जीवनदायी पृथ्वी ग्रह

जीवनदायी पृथ्वी ग्रह
जीवनदायी पृथ्वी ग्रह

अंतरिक्ष से बेहद सुंदर दिखाई देने वाला पृथ्वी ग्रह सौर मंडल का तीसरा ग्रह है जो आज से लगभग साढ़े चार अरब वर्ष पहले अस्तित्व में आया। पृथ्वी के जन्म के लाखों-करोड़ों वर्षों के बाद से विभिन्न जटिल प्रक्रियाओं व नाजुक संयोगों के परिणामस्वरूप इस ग्रह पर विभिन्न रूपों में जीवन का विकास हुआ। विकास की इस लंबी प्रक्रिया में विभिन्न कालखण्डों के दौरान लाखों नए-नए जीव प्रकट हुए और अनगिनत जीव विलुप्त भी हुए। आज पृथ्वी पर जीवन अनगिनत रूपों में खिलखिला रहा है। अरबों वर्षों की विकास यात्रा के दौरान पृथ्वी हमेशा से जीवन को पनाह देती रही है, और आज भी दे रही है।

जटिल प्रक्रियाओं ने संवारा है पृथ्वी को

सूरज से तीसरा ग्रह पृथ्वी, ज्ञात सभी ग्रहों में एकमात्र ऐसा ग्रह है जहां जीवन अपने विभिन्न रूपों में मुस्कुरा रहा है। अंतरिक्ष से नीले रंग का दिखाई देने वाला यह जीवित ग्रह अरबों वर्ष पहले अस्तित्व में आया ।पृथ्वी ग्रह की अनोखी संरचना, सूर्य से दूरी एवं अन्य भौतिक कारणों के कारण यहां जीवन के लिए आवश्यक महौल उपलब्ध है। पृथ्वी पर विभिन्न जटिल क्रियाओं के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आए महासागरों और वायुमण्डल ने जीवन को आधार प्रदान कर इस पृथ्वी को जीवनदायी बनाने में सहयोग किया। हवा, पानी और मिट्टी की अनोखे तालमेल ने पृथ्वी को जीवन के रंग-बिरंगे रूपों के समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

कई संयोगों से पनपा जीवन

सूरज से पृथ्वी की दूरी लगभग 14 करोड़ 96 लाख किलोमीटर है। यह दूरी ही पृथ्वी ग्रह को पूरे सौर मंडल में विशिष्ट स्थान देती है। इसी दूरी के कारण यहां पानी से भरे महासागर बने, रेगिस्तान, पठार और सूरज की लगातार मिलती ऊर्जा और पृथ्वी के गर्भ में मौजूद ताप से पृथ्वी पर जीवन के विभिन्न रूप मिलने संभव हुए। पेड़-पौधे सभी वनस्पति, पशु-पक्षी सभी जीव-जंतु, यहां तक कि सूक्ष्मजीव (जो पृथ्वी पर जीवन के लिए अति आवश्यक हैं) में भी ऊर्जा का स्रोत सूर्य की ऊष्मा ही है। कैसा अजब संयोग है कि सूर्य से यह दूरी मिलने के साथ-साथ पृथ्वी एक कोण पर झुकी हुई है, जिस कारण अलग-अलग ऋतुएं, मौसम, जलवायु जीवन की विविधता को विकसित करने में मददगार हुई। इस धरती पर कई जटिल प्रणालियां पूरे सामंजस्य से लगातार कार्य करती रहती हैं, जिस कारण जीवन विभिन्न रंग-रूप में फल-फूल रहा है।

पृथ्वी पर मौजूद जीवनदायी पानी के कारण ही यह ग्रह अंतरिक्ष से नीला दिखाई देता है। सूर्य और पृथ्वी के आपसी सामंजस्य से ही पृथ्वी के आसपास, हवाओं और विभिन्न गैसों का आवरण बना यानी वायुमंडल का निर्माण हुआ । इसी वायुमंडल की चादर ने सूर्य की हानिकारक किरणें जो जीवन को नुकसान पहुंचा सकती हैं, उन्हें पृथ्वी पर पहुंचने न दिया । कितने आश्चर्य की बात है कि हजारों वर्षों से वायुमंडल की विभिन्न परतों में गैसों का स्तर एक ही बना हुआ है। जीवन की शुरूआत भले ही पानी में हुई पर इसी जीवन को बनाए रखने के लिए प्रकृति ने ऐसा पर्यावरण दिया कि हर कठिन परिस्थिति से निपटने में जीवन सक्षम हो सके।

पर्यावरण

पर्यावरण का मतलब है हमारे या किसी वस्तु के आसपास की परिस्थितियों या प्रभावों का जटिल मेल, जिसमें वह वस्तु, व्यक्ति या जीवन स्थित होते हैं या विकसित होते हैं। इन परिस्थितियों द्वारा उनके जीवन या चरित्र में बदलाव आते हैं। पूरे विश्व में आजकल पर्यावरण शब्द का काफी उपयोग किया जा रहा है। कुछ लोग पर्यावरण का मतलब जंगल और पेड़ों तक ही सीमित रखते हैं, तो कुछ जल और वायु प्रदूषण से जुड़े पर्यावरण के पहलुओं को ही अपनाते हैं। आजकल लोग ग्लोबल वार्मिंग यानी भूमण्डलीय तापन मतलब गर्माती धरती और ओजोन के छेद तक पर्यावरण को सीमित कर देते हैं, तो कई परमाणु ऊर्जा एवं बड़े-बड़े बांधों का बहिष्कार कर सौर ऊर्जा और छोटे बांधों को अपनाने की बात कह कर अपना पर्यावरण के प्रति दायित्व पूरा समझ लेते हैं।

हालांकि पर्यावरण का अर्थ समझना आसान है। उदाहरण के लिए हमारे अपने पर्यावरण का अर्थ होगा, हमारे आसपास की हर वह वस्तु (सजीव अथवा निर्जीव) जिसका हम पर या हमारे रहन-सहन पर या हमारे स्वास्थ्य पर एवं हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष निकट या दूर भविष्य में कोई प्रभाव हो सकता है और साथ ही ऐसी हर वस्तु (सजीव अथवा निर्जीव), जिस पर हमारे कारण कोई प्रभाव पड़ सकता है। यानी पर्यावरण में हमारे आसपास की सभी घटनाओं जैसे मौसम, जलवायु आदि शामिल होती है, जिन पर हमारा जीवन निर्भर करता है। पर्यावरण हमारे जीवन से अभिन्न रूप से जुड़ा है। असल में पर्यावरण जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करते हुए हमारी कार्यदक्षता और कुशलता से भी संबंधित होता है। इसलिए पर्यावरण संरक्षण सीधे-सीधे हमारे जीवन को प्रभावित करता है।

सृजनात्मक प्रकृति

सृजनात्मक प्रकृति ने हमें जीवन के लिए आवश्यक माहौल उपलब्ध कराने के साथ ही एक ऐसे पर्यावरण की रचना की जो नाजुक संतुलन पर टिका है। अगर हम वायुमंडल को ही लें, तो संपूर्ण वायुमंडल सबसे उपयुक्त गैसों के अनुपात से बना है जो जीवन के हर रूप एवं उसकी विविधता को संजोए रखने में सक्षम है। वायुमंडल में लगभग 78.08 प्रतिशत नाइट्रोजन, 20.95 प्रतिशत ऑक्सीजन, 0.03 कार्बन डाइऑक्साइड तथा करीब 0.96 प्रतिशत अन्य गैसे हैं। गैसों का यह अनुपात असंख्य प्रकार के जीवों के पनपने के लिए उपयुक्त है। व्यापक तौर पर देखें तो ऑक्सीजन जीवों के लिए अतिआवश्यक है। यह हमारे शरीर की कोशिकाओं को ऊर्जा प्रदान करती है। हम जो खाना खाते हैं, उसे पचाकर हमें ताकत मिलती है । परन्तु अगर इसी ऑक्सीजन का प्रतिशत 21 प्रतिशत से ज्यादा हो जाए तो हमारे शरीर की कोशिकाओं में इस असंतुलन के कारण बहुत विकृतियां आ जाएगी। उनकी सारी क्रियाएं और अभिक्रियाएं गड़बड़ा जाएंगी। इसके साथ-साथ जीवन के लिए जरूरी वनस्पति तथा हाइड्रोकार्बन के अणुओं का भी नाश आरंभ हो जाएगा यानी ऑक्सीजन के वर्तमान स्तर में थोड़ी-सी भी वृद्धि जीवन के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। अब इसी ऑक्सीजन का प्रतिशत 20 से कम हो तो हमें सांस लेने में तकलीफ हो जाएगी। सारी चयापचयी गतिविधियां रुक जाएंगी और ऊर्जा न मिल पाने से जीवन का नामोनिशां मिट जाएगा। इसी तरह नाइट्रोजन का 78. 08 प्रतिशत मात्रा में वायुमंडल में पाया जाना भी सही मालूम होता है क्योंकि इतनी मात्रा में मौजूद नाइट्रोजन गैस वायुमंडल में ऑक्सीजन के हानिकारक प्रभाव तथा जलाने की क्षमता पर सही रोक लगाने में सक्षम होती है।

वायुमंडल में गैसों का यह मौजूदा स्तर, पेड़-पौधों में प्रकाश-संश्लेषण ( फोटोसिंथेसिस) के लिए भी बिल्कुल ठीक है। प्रकृति का नाजुक संतुलन और संयोग यही है कि जीवन की हर रूप जीवन की धारा के अविरल बहाव में मदद कर रहा है, जैसे वनस्पतियों के लिए आवश्यक कार्बन डाइऑक्साइड प्राणियों द्वारा छोड़ी जाती है और पौधे इस कार्बन डाइऑक्साइड को सूरज की रोशनी और पानी की मौजूदगी में प्रकाश-संश्लेषण द्वारा अपने लिए ऊर्जा बनाने के काम में लाते हैं। और इस दौरान कार्बन डाइऑक्साइड को अपने में समा कर ऑक्सीजन बाहर छोड़ते हैं। अब हम सृजनात्मक प्रकृति के उन अनूठे संयोगों की बात करते हैं, जिन्होंने जीवन के लिए जरूरी पर्यावरण संजोया है। पहले बताई गई गैसों की तरह कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर भी बिल्कुल उपयुक्त है। क्योंकि इस अनुपात में यह पृथ्वी की ऊष्मा को अंतरिक्ष में खो जाने से रोकती है यानी कार्बन डाइऑक्साइड जीवन के लिए उपयुक्त तापमान को बनाए रखती है। परन्तु यदि इसी कार्बन डाइऑक्साइड का प्रतिशत अधिक हो गया तो पूरे ग्रह के तापमान में भयानक बढ़ोतरी हो सकती है जो जीवन के लिए अनुकूल नहीं होगा ।

पृथ्वी पर मौजूद पेड़-पौधे इस कार्बन डाइऑक्साइड को निरंतर ऑक्सीजन में बदलते रहते हैं । यह मात्रा लगभग 190 अरब टन ऑक्सीजन प्रति दिन होती है इसी तरह अन्य स्रोतों से पौधों के लिए आवश्यक कार्बन डाइऑक्साइड बनती रहती है। इन सभी गैसों का स्तर विभिन्न परस्पर जटिल प्रक्रियाओं के सहयोग से हमेशा स्थिर बना रहता है और जीवन निरन्तर चलता रहता है।

वायुमंडलीय गैसों के अलावा पृथ्वी का आकार भी जीवन के लिए उपयुक्त है। अगर पृथ्वी का द्रव्यमान थोड़ा कम होता तो उसमें गुरुत्वाकर्षण भी अपर्याप्त रहता और इस कम खिंचावों के कारण पृथ्वी की चादर यानी पूरा वायुमंडल ही अंतरिक्ष में बिखर जाता और अगर यही द्रव्यमान कुछ ज्यादा हो जाता तो सारी गैसें पृथ्वी में ही समा जाती, तो फिर जीवन की सांसे कैसे चलतीं? पृथ्वी पर अगर गुरुत्वाकर्षण ज्यादा होता तो वायुमंडल में अमोनिया और मिथेन की मात्रा अधिक होती। ये गैसें जीवन के लिए घातक हैं। ऐसे ही अगर गुरुत्व बल कम होता तो पृथ्वी पानी ज्यादा खो देती । पिछले 10 हजार वर्षों में असाधारण रूप से पृथ्वी पर पानी की मात्रा ज्यों की त्यों है यानी कुछ पानी बर्फ के रूप में जमा हुआ है, कुछ बादलों के रूप में तो काफी महासागरों में, पर फिर भी पानी की मात्रा में एक बूंद भी कमी नहीं आई है। भूमि पर बरसने वाला पानी पूरे पृथ्वी ग्रह पर होने वाली वर्षा का 40 प्रतिशत होता है और हम सिर्फ 1 या 2 प्रतिशत पानी ही संरक्षित कर पाते हैं बाकी सारा पानी वापस समुद्र में बह जाता है। इसी तरह अगर पृथ्वी की परत ज्यादा मोटी होती तो वह वायुमंडल से ज्यादा ऑक्सीजन सोखती और जीवन फिर संकट में पड़ जाता। अगर यह परत ज्यादा पतली होती तो लगातार ज्वालामुखी फटते रहते और धरती की सतह पर भूगर्भीय गतिविधियां इतनी अधिक होतीं कि भूकम्प आदि के बीच में जीवन का बच पाना असंभव हो जाता ।

ऐसे ही महत्वपूर्ण और नाजुक संतुलन का उदाहरण है, वायुमंडल में ओजोन (O) गैस का स्तर जिसे धरती की छतरी भी कहते हैं। अगर ओजोन की मात्रा वर्तमान के स्तर से ज्यादा होती तो धरती का तापमान बहुत कम होता और अगर ओजोन का स्तर कम होता तो धरती का तापमान बहुत ज्यादा होता और पराबैंगनी किरणें भी धरती की सतह पर ज्यादा टकराती ।
पृथ्वी की सतह के ऊपर वायुमंडलीय गैसों का एक नाजुक संतुलन है और गैसों का यह संतुलन सूरज, पृथ्वी और ऋतुओं की भिन्नता से प्रभावित होता है । वायुमंडल पृथ्वी की मौसम प्रणाली और जलवायु का एक जटिल घटक है । वायुमंडल अपनी विभिन्न परतों से गुजरती सौर किरणों में से हानिकारक ऊष्मा सोख लेता है। जो सौर किरणें प्रदूषण और बदलती आबोहवाः पृथ्वी पर मंडराता संकट धरती तक पहुंचती हैं, वे उसकी सतह से टकराकर वापस ऊपर की ओर आती हैं। इन किरणों में से आवश्यक ऊष्मा को वायुमंडल फिर अपने में समा लेता है और धरती के तापमान को जीवन के अनुकूल बनाए रखने में मदद करता है ।

वायुमंडल में मौजूद ऊष्मा का स्तर कई मौसमी कारकों को प्रभावित करता है, जिसमें वायु की गतिविधियां, तापमान तथा वर्षा शामिल है। महासागरों से नमी का वाष्पन वायुमंडलीय जल वाष्प पैदा करता है और अनुकूल परिस्थितियों में यही वायुमंडल मौजूद जल वाष्प वर्षा, हिमपात, ओलावृष्टि तथा वर्षण के अन्य रूपों में वापस धरती की सतह पर पहुंच जाते हैं। हवा का तापमान और नमी के गुण भी कई कारकों से प्रभावित होते हैं। जैसे रेगिस्तान तथा सागरों का विस्तार, क्षेत्र की स्थलाकृति तथा सौर किरणों की तीव्रता में मौसम के अनुसार भिन्नता। ये सभी कारक लगातार आपसी मेल से हमारी धरती के मौसम को नया स्वरूप और विविधता प्रदान करते हैं।

मानव का दखल

करीब 12 हजार वर्ष पहले, मानव सभ्यता ने नए गुण दिखाने शुरू किए। जब मानव को ज्यादा कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा तो उसने अपनी संरचना में बदलाव के लिए कई पीढ़ियों का इंतजार नहीं किया। बल्कि उसने अपने आसपास के पर्यावरण को अपनी बुद्धि के बल पर बदलना शुरू कर दिया। जिस भूमि पर वह रहता था, उसने उसी भूमि में परिवर्तन करने शुरू कर दिए और जिन पशुओं व वनस्पतियों पर वह निर्भर था उनमें भी रूपांतर करना उसने आरंभ किया ।

मानव सभ्यता के सबसे पहले करीब आया कुत्ता, जो जंगली भेड़ियों का ही परिवर्तित रूप है । भेड़ियों ने मनुष्य द्वारा किए गए शिकार से अपना पेट भरा और धीरे-धीरे मानव के करीब आते गए। हो सकता है कि मनुष्य और भेड़िए दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर हों, जैसे भेड़िये को मानव द्वारा किए शिकार में से अपने भोजन का हिस्सा मिलता था, हो सकता है भेड़िये के शिकार से मनुष्य भी अपना पेट भरते हों।

जिस वक्त मानव पशुओं के अपने अनुरूप ढाल रहा था और उन पर अपना नियंत्रण स्थापित कर रहा था, उसी समय वह पौधों पर भी अपना नियंत्रण करने में लगा था। शुरू में तो मनुष्य ने घास के बीजों को इकट्ठा करना शुरू किया । इसी क्रम में मनुष्य ने जाना कि पके हुए बीज जो पौधे से जुड़े हों, उन्हें जमा करना भूमि पर गिरे हुए बीजों की अपेक्षा ज्यादा आसान है। बस फिर क्या था, पौधों को बोने के लिए मानव ने अपने आसपास की भूमि के पेड़ काटने शुरू किए और झाड़ियों को उखाड़ फेंका, जिससे उसके द्वारा बोए गए पौधों को जगह और सूरज की रोशनी मिल पाए । जंगल के जंगल कटने शुरू हो गए और पर्यावरण पर चली इस पहली कुल्हाड़ी के साथ मानव ने खेती शुरू की और किसान बना ।
पौधे और पशुओं के नए रूप धीरे-धीरे एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता तक फैलने लगे। मध्य पूर्व से यूरोप तक बढ़ते इस चलन ने धीरे-धीरे मानव सभ्यता में बुनियादी परिवर्तन लाने शुरू कर दिए। जैसे-जैसे खेती की पद्धति अपनाई जाती गई, वैसे ही मानव ने भूमि के चेहरे को अपने अनुरूप बदलना शुरू कर दिया। घोड़े, मवेशी, मुर्गी आदि सब पालतू बनते गए। चारागाह बनाए गए तथा फसलों के लिए जंगल काट-काटकर भूमि जुटाई गई।

जंगल काटने के साथ-साथ मनुष्य ने अपने लिए अनुपयोगी एवं खतरनाक जानवरों को मारना शुरू किया। साथ ही साथ ऐसे पौधे भी उखाड़ फेंके जो उसके लिए उपयोगी न थे और इसी तरह प्राणियों और वनस्पतियों की कई प्रजातियां खत्म हो गईं। इसी तरह मानव अन्य पारितंत्रों से प्रजातियां अपने यहां उठा लया, जिससे उसे अलग-अलग किस्में तो मिलीं परन्तु कुछ घुसपैठिए प्रजातियों ने वहां के प्राकृतिक संतुलन को ही बिगाड़ना शुरू कर दिया और कई मूल प्रजातियां नष्ट हो गईं और पर्यावरण का नाश फिर रुका नहीं।

फिर आया औद्योगिकीकरण का दौर, उपनिवेशवाद के काल में राज करने वाले देशों ने प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया। बड़ी-बड़ी फैक्टरियां, संयंत्र आदि स्थापित हुए। यूरोप, अमेरिका जैसे देशों में जीवाश्म ईंधन (फोसिल फ्यूल) की खपत बढ़ती चली गई । प्राकृतिक संसाधनों के धनी देश जैसे भारत, अफ्रीका आदि बड़े और अमीर देशों की जरूरत को पूरा करने के लिए निचोड़े जाने लगे। जहां एक ओर औद्योगिकीकरण की बयार, धन, ऐशो-आराम, रोमांच और जीत का एहसात लाई, वहीं पृथ्वी की हवा में जहर घुलना शुरू हो गया। मानव अपने लालच के आगे धरती की हर पुकार और मांग को अनसुना करता चला गया। उद्योगों मे कोयला, तेल जलता था जिससे वातावरण में सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड आदि गैसों की मात्रा बढ़ने लगी ।

एक ओर जहां औद्योगिक गतिविधियां बढ़ती गईं वहीं मानव की प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन की प्रवृत्ति भी बढ़ी। क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सीएससी) और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली अन्य गैसों का इस्तेमाल बढ़ गया। इन तत्वों के उत्सर्जन बढ़ने के साथ ही पर्यावरण लगतार प्रदूषित होता रहा और इससे हमारी धरती और यहां उपस्थित जैव विविधता के लिए खतरा उत्पन्न हो गया। मानव ने अधिक उपज की चाह में कीटनाशकों, पीड़कनाशियों और रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध उपयोग करके मिट्टी में भी जहर घोला । मानवीय गतिविधियों द्वारा निकले अपशिष्ट को मिट्टी में दबाने से मिट्टी की प्राकृतिक संरचना तहस-नहस होने लगी और अब मिट्टी प्रदूषण का शिकार होकर अपनी शुद्धता खोने लगी। रासायनिक संयंत्रों से निकले विषैले पानी को विभिन्न जल स्रोतों में डालने के कारण जल स्रोत संदूषित हुए जिसका प्रभाव उनसे संबंधि  पारितंत्र पर भी हुआ।

प्रदूषण रूपी संकट का सामना करती पृथ्वी

आज हमारी धरती पर्यावरण से संबंधित विभिन्न संकटों से घिरी है। ऐसी पृथ्वी, जिस पर समस्त मानव जाति का भविष्य निर्भर है वही आज प्रदूषण का संकट झेल रही है। बढ़ते प्रदूषण के कारण पृथ्वी पर उपस्थित सैंकड़ों नाजुक संतुलनों के गड़बड़ाने का परिणाम आज ग्लोबल वार्मिंग यानी वैश्विक तापन के रूप में दिखाई दे रहा है। वैश्विक प्रदूषण के कारण पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन होने से यहां उपस्थित जीवन के सामने अनेक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। आज बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण मौसम में अनियमिकता आई है, जिसके परिणामस्वरूप कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे की स्थिति उत्पन्न हो रही है। बदलती जलवायु ने सुनामी, भूस्खलन और तूफानों के खतरे में वृद्धि की है।
अब सवाल यह उठता है कि पृथ्वी पर मंडरा रहे विभिन्न खतरों का कारण क्या है। अनेक वर्षों तक वैज्ञानिकों, समाजविज्ञानियों व बुद्धिजीवियों ने अपने अध्ययन के उपरांत पृथ्वी पर प्रदूषण की आपदा के लिए मानव को ही दोषी पाया है। आज पृथ्वी पर उपस्थित समस्त जीवों में मानव सबसे श्रेष्ठ जीव है। आज मानव ही इस ग्रह का स्वामी है,
लेकिन आज शायद मानव इस ग्रह का दुश्मन बन रहा है। मानव अपनी गतिविधियों से जाने-अनजाने प्रकृति को नुकसान पहुंचा रहा है।
ज्यों-ज्यों मानव ने सभ्यता की सीढ़िया चढ़ी हैं, त्यों-त्यों उसकी आवश्यकताएं बढ़ीं हैं। अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की खातिर मानव ने जरूरत से अधिक प्राकृतिक संपदा का दोहन करके प्राकृतिक संसाधनों को प्रदूषित कर इस ग्रह के नाजुक संतुलन को ही गड़बड़ा दिया है। लेकिन यह बात सोचने की है कि बेलगाम दोहन के बावजूद आदमी पहले से ज्यादा सुखी नहीं हुआ है, ज्यादा दुखी हो गया है। बढ़ता प्रदूषण मानव के लिए ही खतरा बनता जा रहा है।

प्रकृति से साथ मित्रता

आज पृथ्वी के जीवनदायी स्वरूप को बनाए रखने की सर्वाधिक जिम्मेदारी मानव के कंधों पर ही है। ऐसे में मानव को ऐसे व्यक्ति या उसके विचारों का अनुसरण करने की आवश्यकता है, जिसनें प्रकृति को करीब से जाना-समझा हो और सदैव प्रकृति का सम्मान किया हो। दुनिया में प्रकृति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले लोगों में कुछ भारतीय नाम जैसे महात्मा गांधी, सुंदरलाल बहुगुणा एवं बाबा आम्टे आदि का नाम भी शामिल है। वैसे हमारे पूर्वज शांत और सरल चित्त लोग थे उन्होंने प्रकृति का सदा सम्मान किया। लेकिन पिछले दो सौ वर्षों के दौरान आदमी ने जाने-अनजाने सुजला सुफला धरती को निर्जला और निष्फला बनाने का कार्य किया है। आज उपस्थित बढ़ते प्रदूषण की विषम परिस्थितियों के लिए हमारा भोगवादी नजरिया ही जिम्मेदार है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भोग की बढ़ती प्रवृत्ति ही प्रकृति का दोहन करवाती है इसलिए हमें इससे बचना चाहिए। जल, जमीन और भोजन जैसी अनिवार्य सुविधाओं के लिए हमें प्रकृति का दोहन नहीं बल्कि उसका उपयोग करना चाहिए, तभी यह धरती प्रदूषण मुक्त होकर युगों-युगों तक हमारी आवश्यकताओं को पूरा करती हुई जीवन के विविध रूपों के साथ मुस्कुराती रहेगी।

स्रोत:- प्रदूषण और बदलती आबोहवाः पृथ्वी पर मंडराता संकट, श्री जे.एस. कम्योत्रा, सदस्य सचिव, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, दिल्ली द्वारा प्रकाशित
मुद्रण पर्यवेक्षण और डिजाइन : श्रीमती अनामिका सागर एवं सतीश कुमार

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Post By: Shivendra
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