जिंदगी में जल का महत्व और उसके अवयव (भाग 2)

नदी के विभिन्न अंग
नदी के विभिन्न अंग

जल संग्रह 

आज करीब 140 करोड़ लोग जल की कमी की समस्या से जूझ रहे हैं। 2030 तक विश्व की दो तिहाई जनसंख्या पानी की कमी महसूस करेगी। यह जानकर आश्चर्य होगा कि विकासशील देशों में हर वर्ष 340 करोड़ लोग जल या जल से सम्बधित विकारों के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं। तमिलनाडु अब पहला भारतीय राज्य है जहाँ वर्षा जल संचयन अनिवार्य किया गया। वर्षा जल संचयन का अर्थ बारिश के पानी को एकत्रित करना है। भविष्य में पानी की कमी को पूरा करने के लिए वर्षा जल संचयन सबसे सस्ता तरीका है। वर्षा जल संचयन प्राकृतिक तरीके से भूजल पुनर्भरण का अच्छा स्रोत है। वर्षा जल संचयन के कारण अधिकांश जल को संग्रहित किये जाने के कारण नदियों नालों में प्रवाहित जल की मात्रा कम होती है जिससे बाढ़ की संभावना से बचा जा सकता है तथा यह जल निकायों के प्रदूषण को भी रोकता है। जल को सही तरीके से संग्रह करना बेहद ज़रुरी है, क्योंकि स्वच्छ जल मानव और अन्य जीव-जन्तु के लिये ज़रुरी है। हमारे देश में भी कृषि, उद्योग, जनसंख्या वृद्धि इत्यादि कारणों से जल की मांग काफी बढ़ी है, वहीं इसकी उपलब्धता विभिन्न कारणों से, जैसे वर्षा की असमानता, सूखा, जल स्रोत्रों का अति शोषण इत्यादि के कारण घटी है। इस विशाल देश में अलग-अलग जगहों पर जल में अलग-अलग तरह की अशुद्धियां पायी जाती हैं। कहीं फ्लोराईड अधिक है, कहीं लोहा तो कहीं आर्सेनिक। विषाणु तो हर जगह होते ही हैं। अतः जल का निर्लवणीकरण व शुद्धिकरण शोध का एक महत्वपूर्ण आयाम है तथा इसका औद्योगिकरण एक महत्वपूर्ण उद्देश्य ताकि देश में शुद्ध जल की समस्या का दूरगामी और सतत हल हो सके। पानी के बचाव हेतु गांवों, कस्वों में आपने तालाब जरूर देखे होंगे जिनमें बारिश का पानी आसानी से संग्रहित हो जाता है. दुर्भाग्यवश हम तालाबों को पाटते चले गए। परिणाम सबके सामने है। ऐसे में तालाब की जगह अगर हम अपने-अपने घरों की छत से नीचे गिरने वाले पानी को ही किसी तरह संचयित कर लें तो यह पानी हमारी कई जरूरतों को पूरा कर सकता है। यदि हम पौधों को बाल्टी या मग की मदद से पानी देते हैं, तो हमें अधिक पानी की जरूरत होती है। वाटरिंग कैन का प्रयोग इसमें मददगार होगा। आमतौर पर हम 1-2 कपड़ों को धोने के लिए भी वॉशिंग मशीन का प्रयोग करने से नहीं चूकते, जबकि अगर हम तब तक अपने कपड़े न धोएं, जब अलग-अलग तरह की अशुद्धियां पायी जाती हैं। कहीं फ्लोराईड अधिक है, कहीं लोहा तो कहीं आर्सेनिक। विषाणु तो हर जगह होते ही हैं। अतः जल का निर्लवणीकरण व शुद्धिकरण शोध का एक महत्वपूर्ण आयाम है तथा इसका औद्योगिकरण एक महत्वपूर्ण उद्देश्य ताकि देश में शुद्ध जल की समस्या का दूरगामी और सतत हल हो सके। पानी के बचाव हेतु गांवों, कस्वों में आपने तालाब जरूर देखे होंगे जिनमें बारिश का पानी आसानी से संग्रहित हो जाता है. दुर्भाग्यवश हम तालाबों को पाटते चले गए। परिणाम सबके सामने है। ऐसे में तालाब की जगह अगर हम अपने-अपने घरों की छत से नीचे गिरने वाले पानी को ही किसी तरह संचयित कर लें तो यह पानी हमारी कई जरूरतों को पूरा कर सकता है। यदि हम पौधों को बाल्टी या मग की मदद से पानी देते हैं, तो हमें अधिक पानी की जरूरत होती है। वाटरिंग कैन का प्रयोग इसमें मददगार होगा। आमतौर पर हम 1-2 कपड़ों को धोने के लिए भी वॉशिंग मशीन का प्रयोग करने से नहीं चूकते, जबकि अगर हम तब तक अपने कपड़े न धोएं, जब  तक वाशिंग मशीन पूरी तरह से भरी न हो। पानी बचाने की दिशा में, पानी के मीटर की निगरानी करना और ट्रैकिंग उपयोग, वाटर सेंस लेबल और अन्य उच्च दक्षता वाले टॉयलेट जुड़नार स्थापित करना, सिंगल-पास कूलिंग को खत्म करना, कूलिंग टॉवर दक्षता का अनुकूलन करने, लैंडस्केप सिंचाई को कम करने या खत्म करने से पानी को बरबाद होने से रोका जा सकता है, यह पानी बचाने की दिशा में एक बड़ा कदम है। पानी संग्रह करने से पहले, अपने परिवार की जरुरतों और आदतों का खयाल होना चाहिए। आपको यह भी निर्णय लेना होगा कि आप घर के पानी का प्रयोग करें (नल का या कुंए का पानी) या बाज़ार से पानी के कैन खरीदकर खाना बनाने और पीने के लिये प्रयोग करें। जल संग्रहण हेतु बनाये गये कुओं, तालाव आदि की सफाई रखें। भारत की पारंपरिक जल संचयन संरचनाओं को बनाए रखने में भी रुचि की कमी जल संकट का मुख्य कारण है। प्राचीन भारत में अच्छी तरह से प्रबंधित कुएँ और नहर प्रणालियाँ, करेज, बावली, वाव आदि थीं। आज हमें स्थानीय स्तर  पर स्वदेशी जल संचयन प्रणालियों को पुनर्जीवित और संरक्षित करने की आवश्यकता है। शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में सभी प्रकार के भवनों के लिए वर्षा जल संचयन के गड्डे खोदना अनिवार्य किया जाना चाहिए। गैर-पीने योग्य पानी को ताजे पानी में परिवर्तित करने में सक्षम प्रौद्योगिकियों को विकसित करना चाहिए। जलवायु परिस्थितियों में स्थानिक विविधताओं की वजह से अलग-अलग राज्यों में सूखे का खतरा बना रहता है तथा प्रायः हर वर्ष सूखा पड़ता ही है। पानी की कमी होने से अकाल की स्थिति पैदा हो जाती है। सूखे की वजह से कृषि में किसानों की आमदनी में नुकसान और लोगों को पानी की कमी से घरेलू कामों में काफी परेशानी होती है जिससे कृषि उत्पादन में कमी, घरेलू और औद्योगिक प्रयोग के लिए पानी की कमी, कुपोषण और अन्य  समस्याएं पैदा होती हैं। बाढ़ और सूखे के प्रबंधन के लिए बाढ़ के पानी के अत्यधिक अपवाह को रोकने के लिए अनेक नदियों और नहरों पर बाढ़ नियंत्रण बांध बनाए जाएं तथा जल नीति और विनियमन व जल सुरक्षा योजना को लागू किया जाए। सूखे की निगरानी हेतु मौसम संबंधित जानकारी का पालन करना चाहिए। बाढ़ की रोकयाम के लिए बाढ़ की निगरानी करना जरूरी है जिसके लिए वर्षा जल संग्रहण, जल बेसिन का निर्माण, बाउन्ड्री प्लानिंग, कृत्रिम नदी तट बनाए जाएं। पेय जल हमें तीन स्रोतों से प्राप्त होता हैः भूमिगत जल से, संग्रहित जल से और बहते हुए जल से। भूमिगत जल-स्रोत के लिए कुओं एक सर्वव्यापी साधन है। भूमिगत जल के उपयोग का दूसरा माध्यम तालाब है। पानी की शुद्धता के लिए नलकूप सर्वाधिक सुलभ साधन हैं। भूमिगत जल के उपयोग के लिए बोरिंग कर नलकूप की व्यवस्था की जाती है। नलकूप भूमिगत जल के उपयोग के लिए सर्वाधिक सुलभ और सामान्य साधन है। नलकूप का जल अत्यधिक सुरक्षित और शुद्ध होता है। जब किसी जमीन में ड्रिलिंग कर धातु के नल को इतना धंसा देते हैं कि यह जलस्तर तक पहुँच जाय तो इस प्रकार नलकूप का निर्माण होता है। नलकूप लगाते समय कुछ बातों पर ध्यान देना जरूरी है। नलकूप के निकट शौचालय की टंकी नहीं होनी चाहिए। उसके नजदीक से हो कर गंदा जल बहना नहीं चाहिए।

नलकूप से सेप्टिक टैंक की दूरी कम से कम 12 फीट होनी चाहिए। अगर नलकूप के आसपास गंदे जल की नाली बहती हो तो उसकी दिशा दूसरी ओर मोड़ देनी चाहिए ताकि गंदा पानी रिस कर नलकूप के जलस्रोत के पास नहीं जा पाये। भूमिगत जल के उपयोग के लिए बोरिंग की भी व्यवस्था की जाती है। यह नलकूप की तरह ही है, लेकिन यंत्रचालित व्यवस्था है। इसमें जल को निकालने का काम हाथ से नहीं करके मोटर से किया जाता है। इसके माध्यम से कम समय में अधिक जल का निष्कासन हो जाता है। नलकूप की तरह ही, बोरिंग के आसपास शौचालय के सेप्टिक टैंक अथवा गदे जल की नाली का वहाव नहीं होना चाहिए। नलकूप के बोरवेलों की अत्यधिक ड्रिलिंग से भूजल का दोहन, जल पुनर्भरण की दर से अधिक दर पर हुआ है और भूजल स्तर में गिरावट आई है। इसकी निगरानी के लिए कर्नाटक और केरल जैसे कई राज्यों में भूजल के उपयोग को विनियमित करने और उस पर नजर रखने के लिए कानून और एक वैधानिक प्राधिकरण बनाया गया हैं। कुछ राज्यों ने भूजल कानून अधिनियमों को लागू किया है जो पानी की कमी वाले क्षेत्रों में सरकारी निकायों की अनुमति के बिना थोरवेल की ड्रिलिंग को रोकते हैं। बोरवेल बनाते समय सुरक्षा का अवश्य ध्यान रखें व प्रशासन को सूचना दें। 

खेलते-खेलते कोई बच्चा बोरवेल में ना गिरे अतः काम के बाद उसपर अस्थायी कवर का उपयोग करना चाहिए। हालांकि, कुछ राज्य में लोग अनुमति प्राप्त किए बिना पेयजल हेतु बोरवेल की ड्रिलिंग कर देते हैं। इसलिए, बोरवेल की ड्रिलिंग से पहले प्रशासन की अनुमति लेना चाहिए। बोरवेल की ड्रिलिंग में सामान्यतः नलकूप की गहराई और जल स्तर मापन के परिणाम, पानी के रासायनिक और बैक्टीरियोलॉजिकल विश्लेषण पर रिपोर्ट, और मानक के अनुसार तथा ड्रॉडाउन परीक्षण के परिणाम नलकूप के सुरक्षा व विकास के लिए अति महत्वपूर्ण है। इसमें जल के निकालने का काम हाथ से नहीं करके मोटर से किया जाता है। इसके माध्यम से कम समय में अधिक जल का निष्कासन हो जाता है। नलकूप की तरह ही, बोरिंग के आसपास शौचालय का सेप्टिक टैंक अथवा गंदे जल की नाली का बहाव नहीं होना चाहिए। 

भूमिगत जल का पता करने में उपयोगी विविध उपकरण 

भूमिगत जल का पता लगाने के लिए भूभौतिकीय विज्ञान बहुत ही सटीक पूर्वानुमान देता है। आज इन तरीकों ने शोधकर्ताओं का ध्यान आकर्षित किया है। इन तरीकों में भूकंपीय विधि, विद्युत चुम्बकीय विधि, आदि प्रमुख हैं। इसमें उच्च घनत्व व प्रतिरोधकता से सुरंगों का अग्रिम पता लगाया जाता है। जमीन के नीचे जल क्षेत्रों की उपस्थित्ति तथा वितरण नियंत्रित करने में, विविध जटिलताओं के कारण, देश के विभिन्न भागों में, भूजल की उपलब्धता एवं उपयोग में भारी भिन्नता है। उदाहरण के लिये भारत में गंगीय क्षेत्र और ब्रह्मपुत्र के क्षेत्रों में खनिज, भूखण्ड लीह, सल्फाईड आदि की वैद्युत प्रतिरोधकता उसमें निहित चालक अणु की बहुलता के कारण बहुत ही कम होती है। मूजल का पत्ता लगाने के लिये आकी सूत्र के अनुसार संस्तर की विशुद्ध प्रतिरोधकता का आंकलन किया जाता है। यह मान कर कि भूजल की सामान्य प्रतिरोधकता 10 से 100 ओम मीटर Ohm) तथा संस्तर की सरंध्रता 30 प्रतिशत हो तब संभावित जलयुक्त के सापेक्षिक मान को ही व्यवहार में लाया जाता है। ठोस चट्टान के मध्य न्यूनतम वैद्युत प्रतिरोधकता वाले क्षेत्र तथा कम प्रतिरोधकता वाले लवणीय भूजल क्षेत्र के मध्य अधिक प्रतिरोधकता वाला क्षेत्र परस्पर विसंगति को दर्शाता है जहीं शुद्ध पेय जल की संभावना हो सकती है। अलवणीय जल एवं लवणीय जल, प्रतिरोधकता का अंतर-उपयोग कर जल वाले क्षेत्र को चिन्हित करने में सक्षम है। पानी की भूमिगत प्रारंभिक पहचान के लिए NMR तकनीक, भूमिगत परमाणु चुंबकीय अनुनाद (UNMR) नामक एक नई तकनीक है। परमाणु चुंबकीय अनुनाद (NMR) विधि से सीधे भूमिगत जल का पता लगाया जाता है। इस विधि से भारत के कई क्षेत्रों में भूजल का पता लगाने में अच्छे परिणाम प्राप्त किए हैं। मंगनेटिक रिजोनेन्स पद्धति, सीधे भूजल स्तर का पता लगाने में सक्षम है। इस पद्धति में संस्तरों में निहित जल के अणु में स्थित 'प्रोटोन' को चुम्बकीय क्षेत्र, का प्रहार कर घूर्णता पैदा की जाती है। उच्च चुम्बकीय क्षेत्र घुमावदार तार में एक निश्चित आवृत्ति वाली विद्युत निश्चित समय के लिये प्रवाहित करके उत्पन्न किया जाता है। प्रोटोन पूर्णता से उसी घुमावदार तार में एक द्वितीयक चुम्बकीय क्षेत्र का प्रादुर्भाव होता है और इसकी प्रबलत्ता संस्तर में जल की मात्रा के अनुरुप तथा क्षय समय संस्तर में उपस्थित रंध्रों के आकार के अनुरूप होता है। इस कारण संस्तर की पारगम्यता का आंकलन हो जाता है। मृत्तिका संस्तरों में परिवद्ध जल की बहुलता होती है जिससे जल का प्रवाह नहीं होता है, इस स्थिति में चुम्बकीय कम्पन पद्धति में क्षय समय क्षणिक होता है। इस प्रकार अधिकतर प्रतिक्रिया स्वतंत्र जल से प्राप्त होती है। सरंध्रता का आंकलन इस पद्धति में प्रोटोन द्वारा उत्पन्न द्वितीयक चुम्बकीय क्षेत्र की प्रबलता पर निर्भर करता है। संस्तर की प्रतिरोधकता 10 से 100 जओम मीटर गहराई घुमावदार (लूप) तार में प्राथमिक भूमिगत जल का दोहन चुम्बकीय क्षेत्र पैदा करने वाली विद्युत की प्रबलता पर निर्भर है। अतः विद्युत प्रबलता को बढ़ाकर, भूतल से ही अधस्तल में स्थित विभिन्न संस्तरों का मापन किया जाना संभव है। इसके अलावा मूजल का पता लगाने हेतु नई विधि NMR सबसे सरल, एक-आयामी अनुप्रयोग है। एनएमआर को चुंबकीय अनुनाद ध्वनि (MRS) कहा जाता है। जलभूभौतिकीय विधियों में, NMR अनुप्रयोग एक लाभदायक विधि है जिसमें उपसतह में पानी का पता, सीधे पानी के अणुओं के गुणों की जांच करके लगाया जाता है। अन्य सभी भूभौतिकीय विधियों में भौतिक मात्रा जैसे विद्युत चालकता या पारगम्यता को मापकर पानी की संभावना का पता लगाया जाता है। ये चट्टान के अन्य गुणों के कारण पानी की मात्रा पर निर्भर करती हैं। जलभूभौतिकीय NMR अनुप्रयोगों में पानी की गहराई का पता, एक पल्स के आकार के प्रत्यावर्ती धारा ट्रांसमीटर पर प्रोटॉन की लार्मोफ्रीक्वेंसी के द्वारा लगाया जाता है। उपसतह में परिणामी विद्युत चुम्बकीय (EM) क्षेत्र प्रोटॉन स्पिन को उत्तेजित करता है व इंटरफेरेंस से पानी के अणुओं के प्रोटॉन इंटरफेरेंस से पानी के अणुओं के प्रोटॉन स्पिन होते हैं। हालांकि, शुष्क डायल वॉटर मीटर से चुंबक को हटाने के बाद, इसका संकेत अपने सही माप वर्ग पर वापस आ जाता है। इंटरफेरेंस प्रक्रिया पूरी तरह से प्रतिवर्ती है। चुंबक पानी के मीटर को नुकसान नहीं पहुंचाता है। टीईएम विधि के समान, ट्रांसमीटर और रिसीवर दोनों के रूप में उपयोग किए जाने वाले क्षेत्र में सतह पर एक केवल लूप बिछाया जाता है। अधिकतम प्रवेश गहराई लगभग सतह लूप के व्यास से मेल खाती है जो आमतौर पर 10 से 150 मीटर का होता है। हालांकि, जिस गहराई तक वास्तव में पहुंचा जा सकता है वह उपसतह की विद्युत चालकता पर निर्भर करती है। सतह के NMR डेटा को सही ढंग से जानने के लिए विद्युत चुम्बकीय माप जैसे कि जलविद्युत या TEM का पता करना आवश्यक है। पानी की भूमिगत प्रारंभिक पहचान के लिए लागू NMR तकनीक की भूमिगत परमाणु चुंबकीय अनुनाद (UNMR) नामक एक नई शाखा उभर कर सामने आई है। इसका उद्देश्य केवल बड़ी मात्रा में पानी का अनुमान लगाना नहीं है बल्कि UNMR विधि विभिन्न दूरी पर पानी की मात्रा का विश्वसनीय अनुमान देती है। इस प्रकार, आपदा में सूखे की स्थिति में पानी की भविष्यवाणी करने के लिए यूएनएमआर पद्धति एक महत्वपूर्ण विधि है। अतः इससे भूमिगत जल की खोज की जाती है। इससे होने वाली प्रक्रियाओं की बेहतर समझ के लिए भूभौतिकीय और भू-रासायनिक जानकारी बहुत ज़रूरी है।

शुद्ध पेय जल उपयोग किये जाने वाले पानी के गुण और स्वास्थ्य के अनुसार यह देखना होगा कि क्यो इसे उबालने की जरूरत है, या पानी का फिल्टर लगाने की आवश्यकता है, या एड्वांस RO वॉटर प्यूरीफायर लगाने की जरूरत है। जल के शुद्धिकरण हेतु विकसित पद्धतियों में रिवर्स ऑस्मोसिस प्रमुख है। यह जल शुद्धिकरण के लिए हर घर में लगा होता है। इस प्रक्रिया में विलयन में घुले हुए विलेय कणों को जिनकी साइज माइक्रोन में होती है। एक पारम्परिक फिल्टर द्वारा हटाया जाता है। समय-समय पर TDS लेवल की जांच की जानी चाहिए अगर TDS लेवल हाई हो तो फिल्टर बदलने की आवश्यकता होती है। प्रदूषण मुक्त पेव जल की उपलब्धता के लिए वस्तुतः इस (रिवर्स ऑसमोसिस) घटना की खोज वैज्ञानिक एर्वे नौलेट ने 1748 में की जिसमें परासरण दाब को अर्धपारगम्य झिल्ली में मापा गया। यह देखा गया कि विलायक उच्च सांद्रण से निम्न सांद्रण की ओर विस्थापित हो गए। इस प्रक्रिया द्वारा विलयन में घुले हुए विलेय कणों को जिनका आकार माइक्रॉन (1µm = 10-m) में होता है एक पारम्परिक फिल्टर द्वारा हटाया जा सकता है। जिसका उपयोग समुद्री जल को पीने योग्य बनाने, शीतलन एवं प्रशीतन के लिए किया जा सकता है। यहाँ झिल्ली काफी मायने रखती है जो अति सूक्ष्म कणों एवं निलंबित ठोस पदार्थ (colloidial particle) को जिनका आकार 3-6 mm है अलग करती है। इस प्रक्रिया में घुले हुए पदार्थ भी अलग होते हैं। झिल्ली द्वारा सूक्ष्म जैविक पदार्थ यथा बैक्टीरिया को भी जो शरीर के लिए नुकसानदेह हैं को पानी में घुले हुए आयनिक रूप में रिवर्स ऑस्मोसिस द्वारा अलग किया जा सकता है। प्रदूषण मुक्त पेय जल की उपलब्धता हमारे सामने प्रश्न चिन्ह की तरह है। दैनिक कार्यों से लेकर कृषि में और विविध उद्देश्यों में जल का उपयोग होता है। जल मानव जीवन के लिये महत्वपूर्ण संसाधन है। आशा करते हैं कि हम अपने दैनिक कार्यों को और उत्तम बनायेंगे एवं देश को पीने के पानी के लिए आत्मनिर्भर बनायेंगे। आशा करते हैं कि उन्नत तकनीक के बल पर प्रदूषित हो चुके जल स्रोत को पुनः स्वच्छ कर सकें। 

संपर्क करेंः संजय गोस्वामी, यमुना जी-13, अणुशक्तिनगर, मुंबई-94

 

 

यह आलेख दो भागों में है - 

1 - जिंदगी में जल का महत्व और उसके अवयव (भाग 1)

2 - जिंदगी में जल का महत्व और उसके अवयव (भाग 2)

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Post By: Kesar Singh
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