जरूरत जैव कृषि की

जैविक कृषि का नीतिगत दृष्टिकोण मिशन-आधारित और किसानोन्मुखी होना चाहिए जो वाणिज्यिक और कार्पोरेट-केन्द्रित जैविक कृषि के दृष्टिकोण से भिन्न हो, ताकि कृषि का क्षेत्र आर्थिक और पारिस्थितिकीय तौर पर धारणीय हो सके। जैव कृषि एक ऐसी उत्पादन प्रबन्धन प्रणाली है जो कृषि को टिकाऊ बनाने हेतु बाह्य सामग्रियों का न्यूनतम इस्तेमाल करने और मिश्रित उर्वरकों के साथ ही कीटनाशकों के इस्तेमाल से बचने के आधारभूत सिद्धान्त पर आधारित है। कृषि का इतिहास और उसका पारम्परिक ज्ञान, विशेषकर जैव कृषि तथा पोषण और औषधीय उद्देश्यों के लिए खाद्य पदार्थों के संरक्षण और प्रसंस्करण से सम्बन्धित जनजातीय समुदायों का ज्ञान विश्व में प्राचीनतम है। पारम्परिक व्यवहारों, ज्ञान और बुद्धि का मूल्यांकन करने और उन्हें आपस में जोड़कर सतत कृषिगत विकास के लिए उनके इस्तेमाल के लिए जोरदार प्रयास किए जा रहे हैं।

जैव कृषि के लाभ


— नाइट्रोजन और फास्फोरस जैसे पोषकों की उपलब्धता बढ़ाना।
— रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल में 25-30 प्रतिशत कमी।
— कृषि उत्पादकता में वृद्धि होना। सामान्यतः अनाजों के उत्पादन में 10-40 प्रतिशत वृद्धि और वानस्पतिक उत्पादन में 25-30 प्रतिशत वृद्धि।
— जैविक रूप से मिट्टी को क्रियाशील बनाकर मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता बढ़ाना।
— पौधे के अवशेषों में मदद करके मिट्टी के कार्बन/नाइट्रोजन अनुपात और उसकी बनावट में सुधार लाना और मिट्टी की जलधारण क्षमता बढ़ाना।
— सामान्य तौर पर पौधे की वृद्धि तेज करना और विशेषकर जड़ों की वृद्धि बढ़ाना, क्योंकि इनसे विभिन्न प्रकार के वृद्धिकारी हार्मोन निकलते हैं और ये बेहतर पोषक उपलब्ध कराने के साथ ही सूखा और नमी की स्थिति में पौधे की सहनशीलता बढ़ाते हैं।
— कुछ पोषक जैव पदार्थ फफून्दी और एण्टीबायोटिक जैसे पदार्थ छोड़ते हैं जो बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाकर बीमारियों की रोकथाम करते हैं।

मणिपुर में जैव कृषि की प्रासंगिकता


कुछ खास विशेषताओं के कारण मणिपुर को एक ऐसी श्रेणी में रखा गया है जहाँ एक ओर तो विकास सम्बन्धी बाधाएँ हैं वहीं दूसरी ओर वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में उनका इस्तेमाल इस क्षेत्र के फायदे के लिए किया जा सकता है। यह राज्य जैव कृषि के लिए काफी उपयुक्त है। राज्य के कृषि और बागवानी उत्पादों की जैविक और पर्यावरण-हितैषी गुणों के कारण इसमें पूँजी लगाकर जैविक उत्पादों के उभरते बाजार में अत्यधिक उपलब्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं।

मणिपुर पूर्वी हिमालयी कृषि-जलवायु क्षेत्र में स्थित है। यह मैदानी तथा पहाड़ी दो भागों में विभाजित है। इस घाटी की चर्चा अक्सर चावल के भण्डार के रूप में की जाती है। यह राज्य देश की मानसूनी पट्टी में स्थित है जहाँ घाटी में उष्णकटिबन्धीय और अर्द्ध-समशीतोष्ण से लेकर समशीतोष्ण जलवायु पाई जाती है। यहाँ पहले से ही कृषि आधारित अर्थव्यवस्था मौजूद है। कृषि यहाँ के लोगों का मुख्य पेशा है और चावल उनका मुख्य भोजन। इस राज्य की ग्रामीण विकास के लिए सतत कृषि अनिवार्य आवश्यकता है। कृषि की धारणीयता के लिए उन प्रणालियों की आवश्यकता है जो पर्यावरण के तौर पर ठोस, आर्थिक तौर पर व्यवहार्य और सामाजिक तौर पर स्वीकार्य हैं।

तालिका-1 जरूरत जैव कृषि कीमणिपुर की कई खास विशेषताएँ इसकी सीमाओं और शक्तियों को निर्धारित करती हैं जिनका प्रभाव आसपास के मैदानी भागों पर भी पड़ता है। इन पारिस्थितिकीय सम्बन्धों के कारण इस पहाड़ी भाग में प्रौद्योगिकी और उसके उत्पादों के विकल्प काफी सीमित हो जाते हैं। इस क्षेत्र में उर्वर और जैविक रूप से समृद्ध मिट्टी उपलब्ध है। यहाँ पर्याप्त वर्षा होने के साथ ही नदी घाटियों और जलधाराओं जैसे जल संसाधन भी मौजूद हैं। ऐसे में जलवायु की विविधताओं के कारण विभिन्न प्रकार की फसलों की सम्भावनाओं को बल मिलता है। दूसरी ओर ढलानों और भारी वर्षा के कारण मिट्टी में अस्थिरता और अम्लीयता बढ़ती है और कृषि तथा भूमि प्रबन्धन एक कठिन काम होने के साथ-साथ अत्यधिक श्रम-आधारित हो जाता है। जनसंख्या की तुलना में विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र, ढलानदार वनों और भूमि अधिकारों के कारण खेती की भूमि का आकार निर्धारित होता है। यहाँ के पहाड़ों के कारण भूजल के दोहन की सम्भावना क्षीण है और इसके फलस्वरूप फसलों की सिंचाई की सम्भावना काफी सीमित है। इसलिए नहरों और कुओं को छोड़कर अन्य स्रोतों के द्वारा ही अधिकांश सिंचाई होती है।

इस क्षेत्र की कृषि-पारिस्थितिकी और इसके सामाजिक रिवाज देश के शेष भाग से भिन्न हैं और कृषि के लिए भूमि की कमी होना उतनी बड़ी बाधा नहीं है जितना की उपलब्ध भूमि का लाभदायक इस्तेमाल सुनिश्चित करना है। इस क्षेत्र के विकास के लिए वैकल्पिक और समुचित रणनीतियों को सावधानीपूर्वक तैयार करना जरूरी है जिसमें कृषि-पारिस्थितिकीय शक्तियों और सीमाओं, उदीयमान युग के सम्भावित बाजार आदि का ध्यान रखने के साथ ही देश की पारिस्थितिकीय स्थितियों के बारे में क्षेत्र के निर्णायक सम्पर्क को भी ध्यान में रखना चाहिए।

मणिपुर में किसान अब भी कुछ ऐसे रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं जो नुकसानदायक हैं और जिन्हें 1988 से ही पूरे भारत वर्ष में प्रतिबन्धित कर दिया गया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि खेती में रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से पैदावार बढ़ती है किन्तु मिट्टी, जल और वायु के सम्भावित तौर पर प्रदूषित होने के कारण जीवन की गुणवत्ता भी बुरी तरह से प्रभावित होती है। कीटनाशकों और उर्वरकों के अत्यधिक इस्तेमाल से यहाँ की मिट्टी और पर्यावरण को नुकसान हुआ है। कीटनाशकों के अवक्षेप सिगरेट के बाद यहाँ कैंसर का दूसरा सबसे बड़ा कारण हैं। इसके अलावा मिट्टी में मौजूद कीटनाशकों और उर्वरकों के अवक्षेप मिट्टी के लाभदायक सूक्ष्म जीवाणुओं के लिए भी नुकसानदायक हैं। इससे मिट्टी की उर्वरता कम होती है। उर्वरकों का बहुत ही थोड़े समय के लिए उत्पादकता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है पर भूजल और जलाशयों के प्रदूषित होने के कारण इसका दीर्घकालिक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जहाँ तक उर्वरक की लागत का प्रश्न है, स्थिति और भी बदतर है। वर्ष 1991-92 में यहाँ प्रति हेक्टेयर 69.8 किलोग्राम उर्वरक का इस्तेमाल होता था जो वर्ष 2006-07 में बढ़कर 113.3 किलोग्राम हो गया। डायमोनियम फॉस्फेट के एक बोरे की कीमत सरकार द्वारा 490 रुपए निर्धारित है किन्तु कालाबाजारी के जरिये इसे यहाँ 600-700 रुपए में बेचा जाता है। हमने रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल को बढ़ाकर इस पर आने वाली लागत को भी काफी बढ़ा दिया है।

इसके बावजूद मणिपुर ने पारम्परिक व्यवहार कायम रखा है और जैविक कृषि की ओर झुकाव को भी दर्शाया है जो पारिस्थितिकीय दृष्टि से लाभप्रद होने के साथ-साथ राज्य के विकास के लिए भी अनुकूल है। इस राज्य में इस प्रकार की गतिविधियाँ आसपास के अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित कर सकती हैं। यह बात सर्वविदित है कि हरित क्रान्ति की उर्वरक आधारित प्रौद्योगिकी और कृषि के बारे में विकासोन्मुखी रणनीति को अत्यधिक बढ़ावा देना भारत सहित विकासशील देशों की कई कृषि प्रणालियों के लिए अनुपयुक्त साबित हुए हैं। मणिपुर के किसान जैविक खादों का अधिक इस्तेमाल करते हैं जो परम्परा के अनुसार है। यह उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार के अलावा गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और उत्तराखण्ड सहित पाँच राज्यों के पास जैविक कृषि की नीतियाँ मौजूद हैं। आन्ध्र प्रदेश इस प्रक्रिया की रूपरेखा तैयार करने में जुटा है। इसके अलावा हिमाचल प्रदेश ने भी जैविक कृषि पर एक राज्य-स्तरीय परियोजना शुरू की है। पूर्वोत्तर के राज्यों ने भी जैविक कृषि को बढ़ावा देने के लिए एक योजना तैयार की है। इस राज्य में जैविक कृषि के बारे में अध्ययन के रास्ते में एक बड़ी रुकावट यह है कि उत्पादन के बारे में विश्वसनीय आँकड़े का अभाव है। कुछ गैर-सरकारी संगठन इस क्षेत्र में सक्रिय हैं।

तालिका-2 जरूरत जैव कृषि कीइस राज्य के विकास के लिए वैकल्पिक और समुचित रणनीतियों को सावधानीपूर्वक तैयार की जरूरत है जिसमें कृषि-पारिस्थितिकी की मजबूती और सीमाओं तथा उभरते युग की बाजार सम्भावनाओं का पूरा ध्यान होना चाहिए। कृषि उद्यम और फसल क्षेत्र का सबसे बड़ा हिस्सा बाहरी उर्वरक का इस्तेमाल न करने की पूर्णतः पारम्परिक प्रक्रिया के बाद जैविक कृषि की एक अन्य प्रक्रिया के प्रति समर्पित है। आमतौर पर छोटे किसानों द्वारा उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाता है। हालाँकि बड़े किसान भी उर्वरकों का उन खेतों में इस्तेमाल करते हैं जहाँ सिंचाई का प्रबन्ध हो, किन्तु पहाड़ी भूमि पर खेती के लिए उन संसाधनों का अभाव है। उर्वरकों का इस्तेमाल करने वाले उद्यमों में रासायनिक कीटनाशकों सहित अन्य प्रकार की आधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना भी शामिल है।

प्राकृतिक तौर पर विकसित प्रौद्योगिकीय व्यवहारों को बदलकर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय बाजारों में अधिकाधिक लाभ अर्जित किया जा सकता है। जैविक कृषि पशुधन के स्वामित्व के साथ सकारात्मक तौर पर जुड़ा है और छोटे खेतों वाले किसानों के समूह के लिए इस संसाधन का प्रभाव बढ़ जाता है। जैविक खेती के लिए मोटे अनाज और चारा तथा सब्जियाँ प्राथमिक फसलें हैं जबकि तिलहनों, दलहनों, मिश्रित फसलों और फलों को पूर्णतः पारम्परिक प्रक्रिया के लिए प्राथमिकता दी जाती है। चावल और गन्ना ऐसी फसलें हैं जिनमें उर्वरकों के इस्तेमाल की अधिक सम्भावना है। पारिस्थितिकी पर विचार करते हुए और मैदानी भागों में उद्योग और कृषि के क्षेत्र में अधिकांश आधुनिक विधियों के सम्भावित प्रतिकूल प्रभावों को ध्यान में रखते हुए भूमि के लिए जनजातीय रिवाजों, पशुधन के स्वामित्व और सिंचाई की सीमाओं के रूप में आर्थिक मजबूती के रूप में राज्य के विकास में जैविक कृषि एक आशाजनक क्षेत्र है।

प्राकृतिक तौर पर विकसित प्रौद्योगिकीय व्यवहारों को बदलकर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय बाजारों में अधिकाधिक लाभ अर्जित किया जा सकता है। इस क्षेत्र में अनुभव-आधारित विश्लेषण से भी सब्जियों और चारे की अपेक्षित सम्भावना का पता चलता है। इन फसलों के अवशेषों के रिसाइक्लिंग से प्रत्यक्षतः उनका बदलाव फसलों के बायोमास के रूप में होता है। यह कार्य अप्रत्यक्ष रूप से पशुओं के माध्यम से भी होता है, जिसका लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इस व्यवहार को आधुनिक विधियों की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि इन्हें गरीबी से निपटने के एक सशक्त औजार के रूप में देखा जाता है। साथ ही प्रसंस्करण की गतिविधियों और प्रणालीबद्ध जैविक खेती के माध्यम से पशुधन और वानस्पतिक उत्पाद मूल्य-संवर्द्धन को बढ़ावा देते हैं। यह निवेश को आकर्षित करने में मददगार हो सकता है। इसके बल पर स्त्री-पुरुष समानता के साथ श्रमिकों की सार्थक भागीदारी के साथ ही स्वदेशी पहचान कायम रखते हुए बाहरी अर्थव्यवस्था के साथ क्षेत्र को जोड़ने में आसानी होगी। किसी क्षेत्र की मजबूती स्थिरता, प्राकृतिकता और परम्पराओं से जुड़ी होती है जो उसे प्राकृतिक सौन्दर्य, अमन और समृद्धि प्रदान करती है। इस क्षेत्र द्वारा राष्ट्र उपलब्ध कराया जा रहा परिवेश निश्चित तौर पर आर्थिक विकास के लिए मददगार हो सकता है।

तालिका-3 जरूरत जैव कृषि की

उपसंहार


जैविक कृषि सभी प्रकार की धारणीय कृषि और ग्रामीण विकास के लक्ष्यों के प्रति सकारात्मक होने के साथ-साथ फसल उत्पादन में सुधार लाने के लिए मिट्टी की उर्वरता कायम रखने और किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार लाने में मददगार है। मिट्टी को स्वस्थ बनाना जैविक कृषि के सबसे बड़े लाभों में से एक है। इनके साथ लाभादायक और स्वस्थ जीवाणु, फफून्द और बैक्टीरिया होते हैं जो बीमारी पैदा करने वाले नुकसानदायक बैक्टीरिया और फफून्द को नियन्त्रित करते हैं। समुचित तौर पर व्यवस्थित जैविक कृषि से जल प्रदूषण कम होता है जिससे खेत में जल और मिट्टी का संरक्षण होता है और इस प्रकार कृषि आधारित जैव विविधता निरन्तर कायम रहती है। प्राकृतिक संरक्षण के प्रति दृढ़प्रतिज्ञ होना जैविक कृषि की एक अनिवार्यता है।

मणिपुर राज्य की विशेष प्रकृति और इसकी अवस्थिति को ध्यान में रखते हुए जैविक खेती की शुरुआत और इन क्षेत्रों में जैविक खाद तथा जैविक कम्पोस्ट इस्तेमाल पर जोर देना चाहिए जो निर्यात के लिए भी लाभदायक हो सकता है। मणिपुर राज्य की विशेष प्रकृति और इसकी अवस्थिति को ध्यान में रखते हुए जैविक खेती की शुरुआत और इन क्षेत्रों में जैविक खाद तथा जैविक कम्पोस्ट इस्तेमाल पर जोर देना चाहिए जो निर्यात के लिए भी लाभदायक हो सकता है। पौधों के पोषक तत्वों के जैविक स्रोतों को बढ़ावा देने के लिए प्रयास की जरूरत है। विशाल कृषि क्षेत्र होने के कारण इस राज्य के लिए तुलनात्मक दृष्टि से यह लाभदायक है क्योंकि यह रासायनिक प्रदूषण से मुक्त रहने के साथ ही विविधतापूर्ण कृषि जलवायु की विशिष्ट स्थितियों के बीच फैला हुआ है जिसे जल्द ही जैविक कृषि के रूप में आसानी से परिणत किया जा सकता है। राज्य के किसान पोषकों के एक स्रोत के रूप में अक्सर जैविक कम्पोस्ट का इस्तेमाल करते हैं जो उन्हें अपने खेतों से अथवा स्थानीय रूप में उपलब्ध हो जाता है। मणिपुर में जैविक कृषि को अपनाने की अपार सम्भावना है जहाँ ग्रामीण और शहरी कम्पोस्ट फसलों के अवक्षेप और जैविक उर्वरकों आदि की प्रचुरता है। इस राज्य की जनता पारिस्थितिकीय विकास के लिए संसाधनों और नीतियों की माँग कर रही है ताकि इस क्षेत्र और बाजार की सम्भावनाओं का दोहन किया जा सके। दिनानुदिन खेती की लागत बढ़ती जा रही है और उसी प्रकार किसानों की जोत की जमीन घटती जा रही है। इन परिस्थितियों में अधिकांश किसानों के लिए खेती की व्यवहार्यता प्रभावित होती है। कुछेक बड़े किसानों को छोड़कर, प्रायः सभी किसान कर्ज के मकड़जाल में फंसे हैं और ऋण अदायगी करने में असमर्थ हैं। भूमि को ऋणदाताओं के पास बन्धक रख दिया जाता है जो कभी-कभी वसूली के लिए कठिन चाल चलते हैं। किसान अक्सर अपनी भूमि को खो देने के भय के बीच जीवन गुजारते हैं। इस अत्यन्त कठिन किन्तु अत्यावश्यक कार्य को निपटाने के लिए दो बातें काफी महत्त्वपूर्ण हैं— काम करने की इच्छाशक्ति और राज्य में जैविक खेती की गतिविधि के लिए सकारात्मक वातावरण।

जैविक कृषि का नीतिगत दृष्टिकोण मिशन-आधारित और किसानोन्मुखी होना चाहिए जो वाणिज्यिक और कार्पोरेट-केन्द्रित जैविक कृषि के दृष्टिकोण से भिन्न हो, ताकि कृषि का क्षेत्र आर्थिक और पारिस्थितिकीय तौर पर धारणीय हो सके। आधुनिक कृषि प्रणालियाँ प्रकृति, मानव और सभ्यता के लिए थकानकारी, शोषणकारी और अपमानजनक साबित हुई हैं। इसलिए हमें एक ऐसी कृषि प्रणाली को अपनाना है जो हमारे किसानों को उनका स्वाभिमान, आत्मसम्मान, आत्मविश्वास को वापस लाने के साथ ही उनके पूर्वजों की कृषि से जुड़ी विरासत के प्रति विश्वास को वापस ला सके। इसलिए मणिपुर में जैविक खेती के लिए जल्द-से-जल्द एक गम्भीर योजना की जरूरत है।

(लेखिका मणिपुर विश्वविद्यालय के जैव विज्ञान विभाग में शोध अध्येता हैं)
ई-मेलः radhawang@gmail.com

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