भारत में जल संकट दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है और यह कोई प्राकृतिक समस्या नहीं है, यह मानव निर्मित समस्या है। हमने भूजल के परम्परागत संरक्षण पर कभी ध्यान ही नहीं दिया और उसका लगातार शोषण किया है। अगर हम अब भी नहीं चेते तो यह समस्या इतनी विकराल हो जाएगी कि जीवन ही संकट में पड़ जाएगा। इक्कीसवीं शताब्दी भारत के जल संकट के लिये बहुत ही दुखद चित्रण करती है। इस शताब्दी में भारत का गाँव और शहर, खेती और उद्योग, सिंचित और असिंचित- इन सबके बीच में युद्ध का वातावरण बन रहा है। इसका बड़ा कारण जल संकट है। इस जल संकट के कारण भारत की नदियाँ दूषित, प्रदूषित और शोषित होकर मर जाएँगी। छोटी नदियाँ सूखेंगी, बड़ी नदियाँ गन्दे नाले बनेंगी। उनका पानी पीने और उपयोग के लायक नहीं बचेगा।
भारत का भूजल का भण्डार अभी 72 प्रतिशत खाली हो चुका है और 54 प्रतिशत पानी पीने योग्य नहीं बचा है। हमारा हाल यह है कि हम सतही वर्षाजल को समुद्र में भेज देते हैं और गन्दे जल को नदियों में बहाकर धरती का पेट गन्दे जल से भरते हैं। आज की हमारी 66 प्रतिशत बीमारियाँ नदियों के औद्योगिक और मानव जल के प्रदूषण से फैल रही हैं। इन बीमारियों को रोकना सम्भव नहीं दिखता।
भारत की जल संरचनाओं पर नदी नाले, तालाब, जोहड़, झील सब पर अतिक्रमण हो रहा है। अतिक्रमण को रोकने के लिये भारत सरकार को जल संरचनाओं का सीमांकन, चिन्हीकरण और मानचित्र बनाकर राजपत्रीकरण करा देना चाहिए। दूसरा संकट प्रदूषण है। आज कोई भी नदी, नाला, कोई भी तालाब, जोहड़, झील प्रदूषणमुक्त नहीं हैं। सबमें वर्षाजल के अच्छे पानी में गन्दा पानी मिलता है। इसे रोकने के लिये वर्षाजल और गन्दे जल के लिये अलग-अलग व्यवस्थाएँ करनी पड़ेंगी।
पहले हमारे देश में नदी का पवित्र जल और गाँव-शहर के गन्दे जल को अलग-अलग रखने की व्यवस्था थी। गन्दे जल को शुद्ध करने के लिये त्रिकुंडीय जलशोधन व्यवस्था थी, वह आज खत्म हो गई है। उस व्यवस्था को पुनः अपनाने की जरूरत है और तीसरा जो सबसे बड़ा संकट; वह है- भूजल का शोषण। भूजल के शोषण करने वाली शिक्षा भारत के सभी कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है।
आज एक भी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय ऐसा नहीं है, जिसमें धरती के भूजल के पुनर्भरण की शिक्षा-व्यवस्था हो। यदि हम भारत के भूजल भण्डारों का पुनर्भरण करना चाहते हैं, तो ही हमारी नदियाँ पुनर्जीवित होंगी। नदियों को पुनर्जीवित करने के लिये भूजल के भण्डारों का पुनर्भरण करना होगा। इससे हमारा जल का वाष्पीकरण रुकेगा और हमारे भूजल के भण्डार पुनः जल से भर जाएँगे।
भारत को जलसंकट से मुक्त करने के लिये हमें भूजल पुनर्भरण के कानून की जरूरत है। आज उद्योगों से लेकर जनजीवन चलाने वाली जरूरतों की पूर्ति 54 प्रतिशत भूजल भण्डारों से हो रही है। पहले भारत के जल उद्योग का सारा काम सतही जल से होता था। अभी यह काम भूजल से होने लगा है। यह हमारा सबसे बड़ा जल संकट है।
हमारी जल संरचनाओं के अतिक्रमण, प्रदूषण और भूजल के शोषण का ग्राफ जितना ऊपर जा रहा है उतना ही नीचे जल संकट गहराता जा रहा है। इस गहराते संकट को रोकने के लिये भारत की जल संरचनाओं का शुद्धीकरण, सीमांकन और नए मानचित्र के साथ राजपत्रित करना जरूरी है। यदि हम इस काम को जल्दी से करें, तो अतिक्रमण तुरन्त प्रभाव से कम होने लगेगा।
भूजल भण्डारों को भरने के लिये ऊपर से जोर से चलने वाले पानी को धीमा चलना सिखाएँ और जब वह धीमा चलने लगे, तो उसे पकड़कर धरती के पेट में बैठाएँ, फिर उसको सूरज की नजर नहीं लगेगी और वह उड़ेगा नहीं। उसका वाष्पीकरण नहीं होगा। इस तरह हमारी धरती के भूजल के भण्डार भरे रहेंगे और हम धरती के ऊपर जल संरचनाओं का निर्माण करने के बजाय भूजल के भण्डारों को भर देंगे। इसके साथ-ही-साथ हमें इसके शोषण को रोकने के लिये कानून बनाना पड़ेगा। इस कानून से हमारे पानीदार बनने की अच्छी शुरुआत हो सकती है।
इसके अलावा औद्योगिक गन्दे जल को इस प्रकार से उपयोग करना चाहिए कि हम वर्षाजल को औद्योगिक जल में न मिलने दें। औद्योगिक जल का शुद्धीकरण करके उसका उद्योगों में पुनः उपयोग करें। शहरी और गाँव के गन्दे जल का शुद्धीकरण करके खेती और बागवानी में उपयोग करें। ये आज के जल प्रदूषण से बचने के सरल उपाय हो सकते हैं।
हम यदि भारत के जल-संकट का समाधान करना चाहते हैं तो हम भारत को दोबारा पानीदार बना सकते हैं। भारत के जल संकट का हल सम्भव है, लेकिन इस संकट का समाधान करने के लिये राज, समाज और आमजन सबको अपनी भूमिका समझनी होगी और इस भूमिका को समझकर अपने काम में लगना होगा। यदि हम इस काम में अभी नहीं लगेंगे तो आने वाला समय भारत को बेपानी ही बनाएगा। केवल इतना ही नहीं, बल्कि भारत की सभ्यता, संस्कृति, आर्थिकी, राजनीतिक आजादी सबके लिये खतरा पैदा करेगा।
हमें अपने जल के परम्परागत भारतीय ज्ञान को पुनः पहचानने की जरूरत है। भारतीय ज्ञान की पहचान से जब भी हम देखते हैं तो भारत में नीर, नारी और नदी तीनों का सम्मान था। नीर, जल कभी भी बाजार की वस्तु नहीं था। नारी, हम सबको जन्म देने वाली माँ के रूप में सम्मान पाती थी। नदी हमारे जीवन के सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक प्रवाह की गति को बनाए रखती थी। आज हमारी आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सब गतियों में अवरोध है।
हमारे जीवन की गन्दगी और हमारे जीवन के लालच नदियों के जल का शोषण, प्रदूषण करके अवरोध पैदा कर रहे हैं। हमारी नदियों के प्रवाह में न अविरलता है, न निर्मलता है। इसलिये हमारे भारतीय जीवन के प्रवाह अवरुद्ध से दिखते हैं। सरकारें जरूर कह रही हैं कि हमारी आर्थिकी और जीडीपी बढ़ रही है, लेकिन हमारे भारतीय जीवन में बहुत तरह के अवरोध-सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक सब तरह के अवरोध दिख रहे हैं।
नदी इन अवरोधों को दूर करके जीवन के आनन्दों को प्रवाहित करती थी, अब नदियों का वह आनन्द हमें नहीं मिलता। इसलिये हमारे जीवन का संकट बढ़ रहा है और यह संकट इसलिये बढ़ रहा है, क्योंकि भारत में नीर, नारी और नदी तीनों का सम्मान खो रहा है। हमें उस सम्मान को लौटाना है। अगर हम इन तीनों के सम्मान को वापस ला पाये, तो हम भारत में जल संकट के समाधान का सपना देख सकते हैं।
(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद हैं)
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