ग्रामीण भारत में दलितों की पीट-पीटकर हत्या करने की हाल की घटनाएं, विशेष कर पेयजल की उपलब्धता को लेकर, अब आम जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं। 2019 में शुरू हुआ जल जीवन मिशन, 2024 तक 18 करोड़ ग्रामीण परिवारों को पाइप से जलापूर्ति के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में लगभग आधे रास्ते पर है। हालांकि, यह उपलब्धि पानी तक पहुंचने की कोशिश कर रहे दलितों की लगातार कोशिशों और क्रूर घटनाओं से प्रभावित है। ये घटनाएं जल जीवन मिशन पर सवाल उठाती हैं।
एक तरफ केंद्र सरकार की यह महत्वाकांक्षी योजना है, जिसका उद्देश्य 2024 तक प्रत्येक ग्रामीण परिवार को प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 55 लीटर पेयजल सुनिश्चित करना है, दूसरी ओर दलित अपनी प्यास बुझाने के लिए पर्याप्त पानी प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं, खासकर ग्रामीण इलाकों में। ग्रामीण भारत में पानी के लिए दलितों की पीट-पीटकर हत्या करने की हाल की घटनाएं अब सामान्य चलन में बदलती जा रही हैं।
अगस्त 2022 में राजस्थान के जालोर जिले के सुराणा गाँव के एक दलित छात्र, इंद्र मेघवाल को उसके शिक्षक ने केवल पीने के पानी के बर्तन को छूने के लिए पीट-पीट कर मार डाला था। नवंबर 2022 में राजस्थान के जोधपुर जिले में एक दलित व्यक्ति की ऐसी ही मौत हुई थी, जब किशनलाल भील को ट्यूबवेल से पानी भरने के लिए पीटा गया था।
जल जीवन मिशन ‘हर घर जल’ की टैगलाइन पर करने का दावा करता है और हर ग्रामीण घर में पेयजल सुरक्षा का वादा करता है, इसके बावजूद ऐसी घटनाएं बताती हैं कि बड़े पैमाने पर सरकारी योजनाएं भारत में जाति व्यवस्था के सम्बन्ध में न तो विचार करती हैं और न ही सक्रिय रूप से सामाजिक संरचना के प्रभावों का मुकाबला करने की कोशिश करती हैं।
2015 के एक अध्ययन ‘अनटचेबिलिटी, होमिसाइड्स एंड वाटर असेस’ पर विचार करने की जरूरत है, जो ‘जर्नल ऑफ़ कम्प्रेटिव इकोनोमिक्स’ में प्रकाशित हुआ है और समस्या को स्पष्टता से रेखांकित करता है। कोई जलस्रोत, जो धार्मिक प्रदूषण को बढ़ावा दे सकता है, वहां अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्यों से उच्च जातियों के सदस्यों की मिलने की संभावना जितनी अधिक होगी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों की हत्या की दर उतनी अधिक होगी। जाति और पानी के बीच का यह घातक संबंध बेहद परेशान करने वाला है और पहले से ही हाशिये पर मौजूद लोगों के लिए उनकी बुनियादी जरूरतों तक पहुंच को मुश्किल बना देता है।
मैंने पिछले कुछ महीनों से जल जीवन मिशन शैक्षणिक केंद्र में तकनीकी सहायक के रूप में काम किया है। जाति और पानी के बीच घनिष्ठ संबंध होने के बावजूद, जाति के प्रश्न पर कभी भी स्पष्ट रूप से विचार नहीं किया जाता है। जबकि जल जीवन मिशन ग्रामीण समुदायों के लिए जीवन सुगमता को बेहतर बनाने के लिए प्रयास करने की बात करता है। यह देखते हुए कि पानी की कमी की समस्या, आय-सृजन के अवसरों में महिलाओं की भागीदारी में कमी, उनके स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों और लड़कियों की स्कूल जाने में असमर्थता से कितना गहरे जुड़ी है, इस मिशन में इस बात के लिए कोई प्रावधान नहीं है कि किस तरह जाति, पानी तक लोगों की पहुंच को रोकती है, दलितों के खिलाफ हिंसा की घटनाओं के निवारण की रूपरेखा बनाने की तो बात ही छोड़िए।
यह मिशन के शासकीय ढांचे में ही निहित है। मिशन के दिशा-निर्देशों के अनुसार, हर गाँव की ग्राम पंचायत में एक उप-समिति या ग्राम जल और स्वच्छता समिति होनी चाहिए, जिसमें गाँव के कमजोर वर्गों (SC/ST) से पंचायत के निर्वाचित सदस्यों का 25% शामिल होना चाहिए, जो अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की आबादी के अनुपात में हो।
हालांकि, जेजेएम के दिशानिर्देशों या वीडब्ल्यूएससी के एससी/एसटी सदस्यों के लिए ग्राम पंचायत के लिए मार्गदर्शिका में कोई स्पष्ट भूमिका और जिम्मेदारियां आवंटित नहीं की गई हैं, यह बात मिशन में दलितों के प्रतिनिधित्व की प्रभावशीलता पर सवाल उठाती है।
कर्नाटक के गांवों में पिछले तीन महीनों के दौरान स्थलीय अवलोकन से मैंने जाना है कि वीडब्ल्यूएससी के सदस्यों को उनकी जिम्मेदारियों या सदस्यता के बारे में पता ही नहीं है, जिससे यह सवाल उठता है कि यदि उच्च-जाति के सदस्य वीडब्ल्यूएससी में अपनी भूमिकाओं और जिम्मेदारियों से अवगत नहीं हैं, तो अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधि भला कैसे अवगत होंगे और कैसे पानी की समस्याओं का समाधान कर सकेंगे?
पानी से संबंधित खतरे दलित समुदाय को प्रभावित करते हैं। हाल ही में ओड़िशा और केरल में सूखे और बाढ़ से संबंधित राहत कार्य के दौरान, प्रभावित लोगों के पुनर्वास और सहायता की बात आने पर जातिगत भेदभाव की घटनाएँ देखने को मिलीं।
जल जीवन मिशन ने देश भर के गाँवों में कई दलित परिवारों को पाइप से पानी की आपूर्ति करने में मदद की है, जो सराहनीय है। लेकिन दलितों पर हिंसक हमलों और लगातार हो रही मौतों को देखते हुए पानी के स्रोतों तक उनकी पहुंच आसान बनानी चाहिए। अन्यथा, यह नई व्यवस्था भी दलित परिवारों के लिए खालीपन और बुरे नतीजे ही छोड़ेगी।
ये कमियां मिशन के सभी हिस्सों को प्रभावित करती हैं। जेजेएम सफल योजना, कार्यान्वयन, संचालन और रखरखाव के लिए सामुदायिक जुड़ाव के माध्यम से स्वामित्व की भावना बनाने का भी प्रयास करता है। यदि मिशन जाति आधारित हिंसा पर ध्यान नहीं देता है तो क्या ऐसी भागीदारी सार्थक हो सकती है? 18 नवंबर 2022 को कर्नाटक में एक सार्वजनिक पानी की टंकी को, एक दलित महिला द्वारा उसके नल से पानी पीने के बाद, गोमूत्र से साफ किया गया था। किसी मिशन की सफलता कैसी होगी, यदि ऐसी घटनाएं होती हैं और उनका समाधान नहीं किया जाता है?
नेशनल दलित वॉच द्वारा सितंबर 2022 में ‘ड्राट्स, दलित्स एंड आदिवासीज़’ शीर्षक से एक शोध अध्ययन में उस्मानाबाद और कल्लम ब्लॉक के 10 गांवों के 2,207 मराठवाड़ा दलितों और आदिवासियों का सर्वेक्षण किया गया। अध्ययन में पाया गया कि 72% के पास पीने और स्वच्छता के लिए पर्याप्त पानी नहीं था, जबकि 56% एससी और 48% एसटी ने अस्पृश्यता का सामना करने का अपना अनुभव साझा किया।
ये बातें नई नहीं हैं। ऐतिहासिक साक्ष्य पानी तक पहुंच के लिए दलितों के सदियों पुराने संघर्ष को दर्शातें हैं। मार्च 1927 में डॉ बीआर अम्बेडकर के नेतृत्व में सार्वजनिक पानी की टंकियों का उपयोग करने के 2,500 से अधिक अछूतों के अधिकारों का दावा करने के लिए ऐतिहासिक महाड़ सत्याग्रह हुआ था। दलितों के लिए चीजें कितनी बदल गई हैं, यह सवाल पानी तक पहुंच के मामले में पलट जाता है। इन अस्पृश्य प्रथाओं के साथ- साथ हाल ही में तमिलनाडु के वेंगईवयाल गांव से दलितों के पानी के टैंक में मानव मल डंप करने की घटना की खबर आई थी।
दुर्भाग्य से जल और जाति का गठजोड़ आज़ादी के 75 साल बाद भी अनसुलझा है और यह सरकार की नीतियों की एक महत्वपूर्ण खामी है। सरकार को दलितों तक पानी की सुरक्षित पहुंच बनाने के लिए अलग प्रावधानों की पेशकश करनी चाहिए। इन प्रावधानों के बिना कोई भी नीति दलितों से अछूती ही रहेगी। (अनुवादक-अवनीश)
स्रोत - सर्वोदय जगत
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