जोड़ने का हश्र

नदी बांधने की मानवीय लागत साढ़े चार लाख लोग - जिनमें अधिकांशतः आदिवासी और पिछड़ा तबका शामिल है - हजारों किलोमीटर में बहने वाली नहरों के निर्माण और लगभग 200 जल एकत्रण बांध की बलि चढ़ जायेंगे यानी विस्थापित होंगे। इसमें 79000 हेक्टेयर वन भूमि भी डूब जायेगी। वैसे भी भारत में विकास परियोजनाओं के शिकार लोगों के पुनर्वास के तरीकों को देखते हुए स्पष्ट है कि नदियों के जुड़ाव की इस परियोजना से विस्थापित हुए लोगों को काई न्याय मिलना असंभव है। नदी बांधना राजनीतिक दृष्टि से एक बड़ी मूर्खता है, पर्यावरण की दृष्टि से एक विनाशकारी पहल है और आर्थिक मायने में काफी महंगा सौदा है। सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को 31 अक्तूबर, 2002 को नया निर्देश दिया कि वह वर्ष 2015 तक इस देश की प्रमुख नदियों को आपस में जोड़े। राष्ट्रीय जल विकास प्राधिकरण (एनडब्ल्यूडीए) ने राष्ट्रीय नदी धारा (ग्रिड) का प्रस्ताव रखा है। और इसने नदी के ऐसे 30 जुड़ावों की पहचान कर ली है, जिनसे भारत की सभी मुख्य नदियां आपस में जुड़ पायेंगी।

इस योजना का यह सपना है कि इससे वर्षा ऋतु में कुछेक दिनों में हिमालय और प्रायद्वीप से आने वाले बाढ़ का पानी काम में लाया जा सकेगा, जिसका बहाव अनुमानतः 30,000 से 60,000 घन मीटर प्रति सेकेंड (क्यूमेक) होगा। इस पानी का जलाशयों में जमा किया जायेगा और अंततः इसे हजारों किलोमीटर लंबी नहरों के जरिये दक्षिण, पश्चिम और मध्य भारत की सूखी कृषि भूमि में पहुंचाया जायेगा।

परंतु इसके गहन विश्लेषण से इस बात का पर्दाफाश हुआ कि कुल 60,000 क्यूमेक बाढ़ जल बहाव में से सिर्फ 4500 क्यूमेक पानी ही खींचा जा सकेगा। इतनी कम मात्रा से देश की कोई बाढ़ समस्या नहीं दूर होगी। इसके अलावा गंगाजल से तृप्त होने वाले राज्य वर्षा ऋतु के दौरान बाढ़-ग्रस्त होंगे और सूखे मौसम में जल संकट से त्रस्त। जल हस्तांतरण से अंततः राज्यों के बीच झगड़े पनप सकते हैं।

अभी तक तो अंतर-नदी घाटी हस्तांतरण संबंधी मसले से निपटने के लिए कोई संस्थात्मक तंत्र नहीं बना है। एक प्रस्ताव है कि राष्ट्रीय नदी जल धारा संबंधी सारी शक्तियां केन्द्र के पास हों, परंतु इसकी कोई संभावना नहीं दिखती है कि राज्य इस प्रस्ताव से सहमत होंगे और आखिर में परियोजना एक लंबे मुकदमे में उलझ कर रह जायेगी।

सीमा पार बांग्लादेश ने पहले ही अपनी शर्त रख दी है। इस परियोजना से बांग्लादेश की दो प्रमुख नदियों - गंगा और ब्रह्मपुत्र का प्राकृतिक जल बहाव बाधित होगा। 1996 की फरक्का संधि से भारत के हाथ बंधे हुए हैं, जिसके तहत गंगा को बांग्लादेश में अविरल बहने दिया जायेगा।

इस परियोजना में यह दावा किया गया है कि इससे पेयजल की आपूर्ति बढ़ेगी। घरेलू जरूरतों के लिए नहरों, कुओं और ट्यूबवेलों से जल का उपयोग कुल जल उपयोग का सिर्फ पांच प्रतिशत ही है। ऐसे में पानी की बढ़ती आवश्यकता को पूरा करने के लिए नदियों को जोड़ना किसी तरह से भी न्यायोचित नहीं होगा। इससे बड़ी बात यह है कि बिना कोई बड़ा निवेश किये सभी निवासियों तक पानी पहुंचाना लगभग असंभव है। वर्षा जल संग्रहण की पारंपरिक तकनीकों को जिंदा करके और उनमें सुधार कर विकेंद्रित स्थानीय जल संग्रहण व्यवस्था लाने से पानी की जरूरतें ज्यादा कारगर ढंग से पूरी होंगी और वो भी काफी कम लागत पर।

इस परियोजना में घोषित किये गये फायदों के विपरीत इसकी सामाजिक और आर्थिक लागत कहीं ज्यादा है। विश्व बैंक के एक आकलन के अनुसार भारत में जल प्रदूषण से स्वास्थ्य पर खर्च वाली लागत देश के सकल घरेलू उत्पाद का तीन प्रतिशत है। भारतीय नदियां तो पहले से ही प्रदूषित हैं, ऊपर से उनको जोड़ने से इस लागत में बढ़ोत्तरी ही होगी।

नदी बांधने की मानवीय लागत साढ़े चार लाख लोग - जिनमें अधिकांशतः आदिवासी और पिछड़ा तबका शामिल है - हजारों किलोमीटर में बहने वाली नहरों के निर्माण और लगभग 200 जल एकत्रण बांध की बलि चढ़ जायेंगे यानी विस्थापित होंगे। इसमें 79000 हेक्टेयर वन भूमि भी डूब जायेगी।

वैसे भी भारत में विकास परियोजनाओं के शिकार लोगों के पुनर्वास के तरीकों को देखते हुए स्पष्ट है कि नदियों के जुड़ाव की इस परियोजना से विस्थापित हुए लोगों को काई न्याय मिलना असंभव है।

एनडब्ल्यूडीए के मुताबिक, नदियों को जोड़ने पर 5,60,000 करोड़ रुपये की लागत आंकी गयी है। परंतु यह तो वही घिसा-पिटा आंकड़ा है। इस परियोजना के क्रियान्वयन में लगे कार्य-दल के अध्यक्ष सुरेश प्रभु का कहना है कि इस परियोजना पर 10,00,000 करोड़ रुपये तक की लागत आ सकती है। यह आंकड़ा देश की सकल घरेलू बचत से भी कहीं ज्यादा है और इस पर आने वाला खर्च भारत के कुल विदेशी कर्ज से कहीं ज्यादा है।

प्रभु ने इस प्रयास में अब उद्योग जगत से भी समर्थन देने का आह्वान किया है। फेडरेशन आॅफ इंडियन चैंबर्स आॅफ कामर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) तथा कंफेडेरेशन आॅफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) नदियों के जुड़ाव से संभावित फायदों को देखते हुए चर्चा में मशगूल है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिये भी यह एक सुनहरा मौका है कि वे इस लूट में शामिल हो जायें।

वास्तव में देखा जाये तो पानी के लिए त्राहि-त्राहि करने वाले हमारे समुदायों को हो सकता है कि पानी का और भी ज्यादा संकट झेलना पड़े। प्रभु का सुझाव है कि सरकार कर्ज लेकर और उपयोगकर्ता शुल्क के जरिये पैसा एकत्रित कर सकती है। इसका यही अर्थ है कि स्थानीय जल उपयोगकर्ताओं को ही यह परियोजना चलाये रखने के लिए भारी मूल्य चुकाना पड़ेगा।

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Post By: Shivendra
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