लगभग प्रत्येक वर्ष ऐसा होता है कि वर्षाऋतु के निकट आते-आते बातें होने लगती हैं कि वर्षा किस प्रकार होगी। अधिकतर स्थिति में यही शंका जताई जाती है कि वर्षा औसत से कम होगी। कभी एल-नीनों का खतरा सामने आता है तो कभी कुछ और। अगर यह भी होता है कि वर्षा के औसत के आस-पास ही होने की संभावना जताई जाती है तो यह शंका सामने आती है कि हर जगह ठीक वर्षा होगी या कहीं कम और कहीं अधिक। देश भर में किसान वर्षा के आने का बेसब्री से इंतजार करते हैं। अगर वर्षा के आरंभ होने में दो-चार दिन की देरी हो जाती है तो हर तरफ चिंता जताई जाती है कि कहीं मौसम विभाग का अनुमान गलत तो नहीं है। वैसे एक दो दशक में मौसम विभाग का आकलन बहुत बेहतर हो गया है। एक तरफ मौसम विभाग उच्च स्तरीय तकनीक का उपयोग करने लगा है तो दूसरी तरफ कम्प्यूटर की उन्नति के कारण बहुत सहायता मिली है। मौसम विभाग अपने काम में सुपर कम्प्यूटर का भी उपयोग करता है। फिर भी कभी-कभी ऐसा होता है कि मौसम का मिज़ाज एक दम से बदल जाता है और उस कारण पूर्वानुमान शत-प्रतिशत सही नहीं रहता है।
भारत के किसान अभी भी बहुत अधिक हद तक वर्षा पर निर्भर हैं। अगर वर्षा ठीक होती है तो पूरे देश के किसान प्रसन्न होते हैं। अगर वर्षा में थोड़ी भी कमी हो जाती है तो उसका प्रभाव खेती पर अवश्य पड़ता है और परिणाम होता है कि किसानों को उम्मीद के अनुसार उपज नहीं मिलती है। यही कारण है कि पूरे देश के लिये वर्षा ऋतु का इतना अधिक महत्त्व है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। पूरे देश में कार्यरत लोगों में से लगभग 70 प्रतिशत लोग किसी न किसी तरह कृषि से जुड़े हुए हैं। देश में लगभग 43 प्रतिशत क्षेत्र का उपयोग कृषि के लिये होता है। यह अलग बात है कि कुल घरेलू उत्पाद का केवल 29 प्रतिशत कृषि क्षेत्र से आता है। परंतु इतने अधिक लोगों के जुड़े होने के कारण कृषि का महत्त्व बहुत अधिक हो जाता है। एक दूसरा कारण यह भी है कि केवल किसान ही कृषि से जुड़े हुए नहीं हैं। व्यापारी, वाहक, संसाधन में लगे लोग, निर्यातक आदि भी कृषि उत्पाद पर बहुत हद तक आधारित रहते हैं।
कृषि क्षेत्र में अनेक प्रकार की मशीनों का उपयोग होता है। इस कारण उद्योग भी कृषि से जुड़ जाते हैं। अगर किसान खुशहाल होता है तो उसके खर्च करने की क्षमता अधिक होती है। उसका प्रभाव पूरे बाज़ार पर पड़ता है। इन्हीं सब कारणों से कृषि का महत्त्व बहुत बढ़ जाता है। चूँकि भारत में कृषि का बहुत गहरा संबंध वर्षा के साथ है इसलिये वर्षा के आने के बहुत पहले से ही वर्षा की चर्चा होने लगती है। मौसम विभाग लगातार विज्ञप्ति जारी करता है। रेडियो, टी.वी. आदि भी दिन में कई बार मौसम की जानकारी देते हैं। कई समाचार पत्र हर दिन सूचना देते हैं कि कब कहाँ वर्षा होगी। वर्षा आरंभ होने के बाद प्रत्येक दिन यह बताया जाता है कि किस-किस क्षेत्र में कितनी वर्षा हुई तथा वह सामान्य से कितनी कम या ज्यादा थी। साल दर साल के आंकड़े भी दिए जाते हैं और उनकी तुलना भी होती है।
अगर हम इन सबके पीछे के कारण को देखें तो हमें पता चलता है कि प्रमुख कारण यह है कि भारत में मुख्य रूप से वर्षा लगभग चार महीनों में होती है अर्थात जून से सितम्बर के बीच। उसी अवधि को वर्षाऋतु का नाम दिया जाता है। पूरे साल की कुल वर्षा का लगभग 75 प्रतिशत इन चार महीनों में होता है। बाकी के आठ महीनों में छिटपुट वर्षा ही होती है। यही कारण है कि पूरे देश के लिये इन चार महीनों में होने वाली वर्षा का बहुत अधिक महत्त्व है। अगर इस वर्षा में कमी होती है तो पूरे देश में चिंता का माहौल बन जाता है। इस संबंध में एक दूसरा तथ्य भी महत्त्वपूर्ण होता है। अगर वर्षा किसी खास क्षेत्र में अधिक तथा दूसरे क्षेत्र में कम होती है तो औसत पर उसका प्रभाव अधिक नहीं दिखाई देगा परंतु अलग-अलग क्षेत्र में उसका प्रभाव अलग-अलग हो सकता है। कहीं-कहीं सूखा हो सकता है तो अन्य क्षेत्र में बाढ़ की स्थिति बन सकती है। उदाहरण स्वरूप वर्तमान समय में वर्षा की मात्रा औसत से लगभग 14 प्रतिशत कम है। परंतु देश का 40 प्रतिशत भाग सूखा की चपेट में जाता हुआ दिखाई दे रहा है।
ऐसा नहीं है कि देश में पूरी की पूरी खेती सीधे वर्षा पर निर्भर है। वर्ष 1951 में देश की कुल कृषि योग्य भूमि के केवल 17 प्रतिशत क्षेत्र को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध थी। वर्ष 1991 में वह अनुपात 34 प्रतिशत हो गया और वर्ष 2011 में 47 प्रतिशत हो गया। यहाँ यह भी समझना होगा कि सिंचाई के लिये नहरों से अधिक भूमिगत जल का इस्तेमाल होता है। इस कारण कृषि में कुछ सुधार भी हुआ है। उदाहरण स्वरूप देश में जब वर्ष 2002-03 में जब बहुत गंभीर किस्म का सूखा पड़ा था तो कृषि उत्पादन में केवल 6.6 प्रतिशत की कमी हुई थी। परंतु वर्ष 2009-10 में जब देश में वर्ष 1972 के बाद सब से अधिक प्रचंड सूखा पड़ा था, उस वर्ष कृषि उत्पादन में 0.8 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई थी। ऐसा तब हुआ था जब वर्षा औसत से लगभग 23 प्रतिशत कम हुई थी। वर्ष 2012-13 में वर्षा औसत से लगभग 18 प्रतिशत कम हुई थी। परंतु कृषि उत्पादन में 1.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी। वर्ष 2013-14 में वर्षा 12 प्रतिशत कम हुई थी फिर भी कृषि उत्पादन में लगभग 4.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। निष्कर्ष यह है कि अब कृषि उत्पादन बिल्कुल सीधे वर्षा की मात्रा पर निर्भर नहीं करता है।
अब देश की कृषि में काफी हद तक लचीलापन आ गया है। फिर भी हम किसी तरह वर्षा तथा वृष्टिपात के महत्त्व को कम कर नहीं आंक सकते हैं। कारण स्पष्ट है। जिस प्रकार की कृषि हम लोग करते हैं उसके लिये हमें स्वच्छ जल अर्थात जो जल नमकीन नहीं हो उसकी आवश्यकता होती है। यहाँ हमें एक तथ्य पर अवश्य ध्यान देना होगा। बचपन से ही हम यह सुनते आ रहे हैं कि पृथ्वी का लगभग दो-तिहाई भाग पानी से ढका हुआ है। अंतरिक्ष से देखने पर पृथ्वी का बड़ा भाग नीला दिखाई देता है। इसीलिये पृथ्वी को नीला ग्रह का नाम दिया जाता है। पृथ्वी पर फैले महासागरों तथा समुद्रों में बहुत बड़ी मात्रा में पानी है। फिर भी यह कहना सही नहीं होगा कि पृथ्वी पर पानी की मात्रा असीमित है। ऐतिहासिक तौर पर पृथ्वी पर पानी की मात्रा एक जैसी ही रही है। ऐसा अवश्य होता रहा है कि पानी के अलग-अलग रूप में बदलाव होता रहा है। कभी बर्फ की मात्रा बढ़ जाती है तो कभी वायुमंडल में जलवाष्प का अनुपात बढ़ जाता है और कभी भूमिगत जल का भंडार बड़ा हो जाता है। कुल मात्रा वही रहती है।



इसी प्रकार जहाँ नहर से सिंचाई की सुविधा है वहाँ लोग सामान्यतः आवश्यकता से अधिक सिंचाई करते रहे हैं। एक दूसरा आयाम यह है कि देश में अधिकतर नहरें कच्ची हैं। उनसे पानी का रिसाव होता रहता है और वह पानी बेकार चला जाता है। कहीं-कहीं नहरों की लंबाई बहुत अधिक है। इस कारण भी काफी पानी बेकार चला जाता है क्योंकि वह वाष्प के रूप में निकल जाता है। उसके बाद जहाँ तक पर्याप्त मात्रा में पानी पहुँचता है वहाँ सामान्यतः आवश्यकता से भी अधिक सिंचाई होती है। उसके आगे के क्षेत्र के किसानों को पानी मिलता है या नहीं इसकी चिंता लोग कम ही करते हैं। वे किसान इस विषय पर भी ध्यान नहीं देते हैं कि आवश्यकता से अधिक सिंचाई के कारण खेत को नुकसान पहुँचता है। मिट्टी का कटाव भी होता है और भूमि लवणयुक्त भी हो जाती है। दोनों स्थितियों में उपज में कमी होती है। जहाँ तक ऊर्जा तथा अन्य संसाधनों की बर्बादी का प्रश्न है तो वह तो होता ही है। इस कारण कृषि पर होने वाला खर्च भी बढ़ता है।




उदाहरण के लिये मिट्टी बहुत सख़्त नहीं हो और भूमि पर पर्याप्त मात्रा में वन तथा वनस्पति हो। वन तथा वनस्पति क्षेत्र कई प्रकार से सहायक होते हैं। वह मिट्टी को सख्त नहीं होने देते हैं। पेड़-पौधों की जड़ें मिट्टी में रास्ता बनाती हैं जिनसे होकर पानी सहजता से नीचे जाता है। पेड़-पौधों के कारण वर्षाजल सीधे भूमि पर नहीं गिरता है। वह उन से छन कर धीरे-धीरे गिरता है। उस कारण पानी की बूँदों की मार हल्की हो जाती है और मिट्टी सुरक्षित रहती है। एक अन्य प्रकार का अंतर यह होता है कि पेड़-पौधों में तथा अन्य जीवों की उपस्थिति के कारण भूमि की स्तह पर बड़ी मात्रा में पत्तियां, टहनियां, फल, फूल तथा अन्य प्रकार के तत्व जमा रहते हैं। वह सब वर्षा के समय पानी को सोख लेते हैं तथा वर्षा समाप्त होने के बाद भी पानी को छोड़ते रहते हैं। इस कारण पानी को रिसने के लिये अधिक समय मिलता है। कुल मिला कर परिणाम होता है कि अधिक से अधिक मात्रा में पानी भूमिगत भंडार तक पहुँचता है और जमा होता है। वन तथा पेड़-पौधों वाले क्षेत्र के समाप्त होने से इस प्रकार के सभी प्राकृतिक साधन कम हो जाते हैं या समाप्त हो जाते हैं।

बढ़ते शहरीकरण और ज़मीन की लगातार बढ़ती कीमत ने ऐसे अधिकांश क्षेत्र को समाप्त कर दिया है। पेड़-पौधे कट चुके हैं और उनकी जगह मकान, फ्लैट, भवन, मॉल आदि बन गए हैं या वहाँ उद्योग लग गए हैं। ऐसा लगभग हर एक छोटे-बड़े शहर में हुआ है। महानगरों की स्थिति तो ज्यादा ही खराब है। कुछ दशक पहले तक शहरों के बीच भी और उनके बाहरी भाग में खेती भी होती थी। अब वह सब खत्म हो चुका है या हो रहा है। कारण वही है, अर्थात जमीन की बढ़ती मांग तथा ऊँची कीमत। वनों के समाप्त होने पर किस प्रकार पानी की उपलब्धता प्रभावित होती है इसका ज्वलंत उदाहरण मेघालय के चेरापूंजी तथा आस-पास के क्षेत्र में देखा जा सकता है। स्कूल, कॉलेज की पाठ्य पुस्तकों में कुछ समय पूर्व तक चेरापूंजी का उल्लेख अवश्य होता था। कारण था कि वह स्थान पूरी पृथ्वी पर सबसे अधिक वर्षा वाला स्थान था। वहाँ प्रतिवर्ष औसतन 12,500 मिलिमीटर वर्षा होती थी। अब पास के एक दूसरे स्थान, मावसिनराम को वह गौरव मिल गया है।
वहाँ सबसे अधिक वर्षा होती है। परंतु चेरापूंजी दूसरे स्थान पर बना हुआ है। विडंबना यह है कि वर्षा ऋतु के समाप्त होने के साथ ही वहाँ के लोगों को पानी की कमी का सामना करना पड़ता है। झरने, पहाड़ी नाले आदि सूख जाते हैं। लोगों को पीने के लिये भी पानी लेने कई किलोमीटर चलना पड़ता। नगर पालिका द्वारा पानी बहुत कम समय के लिये दिया जाता है और वह भी निश्चित रूप से नहीं। नगर पालिका द्वारा लगाए हुए नलों पर पानी के लिये लंबी कतार लगती है। ऐसा उस जगह पर है जहां पूरे विश्व में अधिकतम वर्षा होती रही है। कारण वही है। उस पूरे क्षेत्र में धड़ल्ले से जंगल कटे हैं वैसे भी तथा खनन के कारण भी। परिणाम होता है कि वर्षा के समय गिरने वाला पानी सतह पर बहता हुआ निकल जाता है। आगे चल कर वह पहाड़ी ढलानों से हो कर पानी बांग्लादेश में पहुँच जाता है। चेरापूंजी तथा आस-पास जितना पानी जमा होना चाहिए वह होता नहीं है।

झील, तालाब, जलाशय आदि के सामने एक दूसरी समस्या भी है। पिछले कई दशकों में बहुत सारे तालाब, जलाशय, झील आदि को लोगों ने समाप्त कर दिया है। ऐसा हुआ तो लगभग हर जगह है परंतु शहरों के आस-पास अधिक हुआ है। शहरों के फैलने के कारण भूमि की मांग बढ़ी है और उसकी कीमत भी। लालच में पड़ कर लोगों ने तालाब, झील, जलाशय आदि को धीरे-धीरे भर दिया। होता यह है कि ऐसे जल निकायों के आस-पास बड़े पैमाने पर निर्माण होने के कारण वर्षा के समय पर्याप्त मात्रा में पानी उन तक पहुँच नहीं पाता है। फिर लोग कूड़ा, मलबा आदि उनमें डालने लगते हैं। कुछ समय में वहाँ जलाशय, तालाब, झील आदि का अस्तित्व ही नहीं बचता है। फिर उस जगह पर अतिक्रमण होता है और वहाँ निर्माण होने लगता है। नदियों के साथ भी ऐसा हुआ है। मलबा, कूड़ा आदि डाल कर नदियों की चौड़ाई को कम कर दिया जाता है और वहाँ निर्माण होने लगता है। देश की राजधानी में भी यमुना नदी के साथ ऐसा व्यवहार हुआ है।
कुछ समय से दिल्ली से प्रकाशित होने वाला एक दैनिक समाचार पत्र निरंतर रिपोर्ट प्रकाशित कर रहा है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तथा आस-पास में कितनी तेजी से तालाब, झील, जलाशय आदि की हत्या हुई है। जहाँ लेखक रहता है उस जगह भी कुछ वर्ष पूर्व तक दो बड़े-बड़े तालाब थे। उनका पानी उपयोग में भी लाया जाता था। परंतु अब उनका निशान भी नहीं बचा है। अब उस जगह निर्माण हो चुका है। लगभग हर शहर तथा कस्बों में ऐसा हुआ है और महासागरों में तो अधिक ही हुआ है।

दिल्ली के विषय में आंकड़े बताते हैं कि प्रतिवर्ष औसतन भूमिगत जल का स्तर लगभग 40 सेंटीमीटर नीचे जाता है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, ओडिसा, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना आदि में बहुत बड़ा क्षेत्र ऐसा है जहाँ भूमिगत जल का स्तर लगातार गिर रहा है। उसका अधिकतम प्रभाव छोटे किसानों पर पड़ता है। कुएँ सूख जाते हैं और उनके पास इतना धन नहीं होता है कि शक्तिशाली पंप लगा कर अधिक गहराई से पानी निकाल सकें। उनकी फसल पानी की कमी का शिकार होती है। तालाब, झील, जलाशय तो पहले ही कम हो चुके हैं। जो हैं वह भी वर्षा के थोड़े दिनों बाद सूखने लगते हैं। स्थिति इतनी खराब हो जाती है कि पीने के लिये भी पानी नहीं मिलता है। ऐसी जगह से लोग पलायन करने लगते हैं। फसल खराब होने के कारण होने वाले नुकसान का बोझ नहीं सह पाने वाले किसानों की स्थिति दयनीय हो जाती है। बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या भी कर लेते हैं।
समस्याएं अनेक हैं। सभी का समाधान इतना सरल नहीं है। परंतु अगर सरकारी स्तर पर तथा समुदाय के स्तर पर पहल हो तो कुछ का समाधान हो सकता है और कुछ के प्रभाव को कम किया जा सकता है। कृषि क्षेत्र में पानी का सबसे अधिक इस्तेमाल होता है। अगर कृषि क्षेत्र में आयोजित विधि से कदम उठाए जाएं तो काफी लाभ हो सकता है। उदाहरण के लिये जिस क्षेत्र में पानी की कमी है वहाँ बहुत अधिक पानी खर्च करने वाली फसलें नहीं उगानी चाहिए। उदाहरण के लिये धान, गन्ना, कपास आदि। वहाँ यूकेलिप्टस जैसे पेड़ भी नहीं लगाए जाएँ तो बहुत लाभ हो सकता है। सिंचाई के लिये फुहारा (स्प्रिंकलर्स) या टपक विधि (ड्रिप इरिगेशन) के उपयोग से कम पानी से अधिक उपज ली जा सकती है। फसल का चयन करते समय किसी भी क्षेत्र में इस विषय को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि उस क्षेत्र में क्या संभावना है, पिछले कुछ वर्षों में क्या स्थिति रही है? उन सबको ध्यान में रख कर ही फसल का चयन होना चाहिए। केवल अधिक उपज तथा अधिक लाभ को ध्यान में नहीं रखना चाहिए।
खाद्य पदार्थ की बर्बादी भी पानी की कमी का कारण बनती है। दो वर्ष पूर्व का अनुमान था कि देश में हर साल केवल फसल के कटने के बाद फल तथा सब्जी की जो बर्बादी होती है उसकी कीमत लगभग दो लाख करोड़ रुपए प्रतिवर्ष थी। अनाज तथा दूसरी फसलें उनके अतिरिक्त थे, जो बर्बाद होते थे। इस प्रकार की बर्बादी से अर्थव्यवस्था पर जो प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है वह अलग है। इस बर्बादी के कारण कितना पानी तथा दूसरे प्रकार के संसाधनों की बर्बादी होती है वह अलग है। एक केला उगाने की प्रक्रिया में लगभग 16 लीटर पानी खर्च होता है। अगर आधा किलोग्राम टमाटर बेकार जाता है तो उसका अर्थ है कि 200 लीटर पानी भी बेकार गया। अगर एक सेब बेकार जाता है तो उसका मतलब है लगभग 160 लीटर पानी का बेकार जाना। अगर भोजन करने के बाद हम थाली में 50-60 ग्राम भोजन छोड़ देते हैं तो उसके साथ 50 लीटर से अधिक पानी की बर्बादी होती है। मांसाहारी खाद्य सामग्री के तैयार होने में तो और भी अधिक पानी लगता है। कॉफी का एक प्याला तैयार होने में लगभग 250 लीटर पानी खर्च हो जाता है। मुख्य खर्च कॉफी के बीज को उगाने में होता है। परंतु हम इन तथ्यों पर ध्यान नहीं देते हैं। हर दिन कितनी चीजें फेंकते हैं।

सरकारी क्षेत्र के कई कार्यक्रम हैं जिनके धन का उपयोग कर तालाब, झील, जलाशय बनाए जा सकते हैं या उन्हें बेहतर बनाया जा सकता है। छोटे-छोटे बाँध जिन्हें चैक डैम के नाम से जाना जाता है। वह भी बन सकते हैं। परंतु जमीनी स्तर पर बहुत कम काम होता है। वर्षाजल संग्रह की बात लगातार होती है। परंतु काम बहुत कम होता है। केवल खाना-पूर्ति की जाती है। अनेक स्थान पर वर्षाजल संग्रह का प्रावधान भी किया गया है। परंतु कुछ समय बाद देख-रेख नहीं होने के कारण वह बेकार हो गया। हमें सभी बातों पर समुचित रूप से ध्यान देना होगा। तब ही स्थिति सुधरेगी और सीधे वर्षा से हमारी निर्भरता कम होगी।

सम्पर्क
डॉ. एम.ए. हक
(पूर्व निदेशक, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत सरकार), सी-1713, पालम विहार, गुड़गांव-122017, ई-मेल : asarulhaque@hotmail.com
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