जुल्मों के खारे निशान

नमक कर जैसे भयानक कर को वसूलने के लिए बनाई गई एक विशाल बागड़ पर लिखी गई पुस्तक का एक अंश प्रस्तुत है। यह बताता है कि कर के कारण एकदम महँगा हो गया नमक देश की एक बड़ी आबादी के भोजन सेे, थाली से बाहर हो गया था और इस कर की वास्तविक कीमत तो कोई पचास लाख लोगों ने अपनी जान गँवाकर चुकाई थी। नमक की कमी ने मृत्युपथ पर आने वालों की संख्या और गति एकदम बढ़ा दी थी।

अभी-अभी के वर्षों में अधिक नमक खाने से होने वाले दुष्प्रभाव का काफी प्रसार हुआ है। आहार और आरोग्य पर लिखी पुस्तकें खाने में नमक कैसे कम करें- इस प्रकार के उपदेशों से भरी पड़ी हैं। लेकिन पर्याप्त नमक न खाने से शरीर पर होने वाले प्रभाव के बारे में कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है। लोग सोचने लगे हैं कि भोजन में नमक डालना कतई जरूरी नहीं है। कई ने यह भी सुझाया कि बरतानवियों ने नमक कर लगाकर भारतीयों के नमक खाने को नियंत्रित करके उनका भला ही किया है!

जैसे-जैसे मैं चुंगी बागड़ के इतिहास पर अधिक शोध करने लगा मुझे नमक पर लगाए गए कर के औचित्य के बारे में अधिक शंका होने लगी। यों तो सारे ही कर अलोकप्रिय होते हैं, परन्तु कर जो गरीबों पर भार बनते हैं, उनका विशेष रूप से विरोध होने लगता है। यदि कोई कर इतना अधिक होता है कि वह निर्धन को जीवन के लिए आवश्यक वस्तु से भी वंचित कर दे तो फिर उसका समर्थन नहीं किया जा सकता। मुझे फिर एक बार अनुभव हुआ कि इतिहास की पुस्तकों में इस बारे में कितनी कम जानकारी है। फिर इस नमक कर के कारण लोगों के स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभाव के बारे में तो कुछ भी पता नहीं है।

इस बारे में कोई संदेह नहीं कि भारत के लोगों को नमक बहुत प्रिय है, शेष मानव जाति की तरह उन्हें भी पता है कि यह भोजन का स्वाद बढ़ाता है। नमक कर पर अपना एक दृष्टिकोण बनाने के लिए मुझे नमक के बारे में और अधिक जानने की आवश्यकता लगने लगी।

अभी-अभी के वर्षों में अधिक नमक खाने से होने वाले दुष्प्रभाव का काफी प्रसार हुआ है। आहार और आरोग्य पर लिखी पुस्तकें खाने में नमक कैसे कम करें- इस प्रकार के उपदेशों से भरी पड़ी हैं। लेकिन पर्याप्त नमक न खाने से शरीर पर होने वाले प्रभाव के बारे में कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है। लोग सोचने लगे हैं कि भोजन में नमक डालना कतई जरूरी नहीं है। मेरे कुछ मित्रों ने मुझे सुझाया कि शरीर को नमक की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि फलों और सब्जियों में पहले से ही पर्याप्त मात्रा में नमक मौजूद होता है। बाद में वे नमक कर के औचित्य पर मेरे सरोकार का भी मजाक उड़ाने लगे। कई ने यह भी सुझाया कि बरतानवियों ने नमक कर लगाकर भारतीयों के नमक खाने को नियंत्रित करके उनका भला ही किया है!

सच को खोजना कठिन था। मानव शरीरशास्त्र की पुस्तकों से मैंने यह पक्का कर लिया कि नमक आवश्यक है। यह बात तय करना अधिक कठिन था कि निश्चित तौर पर कितनी मात्रा आवश्यक है। आधुनिक प्रसंस्कारित और पकाए गए खाद्य पदार्थां में नमक होता ही है क्योंकि वह सस्ता है और पदार्थां को स्वादिष्ट और अधिक बिकाऊ बनाता है। डिब्बाबन्द सब्जियाँ, दही, मुरब्बे, बिस्किट, केक, डबल रोटी, मक्खन, मार्जिरीन और नाश्ते में खोई जाने वाली नई किस्म की लाई, सभी में काफी मात्रा में ऊपर से नमक होता है। उसी प्रकार घर और होटलों में पकाए गए खाने में भी बहुत नमक होता है।

माना जाता है कि इस प्रमाण में नमक खाना हानिकारक होता है, इसलिए पुस्तकों में इसकी खपत कम करने पर जोर दिया जाता है। लेकिन यह निर्धारित नहीं किया जाता कि कम से कम कितना खाना जरूरी है। आधुनिक खानपान में इतना अधिक अतिरिक्त नमक होने के कारण ऐसा हो ही नहीं सकता कि किसी मनुष्य में नमक की कमी पड़ जाए। इसी कारण आज नमक की न्यनूतम आवश्यकता बताने वाला साहित्य उपलब्ध नहीं है। काफी खोज के बाद जाकर मेरे हाथ एक पुस्तक लगी जिसमें इस विषय पर विस्तार से जानकारी दी गई थी। यह थी डेरेक डेंटन की पुस्तक ‘द हगंर फारॅ साल्टः एन एंथ्रोपोलॉजिकल, फिजियोलॉजिक एण्ड मेडीकल एनालीसिस।’ तीस वर्षां के लम्बे शोध के बाद लिखे और जानकारियों के प्रचुर स्रोतों से भरे इस ग्रंथ के कारण मैं नमक से जुड़े कई वैज्ञानिक तथ्यों को ढूँढ़ निकाल पाया था।

अठाहरवीं और उन्नीसवीं सदी के भारत का परिदृश्य पूरी तरह अलग था। अधिकांश भारतीयों के भोजन में पहले से मिलाया हुआ नमक नहीं होता था। आबादी का बड़ा हिस्सा देहात में रहता था। अधिकांश अन्न पदार्थ या तो घर में ही पैदा किए जाते थे या फिर बगैर कोई प्रक्रिया किए पदार्थ बाहर से खरीदे जाते थे।

नमक को ठीक मात्रा में नियमित खाना भी बहुत जरूरी है। एक बार खाया हुआ अतिरिक्त नमक बाद के कम खाने को सन्तुलित नहीं कर सकता है। हमारा शरीर नमक को कुछेक दिनों से ज्यादा सम्भाल कर नहीं रख सकता। रक्त में नमक की सही मात्रा बनाए रखने की गरज से अधिक खाया हुआ नमक ज्यादातर पेशाब के रास्ते बहा दिया जाता है। परिणामस्वरूप यदि शरीर में पानी कम होता है तो नमक की कमी का प्रभाव तत्काल अनुभव होने लगता है।

मनुष्य को निश्चित कितने नमक की जरूरत होती है, इसका प्रमाण बदलता रहता है। छोटी काठी के व्यक्तियों की तुलना में बड़ी काठी के व्यक्तियों को अधिक नमक चाहिए। कई व्यक्तियों की चयापचय क्रियाएँ दूसरों से बेहतर होती हैं, उन्हें अपेक्षाकृत कम नमक लगता है। मेहनतकश लोगों को अधिक नमक की जरूरत होती है, बनिस्बत उनके जिनका काम बैठ कर होता है। कुछ मौसम या काम करने के हालात अधिक गर्म होते हैं, वहाँ शरीर ज्यादा नमक माँगता है।

उन्नीसवीं सदी के भारत में जिन प्रदेशों में नमक अपेक्षाकृत सस्ता था, वहाँ नमक की खपत प्रति व्यक्ति 16 पौंड थी। बंगाल प्रेसीडेंसी में चुंगी रेखा के भीतरी हिस्से में नमक की खपत सम्बन्धी आँकड़े विवाद का मुद्दा थे। वर्ष 1836 में इंग्लैंड की संसद द्वारा की जा रही जाँच में अपनी यह बात सिद्ध करने के लिए कि नमक पर लगाया कर अधिक नहीं है, ईस्ट इण्डिया कम्पनी 12 पौंड के आँकड़े पर अड़ी रही। अन्य अधिक स्वतन्त्र गवाहों के अनसुार यह 8 पौंड से भी कम था।

कमतर आँकड़ा सम्भवतः
अधिक विश्वसनीय था। कुछ वर्षों के बाद, वर्ष 1869 में, अतंर्देशीय सीमा शुल्क के आयुक्त को इससे अधिक सही आँकड़े उपलब्ध हुए। अपनी वार्षिक रपट में उन्होंने लिखा थाः

सीमा शुल्क रेखा के सौ मील बाहर तक, नमक पैदा करने वाले स्थानों और उनसे सटे हुए क्षेत्रों में जहाँ कर मुक्त नमक उपलब्ध है, वहाँ रहने वालों में प्रति वयस्क नमक की औसत खपत 13 पौंड से अधिक नहीं है। वस्तुस्थिति में यह मात्रा अधिक होना सम्भव है। प्रत्यक्ष पूछताछ तथा जनसंख्या और आपूर्ति के आँकड़ों से हिसाब लगाने पर यह सिद्ध हुआ कि रेखा के भीतर नमक की औसत खपत 8 पौंड से अधिक नहीं हो सकती। जहाँ प्रति वर्ष प्रति वयस्क 8 पौंड नमक शायद अपर्याप्त था, वहाँ गरीबों के लिए उतना भी खरीद पाना सम्भव नहीं था। अंग्रेजों द्वारा अकाल और बीमारियों के वर्षों में भी कर में कोई ढील नहीं दी गई। उन वर्षों में बहुतों के पास नमक खरीदने के लिए नकदी नहीं बची थी।

उन्नीसवीं सदी में बरतानवी भारत में नमक की आपूर्ति और उस पर लगाए गए करों के बारे में कई बार इंग्लैंड की संसद में पूछताछ हुई। ये प्रश्न उनके द्वारा उठाए गए जो बरतानवी नमक का भारत में निर्यात करने के लिए उत्सुक थे, और उनके द्वारा भी जो नमक की कमी से होने वाले प्रभाव को लेकर सचमुच चिंतित थे। अंग्रेज चिकित्सक जिन्हें ग्रामीण बंगाल का खासा अनुभव था, उन्होंने सही परिदृश्य सामने रखा। उन्होंने इस बात की गवाही दी कि नमक पर लगे भारी कर के कारण लोगों को अपर्याप्त नमक मिल रहा है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि नमक की कमी के कारण लोग हैजा और अन्य रोगों से लड़ने की शक्ति खो रहे हैं। इसलिए बीमार पड़ते ही शरीर में नमक की मात्रा कम हो जाती है और नतीजतन शरीर की शक्ति कम होती जाती है और फिर अन्त मृत्यु से होता है।

भारत में नमक तंगी का इतिहास कोई लम्बा इतिहास नहीं था। दुनिया के दूसरे हिस्सों में जहाँ नमक कम पाया जाता है, वहाँ के निवासियों की शारीरिक क्रियाएँ उस अनुसार ढल गई हैं। उनके पसीने और मूत्र में बहकर जाने वाला नमक भी कम हो गया है। उपलब्ध नमक को कम खर्च करना वे सीख गए हैं, वे उपलब्ध नमक को कम खर्च करने के आदी हो गए हैं। भारत में लोगों को महँगे नमक की आदत नहीं थी।

उन्नीसवीं सदी में बरतानवी भारत में नमक की आपूर्ति और उस पर लगाए गए करों के बारे में कई बार इंग्लैंड की संसद में पूछताछ हुई। ये प्रश्न उनके द्वारा उठाए गए जो बरतानवी नमक का भारत में निर्यात करने के लिए उत्सुक थे, और उनके द्वारा भी जो नमक की कमी से होने वाले प्रभाव को लेकर सचमुच चिंतित थे। अंग्रेज चिकित्सक जिन्हें ग्रामीण बंगाल का खासा अनुभव था, उन्होंने सही परिदृश्य सामने रखा। उन्होंने इस बात की गवाही दी कि नमक पर लगे भारी कर के कारण लोगों को अपर्याप्त नमक मिल रहा है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि नमक की कमी के कारण लोग हैजा और अन्य रोगों से लड़ने की शक्ति खो रहे हैं। इसलिए बीमार पड़ते ही शरीर में नमक की मात्रा कम हो जाती है और नतीजतन शरीर की शक्ति कम होती जाती है और फिर अन्त मृत्यु से होता है।

नमक कर पर इंग्लैंड की संसद में बहस के दौरान मतभेद खड़े हो जाते थे, कि क्या खेतों में रहने वाले पशुओं को भी नमक चाहिए? क्या भारतीय किसान अपने ढोर-डंगरों को नमक खिलाते हैं? सरकार ने किसानों के प्रावधान में इसकी व्यवस्था नहीं की थी। माँसाहारी पशुओं को अतिरिक्त नमक की आवश्यकता नहीं पड़ती। उन्हें दूसरे जानवरों के गोश्त खाने से नमक मिल सकता है। लेकिन अधिकतर भारतीय शाकाहारी हैं। नमक आपूर्ति का यह जरिया वे नहीं चुन सकते। माँसाहारियों द्वारा खाया जाने वाला ज्यादातर गोश्त भेड़, बकरियों और मवेशियों का होता है। मनुष्य की तरह ही इन शाकाहारी प्राणियों को भी जीने के लिए नमक की जरूरत होती है। भारत के कुछ इलाकों में जमीन में कुछ साधारण किस्म का नमक पाया जाता है। इसे पशु चाट सकते हैं। इस कारण अंग्रेज शासकों ने मान लिया कि कृषि पशुओं को अतिरिक्त नमक की कोई जरूरत नहीं है। वह कभी दिया ही नहीं गया।

यह सम्भव है कि चुंगी रेखा के भीतर वाले प्रदेश में नमक पर लगे भारी कर के कारण नमक की खपत में गिरावट आई। दुर्भाग्यवश नमक की शरीर में कमी नमक खाने की तलब पैदा नहीं करती, इसलिए कमी के शिकार लोगों को भी पता नहीं चल पाता कि वे कितने खतरे में हैं। अकाल के दौरान इन्हें भूख से पैदा लक्षण मान लिया जाता था। नमक-क्षय का असर कभी दिखाई भी दिया तो गरीब तबकों में उत्साह की कमी के रूप में। फिर इसका प्रभाव उनकी मेहनत-मजदूरी और कृषि कार्यों पर पड़ता होगा। जो भी थोड़ा बहुत नमक वे खा पाते, उस पर दण्ड की तरह भारी कर चुकाने के कारण वे अपनी गरीबी में और भी धंसते जाते। अस्वस्थ लोगों और गर्भवती महिलाओं पर और भी गम्भीर प्रभाव होते।

यह बता पाना तो नामुमकिन है कि नमक की कमी के कारण कितने लोग बीमार हुए। हम कोई ठीक अंदाज भी नहीं लगा सकते कि इस कारण कितने लोग मरे होंगे। उनकी मौतों को अन्य कारणों से हुई मौतों के आँकड़ों की बाढ़ में डुबो दिया गया। बीमारियों और अकाल से हुई तथाकथित मृत्युओं के ढेर के नीचे दबा दिया गया। हमें पता है कि शासन अनुभव कर चुका था कि नमक कर के कारण लोगों के खाने में बड़ी मात्रा में कटौती हुई थी। हमें पता है कि सरकारी आँकड़ों में भी जनता में नमक की खपत, भारत में तैनात उसके सैनिकों के लिए तय की गई न्यूनतम मात्रा से और इंग्लैंड के कारागृहों में बन्द अंग्रेज कैदियों तक के लिए तय न्यूनतम मात्रा से काफी कम थी। हमें यह भी पता है कि भारत में काम कर रहे कुछ अंग्रेज चिकित्सकों ने इंग्लैंड की संसद में इस पर विरोध भी प्रकट किया था। परन्तु एक आसानी से उगाही जा रही कर की राशि को बनाए रखने की खातिर बरतानवी शासन ने उनकी राय की उपेक्षा की।

धीरे-धीरे यह बात समझ में आई कि इंग्लैंड के चेशायर और बूस्टरशायर से प्राप्त ऊँचे दर्जे का अंग्रेजी नमक लिवरपुल बंदरगाहों से निकलने वाले जहाजों के पेदों में जहाजों को स्थिर रखने वाले वजन की तरह लाद कर लाया जा सकता है। इसे मामूली मालभाड़ा चुका कर बाजार में मुनाफे के साथ बेचा जा सकता है। हिसाब लगाकर इस पर इतना ही आयात शुल्क लगाया गया जिससे इसका मूल्य स्थानीय उत्पादित नमक के थोक मूल्य के बराबर हो गया। इसका असाधारण परिणाम यह हुआ कि वर्ष 1850 तक बंगाल में खपने वाला आधा नमक इंग्लैंड से आने लगा!

नमक के बारे में मैं जो भी जानकारी खोज पाया, उससे मुझे बड़ा धक्का लगा। जब मुझे पहली बार चुंगी बागड़ के अवशेष खोजने का विचार आया तो मेरी कल्पना में यह अवरोध कोई छोटा-मोटा कर वसूल करने की खातिर अंग्रेजी सनक के हिसाब की तरह उभरा। मैंने तो मान रखा था कि यह कोई मामूली-सी दिखावटी बाड़ होगी। जिस प्रकार इंग्लैंड में बागड़ की लम्बी कतार होती है, उसको याद करते हुए अंग्रेज प्रशासकों द्वारा यहाँ भी कुछ वैसी ही बनाई गई होगी। यह जान लेना भयानक था कि इसका निर्माण और इस पर सख्त पहरा इसलिए था कि एक सहज खरीदी जा सकने वाली अत्यंत जीवनावश्यक वस्तु की आपूर्ति पूरी तरह से रोकी जा सके।

नमक की कमी के भीषण परिणाम हुए हैं मगर प्रतिवेदनों में हमेशा उनकी सहजता से उपेक्षा कर दी जाती थी। उदाहरण के लिए 1877-78 की रपट में आयुक्त महोदय ने लिखा है कि अनाज की ऊँची कीमतों के कारण परेशानी भरे वर्ष में 3,252 तस्करों को कारागृह में भेजा गया। उस भयानक परिस्थिति का यह बहुत अपर्याप्त ब्यौरा है।

वर्ष 1877 में उत्तर-पश्चिम प्रांतों में सामान्य से केवल एक तिहाई वर्षा हुई। आगरा से इलाहाबाद तक फसलें नष्ट हुईं। इससे पहले के वर्षों में उम्दा फसलें हुई थीं। नई-नई आई रेलगाड़ियों की मदद से अतिरिक्त बचे अनाज का निर्यात किया गया था। यह अनाज न केवल दक्षिण भारत अकाल राहत के लिए भेजा गया था, बल्कि बड़ी मात्रा में बरतानिया भी भेजा गया। वर्ष 1877 में अकाल के लक्षण दिखाई देने पर घबराहट में लोग अनाज खरीदने लगे, परिणामस्वरूप अनाज की कीमतें अचानक बढ़ गईं। यद्यपि लोगों के पास पैसा था, परन्तु इन प्रांतों में खरीदने के लिए अनाज ही नहीं बचा था। आधिकारिक विवरण के अनुसार उस दौरान पड़े अकाल में 13 लाख लोग मारे गए थे। अब समझा जा रहा है कि यह संख्या भी काफी कम आँकी गई थी।

आधिकारिक रपटें पढ़ते समय यह बात ध्यान में आती है कि कितनी मौतें भूख के अलावा दूसरे कारणों से हुई थीं। कुपोषण के कारण शरीर की प्रतिकार शक्ति कम होकर मौत हो सकती है। तब आगरा, इटावा और मैनपुरी जिलों में 62 गाँवों में सर्वाधिक विस्तृत सर्वेक्षण किया गया था। इसमें केवल 12 प्रतिशत मौतों का कारण भूख बताया गया, परन्तु 63 प्रतिशत बुखार और पेट सम्बन्धी शिकायतों के कारण हुई थीं। जैसा कि देखा गया है, शरीर में नमक की कमी इन्हीं बीमारियों की तरह मृत्यु का कारण बन सकती है। अकाल के दौरान बहुत कम समय के लिए कर वसूली रोकी गई। वह राहत कितनी कम थी, इस मुद्दे पर काफी आलोचना हुई थी। परन्तु नमक कर पर कोई राहत नहीं दी गई थी। अन्य कठिन वर्षों की तरह उस अकाल में भी नमक कर पूरी तरह वसूला गया था। तस्करों और खारी जमीन खुरचने वाले उन सबको ढूँढ़ निकाला गया था। चुंगी बागड़ की गश्त भी बगैर रुके चलती रही थी।

वर्ष 1877-78 में उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में पड़ा अकाल एकमात्र नहीं था, जिसका प्रभाव चुंगी रेखा के भीतर नमक की ऊँची कीमतों के कारण बदतर हुआ था। नमक कर लगाए जाने के बाद बार-बार अकाल पड़ते ही रहे। वर्ष 1868-69 में उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में एक और अकाल पड़ा था। चुंगी रेखा के आखिरी पन्द्रह वर्षों में उड़ीसा, उत्तर बंगाल और मध्य प्रांतों में अकाल पड़े थे। उन वर्षों के लिए आधिकारक रपटों में कुल 37,61,420 मौतों का उल्लेख था। वास्तविक आँकड़ा सम्भवतः 50,00,000 के आसपास रहा होगा। जिन लोगों के पास केवल अनाज खरीदने भर का पैसा ही होता, वे नमक नहीं खरीद सकते थे।

नमक की कमी ने मृत्युपथ पर आने वालों की संख्या तथा गति बढ़ा दी थी। जैसे-जैसे नमक की भुखमरी का यह भयानक सच उजागर होने लगा, वैसे-वैसे मैंने सोचना शुरू किया कि यदि इन जुल्मों के निशान ही इस तरह मिट जाते हैं जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं, तो बड़ा गलत होगा। मुझे लगा कि इन स्मृतियों को जीवित रखने की खातिर चुंगी रेखा के कुछ अवशेषों को तो बचे रहना ही है।

नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली से प्रकाशित ‘चुटकी भर नमक, मीलों लम्बी बागड़’ के एक अध्याय का सम्पादित अंश। यह श्री राय मॉक्सहैम द्वारा लिखी ‘द ग्रेट हैज आॅफ इण्डिया’ नामक अंग्रेजी पुस्तक का अनुवाद है। अनवुादक हैं श्री दिलीप चिंचालकर। पुस्तक के मराठी और तमिल संस्करण भी आ गए हैं।

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