जो एक सौ बीस दिनों तक उत्तराखण्ड में घूमते रहे

जो एक सौ बीस दिनों तक उत्तराखण्ड में घूमते रहे
जो एक सौ बीस दिनों तक उत्तराखण्ड में घूमते रहे

मण्डल और फाटा में चिपको आन्दोलन शुरू हुआ, ती सुन्दर लाल बहुगुणा को लगा कि यह बात पूरे उत्तराखण्ड में फैलानी चाहिए। अतः स्वामी रामतीर्थ के निर्वाण दिवस के अवसर पर उन्होंने उत्तराखण्ड की पदयात्रा शुरू कर दी। स्वामी रामतीर्थ ने दीपावली के अवसर पर टिहरी के समीप सिमलासू के नीचे भिलंगना नदी में जल-समाधि ले ली थी। सुंदर लाल बहुगुणा ने 25 अक्टूबर सन् 1973 को सिमलासू से अपनी पदयात्रा शुरू की। उनकी पदयात्रा का शुभारम्भ करने के लिए मुनि-की-रेती के शिवानन्द आश्रम के स्वामी चिदानंद पधारे थे। इस अवसर पर उनका कहना था-'भारतीय संस्कृति का महान् सन्देश इस प्रदेश के अन्दर फैलाने की शक्ति मैं 120 दिन की इस यात्रा में देखता हूँ।

सिमलासू से पैदल चलते हुए बहुगुणा अपने गांव मरोड़ा गये। यह गाँव उत्तरकाशी जाने वाली सड़क पर स्थित सिराई के ठीक ऊपर पहाड़ की तलहटी पर बसा हुआ है। अपने सार्वजनिक कामों की शुरूआत करते हुए उन्होंने यह गाँव छोड़ दिया था और भिलंगना घाटी में सिल्यारा गाँव में एक आश्रम बना कर रहने लगे थे। करीब 30 सालों बाद वे पुनः अपने गाँव में दिखायी दिये, तो लोगों का उत्सुक होना स्वाभाविक था। वे गाँव छोड़ने की घटना के बारे में लिखते हैं-'तरुणाई में एक बहुत विचित्र परिस्थिति में मुझे अपने प्यारे गाँव से सम्पर्क तोड़ना पड़ा। हम स्कूल के लड़के गांधी के चेले 'सुमन' के साथी बन गये थे। हमारा गांव राजभक्तों की बावन पीढ़ी के दीवानों का गाँव था। मैं राजद्रोही सुमन का साथी बन गया। जब यह बात वहां पहुँची, तो बड़ी खलबली मच गयी। क्योंकि हमारी रियासत के महाराज केवल शासक मात्र ही नहीं थे, 'बोलांदा बदरीनाथ' भी थे। घर में सबसे छोटा और मां का लाडला बेटा होने पर भी माँ ने मुझे शाप दिया-तुम्हारे पिताजी ने दरबार का नमक खाया है। तुम राजद्रोही बन रहे हो। यह नमक तुम्हें गला देगा। तुम कुष्ठी (कोढ़ी) हो जाओगे। मेरे मामा मुझे बड़ा प्यार करते थे। उन्होंने कहा-यह तो कंस का भांजा पैदा हो गया है। इन सब बातों को सुन कर मैं सन्न रह गया। माँ और मामाओं से कौन बहस करे? मैंने घर जाना कम कर दिया और अन्त में छोड़ ही दिया।'

इसके बाद बहुगुणा धनोल्टी होते हुए जौनपुर की तरफ निकले। इस विकास खण्ड में वे भवान, ख्यारसी, जैद्वार, मौगी, थत्युड़, घोड़ाखुरी, नैनबाग आदि अनेक जगहों पर गये। वे जहाँ-जहाँ जाते, लोग उन्हें उत्सुकता से मिलते और कई लोग पदयात्रा में उनके साथ निकल पड़ते। फिर वे देहरादून जिले के जौनसार-बावर क्षेत्र में गये। यहाँ उनके साथ आनन्द सिंह बिष्ट एवं घनश्याम सैलानी भी घूमे। वे लाखामण्डल के बारे में कहते हैं-'लाखामण्डल कई सदियों तक कला और संस्कृति का केन्द्र रहा। यहाँ के मंदिर की स्थापना के सम्बन्ध में जालन्धर नरेश चन्द्रगुप्त की पत्नी ईश्वरा का शिलालेख मिलता है। आज भी यह पुराने यामुन जनपद (जौनपुर, रवाई और जौनसार-बावर) का मुख्य केन्द्र है। सन् 1930 में जब टिहरी रियासत के वन-बन्दोबस्त के विरुद्ध यमुना घाटी की जनता ने जनान्दोलन किया, तो उसकी गतिविधियों का एक मुख्य केन्द्र लाखामण्डल के नीचे का सेरा चांदा डोखरी था।'

यहाँ से फिर वे उत्तरकाशी जिले में रामासिराई की तरफ बढ़ते हैं। यह चरधान का इलाका है। यहाँ का लाल चावल अत्यधिक स्वादिष्ट होता है। लेकिन वे सिर्फ गाँवों व कस्बों में नहीं जाते, बल्कि प्रकृति के ऐसे रमणीक स्थलों की तरफ भी जाते हैं, जहाँ लोग आमतौर पर नहीं जा पाते। उत्तरकाशी जिले की भागीरथी घाटी में बाड़ागड्डी  के समीप फोल्ड गाँव से करीब आठ किलोमीटर दूर नचिकेता ताल भी एक ऐसा ही स्थल है। नचिकेता ताल से वे जलकूर घाटी में उत्तरते हैं तथा लम्बगाँव के आस-पास के गाँवों में घूमते हैं। इस क्षेत्र से निकल कर वे भिलंगना घाटी में जाते हैं और चिरबटिया होते हुए रुद्रप्रयाग पहुँचते हैं। वहाँ से मयकोटी गाँव होते हुए नागनाथ-पोखरी की तरफ बढ़ते हैं। इस इलाके में वे घिमतोली व मोहनखाल जाते हैं, जहाँ के बारे में उनका कहना है कि पहले यहाँ बहुत घने जंगल रहे होंगे, पर अब उनकी हजामत हो गयी है और अब यह क्षेत्र नंगा दिखाई देता है।

इसके पश्चात् बहुगुणा चमोली जिले के वाण मुन्दोली गाँवों से होकर सुखताल की चोटी पर पहुँचते हैं। वस्तुतः यहाँ एक सूखा हुआ तालाब है, जो बरसात में पानी से भरा रहता होगा। यहाँ कुछ भेड़ें चुग रही थीं और उनके पास ही भेड़पालक लकड़ी जला कर आग ताप रहे थे। सूखताल से वे थराली की तरफ गये तथा वहाँ से ग्वालदम होते हुए कफकोट पहुँचे। फिर कफकोट से पुंगरगाड के किनारे-किनारे चल कर धर्मघर पहुँच गये। धर्मघर अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ दोनों जिलों में बँटा था। इस जगह के बारे में बहुगुणा बताते हैं-'मोटर से यहाँ तक पहुँचने का मार्ग बागेश्वर-थल मोटर मार्ग के बीच कोटमन्या से छह किलोमीटर लम्बी वन-विभाग की मोटर सड़क से है। 2200 मीटर की ऊँचाई पर स्थित धर्मघर से जहाँ एक ओर पंचाचूली, नन्दाकोट और त्रिशूल के हिमालय दिखायी देते हैं, वहाँ आस-पास बॉज के घने जंगल हैं। उत्तराखण्ड की पूरी यात्रा में इतने सुन्दर सघन बाँज के वन कहीं नहीं मिले। ये वन लोहाथल, नगीला, कराला, महरोड़ी व सिमगड़ी गाँव की वन-पंचायतों ने लगाये और पाले-पोसे हैं।

लेकिन धर्मघर से चौकोड़ी और बेरीनाग से होकर वे पिथौरागढ़ पहुँचते हैं, तो उसके बारे में एक अलग ही राय व्यक्त करते हैं-'पिथौरागढ़ और उसके आस-पास के देहात किसी जमाने में एक झील रहे होंगे। झील के सूख जाने से इसमें चौरस खेतों वाले गाँव उभर आये हैं, जिनके बीच से पतली-पतली पानी की रेखायें बहती हैं। किन्तु पहाड़ों की नहीं, सारे देशवासियों के लिए पिथौरागढ़ में दर्शनीय स्थल है उससे दो मील ऊपर स्थित चंडाक । चंडाक का महत्व वहाँ से दूर-दूर तक दिखने वाले सुन्दर दृश्य और उसके आस-पास उगे हुए देवदार के वन के कारण नहीं है, बल्कि वहाँ पर हमारे भौतिक जीवन को सुखी बनाने की कल्पना को साकार रूप देने के लिये बनाये गये 'मित्र निकेतन' के कारण है। प्रख्यात वास्तु शिल्पी लौरी बेकर और उनकी केरली पत्नी डॉ. बेकर ने स्थानीय भवन निर्माण सामग्री से बनाये हुए अपने छोटे और खूबसूरत घर को 'मित्र निकेतन' नाम दिया था। इस भवन को बनाने में उन्होंने न सीमेन्ट का उपयोग किया और न लोहे का। मिट्टी-पत्थर, लकड़ी और स्लेटों से बने इस छोटे घर में एक सुसंस्कृत परिवार के लिए एक ही छत के नीचे रसोई, बैठक, शयन-गृह व स्नानागर की सब सुविधाएँ हैं।'

पिथौरीगढ़ से बहुगुणा गंगोलीहाट गये और वहां से शेराघाट-भैंसिया छाना से उन्होंने सरयू नदी को पार किया तथा धौल-छीना से होकर अल्मोड़ा की तरफ बढ़े। मगर अल्मोड़ा में उनका ध्यान सबसे पुराने साप्ताहिक 'शक्ति' पर टिक गया। उसमें पिंडारी की ऊँचाइयों तक' एक लेखमाला छप रही थी, जिसमें लिखा था-'बस में हिचकोले खाते हुए यात्रा करने से बेहतर मुझे पीठ पर बोझ लादे पैदल चलते हुए यात्रा अच्छी लगी। लगता है आज मानव पर यांत्रिकता पूरी तरह हावी हो रही है। मानव को अनेक बन्धनों और प्राच्य संस्थाओं से अवश्य मुक्त कर दिया है, मगर नये बन्धन भी कम नहीं जन्मे हैं। जैसे मानव टेक्नोलॉजी का दास होने जा रहा है। मेरे दिमाग में हरबर्ट भारकूस का चेहरा उभर आता है और उसकी कृति 'वन डाइम्सनल मैन' भी, जिसमें उसने मार्क्सवाद में कुछ नये परिच्छेद जोड़े हैं और टेक्नोलॉजी को एक वर्ग के शत्रु के रूप में उभरा है। मुझे लगा कि आज मानव की सबसे बड़ी आकांक्षा टेक्नोलॉजी और अति वैज्ञानिकता से मुक्ति है। विश्व में कुछ ही ऐसे मानवीय क्षेत्र रह गये हैं, जहाँ से आधुनिक विज्ञान नहीं जुड़ पाया है।

जब उन्होंने लेखक के नाम पर नज़र दौड़ायी, तो पता चला कि यह चन्द्रशेखर पाठक ने लिखा है। फिर उन्होंने अपने एक पदयात्री की मदद से चन्द्रशेखर पाठक को ढूंढ निकाला। इसके बाद उन्होंने टिहरी से मुझे तथा श्रीनगर से प्रताप शिखर को बुलाया और अल्मोड़ा के 'रैन बसेरा' होटल में शमशेर सिंह बिष्ट, चन्द्रशेखर पाठक आदि युवकों के साथ हमारी बैठक करा दी। हम लोग भी तब पढ़ते थे। बहुगुणा ने सुझाव दिया कि इस साल गर्मियों की छुट्टियों में तुम लोग भी एक पैदल यात्रा करो। इधर नेपाल की सीमा पर पिथौरागढ़ जिले में अस्कोट है और उधर उत्तरकाशी जिले में हिमाचल प्रदेश की सीमा पर आराकोट है। दोनों गाँवों के बीच की यात्रा करो, तो पूरे उत्तराखण्ड की युवा-शक्ति जाग उठेगी। सो हम लोग इस पैदल यात्रा के लिए सहर्ष तैयार हो गये। 25 मई सन् 1974 की तारीख भी तय कर दी गयी। वस्तुतः 25 मई को सामन्तशाही के विरुद्ध आवाज उठाने वाले श्रीदेव सुमन का जन्म-दिन पड़ता था, इसलिए यह तारीख हमने सहर्ष स्वीकार कर ली। 'अस्कोट-आराकोट' पदयात्रा का कार्यक्रम बनाने के बाद हम लोग अपने-अपने विद्यालयों में लौट आये थे और जहाँ-तहाँ इस पदयात्रा के बारे में बताते चले गये। बहुगुणा ने भी अल्मोड़ा से आगे अपनी पदयात्रा जारी रखी तथा उत्तराखण्ड के विभिन्न हिस्सों में घूमते चले गये। इसके बाद वे नैनीताल जिले के विभिन्न क्षेत्रों में गये तथा तराई का हाल-चाल जानते हुए आगे बढ़े। फिर वे पौड़ी गढ़वाल के यमकेश्वर विकासखण्ड से होकर मुनि-की-रेती पहुँचे और 22 फरवरी सन् 1974 को उन्होंने अपनी पैदल यात्रा समाप्त कर दी।

मगर 120 दिनों तक वे जगह-जगह पहाड़ों के जो हालचाल देखते चले गये, उससे चिपको आन्दोलन को सही दिशा में आगे बढ़ाने में मदद मिली। जहाँ-जहाँ उन्होंने बरसात में फिसलते हुए पहाड़ों को देखा तथा उससे होने वाली तबाही का आकलन किया। सो वे लिखते हैं-'बेलाकूची, धराली, पिलखी, गेंवला, मातली आदि सब गाँवों के ऊपर उस वर्ष जंगल कटे थे और गाँवों के लोगों का सीधा एवं स्पष्ट उत्तर है कि इस सर्वनाश का कारण जंगलों का कटना है। दूसरी ओर वन विभाग की ओर से यह दलील दी जाती है कि वन तो वैज्ञानिक आधार पर बनायी गयी कार्य-योजना के अनुसार कटते हैं, इसलिए उससे क्षति नहीं हो सकती, परन्तु वास्तविकता यह है कि जिस समय वनों की कटाई के वैज्ञानिक तखमीने बने होंगे, जो प्राय: 20-30 वर्ष पुराने होते हैं, उस समय यह कल्पना नहीं की जा सकती थी कि वनों पर आबादी व विकास कार्यों के लिए उनके उपयोग का इतना भारी दबाव पड़ेगा। इससे भी अधिक दुःखजनक तथ्य यह है कि वनों की नीलामी की मौजूदा पद्धति के अनुसार वनों को काटने का ठेका सबसे ऊँची बोली बोलने वाले को मिलता है। वनों की बढ़ती हुई आय से आर्थिक संकट के इस युग में सरकारें फूली नहीं समातीं, परन्तु ठेकेदार के लिए वनों का ठेका बस अन्दर प्रवेश करने का बहाना मात्र है।उसके बाद तो चिन्हित पेड़ों को इस तरह काटा जाता है कि उसके साथ और पेड़ भी गिर जायें और जंगल की सफाचट हजामत हो जाती है।

इसी तरह वे जहाँ-तहाँ उत्तराखण्ड के भूले-बिसरे वन श्रमिकों से मिलते हैं और उनकी स्थितियों के बारे में बताते है-'घरों में दीपावली के बाद जाड़े के दिनों काम का इन्तजार करने वाले वन श्रमिक उत्सुकता से अपने गाँव के छोटे ठेकेदार की प्रतीक्षा करते रहते हैं। वे देहरादून से प्राप्त रकम इन मजदूरों में हर एक को अलग-अलग बुलाकर बाँट देते हैं। प्रत्येक मजदूर को उसके दूसरे साथी को दी गई वास्तविक रकम का पता नहीं रहता है।'

फिर ये मजदूर दूर जंगलों में काम करने के लिए ले जाये जाते हैं। कभी-कभी वे अपने घरों से पाँच-छह किलोमीटर दूर तक पहुँच जाते हैं। वन श्रमिकों के काम का एक विचित्र ढंग है। उनके साथ दैनिक के बजाय काम के आधार पर मजदूरी तय की जाती है। जैसे प्रत्येक पेड़ गिराने की डेढ़ रुपया मजदूरी, एक सलीपर बनाने की ढाई से तीन रुपये मजदूरी। इस प्रकार प्रत्येक मजदूर दल कम से कम तीन-तीन के समूह में काम करते हैं छोटे-छोटे ठेकेदार होते हैं। वे श्रमिकों की सुरक्षा के लिए बने हुए कानूनों की परिधि में नहीं आते और इस तरह बड़े मालदार इन मजदूरों के दुर्घटनाग्रस्त होने पर मुआवजा देने से मुक्त रहते हैं।'

अतः वे जगह-जगह चिपको आन्दोलन के बारे में बताते चलते है तथा पहाड़ों में वन सम्पदा की रक्षा के लिए लोगों को आगे आने का आह्वान करते हैं। यद्यपि 1400 किलोमीटर की इस यात्रा में शराबबन्दी, स्त्रीशक्ति जागरण और चिपको आन्दोलन उनके मुख्य विषय थे, परन्तु बीच-बीच में वे यात्रा के अनुभवभी सुनाते जाते थे, जिससे लोग उन्हें उत्सुकता से सुनना चाहते थे। चिपको आन्दोलन के बारे में वे बताते हैं- 'चिपको आन्दोलन वनवासी जनता की माँगों का आर्थिक आन्दोलन मात्र नहीं है, जो माँगों के पूरा होने पर समाप्त हो जाये, बल्कि इसकी मुख्य प्रेरणा तो मनुष्य के पेड़ के साथ प्रेम की भावना में है। मनुष्य-मनुष्य से प्रेम करता है, उसके बाद अपने सम्पर्क में आने वाले प्राणियों से प्रेम करता है और उससे भी एक सीढ़ी ऊपर वनस्पति से प्रेम करता है। वनवासियों के लिए यह स्वाभाविक है, क्योंकि ऐसे पेड़ों को, जिनकी छांह में उन्हें आराम मिलता है या सिर्फ लाभ मिलता है, कई जगह वे नाम से पुकारते हैं। हमारी भौतिक सभ्यता ने पेड़ को एक आर्थिक उपयोग की वस्तुमात्र बना दिया। हम पेड़ को प्राणी मानना भूल गये। जिस दिन मंडल के जंगल में अंगू के पेड़ बचाने के लिए गाँव के लोग पेड़ों पर चिपकने के लिए गये, तो एक ग्रामीण ने अपनी भावनाएँ व्यक्त करते हुए कहा-'अगर जंगल में एक माँ और एक बेटा जा रहे हों, एकाएक सामने बाघ या भालू आ जाये, तो माँ बेटे को बचाने के लिए उसकी छाती से चिपका लेगी और उसके ऊपर लेट जायेगी।

स्रोत - आल  इंडिया पिंगलवाड़ा चैरिटेबल सोसाइटी 

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Post By: Shivendra
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