिकी और सूचना प्रौद्योगिकी की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
मृदा स्वास्थ्य एवं उपजाऊपन में कमी
पिछले कई वर्षों से फसलों की उत्पादकता स्थिर है अथवा घट रही है जिसका प्रमुख कारण कृषि भूमि का बिगड़ता स्वास्थ्य व घटता उपजाऊपन है। सघन फसल प्रणाली के कारण मृदा का अनुचित व अत्यधिक दोहन किया जा रहा है जिस वजह से मृदा में अनेक समस्याएँ आ रही हैं। साथ ही विभिन्न प्रकार के उर्वरकों के अत्यधिक व असंतुलित प्रयोग के कारण मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट आई है जो हम सबके लिये चिंता का विषय है। मृदा एक अति महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है। खेती का मूल ही मिट्टी एवं पानी है। इन दोनों का योग अच्छे फसल उत्पादन की गारंटी देता है। परंतु दोषपूर्ण कृषि क्रियाओं के कारण भूमि के स्वास्थ्य एवं उपजाऊपन में कमी सामने आ रही है। दोहन के मुकाबले आपूर्ति के अभाव में पोषक तत्वों की जमीन में कमी होती जा रही है। जमीन में सल्फर, जिंक, बोरॉन व आयरन आदि सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी होती जा रही है। कृषकों में ज्ञान की कमी और अपर्याप्त कृषि प्रसार से यह समस्या और भी गम्भीर होती जा रही है।
भुखमरी और कुपोषण की समस्या
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की 85 करोड़ से अधिक आबादी भुखमरी, बीमारी और कुपोषण से ग्रस्त है। दुनिया की इस विशाल जनसंख्या को पेटभर भोजन उपलब्ध नहीं है। विश्वभर में भोजन के अभाव में करोड़ों लोग भुखमरी, कुपोषण और भूखजनित बीमारियों से ग्रस्त हो रहे हैं। जबकि यथार्थ यह है कि हम पहले से कहीं अधिक अनाज पैदा कर रहे हैं। आज विश्व आबादी का एक बड़ा हिस्सा भुखमरी के साथ-साथ सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे जिंक, आयरन, विटामिन ए और आयोडीन की कमी से ग्रसित हो रहा है। भारत में हर वर्ष लाखों नवजात बच्चों की मौत हो जाती है जिसकी सबसे बड़ी वजह भुखमरी व कुपोषण है। भारत में 47-48 प्रतिशत बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं। विकासशील देशों के ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2016 के कुल 118 देशों की सूची में भारत 97वें स्थान पर है। इस इंडेक्स से पता चलता है कि अलग-अलग देशों में लोगों को कितना और कैसा भोजन मिलता है। कुपोषण के कारण दुनिया में स्वास्थ्य और विकास की हर चुनौती और गम्भीर हो जाती है।
जलवायु परिवर्तन
आज खाद्य सुरक्षा के समक्ष विश्व जलवायु परिवर्तन जैसी गम्भीर समस्या है। विश्व जलवायु परिवर्तन के कारण प्रकृति में बदलाव आ रहा है जिसके परिणामस्वरूप फसल उत्पादन सम्बन्धी, मानव स्वास्थ्य सम्बन्धी और मौसम की विषमताएँ जैसी समस्याएँ सामने आ रही हैं। विश्व जलवायु परिवर्तन के कारण मानव, पेड़-पौधों व जीव-जंतुओं का विकास और वृद्धि प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होती हैं। साथ ही ग्लोबल वार्मिंग के कारण कहीं भारी वर्षा तो कहीं सूखा, कहीं लू तो कहीं ठंड, कहीं बर्फीले ग्लेशियर पिघल रहे हैं। जलवायु परिवर्तन से फसल चक्र भी अनियमित हो जाएगा। इससे कृषि उत्पादन और उत्पादकता भी प्रभावित होगी। जलवायु परिवर्तन के कारण किसानों के सामने अनावृष्टि, बाढ़ व सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं से जूझने के साथ-साथ प्रतिकूल परिस्थितियों में अधिक उपज देने वाली फसलों को उगाने की भी चुनौती से निपटना होगा। इसके लिये किसानों को फसलोत्पादन में व्यापक बदलाव लाने, कृषि प्रणाली में लगातार परिवर्तन करने और विषम परिस्थितियों में अधिक पैदावार देने वाली प्रजातियों को उगाने पर मजबूर होना पड़ेगा।
कृषि रसायनों का बढ़ता प्रयोग
आजकल खाद्य पदार्थों में विषैले कृषि रसायनों की उपस्थिति चिंता का विषय है। कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिये खेती में जहरीले कृषि रसायनों का प्रयोग दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप खाद्य पदार्थों जैसे अनाज, दालों, तिलहनों, मसालों, चारा, सब्जियों, फलों, दूध और दुग्ध पदार्थों में कृषि रसायन अवशेषों की मात्रा बढ़ती जा रही है तो दूसरी तरफ मृदा, जल और वातावरण भी इन विषाक्त रसायनों के अन्धाधुन्ध प्रयोग से दूषित होते जा रहे हैं जिसका अंततः मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) और दूसरी एजेंसियाँ भी सुरक्षित और स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थों की कमी को लेकर चिंतित हैं। आज जहाँ विषाक्त खाद्य पदार्थों के कारण विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ लोगों में पनप रही हैं। वहीं कृषि रसायनों के गलत और अत्यधिक प्रयोग में कृषि भूमि का उपजाऊपन और मृदा स्वास्थ्य भी बिगड़ता जा रहा है। हाल में अमेरिका के बागान मालिकों ने चिंता जताई थी कि उनके लगाये गये लाखों एकड़ बादामों के बाग घाटे का सौदा साबित हो रहे हैं। उनमें फूल तो आते हैं परंतु फलों का निर्माण नहीं हो पाता है। अनेक अनुसंधानों में पाया गया कि बादाम के फूलों का परागण केवल मधुमक्खियों के बल पर होता है। अलग-अलग कारणों से पिछले कई वर्षों में वहाँ मधुमक्खियों की संख्या घटकर बहुत कम कर रह गई। इसी प्रकार पंजाब राज्य के मुक्तसर जिले में किये गये एक सर्वे के अनुसार एक लाख लोगों में से 80 में कैंसर के लक्षण पाये गये जिसका प्रमुख कारण खेतीबाड़ी में कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग होने की सम्भावना है।
सतही व भूमिगत जल का अनुचित प्रयोग
पिछले कई दशकों से खेतीबाड़ी, विकास कार्यों व अन्य उपयोगों में भूगर्भीय जल पर हमारी निर्भरता बढ़ती जा रही है। इस कारण भूमिगत जल के अंधाधुंध दोहन से भूजल स्तर निरंतर तेजी से घटता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी वार्षिक वर्ल्ड वाटर डवलपमेंट रिपोर्ट में कहा है कि पानी उपयोग के तरीकों और प्रबंधन में कमियों के कारण 2030 तक दुनिया को जल संकट का सामना करना पड़ सकता है। फसल उत्पादन का महत्त्वपूर्ण घटक पानी का अत्यधिक दोहन रहा है। सिंचित क्षेत्रों में सतही व भूमिगत जल के अनुचित व अत्यधिक दोहन के कारण जलस्तर निरंतर नीचे गिरता जा रहा है जिसका भूमि के उपजाऊपन व फसलों की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। फसलों में अंधाधुंध सिंचाई व सिंचाई संख्या बढ़ाने से न केवल जल का अपव्यय होता है बल्कि मृदा स्वास्थ्य भी खराब होता है। खेती में पारम्परिक सिंचाई प्रणाली उपयोग में लाई जा रही है, जिसमें खेतों में सिंचाई जल लबालब भर दिया जाता है। इससे काफी सारा पानी इधर-उधर बहकर या जमीन में रिसकर नष्ट हो जाता है जिसका अंततः उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। आज किसान पृथ्वी पर घटते जल-स्तर से खासे परेशान हैं।
जंगली जानवरों द्वारा नुकसान
पिछले कई वर्षों से नील गाय व जंगली सुअर किसानों की फसलों की बर्बादी का कारण बने हुए हैं। इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नील गायों का बहुत जोर है। रात के समय उनके झुंड के झुंड निकलते हैं और कई-कई सौ हेक्टेयर फसल को रातोंरात चट कर जाते हैं। इसकी रोकथाम का कोई उपाय किसानों के पास तो नहीं है। सरकार भी कुछ खास नहीं कर पा रही है। नील गाय नुकसान तो गन्ने के खेतों को भी पहुँचाती हैं, लेकिन उतना नहीं जितना दलहन, तिलहन और अन्य फसलों को। वैज्ञानिकों ने एक ऐसा हर्बल घोल तैयार किया है, जिसके प्रयोग से नील गायें फसलों के नजदीक नहीं आती हैं। इसके अलावा खेतों के चारों ओर करौंदा, जटोफा, तुलसी, मेथा व कुछ अन्य खास किस्म के पौधे लगाने से नील गायें फसलों से दूर रहती हैं। राजस्थान में खास किस्म की वैक्सीन को नील गायों के बंध्याकरण के लिये इस्तेमाल किया जा रहा है।
खाद्यान्न व खाद्य पदार्थों में मिलावट
व्यापारियों के द्वारा मुनाफे के लिये दूसरी दालों में खेसारी दाल की मिलावट की जाती है। बाजार में बड़े पैमाने पर अरहर की दाल में खेसारी दाल की मिलावट की जाती है। इन मिलावटी दालों का मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अरहर और खेसारी दाल का आकार व बनावट लगभग एक समान होता है। इसलिये कालाबाजारी करने वाले खेसारी दाल की मिलावट अरहर की दाल में करते हैं क्योंकि खेसारी दाल एक सस्ती और निम्न गुणवत्ता वाली दाल होती है।
खाद्य प्रसंस्करण की कमी
देश में खाद्य प्रसंस्करण के तकनीकी ज्ञान और दक्षता की कमी है। भारत दुनिया में फलों-सब्जियों का सबसे बड़ा उत्पादक है लेकिन हम मात्र दो प्रतिशत प्रसंस्करण कर पाते हैं। दुनिया के प्रसंस्करण खाद्य बाजार में हमारी हिस्सेदारी मात्रा 1 से 1.5 प्रतिशत है। कारण यह है कि हमारे देश में फल-सब्जियों का औद्योगिकीकरण आज तक नहीं हुआ है। हमारे देश में हर वर्ष 50 हजार करोड़ रुपये की फल-सब्जियाँ नष्ट हो जाती हैं क्योंकि उपयुक्त सुविधाओं के अभाव में हम उन्हें सुरक्षित नहीं रख पाते हैं। इससे छोटे व सीमांत किसान अधिक प्रभावित होते हैं। इसी तरह दूध का सर्वाधिक उत्पादन भारत में होता है परंतु प्रसंस्करण मात्र 15 प्रतिशत ही हो पाता है।
खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिये सुझाव
- किसानों को बीज, उर्वरक, मृदा संरक्षण, डीजल और बिजली बाजार भाव से सस्ती दर पर उपलब्ध कराकर सीधे सब्सिडी का लाभ दिया जाना चाहिए। इस प्रकार खाद्यान्न, दलहनों व तिलहनों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी की जा सकती है। साथ ही किसानों को आसान किस्तों पर कर्ज उपलब्ध कराना होगा।
- किसानों को उनकी फसलों का उचित मूल्य मिलना चाहिए ताकि वे अधिक खाद्यान्न उत्पादित करें और देश को खाद्यान्नों का आयात न करना पड़े। साथ ही साथ कृषि क्षेत्र में नवीनतम तकनीकी एवं संचार व सूचना क्रान्ति से अनाज की उत्पादकता में और भी बढ़ोत्तरी की जा सकती है।
- खाद्यान्न व खाद्य पदार्थों की बर्बादी को लेकर सख्त कायदे-कानून बनाए जाने चाहिए। इस सम्बन्ध में जन-जागरूकता बहुत जरूरी है। इस सम्बन्ध में लोगों को बताना होगा कि एक रोटी को थाली तक पहुँचाने के लिये किसानों को कितना पसीना बहाना पड़ता है। साथ ही इसके उत्पादन में लगे कितने संसाधन जैसे खाद, बीज व पानी बर्बाद होते हैं। यू.एन.ई.पी. ने खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ.ए.ओ.) तथा वेस्ट एंड रिसोर्स एक्शन प्रोग्राम (डब्ल्यू.आर.ए.पी.) जैसे संगठनों के साथ मिलकर ‘खाद्यान्न बचाओ’ नाम से वैश्विक पहल की है।
- जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्र को भी चावल, गेहूँ, दलहन व तिलहन की उत्पादकता बढ़ाने के लिये प्रभावशाली उपाय ढूँढ़ने होंगे। जीएम फसलों की खेती से एकतरफा जहाँ उत्पादन बढ़ेगा वहीं दूसरी तरफ देश में भुखमरी व कुपोषण जैसी समस्याओं को कम करने में मदद मिलेगी। भारतीय परिवेश में जीएम फसलों को उत्पादकता बढ़ाने वाली तकनीकों के रूप में जाना जा रहा है।
- भोजन की समस्या के समाधान हेतु हमें खाद्य प्रसंस्करण पर भी जोर देना होगा।
- कीटनाशकों का प्रयोग कम करने के लिये ऐसे जींस वाले पौधे विकसित किये जाएँ जिनसे कीड़ों को एलर्जी हो।
- शुष्क व अर्धशुष्क क्षेत्रों में फव्वारा सिंचाई विधि का प्रयोग किया जाए। कम पानी वाले क्षेत्रों में ड्रिप सिंचाई प्रणाली अपनाई जाए। इससे पानी के अनावश्यक अपव्यय पर रोक लगेगी।
- फसल उत्पादन से सम्बन्धित किसी भी समस्या के समाधान के लिये किसान कॉल सेंटर की सुविधा सभी राज्यों में होनी चाहिए। इस सेवा के तहत किसान अपनी समस्या दर्ज करा सकते हैं जिनका समाधान 24 घंटे के अंदर कृषि विशेषज्ञों द्वारा उपलब्ध करा दिया जाएगा।
- सिंचित और असिंचित दोनों क्षेत्रों के किसानों को फसल बीमा योजना का लाभ मिलना चाहिए जिससे किसान जोखिम की अवस्था में आत्महत्या करने से बच सकें।
- फसलों के आनुवांशिक रूप से सुधार के बारे में बौद्धिक-स्तर पर ध्यान देना होगा। ऐसे पौधे विकसित किए जाएँ जिसमें रेगिस्तानी पौधों के जींस हों और वह कम-से-कम पानी पर अपना जीवनचक्र पूरा कर सकें।
- किसानों को सघन फसल प्रणाली के अंतर्गत भूमि का नियमित रूप से परीक्षण कराते रहना चाहिए। मृदा में जिन सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी पाई जाए, उनकी आपूर्ति रासायनिक उर्वरकों, वर्मी कम्पोस्ट, गोबर की खाद, जैविक उर्वरकों आदि को देकर कर सकते हैं।
- औद्योगिक इकाइयाँ लगाने के लिये बेकार व परती पड़ी भूमि का उपयोग किया जाना चाहिए। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के अनुसार भारत में 1.8 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य बेकार भूमि है तथा 2.5 करोड़ हेक्टेयर परती भूमि है। इन दोनों को मिलाकर कुल 4.3 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल बनता है। औद्योगिकीकरण के लिये देश में पर्याप्त बेकार व परती भूमि है।
- उपजाऊ भूमि की रक्षा व बचाव के लिये पर्याप्त कानूनी उपाय किये जाने चाहिए जिससे देश में खाद्यान्न की आत्मनिर्भरता सुनिश्चित की जा सके। वन संरक्षण कानून की तर्ज पर कृषि भूमि संरक्षण कानून बनाया जाना चाहिए जिससे देश के किसी भी क्षेत्र से उपजाऊ भूमि का अधिग्रहण न किया जा सके। उपजाऊ भूमि केवल कृषि उद्देश्यों के लिये संरक्षित की जा सके।
- प्रायः देखा गया है कि जिन फसलों का समर्थन मूल्य सरकार तय करती है, उन्हें छोड़कर बाकी फसलों के दाम बिल्कुल अनिश्चित रहते हैं। जिस साल फसल ज्यादा होती है, उस साल कीमतें गिर जाती हैं। जब कीमतें गिरती हैं तब किसान अगले साल उस फसल को कम उगाते हैं और फिर बाजार में उत्पाद कम होने से दाम बढ़ जाते हैं। हर दो-चार वर्षों में यह चक्र पूरा घूम जाता है।
- हमारे देश में औसतन वर्षा 1190 मिलीमीटर होती है। अतः इस वर्षा के जल का समुचित रूप से मृदा में नमी बनाए रखना नितांत आवश्यक है। उन्नत सस्य तकनीकों में भूमि में अधिकतम नमी का संरक्षण, बहते वर्षाजल को रोकना, समय से बुवाई करना, फसल की किस्म और फसल प्रणाली का चुनाव, ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई, पलवार का प्रयोग, जल संग्रह और पुनर्चक्रण, अंतः फसलीकरण, खरपतवार नियंत्रण, खाद एवं उर्वरक प्रबंधन आदि महत्त्वपूर्ण हैं। एक अनुमान के अनुसार यदि इन क्षेत्रों में नवीनतम तकनीकें अपनाई जाएँ तो हम खाद्यान्न उत्पादन के साथ-साथ खाद्य एवं पौष्टिक सुरक्षा में भी सफल हो जाएँगे।
निष्कर्ष
कृषि विशेषज्ञों के अनुसार भविष्य में खाद्य एवं पौष्टिक सुरक्षा के लिये कृषि विविधीकरण, जैविक खेती, बेहतर सिंचाई प्रबंधन तथा कुशल वित्तीय प्रबंधन के सिद्धांतों पर जोर देना होगा जिससे भुखमरी और कुपोषण जैसी गम्भीर समस्याओं से मुक्ति मिल सके।
(लेखक उत्तर प्रदेश सरकार के कृषि विभाग में पादप रक्षा अधिकारी रह चुके हैं।) ईमेल : jpmalik@gmail.com
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