बड़े-बड़े लोग, बड़ी चिंतित मुद्रा में हमसे टीवी के पर्दे से लेकर हर चौक-चौराहे पर शिद्दत से कह रहे हैं कि अब बस 1411 ही बाघ बचे हैं, हमारे महान देश में; और कुछ करिए!...क्या करें?... जवाब मिलता है, रोएं, गाएं, चीखें-चिल्लाएं, हल्ला मचाएं!...क्या इनसे बाघ बच जाएंगे? यह मीडिया कैंपेन है। अधिकांशत: जो लोग बाघों की ऐसी दयनीय हालत के लिए, पर्यावरण के अक्षम्य विनाश के लिए जिम्मेदार हैं, वे ही ऐसे मीडिया कैंपेन में हिस्सा लेते हैं और हमें कुछ करने की नसीहत देते हैं। लेकिन जो जड़ का सवाल है, वह तो छूट ही जाता है कि आखिर जहां हजारों बाघ थे, वहां हजार ही कैसे बचे? और इससे भी ज्यादा सही होगा कि हम इसका प्रश्नवाचक चिह्न हटा दें और उसकी जगह रख दें विस्मयादिबोधक चिह्न-1411 बाघ भी कैसे बचे हैं!
बाघों की शोकांतिका से परेशान लोग अभी-अभी गौरैया दिवस मना रहे थे और बड़े भावुक होकर कह रहे थे कि हमारे घर-आंगन में हमेशा चहकने वाली गौरैया कहां चली गई? चीता ऐसा लुप्तप्राय हुआ कि अब वह हमारी यादों में भी नहीं है। कितनी तितलियां खो गईं, कितने फूल अब खिलते ही नहीं, कोई कौओं की घटती संख्या के बारे में रो रहा है, तो कोई आसमान में मंडराते गिद्धों को याद कर रहा है। यह भी रोने की बात है कि अब कोई भी मौसम उमंग कर नहीं आता! सारे मौसम जैसे पछताते से आते हैं और रस्म अदा कर बीत जाते हैं। हमें अब यह बहुत खटकता भी नहीं है, क्योंकि हमने अपने घर ऐसे बना लिए हैं, जिनमें बारह मास एक-सा ही मौसम बना रहता है। सबसे आधुनिक, सुविधासंपन्न घर वह है, जिसमें बाहरी हवा-पानी-धूप-धूल के प्रवेश की गुंजाइश कम से कम है।...ऐसे में बाघ?...हां, बाघ चाहिए हमें अपने खाली समय की सजावट के लिए! सारी प्रकृति के बारे में हमारा यही रवैया है कि वह रहे, लेकिन हमसे दूर रहे, हमें परेशान न करे, हमें उसके लिए कुछ छोडऩा-बदलना न पड़े, और फिर भी वह रहे, ताकि हम छुट्टियां मनाने जंगलों में जा सकें, वहां हाथी-बाघ-भालू-बंदर आदि सब के सब आज्ञाकारी की तरह हमें दिखाई दे जाएं, फोटो वगैरह में हमारे लिए पोज आदि दें। फिर हम उनके जंगल से लौटकर अपने जंगल में आ जाएं। लेकिन दिक्कत यह है कि ऐसा हो नहीं सकता।
बाघ का ही मामला लेते हैं। यह बहुत बड़ा, शक्तिशाली प्राणी है। लेकिन बात यही नहीं है। यह बहुत नफीस प्राणी है। इसे रहने के लिए जंगल चाहिए-अपना जंगल, अपनी सुविधाओं का जंगल; ऐसा जंगल, जिसमें वह निर्बाध घूमे-फिरे, चले-सोए। ऐसा जंगल, जिसका चप्पा-चप्पा उसका पहचाना हो, जिसकी हर गंध उसके नथुनों में बसी हो, जहां वह अपनी जरूरत का शिकार कर सके। बाघ को जंगल की परेशानियां-खतरे, शिकार की मशक्कत, धूप-वर्षा आदि की चिंता नहीं होती। वह तो उसका जीवन ही है। लेकिन आप उसे देते हैं टाइगर रिजर्व। यानी वह स्थल, जो उनकी मौत के लिए रिजर्व है! अगर नहीं, तो बाघों की संख्या घटते-घटते 1411 कैसे रह गई?
हमारी आधुनिकता, हमारे विकास का एक ही निशाना है-जमीन। और दूसरी तरफ प्रकृति है, जिसने अपनी सारी रचना धरती में ही बो रखी है। इस धरती पर एक का अमर्यादित कब्जा दूसरे के विनाश के बिना संभव नहीं है। बांधों का दानवाकार खड़ा करेंगे आप, तो जंगलों का काटना ही पड़ेगा; गांवों को उजाडऩा ही पड़ेगा। आपको बड़े-बड़े और एक नहीं, कई-कई हवाई अड्डे चाहिए; मीलों जानेवाले कई-कई लेन वाले हाई वे चाहिए, सुविधानुसार जगह-जगह पेट्रोल पंप चाहिए, बसों के लिए अड्डे चाहिए और कारों के दौडऩे के लिए सड़कें चाहिए; सामान्य लोकल रेल, देश भर में दौडऩे वाली रेल के साथ-साथ मेट्रो रेल की जमीन के भीतर-ऊपर दौडऩे वाली पटरियां चाहिए और उनके लिए विशालकाय स्टेशन चाहिए; मोनो रेल चाहिए; और ऐसी सारी सुविधाओं से जुड़ी जगहों से लगी जमीन पर अपना कल-कारखाना चाहिए। जब इतनी सारी जमीन, इतना सारा संसाधन आपके लिए चाहिए, तो प्रकृति के दूसरे सदस्यों के लिए बचता क्या है? उनकी जगह तो सिकुड़ती ही जाएगी न!
प्रकृति सहजीवन के आधार पर बनी व बसी है। हमने वह आधार तोड़ ही नहीं दिया है, उसे लगातार कुचलते जा रहे हैं। हमें हर वह प्राणी, संरचना, व्यवस्था नागवार गुजरती है, जो हमारे इस एकाधिकार अभियान में बाधा बनती है। इसलिए हम एक-एक कर प्रकृति को किनारे करते जा रहे हैं। नतीजतन जिस बाघ से हमारी कोई लड़ाई नहीं थी, वही आज हमारा प्रतिद्वंद्वी बन गया है। हम उनकी जगह छीनते चले गए, वे सिकुड़ते चले गए। न उनका जंगल बचा, न उनकी आजादी बची, न उनका एकांत बचा। जंगल न रहे, तो उनकी भूख कैसे मिटे! इसलिए वे हमारे इलाकों में घूसने लगे। ठीक वैसे ही, जैसे हमारे आदिवासी सरकार संरक्षित जंगलों में घुसपैठ करते हैं। यह जीने की जद्दोजहद है-उनकी भी, हमारी भी। हम अपनी पूरी ताकत से (और पूरी चालाकी से!) जल-जंगल-जमीन को स्थानीय लोगों से बचाने में लगे हैं। पुलिस, कानून, अदालत सबको हमने इस काम में झोंक दिया है। ऐसा ही हम बाघों के साथ कर रहे हैं- शिकार करो, जहर दे दो, खाइयों-जालों में अवश करके मार डालो, भूख से तो वह मर ही रहा है, जहरीले वातवरण में भी वह घुट रहा है। बाघ को कुत्ता बना दिया है हमने; और तब टाइगर रिजर्व बनाकर हम सोचते हैं कि वह बचेगा भी और बढ़ेगा भी! यह कैसे हो सकता है कि जिससे हमने उसका जीवन व जंगल छीन लिया है, वह बाघ जेल में स्वस्थ और समृद्ध हो?बाघ कोई दर्शनीय देवता या नुमाइश नहीं, जिसे बांधकर ऐसे रखा जाए कि लोग उसे देखने आ सकें। वह जंगल का स्वाधीन प्राणी है। जिसे शौक हो बाघ देखने का, उसे जंगल में उतरना व उसकी मुश्किलें झेलनी ही होंगी। जंगलों में पर्यटन जैसा चलन तुरंत बंद करना चाहिए। जल-जंगल-जानवर और जन का चतुर्भुज बनता है, जो सदियों से एक-दूसरे को संभालता-पालता आया है। इन्हें आपस में लड़ाइए मत, क्योंकि ऐसी किसी भी लड़ाई का मतलब सार्वत्रिक विनाश होगा। इसलिए जल-जंगल-जानवर और जन को जुडऩे दीजिए। मान लीजिए कि वह विकास, वह प्रतिमान, वह समृद्धि हमारे हित में नहीं है, जो इनकी कीमत पर हासिल होती है। आप ऐसा कर सकेंगे, तो बाघ और आदमी, दोनों को एक साथ हंसते हुए पाएंगे और अपने बच्चों से कह सकेंगे कि बाघ भी हंसता है!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
बाघों की शोकांतिका से परेशान लोग अभी-अभी गौरैया दिवस मना रहे थे और बड़े भावुक होकर कह रहे थे कि हमारे घर-आंगन में हमेशा चहकने वाली गौरैया कहां चली गई? चीता ऐसा लुप्तप्राय हुआ कि अब वह हमारी यादों में भी नहीं है। कितनी तितलियां खो गईं, कितने फूल अब खिलते ही नहीं, कोई कौओं की घटती संख्या के बारे में रो रहा है, तो कोई आसमान में मंडराते गिद्धों को याद कर रहा है। यह भी रोने की बात है कि अब कोई भी मौसम उमंग कर नहीं आता! सारे मौसम जैसे पछताते से आते हैं और रस्म अदा कर बीत जाते हैं। हमें अब यह बहुत खटकता भी नहीं है, क्योंकि हमने अपने घर ऐसे बना लिए हैं, जिनमें बारह मास एक-सा ही मौसम बना रहता है। सबसे आधुनिक, सुविधासंपन्न घर वह है, जिसमें बाहरी हवा-पानी-धूप-धूल के प्रवेश की गुंजाइश कम से कम है।...ऐसे में बाघ?...हां, बाघ चाहिए हमें अपने खाली समय की सजावट के लिए! सारी प्रकृति के बारे में हमारा यही रवैया है कि वह रहे, लेकिन हमसे दूर रहे, हमें परेशान न करे, हमें उसके लिए कुछ छोडऩा-बदलना न पड़े, और फिर भी वह रहे, ताकि हम छुट्टियां मनाने जंगलों में जा सकें, वहां हाथी-बाघ-भालू-बंदर आदि सब के सब आज्ञाकारी की तरह हमें दिखाई दे जाएं, फोटो वगैरह में हमारे लिए पोज आदि दें। फिर हम उनके जंगल से लौटकर अपने जंगल में आ जाएं। लेकिन दिक्कत यह है कि ऐसा हो नहीं सकता।
बाघ का ही मामला लेते हैं। यह बहुत बड़ा, शक्तिशाली प्राणी है। लेकिन बात यही नहीं है। यह बहुत नफीस प्राणी है। इसे रहने के लिए जंगल चाहिए-अपना जंगल, अपनी सुविधाओं का जंगल; ऐसा जंगल, जिसमें वह निर्बाध घूमे-फिरे, चले-सोए। ऐसा जंगल, जिसका चप्पा-चप्पा उसका पहचाना हो, जिसकी हर गंध उसके नथुनों में बसी हो, जहां वह अपनी जरूरत का शिकार कर सके। बाघ को जंगल की परेशानियां-खतरे, शिकार की मशक्कत, धूप-वर्षा आदि की चिंता नहीं होती। वह तो उसका जीवन ही है। लेकिन आप उसे देते हैं टाइगर रिजर्व। यानी वह स्थल, जो उनकी मौत के लिए रिजर्व है! अगर नहीं, तो बाघों की संख्या घटते-घटते 1411 कैसे रह गई?
हमारी आधुनिकता, हमारे विकास का एक ही निशाना है-जमीन। और दूसरी तरफ प्रकृति है, जिसने अपनी सारी रचना धरती में ही बो रखी है। इस धरती पर एक का अमर्यादित कब्जा दूसरे के विनाश के बिना संभव नहीं है। बांधों का दानवाकार खड़ा करेंगे आप, तो जंगलों का काटना ही पड़ेगा; गांवों को उजाडऩा ही पड़ेगा। आपको बड़े-बड़े और एक नहीं, कई-कई हवाई अड्डे चाहिए; मीलों जानेवाले कई-कई लेन वाले हाई वे चाहिए, सुविधानुसार जगह-जगह पेट्रोल पंप चाहिए, बसों के लिए अड्डे चाहिए और कारों के दौडऩे के लिए सड़कें चाहिए; सामान्य लोकल रेल, देश भर में दौडऩे वाली रेल के साथ-साथ मेट्रो रेल की जमीन के भीतर-ऊपर दौडऩे वाली पटरियां चाहिए और उनके लिए विशालकाय स्टेशन चाहिए; मोनो रेल चाहिए; और ऐसी सारी सुविधाओं से जुड़ी जगहों से लगी जमीन पर अपना कल-कारखाना चाहिए। जब इतनी सारी जमीन, इतना सारा संसाधन आपके लिए चाहिए, तो प्रकृति के दूसरे सदस्यों के लिए बचता क्या है? उनकी जगह तो सिकुड़ती ही जाएगी न!
प्रकृति सहजीवन के आधार पर बनी व बसी है। हमने वह आधार तोड़ ही नहीं दिया है, उसे लगातार कुचलते जा रहे हैं। हमें हर वह प्राणी, संरचना, व्यवस्था नागवार गुजरती है, जो हमारे इस एकाधिकार अभियान में बाधा बनती है। इसलिए हम एक-एक कर प्रकृति को किनारे करते जा रहे हैं। नतीजतन जिस बाघ से हमारी कोई लड़ाई नहीं थी, वही आज हमारा प्रतिद्वंद्वी बन गया है। हम उनकी जगह छीनते चले गए, वे सिकुड़ते चले गए। न उनका जंगल बचा, न उनकी आजादी बची, न उनका एकांत बचा। जंगल न रहे, तो उनकी भूख कैसे मिटे! इसलिए वे हमारे इलाकों में घूसने लगे। ठीक वैसे ही, जैसे हमारे आदिवासी सरकार संरक्षित जंगलों में घुसपैठ करते हैं। यह जीने की जद्दोजहद है-उनकी भी, हमारी भी। हम अपनी पूरी ताकत से (और पूरी चालाकी से!) जल-जंगल-जमीन को स्थानीय लोगों से बचाने में लगे हैं। पुलिस, कानून, अदालत सबको हमने इस काम में झोंक दिया है। ऐसा ही हम बाघों के साथ कर रहे हैं- शिकार करो, जहर दे दो, खाइयों-जालों में अवश करके मार डालो, भूख से तो वह मर ही रहा है, जहरीले वातवरण में भी वह घुट रहा है। बाघ को कुत्ता बना दिया है हमने; और तब टाइगर रिजर्व बनाकर हम सोचते हैं कि वह बचेगा भी और बढ़ेगा भी! यह कैसे हो सकता है कि जिससे हमने उसका जीवन व जंगल छीन लिया है, वह बाघ जेल में स्वस्थ और समृद्ध हो?बाघ कोई दर्शनीय देवता या नुमाइश नहीं, जिसे बांधकर ऐसे रखा जाए कि लोग उसे देखने आ सकें। वह जंगल का स्वाधीन प्राणी है। जिसे शौक हो बाघ देखने का, उसे जंगल में उतरना व उसकी मुश्किलें झेलनी ही होंगी। जंगलों में पर्यटन जैसा चलन तुरंत बंद करना चाहिए। जल-जंगल-जानवर और जन का चतुर्भुज बनता है, जो सदियों से एक-दूसरे को संभालता-पालता आया है। इन्हें आपस में लड़ाइए मत, क्योंकि ऐसी किसी भी लड़ाई का मतलब सार्वत्रिक विनाश होगा। इसलिए जल-जंगल-जानवर और जन को जुडऩे दीजिए। मान लीजिए कि वह विकास, वह प्रतिमान, वह समृद्धि हमारे हित में नहीं है, जो इनकी कीमत पर हासिल होती है। आप ऐसा कर सकेंगे, तो बाघ और आदमी, दोनों को एक साथ हंसते हुए पाएंगे और अपने बच्चों से कह सकेंगे कि बाघ भी हंसता है!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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