हमेशा गांव-गांव का शोर मचाती सरकारों को अब शहरों की भी सुध आ ही गई है। शहरों में कम पड़ती नागरिक सुविधाओं के चलते मुंबई जैसे शहरों से लोगों का मोहभंग हो रहा है, जिसने केंद्र और राज्य सरकारों की आंखें खोल दी हैं। सरकार अब देश के 250 शहरों को झुग्गी-झोपड़ियों से मुक्त करना चाहती है।
पिछले दस साल में मुंबई की आबादी भले ही देश के राष्ट्रीय औसत के अनुरूप न बढ़ी हो पर देश के हर शहर के साथ ऐसा नहीं हुआ है। देश की शहरी आबादी करीब 32 फीसदी की दर से बढ़ रही है जबकि ग्रामीण आबादी की वृद्धि दर महज 12 फीसदी के करीब ही है। शहरों पर आबादी का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। दिल्ली, बेंगलुरु और चंडीगढ़ जैसे उंगलियों पर गिने जा सकने लायक शहरों को छोड़ दें तो देश के अधिकतर शहर बढ़ती आबादी के बोझ तले न सिर्फ दबते जा रहे हैं बल्कि ज्यादातर शहरों के आधारभूत ढांचे ने जनसंख्या दबाव के आगे जवाब भी दे दिया है। पिछले दिनों उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने देश के मौजूदा हालात में शहरीकरण, खासकर शहरों की स्थानीय व्यवस्था और प्रशासन को लेकर चिंता व्यक्त की। उन्होंने माना कि इस मसले पर राष्ट्रीय स्तर की बहस की जरूरत है। मुंबई के मेयर रह चुके वरिष्ठ कांग्रेसी नेता यूसुफ मेहर अली की याद में आयोजित एक कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति ने अपनी यह चिंता जाहिर कर इस मसले की गंभीरता साबित कर दी है। इस दौरान उन्होंने यह भी कहा कि शहरी स्थानीय निकायों यानी नगर पालिकाओं और नगर निगमों को वाजिब अधिकार और आर्थिक संसाधन अब तक उस हिसाब से स्थानांतरित नहीं हो सके हैं, जिसकी बात संविधान के 74वें संशोधन के जरिए की गई थी।
अर्थशास्त्र कहता है कि किसी भी देश में शहरी आबादी का बढ़ना देश के विकास का सूचक है। यही शास्त्र यह भी कहता है कि खेती पर जीडीपी जितना कम निर्भर होगी, उतना ही देश विकसित होता माना जाएगा। जनगणना के प्राथमिक अनुमानों में शहरी आबादी की बढ़ती तादाद देख सरकार खुश है, उसने यह मान लिया है कि ऐसा देश की तरक्की का सूचक है और देश विकसित देशों की कतार में आज नहीं तो कल खड़ा हो ही जाएगा। देश के विकास के लिए पांच-पांच साल की अनोखी योजनाएं बनाने वाले योजना आयोग ने अब देश के सारे शहरों को झुग्गी मुक्त करने की योजना बनाई है और इसे अगले साल से शुरू होने वाली 12वीं पंचवर्षीय से लागू करने का एक खाका भी तैयार कर लिया है। देश में गांव के गांव खाली हो रहे हैं। पिछली पीढ़ी के भी गिनती के लोग ही गांवों में रहना चाहते हैं और नई पीढ़ी तो पहला मौका पाते ही शहर की तरफ निकल भाग रही है। आंकड़े बताते हैं कि देश के शहरों में अगले 30 साल में करीब 30 करोड़ लोग और जुड़ जाएंगे। तब तक देश की आबादी डेढ़ अरब हो चुकी होगी और इसका आधा हिस्सा तब शहरों में रह रहा होगा। सरकारें भले ऊपरी तौर पर गांवों को शिक्षित करने, वहां हर तरह की सुविधाएं मुहैया कराने का दिखावा करती हों पर यह सबको पता है कि गांवों में रोजगार सृजन को लेकर सरकार कितनी गंभीर है! इसकी वजह में फिर वही अर्थशास्त्र है जिसके मुताबिक देश की कुल जीडीपी का 60 फीसदी हिस्सा अब भी शहरों से ही आ रहा है और जितना यह बढ़ेगा उतना ही देश विकसित कहलाएगा। शहरीकरण को मिलती तवज्जो में शिक्षित होती आबादी का भी बड़ा हाथ है और शहरों में मिलने वाले रोजगार का भी।
शहरों में रहने वाली आबादी के मामले में तमिलनाडु सबसे आगे है। राज्य की 48.45 फीसदी आबादी शहरों में रहती है। दूसरे नंबर केरल है, जहां यह प्रतिशत अब 45.23 प्रतिशत शहरी आबादी के साथ तीसरे नंबर पर पहुंच गया है और इसी की वजह से मुंबई में गंदगी बढ़ रही है, आवागमन की दिक्कतें बढ़ रही हैं और टूटी-फूटी सड़कों सहित पूरा शहर बदहाली का रोना रो रहा है। शहरी योजनाएं बनाने में महारत हासिल कर चुके लोग मुंबई को एक ऐसा शहर मान चुके हैं, जिसे तुरंत ऑक्सीजन न दी गई तो इसकी हालत जल्द ही आईसीयू में भर्ती मरीज जैसी हो जाएगी। ट्रैफिक से हांफती सड़कें, लगातार कम होते मजदूरी के अवसर और भ्रष्टाचार के बढ़ते मामले। कमोबेश यही हालत देश के तमाम दूसरे शहरों की भी है। उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर को ही लें तो वहां शहरी विकास सिर्फ चंद कुलीन इलाकों में ही सिमटकर रह गया है।
शहरों में गरीबी और अमीरी की बढ़ती खाई के कारण एक ही शहर में एक तरफ पंच सितारा संस्कृति और दूसरी तरफ झुग्गी-झोपड़ियों के लगातार होते प्रसार की ओर केंद्र सरकार ने भी अब जाकर तवज्जो दी है। अगली पंचवर्षीय योजना में केंद्र सरकार पूरे देश में राष्ट्रीय शहरी जीवनयापन मिशन शुरू करने जा रही है, जिसके जरिए शहरों में रहने वाले गरीबों के लिए सरकार ने कुछ खास योजनाएं तैयार की हैं। इस बारे में आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्री कुमारी शैलजा का कहना है कि शहरों में लोगों के सिर पर छत न होना सबसे बड़ी समस्या है। देश में शहरी गरीबों के लिए करीब 65 लाख घरों की अब भी कमी है, इसमें से 37 लाख घर अकेले महाराष्ट्र में चाहिए।
जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि इस मिशन ने हमें राजीव आवास योजना (आरएवाई) बनाने में काफी मदद की है। यह आवास योजना दरअसल देश को झुग्गी-झोपड़ी मुक्त बनाने का एक सपना है जिसे पूरा करने के लिए सबसे पहले तो झुग्गियों में रहने वालों को उनके कब्जे वाली जमीन का मालिकाना हक देना होगा। इसके बाद केंद्र सरकार की मदद से इन झुग्गियों के पुनर्विकास की योजनाएं शुरू होंगी। यह तभी संभव है जब संबंधित राज्यों की सरकारें इसके लिए अपनी आवासीय नीतियों में आवश्यक फेरबदल करें।
झुग्गी-झोपड़ी मुक्त भारत के लिए पहला कदम
राजीव आवास योजना के जरिए सरकार भारत को झुग्गी-झोपड़ी मुक्त बनाना चाहती है। आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्री कुमारी शैलजा कहती हैं कि यह योजना तभी सफल होगी जब इसे समाज का साथ मिलेगा। शहरों के विकास में इनमें रहने वाले गरीबों के योगदान को भी समझना जरूरी है। झुग्गियों के पुनर्विकास या पुनर्स्थापन की हर योजना पर विरोध में खड़े हो जाने वाले सामाजिक संगठनों को गंभीर होना होगा। ऐसी मुश्किलें मुंबई में सबसे ज्यादा हैं। इसका निदान स्थानीय सांसदों के सहयोग से संभव है। सरकार राजीव आवास योजना के तहत देश के तमाम बड़े शहरों में सस्ते मकान मुहैया कराने की भी महत्वाकांक्षी योजना पर काम कर रही है। समाज के सभी वर्गों के लिए वाजिब दरों पर घर मुहैया कराने की बात चल रही है ताकि शहरों में झुग्गियां बनने की नौबत ही न आए। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप स्कीम की भी बात चल रही है। इसके तहत झुग्गियों में रहने वाले लोगों को सरकारी जमीन पर घर बनाकर बसाया जाएगा। झुग्गियों के पुनर्विकास की लागत का आधा केंद्र सरकार वहन करेगी। झुग्गियों से खाली हुई जमीन बिल्डर विकसित करेंगे। केंद्र सरकार शहरी गरीबों को मकान के लिए आवासीय ऋण पर भी छूट देगी। ईडब्लूएस और एलआईजी मकान खरीदने के लिए पात्र लोगों को गृह कर्ज के ब्याज में पांच फीसदी तक का अनुदान देने की व्यवस्था सरकार करेगी। इसके लिए केंद्र सरकार 1000 करोड़ रुपए का एक प्रारंभिक कोष भी बनाएगी। एक लाख से ज्यादा आबादी वाले देश के करीब 250 शहरों में ये योजना अगली पंचवर्षीय योजना में लागू करने की तैयारी चल रही है।
सिर्फ संभ्रांतों का न होकर रह जाए शहर : हामिद अंसारी
किसी भी शहर को भाषा, नस्ल या रंग के हिसाब से अलग पहचान देने की कोशिश हमेशा घातक रही है और भारत में इसका सबसे पहला नमूना मुंबई के प्रति देश के दूसरे शहरों के लोगों के घटते आकर्षण के तौर पर सामने आया है। सरकारी कामकाज सिर्फ मराठी में ही करने की नीति और दूसरे राज्यों से आने वालों को न अपनाने की सियासी कोशिशों का नतीजा है कि दस साल में मुंबई की आबादी की वृद्धि दर और शहर का आबादी घनत्व ऋणात्मक रहा। तभी मुंबई आए उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा कि देश के शहरों को अपना राष्ट्रीय चरित्र बनाए रखना चाहिए और यहां रहने वालों को क्षुद्र या बंटवारे वाली राजनीति करने वालों के दबाव में नहीं आना चाहिए।
महात्मा गांधी के साथ आजादी की लड़ाई लड़ने वाले और अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा गढ़ने वाले मुंबई के पूर्व मेयर यूसुफ मेहरल्ली की याद में हुए इस आयोजन के दौरान शहरीकरण की दिक्कतों का जिक्र करते हुए उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने न्यूयॉर्क व लंदन जैसे शहरों का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि न्यूयॉर्क व लंदन जैसे बड़े शहरों में मेयरों को कहीं ज्यादा अधिकार हासिल हैं। वे अपने शहर के विकास का एजेंडा तय करते हैं और शहर के आर्थिक व सामाजिक विकास की दिशा तय करते हैं। इसके विपरीत हमारे मेट्रो शहरों के प्रबंधकों के पास न तो पर्याप्त राजनीतिक प्रतिष्ठा होती है और न ही पर्याप्त आर्थिक तंत्र। सह विकास की अवधारणा पर जोर देते हुए अंसारी ने कहा कि बिना इसके शहरीकरण सिर्फ एक कुलीन वर्ग के फायदे की चीज बनकर रह जाती है। हमारे शहरों का माहौल और इनके प्रशासन की प्रणाली सिर्फ सियासी और आर्थिक संघर्ष की नौटंकी बनकर रह गए हैं। ये बात और है कि हमारे शहरों में ही सुधारों का प्रचार प्रसार हुआ और यहीं ऐसे सुधारों की प्रक्रिया को लेकर मुकाबले भी हुए हैं। इसकी वजह है कि राज्य सरकारों के रोजमर्रा के कामों और आर्थिक संसाधनों में इनकी भागेदारी न के बराबर है। यही नहीं, शहरी निकायों में भी परिषदों से लेकर वार्ड स्तर तक सत्ता और संसाधनों का विकेंद्रीकरण नहीं हो रहा है और न ही विभिन्न समूहों, हाशिए पर पड़े लोगों, महिलाओं और सिविल सोसाइटी के लोगों की नीतिगत फैसले लेने व इन्हें लागू करने में कोई राय ही ली जा रही है।
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