जोशीमठ के बारे में जो खबरें आ रही हैं, वे न केवल एक पहाड़ी शहर के जमींदोज होते जाने की हौलनाक दास्तान बयान करती हैं, बल्कि चीन की सीमा के नजदीक होने के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा की ओर से भी चिंतित करने वाली हैं। जोशीमठ में मकानों और सड़कों में दरार आने की खबर आज से नहीं, बल्कि पिछले दो साल से लगातार आ रही है, अलग बात है कि सरकार अब जागी है। समस्या है जोशीमठ की जमीन के निरंतर धंसते जाने की और यह गति इधर इतनी तेजी से होने लगी है कि सड़कों, मकानों और अन्य भूभाग पर भी जगह-जगह बड़ी-बड़ी दरारें पड़ने लगी हैं। इसका कोई तकनीकी निदान फिलहाल संभव नहीं दिख रहा है। मीडिया की खबरों के अनुसार, वहां स्थित सेना और आईटीबीपी के कर्मचारियों और अधिकारियों ने अपने परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर भेजना शुरू कर दिया है।
जोशीमठ का भू-धंसाव हाल की सबसे बड़ी पर्यावरणीय दुर्घटनाओं में से एक है। भू-विशेषज्ञों, भूगर्भ वैज्ञानिकों और पर्यावरण विशेषज्ञों की वैज्ञानिक चेतावनियों को दरकिनार करके पिछले कई सालों से बिना यह सोचे कि यह धरती कितना भार वहन कर पाएगी, जोशीमठ को एक आधुनिक शहर बनाने की होड़ लगी हुई है। बीते कुछ वर्षों में जोशीमठ में जिस तेजी से मानवीय गतिविधियां बढ़ी हैं, होटल, माल्स, चौड़ी-चौड़ी सड़कें और अब चार लेन वाली चर्चित ऑल वेदर रोड का विकास हो रहा है, यह सब भूगर्भ वैज्ञानिकों और पर्यावरण विशेषज्ञों की राय को कूड़ेदान में फेंक कर केवल अपनी जिद और सनक को पूरा करने के लिए किया जा रहा है, इस सनक ने इस त्रासदी को एक तरह से आमंत्रित ही किया है। पगलाए विकास की पिनक में यह मूल सवाल भी नजरंदाज कर दिया गया कि यह क्षेत्र न केवल एक भूकंपीय क्षेत्र है, बल्कि जोशीमठ खुद भी एक ग्लेशियर की जमीन पर बना है, जो हिमालय के कच्चे पहाड़ का एक हिस्सा है। हाल ही के दिनों में लगातार बारिश और बाढ़ के कारण, मकानों की नींवें और कमजोर हुई हैं और धीरे-धीरे उनमें दरारें और बढ़ने लगी हैं। जब धरती का आधार ही कमज़ोर होने लगेगा, तो उस पर टिकी इमारतें और निर्माण तो धंसेंगे ही।
हालाँकि इस प्रकार के भू-धंसाव की स्थिति में भूगर्भ वैज्ञानिक, इस अचानक ट्रिगर के पीछे मुख्य कारण, मेन सेंट्रल थ्रस्ट (MCT-2) का पुनः सक्रिय हो जाना बताते हैं। यह एक भूवैज्ञानिक फॉल्ट है, जहां भारतीय प्लेट ने हिमालयी प्लेट को, यूरेशियन प्लेट के नीचे धकेल दिया है। यह एक बेहद धीमी प्रक्रिया होती है और रुक-रुक कर चलती रहती है। जमीन के अंदर ऐसी गतिविधियां बेहद खामोशी से चलती रहती हैं और उनका कोई प्रत्यक्ष असर ऊपर नही दिखता है। जब कोई गंभीर गतिविधि होती हैं और उसका प्रत्यक्ष असर सामने आता है तो सरकार तमाम पुरानी शोध रिपोर्टों पर पड़ी धूल झाड़ना शुरू कर देती है। अब जबकि यह MCT-2 ज़ोन फिर से सक्रिय हो गया है और जोशीमठ में जमीन के धंसने का कारण बन रहा है तो इस पर बातें होने लगी हैं। पर कोई भी भूवैज्ञानिक यह अनुमान नहीं लगा पा रहा है कि यह थमेगा कब और फिर से सक्रिय होगा कि नही। कुमाऊं विश्वविद्यालय के भूविज्ञान के प्रोफेसर डॉ बहादुर सिंह कोटलिया कहते हैं, ‘हम दो दशकों से सरकारों को चेतावनी दे रहे हैं, लेकिन सरकारें इसे अब तक नज़रअंदाज़ करती आ रही हैं। आप प्रकृति से लड़ नहीं सकते और जीत भी नहीं सकते। जोशीमठ में जिस तरह की भूगर्भीय घटनाएं हो रही हैं, वह केवल जोशीमठ तक ही सीमित नहीं रहेंगी, हो सकता है कि और भी पहाड़ी क्षेत्रों में इस तरह की घटनाएं घटने लगें।’
आज अचानक पचास साल पहले की जोशीमठ पर बनी एक रिपोर्ट की चर्चा होने लगी है, जिसमें साफ-साफ लिखा है कि जोशीमठ एक पुराने भूस्खलन क्षेत्र पर स्थित है और अगर इसी तरह का अनियंत्रित विकास जारी रहा, तो यह शहर डूब भी सकता है। रिपोर्ट ने यह सिफारिश की कि जोशीमठ में निर्माण निषिद्ध किया जाय। उत्तराखंड का जोशीमठ जब यूपी का हिस्सा था, तभी से धीरे-धीरे धंस रहा है। उस समय यह गति बेहद धीमी थी। जब भू-धंसाव के संकेत जगह-जगह मिलने लगे, तब वर्ष 1976 में, गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर एमसी मिश्र की अध्यक्षता में एक 18 सदस्यीय समिति का गठन किया गया। समिति ने जांच पड़ताल करके भूस्खलन की आशंका वाले क्षेत्रों को मजबूत करने के लिए वहां पौधे लगाने और वन-क्षेत्र विकसित करने की सलाह दी थी। 1976 की इस कमेटी में सेना, जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया और अन्य विशेषज्ञ एजेंसियों सहित स्थानीय जनप्रतिनिधि भी शामिल थे। 3 मई 1976 को कमेटी की रिपोर्ट के संबंध में एक बैठक हुई थी, जिसमें भू-धंसाव रोकने के लिए दीर्घकालीन उपाय करने की बात कही गई थी। जाहिर है यह समस्या तब भी थी, हालांकि स्थिति तब इतनी भयावह नहीं थी। 18 सदस्यीय मिश्र कमेटी द्वारा प्रस्तुत वह रिपोर्ट आज एक भविष्यवाणी की तरह लग रही है।
अब तो जैसी खबरें मीडिया में आ रही हैं, उनके अनुसार उत्तराखंड के पवित्र शहर जोशीमठ के निवासी शहर की इमारतों और गलियों में दरारें देखकर चिंतित हो गए हैं, इसे वे ‘धीरे-धीरे डूबता हुआ शहर’ बताने लगे हैं। उत्तराखंड सरकार ने जनविरोध के कारण फ़िलहाल समस्त विकास कार्यों पर रोक लगा दी है। भूगर्भ वैज्ञानिकों और निर्माण विशेषज्ञों ने दस साल पहले ही इस पूरे क्षेत्र में भू-धंसाव की आशंका जता दी थी। इसका कारण भू परत का तेज और व्यापक निर्जलीकरण होना भी है। कटु तथ्य यह है कि शहर डूब रहा है और कोई सुधारात्मक कार्रवाई भी नहीं की जा रही है, अब यह संभव भी नहीं है। स्थानीय लोगों के अनुसार पिछले दस वर्षों में जोशीमठ शहर और उसके आसपास कई नये बहुमंजिले निर्माण विकसित हुए हैं। भू-धंसाव के कारण हाल ही में इनमें से एक बहुमंजिली इमारत झुक भी गई है। यह जानते हुए भी कि यह पूरा क्षेत्र, भूगर्भीय रूप से जोखिम भरा और संवेदनशील है, जोशीमठ और तपोवन के पास विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना सहित अनेक जलविद्युत परियोजनाओं को मंजूरी दे दी गई है।
अगस्त-2022 से उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (यूएसडीएमए) की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, अनियोजित निर्माण के परिणामस्वरूप जोशीमठ की समस्याएं और भी बदतर हो गई हैं, जिसमें भूमि पर पड़ने वाले दबाव और प्रभाव की क्षमता को ध्यान में नहीं रखा गया है। कई अतिरिक्त भवनों का विकास किया गया। नए-नए होटल खुले और बहुमंजिले निर्माण भी किए गए। रिटेनिंग वॉल यानी पहाड़ को थामने के लिए बनाई जाने वाली दीवार बनाकर भूस्खलन की आशंका वाले क्षेत्र को किसी प्रकार रोकने का काम किया तो गया, पर जब भूगर्भीय गतिविधियां बढ़ने लगीं तो ये उपाय भी बेअसर होने लगे। परिणामस्वरूप, अब शहर के कमजोर ढलानों पर दबाव बढ़ने लगा और उसका असर भू-धंसाव के रूप में दिख रहा है।
सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) हेलंग बाईपास के निर्माण के लिए बड़ी मशीनरी लगा रहा है, जिससे बद्रीनाथ मंदिर की यात्रा लगभग 30 किलोमीटर कम हो जाएगी। विशेषज्ञों के अनुसार टेक्टोनिक गतिविधियों के कारण यह अनियंत्रित विकास आगे चलकर और अधिक भूस्खलन का कारण बन सकता है। मिश्र कमेटी ने अपनी 1976 की रिपोर्ट में जोशीमठ के आसपास के क्षेत्र में बड़ी इमारतों के खिलाफ चेतावनी दी थी। इसी रिपोर्ट ने जोशीमठ में डूबने का पहला मामला दर्ज किया गया था, जो भूस्खलन की चपेट में आने वाले क्षेत्र में स्थित है। यह शहर एक पहाड़ी के मध्य ढलान पर स्थित है, जो पश्चिम और पूर्व में कर्मनाशा और ढकनाला धाराओं से तथा दक्षिण और उत्तर में धौलीगंगा और अलकनंदा नदियों से घिरा है। ढकनाला, कर्मनाशा, पातालगंगा, बेलाकुची और गरुण गंगा कुछ ऐसी धाराएँ हैं, जिनकी शुरुआत मध्य हिमालय क्षेत्र में कुंवरी दर्रे के पास से होती है, जबकि अन्य धाराएं अलकनंदा में जाकर मिल जाती हैं। धौलीगंगा की एक सहायक नदी भी है। भूस्खलन से हुए अवरोध के बाद इन छोटी-छोटी नदियों में अचानक आई बाढ़ के कारण ये धाराएँ पहले से ही विनाश फैलाने के लिए जानी जाती हैं। ताजा उपग्रह डेटा से पता चलता है कि पर्वतीय धाराओं ने अपना मार्ग बदल दिया है और अन्य छोटी-छोटी शाखाओं में बढ़ने लगी है, जो पहले से ही कमजोर ढलानों में अस्थिरता के कारण भू-धंसाव को और बढ़ा देती हैं। नदियों के प्रवाह मार्ग का यह महत्वपूर्ण परिवर्तन वर्षा के प्रभाव का प्रमाण है।
जोशीमठ टेक्टोनिक गतिविधियों के कारण बेहद संवेदनशील है, क्योंकि यह एक फॉल्ट लाइन पर है। वैकृत थ्रस्ट (वीटी) नामक एक भूगर्भीय फॉल्ट लाइन, जोशीमठ को लगभग छूती हुई गुजरती है। इसके अतिरिक्त दो प्रमुख भूवैज्ञानिक फॉल्ट लाइन्स मेन सेंट्रल थ्रस्ट (MCT) और पांडुकेश्वर थ्रस्ट (PT) भी अपेक्षाकृत शहर के पास से गुजरती हैं। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा जोशीमठ गांव को एमसीटी पर किसी भी टेक्टोनिक गतिविधि के प्रभाव क्षेत्र के भीतर रखा गया है और इन भूगर्भीय गतिविधियों पर निरंतर भूगर्भ वैज्ञानिक शोध और सर्वे करते रहते हैं। क्योंकि ये सभी फॉल्ट लाइन्स, जोशीमठ शहर के दक्षिण में एक छोटे से शहर हेलंग के नीचे से गुजरती हैं, जो गढ़वाल समूह की चट्टानों के साथ जुड़ा हुआ है।
शहर के डूबने का एक संभावित कारण सतह से पानी का बढ़ता जमीनी रिसाव भी है। ऐसा विशेषज्ञों और यूएसडीएमए द्वारा पहले ही उजागर किया जा चुका है, लेकिन मानवजनित सतह-स्तर की गतिविधियों ने प्राकृतिक जल निकासी प्रणालियों को बाधित कर दिया, जिससे पानी के प्रवाह ने वैकल्पिक जल निकासी मार्गों की तलाश कर नए रास्ते बना लिये। इसका भी असर भू-क्षरण पर पड़ा और अब भी पड़ रहा है। इसके अलावा, जोशीमठ शहर में सीवेज या अपशिष्ट जल निपटान प्रणाली नहीं है। अनियंत्रित जल रिसाव और बेलगाम निर्माण का अत्यधिक बोझ, मिट्टी की भार वहन शक्ति को कमजोर कर देता है। जोशीमठ के सुनील गांव के आसपास के क्षेत्र में यह देखा गया है कि जमीन धंसने के कारण पानी की रेखाएं और चौड़ी होकर एक या कई विवर बना रही हैं।
मुख्य रूप से जोशीमठ के बारे में कमेटी का मंतव्य था कि यह एक प्राचीन भूस्खलन से बने पहाड़ पर स्थित है, जिसका आधार रेत और पत्थर का जमाव है, न कि कोई ठोस चट्टानी भूभाग। अलकनंदा नदी के किनारे और उससे लगी तथा उठती हुई एक पहाड़ी पर शहर स्थित है। अलकनंदा और धौली गंगा नदियों के किनारे अक्सर भूस्खलन होता रहता है।
1976 की मिश्रा समिति की रिपोर्ट ने साफ-साफ बताया था कि जोशीमठ रेत और पत्थर का एक जमाव है, यह शहर बड़ी व ठोस चट्टानों पर नहीं टिका है, इसलिए यह इलाका टाउनशिप के लिए उपयुक्त स्थान नहीं है। ब्लास्टिंग और भारी ट्रैफिक आदि द्वारा उत्पन्न कंपन के कारण भूमि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और भूगर्भीय तरंगों से धरती के खिसकने या धंसने का खतरा बढ़ जाता है। उचित जल निकासी सुविधाओं का अभाव भी भूस्खलन की गति को बढ़ाता है।
पानी को सोखने के लिए बने प्राकृतिक गड्ढे, जो पानी को धीरे-धीरे जमीन में उतरने का मार्ग देते हैं, वे मिट्टी और बोल्डर के बीच बन जाने वाली भूगर्भीय गुहाओं का निर्माण करके धरती का खोखलापन बढ़ा देते हैं। इससे पानी का रिसाव और मिट्टी का क्षरण होने लगता है।
मिश्र कमेटी ने तब सुझाव दिये थे कि भारी निर्माण पर प्रतिबंध लगाया जाय। निर्माण की अनुमति मिट्टी की भार-वहन क्षमता और साइट की स्थिरता की जांच करने के बाद ही दी जानी चाहिए और ढलानों की खुदाई पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
स्रोत - सर्वोदय जगत
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