मध्य प्रदेश का रीवा जिला जो कभी 6000 तालाबों से आबाद था, जिसके आसपास के गाँवों में तमाम प्राकृतिक जलस्रोत उपलब्ध थे, वह आज जल संकट का शिकार है।
देश के तमाम अन्य हिस्सों की तरह ही मध्य प्रदेश का रीवा जिला और बघेलखण्ड के तहत आने वाला उसके आसपास का पूरा क्षेत्र इन दिनों भीषण जल संकट से जूझ रहा है।
हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि स्थानीय मऊगंज तहसील की आबादी और वहाँ के विधायक सुखेंद्र सिंह ने पानी को लेकर पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश से उलझने तक की तैयारी कर ली है। उनका कहना है कि बाणसागर परियोजना से नहर के जरिए उत्तर प्रदेश जाने वाले पानी को तब तक जाने नहीं दिया जाएगा जब तक कि स्थानीय जरूरतें पूरी नहीं हो जातीं। उनका कहना है कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो जनता नहर को तोड़ने तक से गुरेज नहीं करेगी। पानी की समस्या इंसानों, पशुओं और फसलों को समान रूप से कष्ट पहुँचा रही है। पीएचई विभाग के मुताबिक जलस्तर जाड़ों की तुलना में 50 से 60 फीट नीचे जा चुका है और जिले में लगे अधिकतर पम्प अब पानी की जगह हवा उगलने लगे हैं।
हैण्डपम्प की खुदाई पर लगी रोक ने हालात को बद-से-बदतर बना दिया है। वहीं पीएचई विभाग के एक्जक्यूटिव इंजीनियर पंकज गोरखड़े कहते हैं कि हैण्डपम्प खुदाई पर लगी रोक दरअसल पानी बचाने का ही एक तरीका है। इस जिले की वर्षा का औसत स्तर 1044 मिमी है लेकिन बीते साल बमुश्किल 600 मिलीमीटर बारिश ही हुई।
यह पूर्व पीठिका है उस जिले के जल संकट की जहाँ एक सदी पहले तक तकरीबन जनश्रुतियों के मुताबिक 6,000 तालाब हुआ करते थे। गोविन्दगढ़ का विशालकाय तालाब, रानी तालाब, मलकापुर ताल और यहाँ तक कि मऊगंज तहसील में तो एक गाँव का नाम ही देवतालाब है। रीवा, राजे-रजवाड़ों का शहर है। आजादी के पहले रीवा देश की सातवीं सबसे बड़ी राजशाही वाला राज्य था। जाहिर है राजाओं के समय में तालाब आदि निर्माण को खूब प्रश्रय मिला। प्राकृतिक जलस्रोतों और झिरियों आदि को खूब तवज्जो दी गई।
रीवा शहर का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार असद खां बताते हैं कि आधुनिकीकरण ने शहर के कई तालाबों और जल संग्रहण क्षेत्रों को नष्ट कर दिया। एक वक्त था जब शहर और उसके आसपास के इलाके में तालाब-ही-तालाब थे लेकिन आज हालत यह है कि शहर के आसपास के नदियाँ तक नालों में तब्दील हो चुकी हैं। ऐसे में तालाबों की कौन कहे। हाँ शहर के बीचोंबीच स्थित रानी तालाब का सौन्दर्यीकरण अवश्य निगाहें खींचता है।
रानी तालाब
करीब 75 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला रानी तालाब एक समय भीषण दुर्दशा का शिकार था लेकिन स्थानीय विधायक और राज्य के जनसम्पर्क मंत्री राजेंद्र शुक्ल के प्रयासों से इसकी दीनदशा में काफी सुधार आया है। उक्त तालाब के निर्माण को लेकर कई जनश्रुतियाँ मौजूद हैं लेकिन उनमें से कोई मायने नहीं रखती। अगर कुछ मायने रखता है तो वह है इस तालाब का पानी और उसे बचा लिया जाना। रानी तालाब इलाके के निवास रामबहोर पटेल कहते हैं कि एक दशक से भी कम पहले यह तालाब बहुत बुरी हालत में था इसका पानी सड़ रहा था। लोग उसे छूने में कतराते थे। लेकिन रानी तालाब का पुनरुद्घार होने के बाद न केवल पानी की दशा सुधरी है बल्कि यह जगह पर्यटन के बड़े केन्द्र के रूप में उभरी है। पहले यह केवल देवी स्थान के रूप में चर्चित था लेकिन अब इसने शहर के पर्यटन मानचित्र पर जगह बना ली है।
गोविन्दगढ़ तालाब
गोविन्दगढ़ का तालाब तो रीवा राजघराने को अमरत्व प्रदान करने वाला निर्माण है। तकरीबन 100 एकड़ क्षेत्र में फैला यह तालाब इस भीषण गर्मी में भी पानी से लबालब भरा हुआ है। सन 1947 के बाद राजे-रजवाड़े तो इतिहास हो गए लेकिन यह तालाब अपनी पूरी खूबसूरती और नमी के साथ उनकी कहानी कहने को रह गया।
इस तालाब का निर्माण सन 1849-50 से 1925-26 तक चला। महाराजा विश्वनाथ सिंह की स्मृति में आरम्भ में इसे विश्वनाथ सरोवर का नाम भी दिया गया था। इतिहासकार असद खां गोविन्दगढ़ के तालाब से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं।
सन 1896 में देश का बहुत बड़ा इलाका भीषण अकाल की चपेट में था। उसी समय रीवा के तत्कालीन महाराजा व्यंकट रमण सिंह किसी काम से भोपाल पहुँचे। भोपाल में वह किसी काम से उस जगह पहुँचे जहाँ ताजुल मस्जिद की तामीर कराई जा रही थी। वहाँ उन्हें रीवा के कुछ कारीगर काम करते मिले। उन कारीगरों ने उन्हें बताया कि दुर्भिक्ष के कारण वे यहाँ आकर मजदूरी करने पर मजबूर हैं। महाराजा व्यंकटरमण सिंह ने तत्क्षण उन्हें रीवा वापस आने का निर्देश दिया और अकाल से निपटने तथा स्थानीय लोगों को रोजगार देने के लिये इस तलाब को नए सिरे से खुदवाना शुरू किया। आज सवा सौ साल बाद भी यह तालाब रीवा की जीवनरेखा है। तकनीकी तौर पर भी यह अत्यन्त सम्पन्न है। इतना कि इसके आसपास रहने वाले किसान गन्ने जैसी पानी की जरूरत वाली फसल तक उगा लेते हैं।
लेकिन प्रशासनिक लापरवाही अब यहाँ भी नजर आने लगी है। तालाब के एक बड़े हिस्से को जलकुम्भी ने अपनी चपेट में ले लिया है। जलकुम्भी पानी के लिये निहायत नुकसानदेह होती है।
रीवा शहर और उसके आसपास कई प्राकृतिक जलस्रोत भी हैं जो पहाड़ी संरचनाओं से निकले हैं। स्थानीय बोली में इनके कई अलग-अलग नाम हैं कोई इन्हें झिन्ना तो कोई झिर्री या झिरिया कहकर पुकारता है।
रीवा और उसके आसपास स्थित झिरिया
खंदौ
रीवा शहर से तकरीबन 20 किलोमीटर दूर स्थित गोविन्दगढ़ के तालाब में पहाड़ों से आने वाले पानी का एक बहुत बड़ा स्रोत है खंदौ नामक झिर्री। हालांकि इसकी प्राकृतिक स्थल संरचना कुछ ऐसी है कि यह झिर्री कम और एक खूबसूरत नैसर्गिक जलाशय अधिक नजर आता है।
विन्ध्य पर्वतमाला की तलहटी में स्थित खंदौ में इन्हीं पहाड़ों का पानी रिसकर आता है और इसके खड्डेदार संरचनाओं में एकत्रित होता है। यहाँ से यह पानी बहकर गोविन्दगढ़ के तालाब में जा मिलता है। यह देखना सुखद आश्चर्य से भर देने वाला था कि अप्रैल-मई के भीषण गर्मी वाले महीने में भी यह पानी से लबालब भरा था।
रीवा शहर से तकरीबन 40 किलोमीटर दूर, रीवा-सीधी राजमार्ग पर स्थित गुढ़ तहसील से 15-20 किलोमीटर भीतर डगडऊआ-2 पंचायत में हमें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कई झिरियाँ देखने को मिलीं। गौरतलब है कि यह पूरा इलाका एक समय भारतीय सेना को फायरिंग रेंज के रूप में दिया गया था और अब यहाँ पर विश्व की सबसे विशालकाय सौर ऊर्जा परियोजना लगनी प्रस्तावित है। यह पूरा इलाका पानी की भीषण कमी से दो-चार हो रहा है।
सूजी
सूजी गाँव में स्थित झिरिया का आकार करीब 10x10 का होगा। इसमें करीब दो फीट पानी नजर आ रहा है। लेकिन इस झिरिया का रखरखाव इतना खराब है कि देखकर हैरत होती है। स्पष्ट है कि स्थानीय लोगों को इसकी अहमियत का अन्दाजा अभी नहीं है। हालांकि उन्हें पता है कि उनके लिये पानी का इकलौता स्रोत यही झिरिया है। सूजी गाँव में हमारी मुलाकात गाँव की पूर्व सरपंच फूलकुमारी आदिवासी से होती है। फूलकुमारी के कार्यकाल में इस झिरिया को पक्का करने का काम किया गया था। वह बाताती हैं कि गाँव में एक सरकारी और दो निजी हैण्डपम्प हैं लेकिन उनमें से किसी में पानी नहीं आता है। करीब के गाँवों में स्थित हैण्डपम्प से पानी भरकर लाना पड़ता है।
केम्हाई
सूजी से करीब दो किलोमीटर ऊपर पहाड़ी पर स्थित केम्हाई गाँव के एक खाले इलाके में पानी की मौजूदगी का संकेत आसपास उगी हरी घास और बेशरम के झाड़ दे देते हैं। भीषण गर्मी में भी वहाँ इतनी नमी है कि यहाँ हरियाली पनप सके। स्थानीय रहवासी रामनरेश आदिवासी बताते हैं कि केम्हाई की झिरिया जिसमें कभी बारह महीने पानी रहा करता था वह भी अब गर्मियों में सूख जाया करती है।
मेहना
करीब ही स्थित मेहना गाँव में स्थितिया झिर्री का पानी भी अब पूरी तरह सूख चुका है। आसपास के गाँवों में पानी का भीषण संकट है। इन झिरियों के पास गाँव वाले अपने बाल्टी डब्बों के साथ शाम ढलने के साथ ही एकत्रित हो जाते हैं और गीत गाते मस्ती करते पूरी रात काटते हैं। सुबह एकदम तड़के इन झिरियों में नाम मात्र का पानी एकत्रित रहता है जिसे वे निकालकर आपस में बाँट लेते हैं।
डगडऊआ ग्राम पंचायत के सहायक सचिव अमित कुमार दुबे बताते हैं कि इस पूरे इलाके में 4-5 झिरियाँ हैं लेकिन ये सभी गर्मियों में पूरी तरह सूख जाती हैं। हालांकि आज से 5-10 साल पहले हालत इतने बुरे नहीं थे। उस वक्त न केवल इन झिरियों में पानी का स्तर बरकरार रहता था बल्कि ये साल भर पानी भी देती थीं। दुबे कहते हैं कि सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान के तहत गाँव-गाँव में शौचालय तो बनवा दिये लेकिन लोगों को पीने के लिये पानी नहीं मिल रहा है तो वे भला शौच के लिये पानी कहाँ से लाएँगे। जाहिर है सरकारी स्तर पर एक कमी दूसरी योजनाओं को किस तरह प्रभावित करती है यह उसका जीता-जागता उदाहरण है।
प्रशासनिक लापरवाही का एक बड़ा उदाहरण हमें गुढ़ तहसील के तहत आने वाले डढ़वा गाँव में देखने को मिला। डढ़वा गाँव में लगे एक सबमर्सिबल हैण्डपम्प से जुड़े पाइप से लगातार तीव्र गति से पानी निकलता रहता है। पम्प के चालू या बन्द रहने से पानी के इस स्रोत पर कोई असर नहीं पड़ता। भीषण गर्मी के दिन में यह लोगों को राहत अवश्य दे रहा है लेकिन इसके चलते पानी की जबरदस्त बर्बादी भी हो रही है।
झिरिया
रीवा शहर के बीचों-बीच स्थित जलकुण्ड झिरिया, जिसके नाम पर पूरा झिरिया मोहल्ला ही बसा हुआ है। बिछिया नदी के तटवर्ती इलाके में स्थित यह जलकुण्ड जो कभी नगरवासियों के लिये कुतूहल का केन्द्र था, व जो आसपास के लोगों की पानी की जरूरतें पूरी करता था, वह आज वक्त की मार के चलते अकाल मौत प्राप्त करने की राह पर है।
झिरिया कुण्ड तथा उसके आसपास व्याप्त गन्दगी देखकर मन में एक विचित्र सी कसक उठती है। गन्दला कीचड़नुमा पानी, आसपास लोटते सुअर आदि देखकर यकीन ही नहीं होता कि कभी यह जलस्रोत आम लोगों को जीवन जल मुहैया कराता था। करीब स्थित मन्दिर के पुजारी रामावतार कहते हैं कि कुण्ड की इस दुर्दशा के लिये शासन की बेरुखी जिम्मेदार है।
हैरत की बात है एक तरफ यह पूरा इलाका सूरज के ताप से झुलस रहा है जबकि यहीं करीब मौजूद तमाम प्राकृतिक जलस्रोतों तक की साफ-सफाई की समुचित व्यवस्था भी नहीं हो पा रही है।
Keywords;
Natural Waterbodies, Water Resources, Water springs in Madhya Pradesh, Tanks and Ponds in Madhya Pradesh, Reeva in Madhya Pradesh, Pooja Singh
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