‘सुरक्षित वन और असुरक्षित समुदाय’
सभ्यता का अर्थ है प्रकृति के खिलाफ अभियान – बर्टेड रसल
“हमारे लोग यहां सृष्टि के आरंभ से रहते आए हैं। हम कभी धरती के स्वामी नहीं रहे। धरती हमारी मां है। हम उसके बच्चे हैं। हम इस ज़मीन के न्यासी (देखरेख करने वाले) हैं। यह देखना हमारी ज़िम्मेदारी है कि भूमि भावी पीढ़ी को पालती रहे जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की है। यह हमारी धरोहर है। फिर तुम, अंग्रेज लोग, एक विदेशी नस्ल होते हुए अपने को उन वनों के स्वामी और मालिक कैसे घोषित कर सकते हो, जो हमें पालते और जीवन देते हैं? तुम हमें हमारे एक मात्र घर में घुसने से कैसे रोक सकते हो? इस नियम को मानने से पहले हम जान दे देंगे।”
-तिलका मांझी (सन् 1784 में भागलपुर (बिहार) कलेक्टरी में)
लार्ड डलहौजी ने सन् 1855 में पूरे देश में वनों के संरक्षण के लिए नियम बनाए। इसके तहत मालाबार की पहाड़ियों में सागौन और नीलगिरी की पहाड़ियों में बबूल और नीलगिरी के पेड़ लगाए गए। उसकी इन्हीं करतूतों की परिणिति सन् 1865 और 1878 के वन अधिनियम के रूप में हुई। इसके परिणामस्वरूप इनमें बसने वाले समुदायों के वन अधिकार शून्य हो गए। सन् 1894 की पहली सार्वजनिक वन नीति ने तो भारत के वनों का पूरा कलेवर ही बदल डाला।
‘फारेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया’ के अनुसार देश का एक चौथाई हिस्सा वनों से आच्छादित है। कुल वनों में से 90 प्रतिशत सरकार की संपत्ति है। योजना आयोग ने नवीन पंचवर्षीय योजना की समीक्षा में कहा था कि वनों में रहने वालों की कुल संख्या करीब 10 करोड़ है और इनमें से करीब 5.40 करोड़ आदिवासी हैं। अधिकांश वन कम कृषि उत्पादकता वाले शुष्क क्षेत्रों में स्थित हैं। इसका 78 प्रतिशत हिस्सा 187 आदिवासी और पहाड़ी जिलों में स्थित है। यहां स्थित 1,70.379 गांव की जनसंख्या 4,67,77,463 है। सारे गांव वन क्षेत्रों के अंतर्गत आते हैं। वहीं मध्य प्रदेश के आंकड़ों पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि मध्य प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 3,08,245 वर्ग किलोमीटर है और इसमें से अधिसूचित वन क्षेत्र 95,222 वर्ग किलोमीटर है। इस तरह मध्य प्रदेश का कुल 30.9 प्रतिशत क्षेत्र वन क्षेत्र है। मध्य प्रदेश वनों के मामले में कई अन्य प्रदेशों से आगे है। मध्य प्रदेश के आदिवासी समुदाय को इस वन संपदा को संभालकर रखने की अब भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। प्रदेश में एक के बाद एक नए वन क्षेत्र को ‘टाईगर रिजर्व’ या प्रस्तावित बाघ अभ्यारण्य घोषित किया जा रहा है। वर्तमान टाइगर रिजर्व क्षेत्रों के क्षेत्रफल में भी वृद्धि की जा रही है। जहां एक ओर इन सारी योजनाओं से यह ध्वनित हो रहा है कि ये वन्य जीवों को बचाने के लिए किया जा रहा है वहीं जमीनी हकीक़त कुछ और ही वास्तविकता सामने लाती है।हमारे यहां वनों एवं वन्यजीवों के संरक्षण की लंबी परंपरा रही है, इस संबंध में पहला लिखित दस्तावेज़ ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में मिलता है। सम्राट अशोक द्वारा निर्मित शिलालेख में लिखा है अपने राज्याभिषेक के छब्बीस वर्ष पश्चात मैं यह घोषित करता हूं कि निम्नलिखिक जीव-जंतुओं को नहीं मारा जाएगा-तोते, मैना, अरुणा कलहंस, नंदीमुख, सारस, बिना काटे वाली मछलियां, गैंडे और सभी चौपाए जानवर जो उपयोगी अथवा खाने लायक नहीं है....वनों को जलाया नहीं जाएगा।
सौपर्णलाहिड़ी ने भारत में वनों को सरकारी आधिपत्य में लिए जाने के ऐतिहासिक क्रम को सामने रखते हुए कहा है कि सन् 1800 में अंग्रेजों ने मालाबार के वनों में सागौन की उपलब्धता का पता लगाने के लिए एक आयुक्त की नियुक्ति की थी। सन् 1806 में मद्रास सरकार ने समुद्री पोत बनाने की दृष्टि से उपयुक्त सागवान तथा अन्य लकड़ियों के उत्पादन को संगठित रूप देने के लिए वन आयुक्त के पद पर कैप्टन वाटसन की नियुक्ति की। सन् 1807 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने सागवान पर अपने अधिकार का दावा कर दिया जिसके परिणामस्वरूप सागवान या सागौन के वृक्ष गिराने या काटने की अनुमति देने का अधिकार वन संरक्षक को दे दिया गया। धीरे-धीरे ये अधिकार व्यक्तियों एवं समुदायों के निजी स्वामित्व वाले वनों तक विस्तारित कर दिए गए।
लेफ्टिनेंट कर्नल ए.वाकर ने 1811 ई. में लिखी पुस्तक “कंसीडरेशन ऑफ दि अफेयर्स इंडिया” में लिखा है, हिसाब करने से मालूम होता है कि अंग्रेजी नौसेना का प्रत्येक जहाज हर बारह वर्ष में बदला जाता है। मशहूर है कि सागवान की लकड़ी का बना हुआ जहाज 50 वर्ष से भी अधिक ठहरता है। बंबई के बने कई जहाज 14/15 वर्ष काम में लाए जाने के बाद नौसेना ने खरीद लिए हैं और नए के समान मजबूत समझे गए हैं। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वाकर ने लिखा है, भारत के जहाज़ इतने मजबूत होने पर भी उनके बनाने में इंग्लैंड से कम खर्च बैठता है। जिस प्रकार का जहाज़ बनाने में इंग्लैंड में 1000 रु. खर्च होता है, भारत में 750 रु. में उससे चौगुना अच्छा जहाज़ बनता है। इंग्लैंड में बने जहाज का जीवन अधिकतम 18 वर्ष था वहीं भारत में बने जहाज 50 वर्ष से अधिक टिकते थे।
तब तक इंग्लैंड में जहाज “ओक” की लकड़ी से बनते थे। परंतु धीरे-धीरे यहां पर जहाजों का निर्माण कम होता गया और सागवान का निर्यात बढ़ता गया। चूंकि इंग्लैंड के जहाज़ निर्माताओं के सामने भारतीय जहाज निर्माण कुशलता के कारण रोज़गार का संकट आने लगा था अतएव उन्होंने लकड़ी ही आयात करना प्रारंभ कर दी। इस हेतु बड़े पैमाने पर सागवान की लकड़ी की आवश्यकता पड़ी और अंग्रेजों ने वनों को अपने कब्ज़े में ले लिया। अच्छी लकड़ी की वजह से इंग्लैंड में जहाज़ निर्माण का कारोबार बढ़ा और भारत विपन्न होता गया। सन् 1857 में भारत में जहां 34286 बड़ी नौकाएं या जहाज़ निर्मित हुए थे वहीं 1901 में उनकी संख्या घटकर 1,049 रह गई। सन् 1850 में डॉ. बुईष्ट ने लिखा था, “गत दस वर्षों में यूरोपीय विज्ञान की सहायता से जहाज़ों की, जो ठीक बनावट मालूम हुई, भारतवासी एक हजार साल पहले से जानते थे।” इस तरह जंगलों को उजाड़ने का उपक्रम प्रारंभ हुआ जिसको समय-समय पर कानूनों के माध्यम से नियंत्रित किया जाता रहा।
लार्ड डलहौजी ने सन् 1855 में पूरे देश में वनों के संरक्षण के लिए नियम बनाए। इसके तहत मालाबार की पहाड़ियों में सागौन और नीलगिरी की पहाड़ियों में बबूल और नीलगिरी (युकिलिप्टस) के पेड़ लगाए गए। उसकी इन्हीं करतूतों की परिणिति सन् 1865 और 1878 के वन अधिनियम के रूप में हुई। इसके परिणामस्वरूप इनमें बसने वाले समुदायों के वन अधिकार शून्य हो गए। सन् 1894 की पहली सार्वजनिक वन नीति ने तो भारत के वनों का पूरा कलेवर ही बदल डाला। 19वीं शताब्दी के अंत तक 80 प्रतिशत वन किसी न किसी रूप में निजी स्वामित्व यानि या तो व्यक्तियों अथवा समुदायों के हाथ में थे वहीं आज 21वीं शताब्दी के आते-आते राज्य के पास वनों का 90 प्रतिशत से अधिक स्वामित्व है।
वर्तमान वननीति को समझने के लिए औपनिवेशिक काल में यानि सन् 1894 में बनी पहली औपनिवेशिक वन नीति पर नजर डालना आवश्यक है इस नीति में वनों को निम्न श्रेणियों में रखा गया था अथवा वर्गीकृत किया गया था-
1. ऐसे वन जिनका संरक्षण जलवायु अथवा भौतिक कारणों से आवश्यक है।
2. ऐसे वन जो वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए कीमती लकड़ियों की आपूर्ति करते हैं।
3. लघुवन
4. चारागाह वन
मुंह दिखाई के लिहाज से इस नीति का उद्देश्य सार्वजनिक हित के लिए वनों का प्रबंधन करना था। परंतु अंततः यह नीति वनोपज के माध्यम से लाभ कमाने के उद्देश्य से ही बनाई गई थी। वैसे इसमें पहाड़ी क्षेत्रों में वन संरक्षण की वकालत की गई थी। साथ ही स्थानीय समुदाय से टकराव की स्थिति में आय को गौण मानने की बात कही गई थी। परंतु इस नीति के माध्यम से स्थानीय समुदाय के वन में बेरोकटोक प्रवेश को भी बाधित कर दिया गया था। (यह स्थिति आज तक प्रभावी है) और इस तरह वन आश्रित समुदाय को वनों से खदेड़ने की शुरुआत इस नीति ने वैधानिक रूप से कर दी थी। उपरोक्त नीतियों को लागू करने हेतु भारत में वन विभाग की स्थापना 1868 ई. में अंग्रेजों द्वारा की गई थी। उनके द्वारा इस विभाग की स्थापना के पीछे एक मात्र उद्देश्य था व्यापारिक दृष्टि से उपयोगी कीमती इमारती लकड़ी का उत्पादन। किसी भी अन्य परंपरागत वन उपज या किस्म का संवर्धन उनके एजेंडे में नहीं था। वैसे इन विभाग की स्थापना के पूर्व ही 1865 ई. में वे इंडियन फॉरेस्ट एक्ट (भारतीय वन अधिनियम) बना चुके थे।
इसके बाद उन्होंने इस संबंध में 1927 ई. में एक और कानून बनाया। इन दोनों कानूनों के लागू होने के बाद देश का अधिकांश वन क्षेत्र राज्य द्वारा नियंत्रित आरक्षित वन (रिजर्वड फॉरेस्ट) एवं संरक्षित क्षेत्र (प्रोटेक्टेड फॉरेस्ट) के रूप में सरकार के अधीन आ गया था। औपनिवेशिक काल में वनोपज को बेचकर सीधी लूट भी चलती रही और चुंगी नाकों के माध्यम से गैर वनोपज की अप्रत्यक्ष लूट का सिलसिला भी जारी रहा। एक मोटे अनुमान के अनुसार अंग्रेजों ने हिमालय के निचले मार्गों से ही करोड़ों रु. की लकड़ियों की सीधी खरीद फरोख्त की। उस समय वनों का काफी बड़ा क्षेत्र स्थानीय समुदाय के स्वामित्व एवं प्रबंधन में था। अतएव अंग्रेजों को अपनी लूट को स्थापित करने में आसानी हुई। इसमें सबसे बड़ी सुविधा उन्हें यह हुई कि समुदाय के स्वामित्व को उन्होंने स्वामित्व का दर्जा ही नहीं दिया एवं जितनी भी भूमि पड़त पड़ी थी उसे खेती के लिए अनुपयुक्त मानकर वन भूमि घोषित कर दिया। ग़ौरतलब है कि उस समय तक देश के बड़े इलाके में झूम खेती होती थी। ऐसी सारी भूमि पर समुदाय का स्वामित्व था और इन कानूनों ने इस सामुदायिक प्रणाली को तहस-नहस कर दिया।
इसके बाद सरकार ने जंगलों को उन समुदायों की पहुंच से बाहर कर दिया जो न केवल इसका व्यवस्थित प्रयोग कर रहे थे बल्कि उनकी ही प्रयत्नों से ये जंगल अब तक बचे हुए भी थे। अब बजाए एक परिपूर्ण वन के ऐसे वन ‘विकसित’ किए जाने लगे जो वस्तुतः व्यापारिक लकड़ी के ‘बाग’ या बगीचे थे। इसी के समानांतर वन्य जीव आरक्षित केंद्र और शिकारगाह भी विकसित किए गए जिन तक केवल उच्च वर्ग की पहुंच थी।
आज़ादी के बाद भी यही नीति लागू रही। यानि की वनों को लेकर औपनिवेशिक ढांचे को ही पूर्णतया अपना लिया गया। इसके पीछे संभवतः यही सोच काम कर रही थी कि किसी भी तरह यह मलाईदार विभाग सरकार की पहुंच से बाहर न हो। सन् 1952 की वन योजना के प्रस्ताव में यह साफ तौर पर कहा गया था कि अंग्रेजों द्वारा बनाई गई यह औपनिवेशिक नीति बुनियादी रूप से ठीक है तथा मात्र इसकी दिशा बदलने से समस्या का निराकरण हो जाएगा। अतएव नई वन नीति में ‘सार्वजनिक हित’ की जगह ‘राष्ट्रीय हित’ की बात की गई जो कि वस्तुतः औद्योगिक उत्पादन के लिए लकड़ी और ईंधन उपलब्ध करवाना एवं कागज़ उद्योग को कच्चे माल की उपलब्धता सुनिश्चित कराती थी। इस तरह शहरी एवं औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भारत भर में जंगलों की लूट सतत् जारी रही।
स्वतंत्रता के पश्चात भारत की वन नीति को मोटे तौर पर तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है। 1952 की वन नीति में ‘सार्वजनिक लाभ’ के स्थान पर ‘राष्ट्रीय हित’ का समावेश किए जाने के परिणामस्वरूप इसे कच्चे माल की आपूर्ति का माध्यम बना दिया गया था। बिना अधिक विस्तार में जाए इस वन नीति के कुछेक बिंदुओं पर विचार करने से इसके क्रियान्वयन की वर्तमान स्थितियों को आसानी से समझा जा सकता है वनों के संबंध में जिन छह सर्वोच्च आवश्यकताओं पर जोर दिया गया था, उनमें थी-पहाड़ी क्षेत्र में वनोन्मूलन को, प्रमुख नदियों के वृक्षहीन तटों पर कटाव को और तटीय पट्टियों में समुद्र की रेत के अतिक्रमण को रोकना। इन सभी क्षेत्रों में पिछले करीब 6 दशकों में स्थितियाँ प्रतिकूल ही हुई है। परंतु एक क्षेत्र हैं जिसमें वन नीति की भावना के अनुसार कार्य किया गया है, यह है ‘सतत रूप से अधिकतम वार्षिक राजस्व उगाहना।’ इस मामले में सरकारें प्राण प्रण से जुटी हैं और दिन दूनी रात चौंगुना राजस्व इकट्ठा कर रही है। इसीलिए वन समाप्त कर खनन की अनुमति देने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है क्योंकि अततः यह कार्य राष्ट्रीय हित की भावना से ही तो किया जा रहा है। इस नीति में भी वनों का वर्गीकरण का पैमाना कमोबेश औपनिवेशिक ही था। इसके अंतर्गत एवं वृक्ष भूमि का प्रावधान देश की भौतिक स्थितियाँ सुधारने के लिए किया गया था।
सुरक्षा वन – संरक्षण के लिए
राष्ट्रीय वन – वाणिज्यिक कार्य हेतु
ग्राम्य वन – जलाऊ लकड़ी, लघु काष्ठ, अन्य वनोपज तथा चारागाह उपलब्ध करवाने के लिए।
इसी के साथ इस नीति के कुछ अपने लक्ष्य भी थे। चूंकि समुदाय एवं निजी स्वामित्व की पुनर्स्थापना की बात अभी किसी बहस के मुहाने पर भी नहीं पहुंची थी अतएव यह नीति पूर्णतया ‘राष्ट्रीय हित’ को समर्पित हो घोषणा कर रही थी कि,
1. घरेलू एवं कृषि संबंधी ज़रूरतों के लिए वनों का उपयोग राष्ट्रीय हितों की कीमत पर नहीं होना चाहिए।
2. स्थायी कृषि के लिए मूल्यवान कृषि भूमि को छोड़ने की सन् 1894 की नीति को त्याग देना चाहिए।
इसके अतिरिक्त इस नीति में यह सिफारिश की गई थी की वन प्रशासन और शासन को वन क़ानूनों पर आधारित कर दिया जाए। जिससे कि निजी वनों पर भी सरकार का विधायी नियंत्रण हो सके। इसी के साथ वनों को अभ्यारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों के रूप में चिह्नित करने, वन्य जीवों के लिए एक केंद्रीय बोर्ड का गठन करने और इस हेतु विशेष कानून बनाकर वन्यजीवों की सुरक्षा व संरक्षण की बात कही गई थी।
इसी के साथ वनों में पशु चराने के संबंध में भी अनेक अजीबो गरीब अनुशंसाएं की गई थीं। इसमें पशुओं की वनों में सस्ती चराई पर सवाल उठाते हुए कहा गया था कि चराई और वैज्ञानिक वानिकी में आपसी तालमेल नहीं बैठता। इसमें सिफारिश की गई थी कि उचित शुल्क लेकर पशुओं को बारी-बारी से चराने की अनुमति दी जाए तथा भेड़ों एवं बकरियों के चराने पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया जाए।
आज़ादी के बाद 1951 से 1988 के मध्य वनसंपदा में 260 लाख हेक्टेयर की वृद्धि के लिए (410 से 670 लाख हेक्टेयर) वन अधिनियम का इस्तेमाल किया गया। संविधान द्वारा जमींदारी प्रथा के उन्मूलन से जहां मैदानी इलाकों में बटाईदारों को शोषण से बचाया गया वहीं दूसरी ओर जंगली क्षेत्रों में वन विभाग एक विशाल शोषक जमींदार के रूप में उभरा। इस बीच सन् 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग ने वनों के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण अनुशंसाए की थीं। इस आयोग ने प्रतिरक्षा, संचार व वन्य आधारित उद्योगों की जरुरत की पूर्ति के लिए एक नई वन नीति के निर्माण की बात कही थी। इस नई नीति के परिणामस्वरूप 1955-56 से 1966-67 के मध्य उद्योगों में लकड़ी की खपत दुगनी हो गई। प्लायवुड, कागज और माचिस जैसे वन आधारित उदयोग खूब फले-फूले। सन् 1950 से 1980 के मध्य करीब 43 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र को गैर वानिकी कार्यों के लिए परिवर्तित कर दिया गया। इसमें से मात्र आधा खेती के लिए था। वहीं पर्यावरण वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि सन् 50 से 80 के दशक के मध्य जो भी जंगल उद्योगों को दिए गए थे, उद्योगों ने उन्हें बर्बाद कर दिया और अब वे नए जंगलों की मांग करने लगे थे। इस बीच राष्ट्रीय कृषि आयोग (1976) पर निगाह डालने से पता चलता है कि इस दौरान वनों से होने वाली आय में कई गुना की बढ़ोतरी हो गई थी। बहरहाल इमारती लकड़ी और जलावन लकड़ी के उत्पादन में 1966-67 के बाद ठहराव की स्थिति आ गई थी। इसका सीधा सा अर्थ यह निकलता है कि भारत के वन अब भविष्य की मांग की आपूर्ति हेतु सक्षम नहीं थे। इसके बावजूद वन आधारित उद्योगों का विकास पूरी गति से होता रहा और उनकी कच्चे माल की मांग भी बढ़ती रही।
आज़ादी के बाद 1951 से 1988 के मध्य वनसंपदा में 260 लाख हेक्टेयर की वृद्धि के लिए (410 से 670 लाख हेक्टेयर) वन अधिनियम का इस्तेमाल किया गया। संविधान द्वारा जमींदारी प्रथा के उन्मूलन से जहां मैदानी इलाकों में बटाईदारों को शोषण से बचाया गया वहीं दूसरी ओर जंगली क्षेत्रों में वन विभाग एक विशाल शोषक जमींदार के रूप में उभरा। इस बीच सन् 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग ने वनों के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण अनुशंसाए की थीं। इस आयोग ने प्रतिरक्षा, संचार व वन्य आधारित उद्योगों की जरुरत की पूर्ति के लिए एक नई वन नीति के निर्माण की बात कही थी। इस आयोग ने निम्न अत्यंत महत्वपूर्ण अनुशंसाए की थीं-
1. उत्पादन वानिकी के प्रबंधन में संस्थागत बदलाव किए जाएं और संस्थागत वित्त पोषण की मदद से व्यापक स्तर पर मानव निर्मित वन खड़े किए जाएं।
2. बिचौलिए ठेकेदारों के माध्यम से बड़ी और लघु वनोपज की कटाई की मौजूदा व्यवस्था को समाप्त कर उसके स्थान पर यह कार्य वन विभाग अथवा वन श्रमिक सहकारी संगठनों का समूह या ये सब आपस में मिलजुल कर करें।
इस आयोग ने भी चराई और झूम खेती को नियमबद्ध करने तथा स्थानीय समुदाय की जलाऊ लकड़ी एवं चारा संबंधी मांगों को सामाजिक वानिकी के माध्यम से पूरा करने के प्रयास की बात भी कही थी जिससे वनों पर दबाव कम हो सके। इसी के साथ आयोग ने सिफारिश की थी कि उत्पादन तथा सामाजिक वानिकी की ज़रूरतों की पूर्ति के लिए 480 लाख हेक्टेयर भूमि उत्पादन वनों को उपलब्ध कराने की बात कही गई थी। ये सिफारिशें भी की गई थी कि चराई के नियमों का पालन किया जाए चराई शुल्क में वृद्धि की जाए। जहां वनों का पुनरुद्धार हो रहा हो वहां चराई पर प्रतिबंध लगाया जाए। चारे के काम आने वाले वृक्षों का रोपण हो, झूम खेती की समस्या का अंत किया जाए। आदिवासियों को भूमि का आबंटन किया जाए, केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अधीन एक पूर्णकालिक वन विभाग का गठन किया जाए। इसी के साथ आयोग ने एक अखिल भारतीय वन अधिनियम लागू किए जाने की बात भी कही थी। इस आयोग की सिफारिशों को गंभीरता से लेते हुए भारत ने निम्न महत्वपूर्ण निर्णय भी लिए थे-
1. वनोपज को काटने, बटोरने और ठेकेदार बिचौलियों को समाप्त करने के लिए राज्य सरकारों द्वारा एफ.डी.सी की स्थापना।
2. वन प्रबंधन संस्थान की स्थापना।
3. ग्रामीण एवं वन भूमियों पर सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों का आरंभ।
4. 1952 की वन नीति के स्थान पर 1988 में नई नीति का निर्माण।
5. 1976 में संविधान में 42वें संशोधन के माध्यम से वनों को समवर्ती सूची का विषय बनाना तथा केंद्र व राज्य दोनों को इस संबंध में कानून बनाने के अधिकार देना। तब से केंद्र सरकार राष्ट्रीय नीति, कानूनी ढांचा और सहायक कानून बनाती है जो कि राज्य सरकार के लिए निदेशक या मार्गदर्शक का कार्य करते हैं।
6. 1984 में एक पृथक पर्यावरण एवं वन मंत्रालय का गठन।
7. 1990 में एक प्रस्ताव के जरिए संयुक्त वन प्रबंधन में आम लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करना।
8. संविधान में संशोधन कर पंचायतों को लघु वनोपज का मालिकाना हक देना।
9.पंचायती राज (अनुसूचित क्षेत्र विस्तार) अधिनियम 1996, लागू करना।
राष्ट्रीय कृषि आयोग, 1976 की अनुशंसाओं के आधार पर राष्ट्रीय वन नीति, 1988 बनाई गई। इस वन नीति की प्रस्तावना में ही यह उल्लेख था कि कुछ ही वर्षों में देश के वन गंभीर रूप से खाली हो गए हैं। इसका कारण है, जलाऊ लकड़ी, चारा और इमारती लकड़ी की बढ़ती मांग से वनों पर पड़ रहे अत्यधिक दबाव, सुरक्षा उपायों की अपर्याप्तता, क्षतिपूरक वनरोपण और अनिवार्य पर्यावरणीय सुरक्षा उपायों को सुनिश्चित किए बिना गैरवनीय कार्यों हेतु वन भूमि का उपयोग एवं वनों को राजस्व कमाई का स्रोत मानना। इस वन नीति के अंतर्गत वन क्षेत्र को देश के कुल क्षेत्रफल के 33 प्रतिशत तक करने की बात कही गई थी। इस नई वन नीति में अपनी पूर्ववर्ती नीतियों के मुकाबले कुछ सुधार की मंशा दिखाई दे रही थी। इस नीति के मूल उद्देश्यों में जहां देश के प्राकृतिक वनों को संरक्षित करके उसकी प्राकृतिक धरोहर को संरक्षित करने की बात कही गई थी वहीं दूसरी ओर ग्रामीण तथा आदिवासी समुदायों के लिए जलाऊ लकड़ी, चारा, लघु वनोपज व लघु इमारती लकड़ी की उपलब्धता को भी स्वीकारा गया था।
नई वन नीति में उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जो रणनीति बनाई गई थी उसमें से कुछ महत्वूपर्ण अनुशंसाओं का यहां जिक्र करना सामयिक होगा।
1.झूम खेती को प्रोत्साहित किया जाए एवं कृषि के संशोधित तरीकों का प्रचार किया जाए।
2. राजस्व ग्रामों के स्तर पर वन गाँवों का विकास।
3. वृक्षों का मालिकाना हक, उचित विनियमों के अनुसार, व्यक्तियों को विशेषकर कमजोर तबकों के व्यक्तियों (भूमिहीन मज़दूर, लघु तथा सीमांत किसानों, अनुसूचित जातियों, आदिवासियों, महिलाओं) को दिया जाएगा।
4. पर्याप्त वनस्पति वाले प्राकृतिक वनों को गिराने पर रोक।
5. प्राकृतिक वनों का रोपण अथवा अन्य किसी गतिविधि के लिए उद्योगों का उपलब्ध न करवाना।
6. मौजूदा अतिक्रमणों को नियमित नहीं करना।
7. उद्योगों को रियायती दर पर वनोपज देने की प्रथा को समाप्त करना।
8. आनुवांशिकी निरंतरता बनाए रखने के लिए गलियारों के माध्यम से अभ्यारण्यों को जोड़ने के द्वारा वन्यजीवों का संरक्षण।
9. वनों को मात्र राजस्व का स्रोत न मानना।
इस नीति ने कहीं न कहीं वनवासियों एवं वनों के घनिष्ठ अंतर्संबंध को स्वीकार तो अवश्य किया था और वनों के बेहतर प्रबंधन में शासन, वन विभाग और स्थानीय समुदाय के आपसी सहयोग को भी आवश्यक माना। परंतु औपनिवेशिक प्रवृत्तियां यहां भी हावी थी। साथ ही यह भी देखने में आया है कि आज़ादी के बाद से राज्य का आदिवासियों के प्रति व्यवहार पहले की अपेक्षा अधिक कठोर व असहिष्णु होता जा रहा है। वहीं इस नीति को लागू करने में या नीतिगत सुधार अभी भी काफी कुछ दिखावटी ही नजर आते हैं। इसका प्रमाण है वन्यजीव सुरक्षा अधिनियम, 1972। इसमें वनवासियों को कमोबेश अपराधी बताते हुए उनके एनटीएफपी और मछली मारने के पारंपरिक अधिकारों को छीन लिया गया जबकि अवैध शिकार का कार्य आज भी बदस्तूर जारी है। इसी के साथ वन्य संरक्षण अधिनियम 1980 के तहत 10 करोड़ से अधिक वनवासियों को अतिक्रमणकारी मान लिया गया था। वहीं दूसरी ओर वनों की कटाई और वन संसाधनों का उद्योगों के लिए प्रयोग पर कोई रोक नहीं लगी।
सन् 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग के गठन के पश्चात व नई वन नीति की घोषणा के मध्य वनों से संबंधित एक अन्य कानून, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 अस्तित्व में आया। इस कानून के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों व पारिस्थितिक दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों का पारिस्थितिकीय संवेदनशील क्षेत्र या इकोलॉजिकली सेन्सिटिव एरिया घोषित किया जा सकता है। इसका लाभ यह है कि इन क्षेत्रों में कुछ विशिष्ट व्यावसायिक औद्योगिक व विकास गतिविधियों पर रोक लगाई जा सकती है। परंतु समुदायों को इस अधिनियम या इसके उपयोग के विषय में जानकारी ही नहीं है। देश के पारिस्थितिकीय संवेदनशील क्षेत्रों में समुदायों द्वारा संरक्षित क्षेत्रों को शामिल ही नहीं किया गया है।
पंचायती राज (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्थापित) अधिनियम 1996 (पेसा) के लागू होने के बाद वनवासियों को कुछ आशा बंधी थी क्योंकि इस कानून का उद्देश्य है प्रशासन व्यवस्था को स्थानीय संस्थानों जैसे पंचायतों, ग्राम सभाओं को सौंपते हुए प्रशासन का विकेंद्रीयकरण करना। यह मुख्यतः आदिवासी क्षेत्रों जिन्हें संविधान द्वारा अधिसूचित घोषित किया है, में लागू होगा। यह कानून जहां गैर इमारती लकड़ी व वन संसाधनों का नियंत्रण का अधिकार सरकारी संस्थाओं को सौंपता है वहीं अधिसूचित क्षेत्र से संबंधित विकास या अन्य मुद्दों पर स्थानीय लोगों की सलाह लेने को भी अनिवार्य बनाता है। अपने उद्देश्यों के कारण इसे एक क्रांतिकारी कानून माना गया। क्योंकि इसमें संरक्षण और आजीविका की जरूरतों के बीच संतुलन बनाते हुए विनाशकारी प्रभावों को क्षीण करने की संभावना जगाई थी। परंतु मध्य प्रदेश सहित अनेक राज्यों ने इसे संविधान की भावना के अनुरूप लागू ही नहीं किया और जिन राज्यों ने लागू किया वहां राज्य सरकारों ने इस अधिनियम के प्रावधानों को कमजोर बना दिया है। इतना ही नहीं अधिकतर राज्यों में सरकारी वनों व संरक्षित क्षेत्रों को इस अधिनियम के कार्यक्षेत्र से बाहर ही रखा है।
इसके पश्चात जैव विविधता अधिनियम 2002 बनाया गया। इसमें ग्रामस्तर पर जैव विविधता कमेटियों का गठन अनिवार्य किया गया था। ये कमेटियां जैव विविधता प्रबंधन, संरक्षण व दस्तावेजीकरण में मदद करेगी। इसके कृषि या वन्य जीव विविधता हेतु संरक्षित क्षेत्रों को विरासती जैव संरक्षित क्षेत्र (बायोडायवर्सिटी हेरिटेज साईट्स) घोषित करने का प्रावधान था। इसके अंतर्गत जंगली व पालतू दोनों ही प्रकार की जैव विविधता के संरक्षण का प्रावधान है। साथ ही राष्ट्रीय व राज्य के जैव विविधता बोर्ड के लिए यह अनिवार्य किया गया था कि वे स्थानीय जैव संसाधनों व उससे जुड़े पारंपरिक ज्ञानों के उपयोग का निर्णय लेने से पहले स्थानीय जैव विविधता प्रबंधक कमेटियों से सलाह लें।
परंतु इस कानून से भी वनवासियों एवं जंगलों पर निर्भर समुदायों को अधिक लाभ नहीं मिल पाया। क्योंकि इस कानून को लेकर बने जैव विविधता नियम 2004 गांव स्तरीय समितियों को सशक्त नहीं बना पाए। इतना ही नहीं नियमों के अनुसार उनका कार्य केवल जैव विविधता के दस्तावेजीकरण तक ही सीमित रह गया है। इसके अतिरिक्त वे अपने ज्ञान के संबंध में राज्य बोर्डों को मात्र सलाह ही दे सकते हैं। चूंकि भारत में संसाधनों और उससे जुड़े ज्ञान के दस्तावेजीकरण की सुरक्षा के लिए कोई कानून या नियम नहीं बने हैं परंतु इस अधिनियम के अंतर्गत उनके पारंपरिक ज्ञान व बौद्धिक अधिकारों को स्वीकृति प्रदान की गई है ऐसी स्थितियों में इन जैव विविधता प्रबंधक समितियों की वजह से स्थानीय समुदाय और भी शक्तिहीन हो गए हैं। वैसे मध्य प्रदेश ने स्थानीय कमेटियों को ज्यादा अधिकार और शक्तियां दी है और पारंपरिक ज्ञान को कानूनी सुरक्षा देने का अनिवार्य प्रावधान भी किया है।
इसके बाद लागू हुआ वन्य जीव (संशोधन) अधिनियम 2003। इस कानून में संरक्षित क्षेत्रों की दो नई श्रेणियों को जोड़ा गया। ये हैं सामुदायिक आरक्षित क्षेत्र एवं संरक्षण आरक्षित क्षेत्र। इसके अंतर्गत सामुदायिक आरक्षित क्षेत्रों की घोषणा निजी एवं सामुदायिक भूमि पर की जा सकती है। परंतु ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसमें इन्हें परिभाषित ही नहीं किया गया है। इसके अलावा सरकारी भूमि पर संरक्षित आरक्षित केंद्रों की घोषणा स्थानीय लोगों की सलाह पर किए जाने की बात भी कही गई थी।
उपरोक्त कानून बनने के बाद सामुदायिक आरक्षित क्षेत्रों में निजी या सामुदायिक भूमि पर समुदायों द्वारा संरक्षित क्षेत्रों को कानूनी सहयोग देने का रास्ता साफ हुआ। इसी के साथ भारत के इतिहास में पहली बार संरक्षित आरक्षित क्षेत्रों की घोषणा में पहले स्थानीय लोगों की सलाह की बात कही गई। परंतु अधिनियम में हर जगह एक सी प्रबंधन कमेटियों के गठन का प्रावधान होने से क्षेत्र की स्थानीय परिस्थितियों को नज़रअंदाज़ करने की बात उभर कर आई। अधिनियम के अनुसार सामुदायिक आरक्षित क्षेत्रों में केवल निजी या सामुदायिक भूमि ही सम्मिलित की जा सकती है। जबकि भारत में संरक्षण के अधिकांश प्रयास तो सरकारी ज़मीन पर ही हो रहे हैं। अतः जब तक राज्य सरकारें इन सामुदायिक भूमि की परिभाषा में सरकारी भूमि को शामिल न करें तब तक इस अधिनियम के प्रावधान बहुत लाभदायक सिद्ध नहीं होंगे। दूसरी ओर इस अधिनियम के अनुसार पहले से घोषित संरक्षित क्षेत्र जैसे राष्ट्रीय उद्यान, अभ्यारण्य व संरक्षित आरक्षित क्षेत्रों में सामुदायिक आरक्षित क्षेत्रों की घोषणा नहीं की जा सकती। क्योंकि ऐसा करने के लिए आवश्यक है कि पहले उनकी इस श्रेणी को रद्द कर दिया जाए। परंतु इस परिस्थिति में यह संकटग्रस्त क्षेत्र बाहरी खतरों के लिए भी खुल सकते हैं।
अंततः सरकार ने अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वननिवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 पारित किया। इस अधिनियम वनवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को स्वीकारा गया था। वैसे 1996 में लागू ‘पेशा’ कानून को इस दिशा में पहला क्रांतिकारी कानून या कदम माना जा सकता है। इस अधिनियम की प्रस्तावना में कहा गया है वन में निवास करने वाली ऐसी अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के जो ऐसे वनों में पीढ़ियों से निवास कर रहे हैं, किंतु उनके अधिकारों को अभिलिखित नहीं किया जा सका है, वन अधिकारों और वन भूमि में अधिभोग को मान्यता देने और निहित करने, वन भूमि में इस प्रकार निहित वन अधिकारों को अभिलिखित करने के लिए संरचना का और वन भूमि के संबंध में अधिकारों को ऐसी मान्यता देने और निहित करने के लिए अपेक्षित साक्ष्य की प्रकृति का उपबंध करने के लिए अधिनियम।
अधिनियम को व्याख्यायित करते हुए प्रस्तावना में ही आगे कहा गया है कि ‘वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के मान्यता प्राप्त अधिकारों में दीर्घकालीन उपयोग के लिए ज़िम्मेदारी और प्राधिकार, जैव विविधता का संरक्षण और पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखना और वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों की जीविका तथा खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करते समय वनों की संरक्षण व्यवस्था को सुदृढ़ करना भी सम्मिलित है।’
“और औपनिवेशिक काल के दौरान तथा स्वतंत्र भारत में राज्य वनों का समेकित करते समय उनकी पैतृक वन भूमि पर वन अधिकारों और उनके निवास को पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं दी गई थी, जिसके परिणामस्वरूप वन में निवास करने वाली उन अनुसूचित जातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के प्रति ऐतिहासिक अन्याय हुआ है, जो वन पारिस्थितिकी प्रणाली को बचाने और बनाए रखने के लिए अभिन्न अंग हैं।”
“और यह आवश्यक हो गया है कि वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों की जिसके अंतर्गत वे जनजातियाँ भी हैं, जिन्हें राज्य के विकास से उत्पन्न हस्तक्षेप के कारण अपने निवास दूसरी जगह बनाने के लिए मजबूर किया गया था, लंबे समय से चली आ रही भूमि संबंधी असुरक्षा तथा वनों में पहुंच के अधिकारों पर ध्यान दिया जाए।”
प्रस्तावना को यहां पुनः प्रस्तुत करने के पीछे मकसद यह है कि यह समझा जाए कि भारत में कानून बनाने की मंशा और उसके लागू कराने वालों की मंशा के बीच ज़मीन आसमान का अंतर होता है। कानून की प्रस्तावना कहती है कि इन वन निवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है और ये समुदाय वन पारिस्थितिकी प्रणाली को बचाने और बनाए रखने के लिए अभिन्न अंग है। परंतु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है आज भी वन्य जीव संरक्षण खासकर बाघों के संरक्षण के लिए इन्हें लगातार खदेड़ा जा रहा है। इन्हें वनों से बाहर खदेड़ने के लिए समानांतर व्यवस्था और कानून भी अपना काम बखूबी निभा रहे हैं। कानून की विस्तृत विवेचना में जाए बगैर इसके कुछ विशेष प्रावधान जिन पर अध्ययन के दौरान विश्लेषण या विस्थापन की समस्या को समझने के लिहाज से गौर करने की आवश्यकता पड़ी को रेखांकित करना आवश्यक जान पड़ता है।
इस अधिनियम के अंतर्गत दो श्रेणी के लोग अपने अधिकारों का दावा कर सकते हैं-
1. “वनों में रहने वाले अनुसूचित जनजाति” से अनुसूचित जनजातियों के ऐसे सदस्य या समुदाय से अभिप्रेत (अभिप्राय) है, जो प्राथमिक रूप में वनों में निवास करते हैं और जीविका की वास्तविक आवश्यकताओं के लिए वनों या वन भूमि पर निर्भर हैं और इसके अंतर्गत अनुसूचित जनजाति चरागाही समुदाय भी है। (धारा-2-ग)
1 (अ) ‘अन्य परंपरागत वन निवासी’ से ऐसा कोई सदस्य सा समुदाय अभिप्रेत है, जो 13 दिसंबर 2005 से पूर्व कम से कम तीन पीढ़ियों तक प्राथमिक रूप से वन या वन भूमि में निवास करता रहा है और जो जीविका की वास्तविक आवश्यकताओं के लिए उन पर निर्भर है (2-ण)
स्पष्टीकरण – इस खंड के प्रयोजन के लिए ‘पीढ़ी’ से पच्चीस वर्ष की अवधि अभिप्रेत है।
वन भूमि को इस तरह परिभाषित किया गया है –
2. ‘वन भूमि’ से किसी वन क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली किसी भी प्रकार की भूमि से अभिप्रेत है और उसके अंतर्गत अवर्गीकृत वन, असीमांकित विद्यमान व या समझे गए वन, आरक्षित वन, अभ्यारण्य और राष्ट्रीय उद्यान भी हैं।
इस तरह ‘वन भूमि’ से तात्पर्य ऐसे किसी भी क्षेत्र से है जिसे कानूनी रूप से वन घोषित किया गया हो। चाहे वहां वास्तव में वन हो या नहीं।
इस अधिनियम के अंतर्गत व्यक्ति या समुदाय निम्नलिखित अधिकारों का दावा कर सकते हैं (खण्ड-3)
वन भूमि पर अकेले सामुदायिक रूप से रहने व उसके नियंत्रण (नोट : यह स्पष्ट नहीं है कि ‘नियंत्रण’ का मतलब पूर्व स्वामित्व है या नहीं) का अधिकार। इस अधिकार की 4 शर्ते हैं-
(अ) भूमि का उपयोग आवास या आजीविका चलाने हेतु कृषि के लिए ही किया जाए।
(ब) भूमि पर 13 दिसंबर 2005 से पहले से कब्ज़ा रहा हो।
(स) केवल कब्ज़े के आधीन क्षेत्र का दावा हो।
(द) भूमि 4 हेक्टेयर से अधिक न हो।
(आज भी) अत्यधिक प्राचीन आदिवासी समाज व आदिवासियों व गैर कृषक समुदायों को एक कानूनी अवधि (नोट - यहां भी यह स्पष्ट नहीं है कि कानूनी अवधि का अर्थ पूर्ण स्वामित्व है या नहीं) के लिए आवास हेतु दी गई भूमि पर अधिकार।
अन्य सामुदायिक जैसे मछली और पानी के अंदर से पारंपरिक रूप से निकाले जाने वाले अन्य संसाधनों पर अधिकार चरवाहों या घुमंतु समुदायों का मवेशी चराने या पारंपरिक रूप से प्राकृतिक संसाधनों का मौसमी प्रयोग का अधिकार।
इसके अलावा अन्य कई अधिकारों को भी इस अधिनियम में स्थान दिया गया है जिसमें एक प्रमुख अधिकार है।
आदिवासी अनुसूचित जनजाति व पारंपरिक रूप से वनों में रह रहे समुदायों को उस ज़मीन पर लौटने का अधिकार है। जहां से उन्हें विस्थापित किया गया था। यदि वे स्थापित कर सकें कि-
(अ) उन्हें राज्य ने बिना किसी मुआवजा दिए, विकास कर्यक्रमों के लिए विस्थापित किया था।
(ब) और जिस भूमि से उन्हें विस्थापित किया गया था उस भूमि पर अधिग्रहण के 5 साल बाद भी वह योजना लागू नहीं की गई जिसके लिए लोगों को हटाया गया था। (खंड – 4 (8)।
इस कानून के खंड 4(4) में स्वामित्व अधिकारों के विरासत के रूप में हस्तांतरण के संबंध में प्रावधान है कि ‘अधिकार विरासत में अगली पीढ़ी प्राप्त कर सकती है पर इस अधिकार को किसी अन्य व्यक्ति को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता। इन अधिकारों को खरीदा या बेचा भी नहीं जा सकता। अधिकार का पंजीकरण संयुक्त रूप से पति और पत्नी दोनों के नाम से या महिला प्रमुख परिवार में महिला के नाम से होना चाहिए। उत्तराधिकारी न होने पर अधिकार निकटतम संबंधी को विरासत के तौर पर मिल सकते हैं।’
इन प्रावधानों के बीच इस अधिनियम में वन्य जीव (सुरक्षा) अधिनियम के अंतर्गत घोषित अभ्यारण्यों व राष्ट्रीय उद्यानों के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन विशिष्ट अभ्यारण्यों से विस्थापित ही हमारे अध्ययन के केंद्र में है। राष्ट्रीय उद्यानों व अभ्यारण्यों के अंदर के क्षेत्रों को अति महत्वपूर्ण वन्यजीव आवास स्थल घोषित किया जा सकता है। इसी के साथ इन क्षेत्रों से विस्थापित किए जाने हेतु अनेक प्रावधान अथवा शर्तों का स्पष्ट उल्लेख है। साथ ही यह भी सुनिश्चित करने को कहा गया है कि इन सारी शर्तों को पूरा किए बिना कोई विस्थापन नहीं किया जा सकता। यह भी साफ तौर लिखा है कि जिन अति महत्वपूर्ण वन्यजीव आवास स्थलों से हकदारों को वन्यजीव संरक्षण के कारण विस्थापित किया गया हो, उस स्थल को बाद में केंद्र सरकार या राज्य सरकार किसी अन्य प्रयोजन के लिए उपयोग नहीं कर सकती।
इन कानून की इन सारी विशेषताओं के बाद इसे लागू न कर पाने की दशा में दंड के प्रावधान पर भी निगाह डालना आवश्यक है। अधिनियन के खंड-7 अनुसार किसी भी प्राधिकरण, कमेटी या उनके सदस्य जिन्होंने इस अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन किया है, उसके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही या जुर्माना (अधिकतम 1,000 रुपए तक) किया जा सकता है।
यह कानून यहीं पर रुक नहीं जाता। यह आगे कहता है लेकिन अगर प्राधिकरण या कमेटी साबित कर सके कि उसकी जानकारी के बिना गलती हुई या उन्होंने भली मंशा से काम किया था, तो उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
इसके बाद हमारे पास कहने को कुछ भी नहीं रह जाता। वैसे भी भारत में कोई भी सरकारी अधिकारी बेचारे आदिवासी के खिलाफ बुरी मंशा से कुछ भी क्यों करेगा? बहरहाल इन सब क़ानूनों की व नीतियों की संक्षिप्त विवेचना के बाद अंत में एक और कानून पर थोड़ी सी निगाह डालते हैं। ये कानून है वन्य जीव (सुरक्षा) अधिनियम 1972, जिसमें सन् 2003 और 2006 में काफी सारे संशोधन किए गए हैं।
वन्यजीव से संबंधित यह अधिनियम भारत की पारिस्थितिकी व प्राकृतिक सुरक्षा नजर रखते हुए जंगली जानवरों, पक्षियों, पौधों व उनसे जुड़े मामलों की सुरक्षा के लिए बनाया गया है। इसके अंतर्गत वन्यजीव से तात्पर्य उन सभी वन्य प्राणियों (जानवर व वनस्पतियों से है जो पानी, ज़मीन या आकाश में पाए जाते हैं। इसके अंतर्गत अनेक प्राधिकरण भी बनाए गए हैं। जिसमें वन्यजीव राष्ट्रीय बोर्ड का गठन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में किया गया।
अध्ययन के दौरान इसके विशिष्ट अध्याय जो कि बाघ नियंत्रण को लेकर प्रावधानों से था, अत्यधिक महत्वपूर्ण जान पड़ा। इस कानून के अंतर्गत एक राष्ट्रीय बांध संरक्षण प्राधिकरण के गठन का प्रावधान है। इस अधिनियम में बाध आरक्षित क्षेत्रों के लिए निम्न विशेष प्रावधान भी किए गए हैं।
इस अधिनियम के अंतर्गत एक राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण स्थापित किया गया है। केंद्र सरकार पर्यावरण एवं वन मंत्री की अध्यक्षता में इस प्राधिकरण का गठन करेगी। (धारा 38 सीएल)
इस प्राधिकरण को खंड 38 (0) के अंतर्गत निम्नलिखित कार्य व शक्तियां प्रदान की गई है। इनमें से प्रमुख हैं,
1. राज्य सरकारों द्वारा तैयार की गई बाघ संरक्षण परियोजनाओं को स्वीकृति देना।
2. बाघ आरक्षित क्षेत्रों में पारिस्थितिकीय संतुलन को खतरा पहुंचाने वाली गतिविधियों को बंद करना।
3. मानव वन्यजीव मुठभेड़ के मुद्दों को सुलझाने के लिए उचित कदम उठाना और स्थानीय लोगों व वन्यजीवों के परस्पर सौहार्दपूर्ण जीवन पर जोर देना।
4. इसके खंड 38 (0) (2) के अनुसार बाघ संरक्षण प्राधिकरण बाघों व उनके लिए आरक्षित क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए निर्देश दे सकता है। लेकिन प्राधिकरण को इस बात का ध्यान रखना होगा कि इन निर्देशों से स्थानीय लोगों, खासकर अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों में बाधा न आए।
अधिनियम के खंड 38 (यू के अंतर्गत राज्यों में एक स्टीयरिंग कमेटी के गठन का प्रावधान है। यह कमेटी मुख्यमंत्री की अध्यक्षता की अध्यक्षता में गठित होना है।
खंड 38 (एक्स) के अंतर्गत बाघों के संरक्षण को प्रोत्साहित करने के लिए बाघ संरक्षण फाउंडेशन की स्थापना की बात कही गई है।
खंड 38 (वी) के अनुसार राज्य सरकार, बाघ संरक्षण प्राधिकरण की सलाह पर किसी क्षेत्र को बाघ आरक्षित क्षेत्र (टाइगर रिजर्व) घोषित कर सकती है, जिसके लिए उसे एक बाघ संरक्षण योजना बनानी होगी। इस योजना में यह सुनिश्चित किया जाएगा कि कृषि, विकास, आजीविका व लोगों के अन्य अधिकारों को इस निर्णय/घोषणा से क्षति न पहुंचे।
इस अधिनियम के विस्थापन से संबंधित प्रावधानों पर भी गंभीरता से विचार करना आवश्यक है -
अधिनियम के खंड 38 (वी) (5) के अनुसार बाघ आरक्षित क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों व अन्य आदिवासियों के अधिकारों में फेरबदल की जा सकती है या उनका विस्थापन किया जा सकता है, यदि इन प्रक्रियाओं से जुड़ी सभी शर्तें दोनों पक्षों को मान्य हों। इसके लिए निम्नलिखित शर्तों पर स्वीकृति होना आवश्यक है।
(क) अधिकार की स्वीकृति और बंदोबस्ती की प्रक्रिया पूरी हो गई हो।
(ख) यह स्थापित हो चुका हो कि कथित समुदायों के रहने या उनकी गतिविधियों से बाघ व उसके आवास स्थल को खतरा है या अपूर्णीय क्षति पहुंच सकती है।
(ग) यह स्थापित हो गया हो कि सहअस्तित्व के कोई भी विकल्प संभव नहीं है।
(घ) पुर्नस्थापना (पुनर्वास) की एक योजना पूर्व में तैयार कर ली गई हो जो राष्ट्रीय राहत व पुनर्वास नीति के प्रावधानों को पूरा करती हो तथा संबंधित ग्रामसभा और संबंधित लोगों ने सभी जानकारियों के आधार पर उस योजना पर अपनी स्वीकृति दे दी हो।
अधिनियम के खंड 38 (वी) (5) के अनुसार संबंधित अनुसूचित जनजातियों वे अन्य आदिवासियों के अधिकारों में तब तक फेरबदल नहीं किया जा सकता, जब तक पुनर्वास के स्थान पर भूमि आबंटन व अन्य सभी सुविधाएँ पूरी तरह से उपलब्ध न करा दी गई हों।
इसी अधिनियम का खंड 38 (डब्ल्यू) स्पष्ट करता है कि राज्य सरकार को किसी भी बाघ आरक्षित क्षेत्र की घोषणा को रद्द करने की अनुमति नहीं होगी। हालांकि यदि आम जनता के हित में ऐसा करना अनिवार्य हो तो इसके लिए बाघ संरक्षण प्राधिकरण व राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की स्वीकृति लेना आवश्यक है।
वन्यजीव से संबंधित यह अधिनियम भारत की पारिस्थितिकी व प्राकृतिक सुरक्षा नजर रखते हुए जंगली जानवरों, पक्षियों, पौधों व उनसे जुड़े मामलों की सुरक्षा के लिए बनाया गया है। इसके अंतर्गत वन्यजीव से तात्पर्य उन सभी वन्य प्राणियों (जानवर व वनस्पतियों से है जो पानी, ज़मीन या आकाश में पाए जाते हैं। इसके अंतर्गत अनेक प्राधिकरण भी बनाए गए हैं। जिसमें वन्यजीव राष्ट्रीय बोर्ड का गठन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में किया गया।इन ढेर सारे क़ानूनों की आड़ में वन विभाग की जमींदारी बदस्तूर जारी रही। इतना ही नहीं अनुसूचित जनजाति व अन्य आदिवासी (वन अधिकारों को मान्यता अधिनियम) 2006 के पारित हो जाने के एक साल बाद 1 जनवरी 2008 को इससे संबंधित नियम बनाए गए। परंतु इसके डेढ़ महीने पहले देश के संपूर्ण टाईगर रिजर्वों के कोर एरिया की ताबड़तोड़ अधिसूचनाएं निकाल दी गई। इतना ही नहीं इनके निर्धारण हेतु किसी तरह का वैज्ञानिक अध्ययन या सर्वेक्षण भी नहीं करवाया गया और न ही स्थानीय ग्रामवासियों को अपना पक्ष रखने का मौका दिया गया। वहीं दूसरी ओर इस कानून में यह प्रावधान डाल दिया गया कि राष्ट्रीय उद्यानों और अभ्यारण्यों में संकटपूर्ण वन्य जीव आवासों या कोर एरिया में ग्रामवासियों के अधिकार खत्म किए जा सकते हैं।
मध्य प्रदेश में टाइगर रिजर्व एवं अभ्यारण्यों से संबंधित पुनर्वास नीति
मध्य प्रदेश के कान्हा टाइगर रिजर्व से पहला कानूनी विस्थापन सन् 1967 में हुआ। इस समय तक यह अभ्यारण्य ही था। रिजर्व के अंदर स्थित सौंफ गांव के 29 परिवारों को भानपुर खेड़ा में बसाया गया था। उन्हें जंगल के बाहर के गाँवों में बसाकर यह वायदा किया गया था कि उन्हें 2.5 हेक्टेयर कृषि भूमि, सिंचाई की सुविधा, बच्चों के लिए विद्यालय, स्वास्थ्य सुविधाओं के अलावा प्रत्येक परिवार में से एक को सरकारी नौकरी दी जाएगी। साथ ही साथ उनकी आदिवासी संस्कृति के पोषण का भी वायदा किया गया था। शुरुआती दौर में आम वनवासी में विस्थापन और अपने अधिकारों को लेकर किसी भी प्रकार की जागरुकता भी नहीं थी इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पीढ़ी दर पीढ़ी रहते उन्हें इस बात का विश्वास हो गया होगा कि अब वे यहां के स्थायी निवासी हैं तथा जंगली जीव जंतुओं के साथ अपने सहअस्तित्व को समझते हुए उनके साथ ही जीने की पद्धति के कारण उन्होंने कभी यह सोचना भी नहीं होगा कि एक दिन उन्हें ही इन जानवरों खासकर बाघ के लिए खतरा मान लिया जाएगा। परंतु परिस्थितियां बदलीं और जो समुदाय शताब्दियों से जंगल को सहेज रहा था उसे एकाएक जंगल का विध्वंसक माना जाने लगा। अंग्रेजों द्वारा डेढ़ शताब्दी पूर्व बेदखली की मुहीम आज़ाद भारत में भी परवान चढ़ती गई और आदिवासी व वनवासी समुदाय इसका शिकार बनता गया।
विस्थापितों ने चर्चा के दौरान बताया कि ज़मीन के अलावा जो कुछ भी उन्हें दिया गया उसके मुआवजा राशि से काट लिया गया था। यहां तक कि जंगल के अंदर से पुनर्वास स्थल तक सामान लाने का मालभाड़ा विस्थापितों से वसूला गया और कुछ मामलों में तो उन्हें इस हेतु ऋण भी दिया गया जिसकी बाद में ब्याज सहित वसूली की गई।
काफी आलोचनाओं के पश्चात मध्य प्रदेश ने एक आदर्श पुनर्वास नीति बनाई।
नीति की प्रस्तावना में लिखा है -
1. यह नीति मध्य प्रदेश राज्य के लिए आदर्श पुनर्वास नीति होगी। शासन के विभिन्न विभागों ने पूर्व से अपनी-अपनी परियोजनाओं को देखते हुए पुनर्वास नीति लागू की है। इसके अतिरिक्त भू-अर्जन अधिनियम 1894 के अंतर्गत भी अनिवार्य पुनर्वास के प्रावधान हैं। जब भी किसी परियोजना के लिए भू-अर्जन की कार्यवाही की जाती है, यह सुनिश्चित किया जाता है कि भू-अर्जन अधिनियम के द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार पुनर्वास की कार्यवाही अवश्यमेव की जावे।
2. इस आदर्श नीति में ऐसे सभी सामाजिक पहलुओं को रखा गया है जो कि पूर्णरुपेण पुनर्वास के लिए आवश्यक है। पूर्णरुपेण पुनर्वास से तात्पर्य है कि विस्थापित व्यक्ति को कुछ समय बाद यह महसूस न हो कि वह विस्थापित होकर अपने जाने पहचाने पर्यावरण से दूर हो गया है, या कट गया है।
3. यह नीति प्रदेश के लिए आदर्श नीति के रूप में रहेगी। विभिन्न विभाग अपनी-अपनी पुनर्वास नीति की समीक्षा इस नीति के परिप्रेक्ष्य में करेंगे। अगर उनकी नीति में विस्थापितों के लिए इस नीति से बेहतर प्रावधान है, तो उत्तम है अन्यथा इस नीति के प्रावधान अनिवार्यतः लागू होंगे। ऐसे प्रावधान जो केवल इसी नीति में किए हैं, एवं अन्य विभागीय नीतियों में नहीं हैं वे सभी परियोजनाओं को लागू होंगे।
वानिकी और संबंधित योजनाएं -
1. अभ्यारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों के प्रबंधन सहित वन संसाधनों के विकास और उपयोग के नियोजन में उन पर स्थानीय समाज की निर्भरता को खासतौर से आदिवासी समाज के उनसे परस्पर पोषक संबंधों को, आधारभूत माना जाएगा। इस मामले में संबंधित लोगों और उनकी अर्थव्यवस्था के बारे में तथ्यों का लिखित रूप में उपलब्ध होना या न होना, उनकी औपचारिक मान्यता होना या न होना तथा उससे संबंधित अद्यतन कानूनी स्थिति से किसी तरह की विसंगति, इत्यादि का कोई असर नहीं होगा। इन परियोजनाओं में लोगों की परम्पराओं के अनुरूप सभी के लिए समुचित जीवनयापन के लिए पूरी व्यवस्था और पूरे साल भर के कामकाज के लिए योग्य सभी व्यक्तियों के लिए एक विशेष रोज़गार आश्वासन योजना बनाई जाएगी। इस योजना का यह उद्देश्य होगा कि वन में रहने वाले सभी लोगों के लिए वन संसाधन, राष्ट्रीय उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए तथा उसके पर्यावरणीय आधार के नुकसान पहुँचाए बिना बेहतर जीवनयापन की उनकी आकांक्षा पूरी करने के सक्षम आधार बन सकें।
2. अन्य मामलों में जहां राज्य के अलावा अन्य कोई अभिकरण बिगड़े वनों के सुधार या पड़त भूमि वैगरह वृक्षोत्पादन जैसे कोई कार्यक्रम लेता है, तो संबंधित क्षेत्र में रहने वाले लोगों को उस अभिकरण में वरिष्ठ भागीदार माना जाएगा। यह भागीदारी परस्पर रहवास पर समाज के परंपरागत अधिकार की अभिस्वीकृति के प्रतीक के रूप में होगी। यदि शेयर दिए जा रहे हैं तो संबंधित ग्रामसभाओं को कम से कम 50 प्रतिशत तक के शेयर मिलने की प्राथमिकता होगी।
विकास प्रभावित सहयाता कोष-
विस्थापन से उत्पन्न या विस्थापन के कारण मुसीबत में पड़े उन लोगों की सहायता के लिए जिनके लिए साधारण प्रक्रिया के मुताबिक कोई सहायता संभव नहीं हो, 50 करोड़ रुपए की प्रारंभिक राशि के साथ एक विकास प्रभावित सहायता कोष के नाम से विशेष निधि का निर्माण किया जाएगा। सभी खनिजों, बिजली, वन-आधारित, भारी पूंजी निवेश वाले उद्योगों आदि पर इसके लिए एक विशेष उपकर लगाया जाएगा। इस कोष का उपयोग, राज्य स्तरीय समिति की सलाह से पुनर्वास विभाग करेगा।
बार-बार विस्थापन पर रोक -
बार-बार विस्थापन यथासंभव नहीं किया जाना चाहिए और यदि करना पड़े तो यह अपवाद स्वरूप ही किया जाए तथा इसके पहले राज्य स्तरीय समिति का अनुमोदन प्राप्त किया जाए।
परियोजना इत्यादि के द्वारा उपयोग में नहीं ली जाने वाली भूमि का निकास।
वे सभी भूमियां, जो किसी प्रयोजन के लिए भू-अर्जन के आधार पर लेने के बाद 10 साल तक उस उपयोग में नहीं लायी जाती है; सरकार को स्वमेव वापिस हो जाएगी या सरकार उन्हें बिना किसी अधिमूल्य दिए ले सकेगी। यदि शासन को अर्जित भूमि का आवश्यकता न हो तो उसे भूतपूर्व धारक को वापस करने का प्रावधान आर-बी.सी. में है।
बदलाव के पहले की पूर्व शर्तें
14.1 किसी इलाके में किसी परियोजना की स्थापना के लिए या किसी दूसरे काम के लिए भूमि का अर्जन और दूसरे संसाधनों के वैकल्पिक उपयोग के लिए ग्रामसभा से परामर्श किया जाए।
14.2 भू-अर्जन के संदर्भ में जन प्रयोजन के दायरे में राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित किसी खास काम के अलावा पुनर्वास, रक्षा, रेल, आवागमन के साधन, स्वास्थ्य, शिक्षा, सिंचाई, बिजली उद्योग, उत्खनन इत्यादि शामिल होंगे।
14.3 सभी आर्थिक प्रतिष्ठानों को खासतौर से उदारीकरण और खुले बाजार के नए ढांचे के संदर्भ में अपने पक्ष खुले मंच पर स्थापित करना जरूरी होगा। इसमें राज्य की भूमिका निर्णायक की होगी। उस भूमिका को अदा करते समय इस बात का पूरा ध्यान रखा जाएगा कि दोनों पक्षों की स्थिति में भारी असमानता के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। राज्य की कमजोर वर्गों के पक्ष में खड़े होने और उनके हितों के संरक्षण की खास ज़िम्मेदारी है। राज्य की सत्ता सा अधिकारियों के दबदबे का किसी भी हालत में लोगों को ज़मीन देने के लिए राजी करने या सीधे हस्तक्षेप करके या छिपे तरीके से उन्हें प्रेरणा देकर समझौता कराने के लिए उपयोग नहीं किया जाएगा। आदिवासी लोगों के मामले में इस बात का खास ध्यान रखा जाएगा कि राज्य का कोई भी कदम या संबंधित पक्षकारों की ऐसी कोई कार्यवाही न हो जिससे कुछ लोगों को परियोजना के पक्ष में मिलाकर समाज में दरार पड़ने की स्थिति बन जाए।
16.4 नई जगह जाकर बसने के दौर में इस बात का खास ध्यान रखा जाएगा कि नई बसाहटों में लोग पहले के समाज के रूप में ही स्थापित हों न कि टूकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाएं। इसके साथ-साथ संपर्क पुनर्स्थापित बसाहटों को भी यथासंभव एक इकाई रूप में एक ही पट्टी में बसाया जाएगा जिससे उन गांव-समाजों के संपर्क सूत्र वैसे ही बने रहें।
16.5 नई बसाहट के लिए स्थान का चयन प्रभावितों और मेजबान समाज दोनों की सलाह से किया जाएगा। इस प्रक्रिया में सबसे पहले संभावित प्रभावितों को नए इलाकों की अच्छी जानकारी एवं वहां के लोगों के साथ इत्मिनान से बातचीत के लिए उनकी इच्छा के मुताबिक धीमी गति परिचय यात्राएं आयोजित की जाएगी। इसके बाद ही प्रत्येक बसाहट के बारे में संबंधित प्रभावितों और मेजबानों के स्पष्ट परामर्श के आधार पर ही कोई कार्यवाही की जाएगी।
पुनर्बसाहट के लिए योजना-
पुनर्वास के उन मामलों में जहां स्थान परिवर्तन जरुरी हो, विकास योजना के अनुमोदन के तुरंत बाद प्रभावित लोगों के साथ मिलकर सलाह मशवरा करके पुनर्बसाहट और पुनर्वास के लिए विस्तृत क्रमबद्ध योजना तैयार की जाएगी। इसमें यह सुनिश्चित किया जाएगा कि परियोजना के द्वारा संबंधित क्षेत्र और संपत्ति के प्रभावित होने पर उपयोग योग्य न रहने के कम से कम एक साल पहले लोग अच्छी तरह से नई जगह पर पुनर्वासित हो जाए। दूसरी ओर लोगों को हटने-हटाने का कार्य यथासंभव नई जगह पुनर्वासित होने पर ही किया जाए।
इस नीति की ज्यादा विवेचना किए बगैर सिर्फ तीन प्रमुख बिंदुओं पर ध्यान देना आवश्यक है। पहला यह कि इसमें पूर्णरुपेण पुनर्वास की बात की गई है। साथ ही पूर्णरूपेण पुनर्वास को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि विस्थापित व्यक्ति को यह महसूस ही न हो कि वह विस्थापित होकर अपने जाने-पहचाने पर्यावरण से दूर हो गया है या कट गया है। दूसरा अभ्यारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों के प्रबंधन सहित वन संसाधनों के विकास और उपयोग में उन पर स्थानीय समाज की निर्भरता का, खासतौर से आदिवासी समाज के उनसे परस्पर पोषक संबंधों को आधारभूत माना जाएगा। तीसरा विस्थापित परिवारों को उनकी भूमि की कीमत का एकमुश्त भुगतान किया जाएगा। किंतु यदि विस्थापित व्यक्ति अनुसूचित जाति या जनजाति वर्ग के हैं तो उनसे ली गई भूमि के बराबर भूमि दी जाएगी।
इस नीति के अनुसार जहां एक ओर जंगल पर अपनी जीविका के लिए आवश्यक अधिकारों को छोड़ने के लिए तीन लाख रुपए का भुगतान किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर उनसे न केवल जीवन के मूलभूत सुविधाएं जुटाने के लिए पूरा भुगतान लिया जा रहा है। विस्थापन प्रभावितों से मृत्यु उपरांत अपने क्रियाकर्म की व्यवस्था के लिए भी शुल्क लिया जा रहा है। क्या शहर में रहने वाले इन सबके लिए कभी भी कुछ नकद भुगतान करते हैं? सरकारें या स्थानीय संस्थाएं उन्हें ये सब उपलब्ध कराती हैं और बदले में निर्धारित शुल्क या कर लेती है।इस नीति के परिप्रेक्ष्य में वन परियोजनाओं से विस्थापित हुए समुदाय की स्थितियों का आकलन करने से अनेक विरोधाभास सामने आते हैं। बहरहाल इस नीति से शासन की कथनी और करनी के विरोधाभास को भी समझने में सहायता मिलती है। इस आदर्श पुनर्वास नीति के पश्चात फरवरी 2008 में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकारी और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय भारत सरकार ने बाघों की बसाहट के नज़दीक के इलाकों से गाँवों को अन्यत्र स्थानांतरित कर पुर्नस्थापित करने के लिए कुछ दिशा सूचक बनाए। इस नई नीति को बनाने की छोटी सी पृष्ठभूमि, जिसमें अनेक क़ानूनों का हवाला देते हुए कहा गया है कि चूंकि इस तरह की भूमि या अधिकारों का अधिग्रहण आवश्यक है अतएव प्रभावित लोगों की अचल संपत्ति का मुआवजा देना संवैधानिक बाध्यता है। इसी क्रम में बाघ को एक तरह से अन्य वन्यजीवों को छत्र छाया प्रदान करने वाला वन्य जीव बताते हुए 80 से 100 बाघों की जनसंख्या के लिए 800 से 1000 वर्ग कि.मी. के इलाके की आवश्यकता बताई गई है। इस प्रकार से प्रत्येक बाघ के हिस्से औसतन 10 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र आता है। परंतु इस नीति के मार्गदर्शक सिद्धांतों का विश्लेषण करने के पहले इसकी प्रारंभिक पंक्तियों पर ध्यान देना आवश्यक है। इसके अनुसार यह नई एक व्यावसायिक संस्था की अनुशंसाओं के आधार पर गाँवों को नई जगह बसाना और पुनर्वास का प्रस्ताव किया गया है जो कि राष्ट्रीय पुनर्वास व पुनर्बसाहट नीति 2007 के अनुरूप वन क्षेत्र में निवास कर रहे व्यक्तियों को नई जगह बसाने में आने वाली तकलीफों और अनिवार्यताओं को ध्यान में रखकर तैयार की गई है।
इस पैकेज में दो विकल्प रखे गए हैं-
विकल्प 1 - अगर परिवार इस विकल्प का चुनाव करे कि वह वन विभाग के साथ लिए बगैर पैकेज की पूरी धनराशि (10 लाख रुपए प्रति परिवार) लेना चाहता है।
विकल्प 2 - सुरक्षित क्षेत्र या टाइगर रिजर्व से बाहर वन विभाग के माध्यम से नई जगह बसाने या पुनर्वास की इच्छा।
पहले विकल्प में जिले के कलेक्टर की निगरानी में ग्रामीण उन्हें उपलब्ध पैकेज के माध्यम से स्वयं का पुनर्वास करेंगे। इस प्रक्रिया में यह कहा गया था कि बाहरी संस्थाओं के माध्यम से इन लाभकर्ताओं की मदद करने के लिए ऐसी भरोसेमंद पद्धति विकसित की जाए। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाए कि लाभकर्ताओं को मिलने वाले धन में से एक हिस्सा राष्ट्रीयकृत बैंकों में जमा किया जाए जिससे प्राप्त होने वाले ब्याज की मदद से ये बेहतर जीवन बिता सकें।
वहीं दूसरे विकल्प में निम्नलिखित पैकेज का उपलब्ध कराया जाना प्रस्तावित है। ग़ौरतलब है कि यह पैकेज भी प्रति परिवार 10 लाख रुपए के समकक्ष है।
1 | कृषि भूमि जुटाना (2 हेक्टेयर) एवं उसका विकास | पैकेज का 35 प्रतिशत |
2 | अधिकारों का निपटारा | पैकेज का 30 प्रतिशत |
3 | घर हेतु भूमि एवं भवन निर्माण | पैकेज का 20 प्रतिशत |
4 | प्रोत्साहन | पैकेज का 5 प्रतिशत |
5 | परिवार द्वारा उपयोग में ली जाने वाली सामुदायिक सुविधाएँ (जैसे पहुंच मार्ग, सिंचाई, पीने का पानी, जल-मल निकासी, बिजली, संचार के साधन, सामुदायिक केंद्र, पूजा स्थल, शवदाह, अंतिम संस्कार) | पैकेज का 10 प्रतिशत |
इस नीति के अनुसार जहां एक ओर जंगल पर अपनी जीविका के लिए आवश्यक अधिकारों को छोड़ने के लिए तीन लाख रुपए का भुगतान किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर उनसे न केवल जीवन के मूलभूत सुविधाएं जुटाने के लिए पूरा भुगतान लिया जा रहा है। विस्थापन प्रभावितों से मृत्यु उपरांत अपने क्रियाकर्म की व्यवस्था के लिए भी शुल्क लिया जा रहा है। क्या शहर में रहने वाले इन सबके लिए कभी भी कुछ नकद भुगतान करते हैं? सरकारें या स्थानीय संस्थाएं उन्हें ये सब उपलब्ध कराती हैं और बदले में निर्धारित शुल्क या कर लेती है। परंतु एक प्रोफेशनल एजेंसी द्वारा बनाए गए और शासन द्वारा मंजूर किए गए इस पुनर्वास पैकेज में विस्थापन के बाद उपलब्ध कराई गई सभी सुविधाओं के लिए धनराशि का भुगतान मुआवजा राशि से काटकर ही लिया गया है। कुल मिलाकर इस नीति के परिप्रेक्ष्य में देखे तो पता चलता है कि विस्थापित वनवासी को हर तरफ से शिकार ही बनाया गया है।
इस नीति में एक अंग्रेजी शब्द “हेंड होल्डिंग” का बार-बार जिक्र आता है। इसका भावार्थ निकालें तो संभवतः वह होगा कि ऐसी भावना के साथ सहयोग किया जाए कि विस्थापित को लगे कि उसके इस नए परिवेश में कोई न कोई हमेशा उसकी मदद के लिए मौजूद है। परंतु वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है। इतना ही नहीं यह भी कहा गया है कि पुनर्वास में यदि अधिक धन लगता है तो इसकी व्यवस्था राज्य सरकारों को करनी होगी। परंतु हम सभी जानते हैं राज्य सरकारें तो हमेशा ही धन की कमी का रोना रोती रहती हैं।
इस नीति के अंत में विस्थापितों को पुचकारने के लिए अनेक उपक्रम किए गए हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि गाँवों को नई जगह पर बसाने के पूर्व पंचायती राज संस्थाओं की केंद्रीय भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वहीं अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वननिवासी/वन अधिकारों की मान्यता अधिनियम 2006 के अनुच्छेद 4 में भी ग्रामसभा के कार्यों और अधिकारों की स्पष्ट विवेचना की गई है। परंतु प्रत्येक पुनर्वास योजना की तरह इस पुनर्वास पैकेज में इन संस्थाओं की पूर्णतया अवहेलना की गई है। इसका स्पष्ट उदाहरण इस पैकेज की निगरानी एवं क्रियान्वयन करने हेतु उत्तरदायी कमेटी के सदस्यों की सूची से स्पष्ट हो जाता है। इसके अंतर्गत राज्य स्तरीय कमेटी का गठन राज्य के मुख्य सचिव एवं जिला स्तरीय समिति का गठन जिले के कलेक्टर की अध्यक्षता में होगा। इतना ही नहीं इन दोनों समितियों में पंचायती राज संस्थानों के एक भी प्रतिनिधि को कोई स्थान नहीं दिया गया है। गैर सरकारी सदस्यों की बात करें तो इसमें एक गैर सरकारी सदस्य बाघ संरक्षण फाउंडेशन का प्रतिनिधि होगा।
इस प्रकार विस्थापितों पर खर्च किए जाने वाले धन पर किसी भी पंचायती राज संस्थान को कोई जवाबदारी नहीं दी गई है। इससे इस पैकेज की मानसिकता और शासन की मनोवृत्ति का साफ-साफ पता चल जाता है।
इन नीतियों के परिप्रेक्ष्य में हमें देखना होगा कि विस्थापन से प्रभावित समुदाय और खासकर बच्चों पर इसके क्या प्रभाव पड़ेगे।
मध्य प्रदेश में संरक्षित वन
भारत के कुल क्षेत्रफल में से मध्य प्रदेश का हिस्सा करीब 9.36 प्रतिशत है। जबकि मध्य प्रदेश भारत के कुल वन क्षेत्र में करीब 12.5 प्रतिशत का योगदान करता है। 2001 के भारतीय वन सर्वेक्षण के अनुसार मध्य प्रदेश में कुल वन क्षेत्र (क्षेत्रफल के अनुपात में) 30.8 प्रतिशत है जिसमें से वनों से आच्छादित का प्रतिशत करीब 25.7 प्रतिशत है जबकि भारत में यह भौगोलिक क्षेत्र का 23.3 प्रतिशत है। जिसमें से वनों से आच्छादित क्षेत्र तो 20.55 प्रतिशत ही है।
अगर राष्ट्रीय पार्क (नेशनल पार्क) और अभ्यारण्यों की बात करें तो मध्य प्रदेश में कुल 9 राष्ट्रीय पार्क और 25 अभ्यारण्य हैं जबकि पूरे भारत में 89 राष्ट्रीय पार्क एवं 505 अभ्यारण्य हैं। मध्य प्रदेश में राष्ट्रीय पार्क एवं अभ्यारण्यों के क्षेत्रफल में भी 1979 से लेकर 2003 के मध्य काफी विस्तार हुआ है। सन् 1979 में राष्ट्रीय पार्कों का कुल क्षेत्रफल 1201 वर्ग कि.मी. था जो 2003 तक आते-आते 6475 अर्थात करीब 5 गुना और अभ्यारण्यों का क्षेत्र जो 1979 में 7409 वर्ग कि.मी. था वह 2003 में करीब 10862 वर्ग कि.मी. यानि की डेढ़ गुना हो चुका था। इससे विस्थापितों की संख्या में बढ़ोतरी का भी अंदाजा लगाया जा सकता है।
प्रोजेक्ट टाइगर – ऐसा माना जाता है कि बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत में बाघों की संख्या करीब 40000 थी। भारत में हुई 1972 में पहली अखिल भारतीय बाघ जनगणना से पता चला कि भारत में केवल 1827 बाघ बचे हैं। परंतु इसके 3 वर्ष पूर्व नई दिल्ली में हुई आईयूसीएन असेम्बली में भारत में वन्यजीवों की घटती संख्या और उन पर आ रहे संकटों के प्रति गहरी चिंता व्यक्त की गई थी। इसी के परिणामस्वरूप सन् 1970 में बाघों का शिकार पूर्ण प्रतिबंधित कर दिया था। ग़ौरतलब है कि यह वन्यप्राणी (सुरक्षा) अधिनियम 1972 के पूर्व लागू किया जा चुका था। इस बीच भारतीय वन्य जीव बोर्ड द्वारा गठित एक विशेष कार्य बल की अनुशंसाओं के मद्देनज़र 1 अप्रैल 1973 को प्रोजेक्ट प्रारंभ किया गया।
बाघ को वन्य खाद्य श्रृंखला में सर्वोच्च माना जाता है तथा इसका अस्तित्व उस इलाके की जैवविविधता और इको सिस्टम की समृद्धि का सूचक भी है। मध्य प्रदेश द्वारा अपने बाघों के संरक्षण के लिए इसे बाघ राज्य या टाइगर स्टेट का दर्जा भी प्राप्त है। प्रारंभ में 9 राज्यों में 9 टाइगर रिजर्व की स्थापना की गई थी जिसमें मध्य प्रदेश का कान्हा भी शामिल था। आज मध्य प्रदेश में कुल 5 टाइगर रिजर्व कान्हा, पेंच, बांधवगढ़, पन्ना और बोरी (सतपुड़ा पचमड़ी) हैं पूरे देश में करीब 27 टाइगर रिजर्व हैं। 15 राज्यों में स्थित इन रिजर्व का कुल क्षेत्रफल करीब 37761 वर्ग कि.मी. है जो कि भारत के कुल क्षेत्रफल का करीब 1.14 प्रतिशत है। अगर मध्य प्रदेश में इनके कुल क्षेत्रफल की बात करें तो यह करीब 5893 वर्ग कि.मी. है।
इसी परिप्रेक्ष्य में मध्य प्रदेश के वनों से संबंधित एक आंकड़े पर भी गौर करना चाहिए। मध्य प्रदेश राज्य पर्यावरण रिपोर्ट 2006 के अनुसार मध्य प्रदेश में कुल 52739 गांव हैं जिनमें से करीब 22,600 गांव वन क्षेत्र के नज़दीक स्थित हैं तथा ये प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से अपनी जीविका हेतु जंगलों पर ही निर्भर हैं।
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