जल-जंगल-जमीन पर मालिकाना हक पाने के लिये झारखंड में सदियों से संघर्ष होते आए हैं। झारखंड बनने के 11 साल बाद भी चाहे एक सफल वन नीति तक न बन पाई हो, लेकिन इतने ही समय में झारखंड की सरकारें 110 एमओयू करने में सफल जरूर रहीं। यह तो यहाँ के इन प्रकृति पूजकों व प्रेमियों की जीवटता का ही फल है, जो किसी चमत्कारिक नेतृत्व के अभाव के बावजूद, यहाँ एमओयू का क्रियान्वयन नहीं हो सका। झारखंड के नाम से ही वन का आभास होता है। इसके बाद अपने आप सारे सवालों का जवाब मिल जाता है। वर्ष 2006 में वनाधिकार कानून लागू होने के बाद दशकों के संघर्ष का नतीजा निकला और ‘अनुसूचित जनजाति व अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम’ के तहत वनवासियों को बहुत हद तक वनों पर अधिकार मिल गया। हालाँकि, वन अधिकार कानून नाम देने से लगता है कि वन का पूरा स्वामित्व सौंप दिया जा रहा हो, जबकि ऐसा नहीं है।
इस कानून के अंतर्गत अधिकार सिर्फ उन्हें प्राप्त है, जो कम-से-कम 75 सालों से वन में निवास करते आ रहे हैं। और यह अधिकार तब तक बना रहेगा, जब तक ये वन में निवास करते रहेंगे। चाहे वह अनुसूचित जनजाति हो या फिर अन्य परम्परागत वनवासी। अनुसूचित जनजातियों और वन निवासियों के लिये जंगल ही भगवान है। उदाहरण के लिये सरनास्थल को ही लें, जो जंगल का ही हिस्सा है। सरना स्थल के चारों ओर विशाल खाली भू-भाग रक्षार्थ छोड़ने की परम्परा है। सरना स्थल पर तीर-धनुष नहीं ले जाने की परम्परा रही है।
जंगल में आत्मा का विचरण होता है, जिसे ‘देशाउलि’ कहते हैं। इसे ये वनवासी काटते या छूते भी नहीं हैं। ऐसा सिर्फ जनजातियों में है, जहाँ फूल की पूजा होती है। सरहुल पर्व में सरई फूल की फूलखौसी करते हैं। घने जंगल को काटकर रहने लायक आदिवासियों ने ही बनाया। ये सारी बातें इनके प्रकृति पूजक और प्रेमी होने के भाव को स्पष्ट करती हैं।
यहाँ तक कि इनके नाम भी जंगल से ही निकले हैं। जैसे केरकेट्टा- चिड़िया, मिंज-मछली, कच्छप-कछुआ, सोरेन- पत्थर से निकले उपनाम हैं। ये सिर्फ उपनाम नहीं, बल्कि परम्परा से जुड़े लोक व्यवहार हैं। जैसे मिंज परिवार के लोगों के साथ मछली की रक्षा की जिम्मेदारी जुड़ी है। अर्थात इन्हें जल पर्यावरण से सम्बन्धित विभाग का जिम्मा मिला।
ये परम्पराएं बताती हैं कि अपनी आजीविका व संस्कृति के लिये ये जंगल पर ही निर्भर करते हैं। जल-जंगल-जमीन पर मालिकाना हक पाने के लिये झारखंड में सदियों से संघर्ष होते आए हैं। झारखंड बनने के 11 साल बाद भी चाहे एक सफल वन नीति तक न बन पाई हो, लेकिन इतने ही समय में झारखंड की सरकारें 110 एमओयू करने में सफल जरूर रहीं। यह तो यहाँ के इन प्रकृति पूजकों व प्रेमियों की जीवटता का ही फल है, जो किसी चमत्कारिक नेतृत्व के अभाव के बावजूद, यहाँ एमओयू का क्रियान्वयन नहीं हो सका।
ऐसे में वनों पर तो वनवासियों का ही स्वाभाविक हक बनता है, जिसे वनाधिकार कानून-2006 के जरिये पुख्ता किया गया। वनाधिकार अधिनियम-2006 लागू होने के बाद भी स्थिति बहुत नहीं बदली। ऐसा क्यों, तो इसका जवाब है- ‘सैयां भयो कोतवाल तो डर काहे का’। हालाँकि वन कानून में सुधार की गुंजाइश है, फिर भी कानून अच्छा है। वन कानून में उपयुक्त मात्रा में लकड़ी काटने, उपयुक्त कृषि करने, मवेशी चराने, महुआ का फल प्राप्त करने, लाह लेने व लाह लगाने सहित अन्य वनफलों व वनोत्पादों के उपभोग का अधिकार दिया गया है। अर्थात इसमें यह भाव भलीभाँति समाहित है कि वन की रक्षा में ही सबका हित है। वन पर समुदाय के हक को दर्जा मिला है। इस कानून का सही से अनुपालन हो, तो वन, पर्यावरण, अनुसूचित जनजातियों व अन्य परम्परागत वनवासियों सहित पूरे मानव समुदाय का कल्याण होगा।
वन अधिकार कानून की मुख्य बातें
1. समुदाय द्वारा परम्परागत रूप से उपयोग की गई वनभूमियों को सामुदायिक वन माना जाएगा।
2. अनुसूचित जनजातियाँ जो मूलतः वनों में रहती हैं और आजीविका की वास्तविक जरूरतों के लिये वनभूमि या वनों पर आश्रित हैं, वे इस कानून का लाभ उठाने के हकदार हैं।
3. किसी भी क्षेत्र को नाजुक वन्यजीव निवास स्थान तभी माना जाएगा, जब समुदाय इस पर सहमत हो कि उनकी स्थिति के कारण वन्यप्राणियों का प्राकृतिक आवास प्रभावित हो रहा है।
4. लघु वनोपजों पर मालिकी का अधिकार। वनवासी जंगल जा सकते हैं, लघु वनोपज इकट्ठा कर सकते हैं और उनका इस्तेमाल भी कर सकते हैं।
5. समुदायों को आरक्षित या संरक्षित वनों के प्रबंध पर नियंत्रण का अधिकार है। ग्रामसभा, उसके सदस्य, वन विभाग या किसी अन्य एजेंसी को पेड़ काटने से रोक सकते हैं।
इन प्रमुख प्रावधानों से साफ है कि वनवासियों को बहुत हद तक जंगल पर अधिकार मिल चुका है। लेकिन वन विभाग अपने पारम्परिक दम्भ से अब तक निकल नहीं पाया है। यही कारण है कि कानून के लागू हुए पाँच साल बीतने को हैं, लेकिन पट्टा देने के मामले में हमारा राज्य काफी पीछे है। झारखंड में वन और भूमि की रक्षा के लिये प्रथा व कानून पारम्परिक रूप से रहे हैं। इसका उदाहरण हमें खूंटकट्टी, भूंइहरी, कोड़कर व वनगाँव के रूप में दिखलाई पड़ता है। खूंटकट्टी प्रथा मुख्यतः मुंडा आदिवासियों में है। इसका तात्पर्य किसी मुंडा या उसके परिवार के किसी पुरुष सदस्य द्वारा कृषि कार्य के लिये वनभूमि के हिस्से पर अधिकार करने से है।
भूंइहरी : झारखंड की आदिम भूमि व्यवस्था (खूंटकट्टी) का पुरातन अवशेष है, जो अब पुराने रांची जिला तक ही सीमित रह गया है। इसका अभिलेख पहली बार 1869-1880 के भूंइहरी सर्वे, जिसे राखाल दास सर्वे के नाम से जाना जाता है, में तैयार किया गया। 1880 के पश्चात किसी भी भूइंहरी टेन्योर की अनुमति नहीं है। भूंइहरी जमीन सिर्फ पुराने रांची जिले के 2484 गाँवों में पाए जाते हैं। यह मुंडारी खूंटकट्टी का ही एक रूप है। यह भूमि सुधार अधिनियम 1950 के दायरे में नहीं आता है।
कोड़कर : यह रैयत द्वारा परती भूमि या टांड को कोड़कर तैयार किया गया धान का खेत है। कोड़कर निर्माण के समय यह भूमि तीन चार वर्ष के लिये बेलगान होता है। बाद में लगान का निर्धारण होता था, जो सामान्य लगान दर से कम पर तय किया जाता था। वनगाँव का मतलब ऐसे गांव से है, जो राजस्व गाँव नहीं है। जहाँ जंगल में ही रहकर वन की संरक्षा व वनोत्पाद के उपभोग का अधिकार गाँव के लोगों को होता है।
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जल, जंगल व जमीन | |
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खनन : वरदान या अभिशाप | |
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