![आदिवासी समाज के लिए जंगल ही सब कुछ है।](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/hwp-images/tribal%20people_3.jpg?itok=xma8eXHY)
वर्ष 2006 में वनों में निवास करने वाले अनुसूचित एवं अन्य पारंपरिक वनवासियों ( SCHEDULED TRIBES AND OTHER TRADITIONAL FOREST DWELLERS) के वन अधिकारों को मान्यता प्रदान करने वाला अधिनियम पारित हुआ था। इस अधिनियम को मील का पत्थर माना गया था क्योंकि यह अधिनियम जंगलों में पीढ़ियों से निवास करने वाले अनुसूचित जाति एवं अन्य पारंम्परिक वनवासी समाज के भूमि-अधिकारों और आजीविका को मान्यता प्रदान करता था। जंगल में उनके निवास को मान्यता देता था। इस सब के अलावा यह अधिनियम उनकी जिम्मेदारियों को भी रेखांकित करता है जिसमें कहा गया था कि उक्त समाज जंगल की जमीन पर वन सम्पदा, वनों की जैव-विविधता और वनों के इकालाजिकल सन्तुलन को बनाए रखने में अपना योगदान देंगे।
अधिनियम के अध्याय एक से अध्याय छः में विवरण तथा उससे जुड़ी सम्पूर्ण प्रक्रिया को विस्तार वर्णित किया गया है। अध्याय दो (1) की उप-कंडिकाओं में पीढ़ियों से निवास करने वाले अनुसूचित जाति एवं अन्य पारंम्परिक वनवासी समाज के वन-भूमि पर मालिकाना हक तथा बसने और आजीविका अर्जन सम्बंधी अधिकारों को कतिपय प्रतिबन्धों के साथ लिपिबद्ध किया गया है। इसी अध्याय के भाग (2) की उप-कंडिकाओं में भारत सरकार द्धारा उपलब्ध कराई जाने वाली मूलभूत जन-सुविधाओं का उल्लेख है। इन जन-सुविधाओं में स्कूल, अस्पताल, आंगनवाड़ी, उचित मूल्य की अनाज की दुकान, बिजली और दूर-संचार की लाइन, तालाब और अन्य छोटी जल संरचनाऐं, जल संरक्षण या वर्षा जल संरक्षण कार्य, जल प्रदाय, छोटी नहर, सडक, अपरम्परागत ऊर्जा, प्रषिक्षण केन्द्र और सामुदायिक भवन सम्मिलित हैं।
यह उनका ही लाभ है इसलिए वे जंगलों की सलामती के लिए अधिक से अधिक प्रयास करेंगे। चूंकि अर्जित लाभ वनवासियों के ही बीच वितरित होना है इसलिए यह प्रयास पीपीपी माडल की तुलना में अधिक कारगर होगा। आदिवासी समाज तथा जंगल और उसकी अस्मिता के लिए काफी लाभकारी होगा। गौरतलब है कि पीपीपी माडल में मजदूर को केवल मजदूरी मिलती है। लाभ मालिक ले जाता है। मजदूरी मिलने के कारण उसकी गरीबी दूर नहीं होती पर मालिकाना हक मिलने का अर्थ होता है अधिक आय। अधिक आय का अर्थ सम्पन्न्ता होता है। यह लाभ आदिवासी समाज को जंगलों से जोड़कर दिया जा सकता है।
अध्याय तीन में मान्यता, अधिकारों की बहाली इत्यादि का और अध्याय चार में अधिकारों को प्रदान की जाने वाली महत्वपूर्ण प्रक्रिया का उल्लेख है। यह कानून दिसम्बर 2005 के पहले कम से कम तीन पीढ़ियों तक वन भूमि पर रहने वाले व्यक्तियों के भू-अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है। उन अधिकारों की वैधता की जांच जिले के कलेक्टर की अध्यक्षता वाली कमेटी द्वारा की जाती है। अर्थात कमेटी को दावा मानने या खारिज करने का अधिकार है। वन अधिकार अधिनियम 2006 में दर्ज प्रक्रिया के आधार पर वनों में निवास करने वाले अनुसूचित एवं अन्य पारंपरिक वनवासियों के निवास सम्बन्धी दावों पर कार्यवाही प्रारंभ हुई। उनमें जो लोग आवश्यक प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके उनके आवेदन खारिज कर दिए गए। खारिज होने के सबसे अधिक मामले मध्यप्रदेश, कर्नाटक और ओडिसा में सामने आए। अकेले मध्यप्रदेश में यह संख्या लगभग 3.50 लाख है। पूरे देश में यह संख्या लगभग 11.8 लाख के करीब है।
सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी 2019 को राज्य सरकारों को बेदखली का आदेश दिया था। इस बेदखली आदेश पर गुजरात सरकार और केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से मामले में रोक लगाने का अनुरोध किया। 28 फरवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने दावों के निपटारे पर सवालिया निशान लगाते हुए लगभग 11़.8 लाख आदिवासियों एवं वनवासियों को बेदखल करने वाली कार्यवाही पर रोक लगा दी है। उसने देश के 16 सम्बन्धित राज्यों से जानना चाहा कि वे 24 जुलाई के पहले हलफनामा दाखिल कर बताएं कि उन्होंने जंगलों में निवास कर रहे लोगों के दावों का निपटारा किस आधार पर किया? मामले का निर्णय यथासमय पर ही आएगा और तदानुसार कार्यवाही सम्पन्न होगी। यह कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा है। यह आलेख जंगलों की बेहतरी के साथ-साथ पिछडे कहे जाने वाले वनवासी समाज की आजीविका से जुड़ी कतिपय उजली संभावनाओं को रेखांकित करने का प्रयास करता है। उन फैसलों और वनवासी समाज की भागीदारी में उजली संभावनाओं के बीज छुपे हैं। वन अधिनियम 2006 का दूसरा पैराग्राफ अनुसूचित एवं अन्य पारंम्परिक वनवासियों की जिम्मेदारियों को रेखांकित करता है। जिसमें दर्ज है कि वे जंगल की जमीन पर वन संपदा, वनों की जैव-विविधता और वनों के इकोलाॅजिकल सन्तुलन को बनाए रखने में अपना योगदान देंगे।
जिस प्रकार सरकार ने राजस्व की जमीन पर समाज को खेती करने का अधिकार प्रदान कर देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता तथा देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी को प्रत्यक्ष तथा परोक्ष आजीविका उपलब्ध कराई है उसी तर्ज पर वनों में निवास करने वाले अनुसूचित एवं अन्य पारंम्परिक वनवासियों को जंगल की जमीन पर वन लगाने, जड़ी-बूटी पैदा करने इत्यादि का अधिकार और जिम्मेदारियां प्रदान की जा सकती हैं। यह मौजूदा नीति के प्रावधानों के अनुसार कराया जा सकता है। वन अमले के कार्यभार को कम कर आदिवासियों से आवश्यकतानुसार कराया जा सकता है। यदि ऐसा किया जाता है तो विभागीय खर्च कम कर, खेती के समानान्तर वन सम्पदा आधारित अर्थव्यवस्था विकसित हो सकती है। वन भूमि पर निवास करने वाले लोगों की प्रत्यक्ष तथा परोक्ष आजीविका को आधार मिल सकता है। यदि लाखों की संख्या में विस्थापित वनवासी नगरों में आते हैं तो उतने लोगों को मूलभूत नागरिक सुविधाएं और रोजगार देना आसान नहीं होगा। जंगल बचेंगे तो देश का पर्यावरण सुधरेगा। आक्सीजन की मात्रा में सुधार होगा। बायोडायवर्सिटी बहाल होना प्रारंभ होगा। हमें उस दिशा में पहल करनी चाहिए।
वन अधिनियम 2006 के अध्याय दो के भाग (2) की उप-कंडिकाओं में भारत सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली मूलभूत सुविधाओं का उल्लेख है। इन सुविधाओं में तालाब और अन्य छोटी जल संरचनाएं, जल संरक्षण, वर्षा जल संरक्षण कार्य, जल प्रदाय और छोटी नहर सम्मिलित हैं। यदि सारे वनवासियों को जंगल में बसाया जाता है और उन्हें मूलभूत सुविधाओं के साथ-साथ आवश्यकतानुसार पानी उपलब्ध कराया जाता है तो उनकी आजीविका को तो संबल मिलेगा ही, पानी का सबसे अधिक लाभ जंगलों और जानवरों को होगा। जंगल में सतही जल, भूजल और नमी की उपलब्धता बढ़ेगी। वृक्षों तथा वनस्पतियों को पानी मिलेगा। जंगली जानवरों को पीने के लिए पानी मिलेगा। जंगलों को सरकार की अन्य योजनाओं का लाभ मिलेगा। चूंकि वनवासियों की आजीविका को जंगलों के लाभों से जोड़ा जायेगा।
यह उनका ही लाभ है इसलिए वे जंगलों की सलामती के लिए अधिक से अधिक प्रयास करेंगे। चूंकि अर्जित लाभ वनवासियों के ही बीच वितरित होना है इसलिए यह प्रयास पीपीपी माडल की तुलना में अधिक कारगर होगा। आदिवासी समाज तथा जंगल और उसकी अस्मिता के लिए काफी लाभकारी होगा। गौरतलब है कि पीपीपी माडल में मजदूर को केवल मजदूरी मिलती है। लाभ मालिक ले जाता है। मजदूरी मिलने के कारण उसकी गरीबी दूर नहीं होती पर मालिकाना हक मिलने का अर्थ होता है अधिक आय। अधिक आय का अर्थ सम्पन्न्ता होता है। यह लाभ आदिवासी समाज को जंगलों से जोड़कर दिया जा सकता है। कुछ साल पहले तेंदू पत्ता के मामले में मध्यप्रदेश सरकार ने यही किया था। संक्षेप में, उपरोक्त उजली संभावनाओं को हमारे फैसलों की मदद से अमली जामा पहनाया जा सकता है। अर्थात मामला अवसर का है। मामला उपलब्ध अवसर को मूर्त स्वरूप प्रदान करने का है।
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