जंगल रहे ताकि नर्मदा बहे


जल, जमीन और जंगल के चोली-दामन जैसे अटूट रिश्ते को जोड़कर समग्रता में देखने की दृष्टि हमारे अधिकांश नीति नियंता और वन प्रबन्धक अभी तक विकसित नहीं कर पाये हैं। यहाँ तक कि भारत के जल विज्ञान संस्थानों अथवा वन विज्ञान संस्थानों में वन-जल विज्ञान जैसा कोई एकीकृत विषय अथवा विभाग ही नहीं है जो जल और जंगलों को आपस में जुड़ा हुआ मानकर उनका प्रबन्धन करता हो। आज की स्थिति में जल संसाधनों के प्रबन्धन का काम देख रहे इंजीनियरों और अधिकारियों को यांत्रिकीय व्यवस्थाओं के मुकाबले वनों की कोई फिक्र नहीं रहती और बहुधा वे वनों को विकास की बड़ी बाधा के तौर पर ही समझते और समझाया करते हैं।

इस अध्याय का शीर्षक ‘जंगल रहे ताकि नर्मदा बहे!’ कुछ लोगों को अचम्भे में डाल सकता है। यह कैसा अटपटा शीर्षक? जंगल रहे, ताकि नर्मदा बहे! भला नर्मदा के बहने से जंगल का क्या सम्बन्ध? सात कल्पों के क्षय होने पर भी क्षीण न होने की पौराणिक ख्याति वाली और भू वैज्ञानिक दृष्टि से भी विश्व की प्राचीनतम नदियों में से एक, नर्मदा तो अनेक युगों से बहती चली आ रही है। जंगलों के रहने या न रहने से न-मृता कहलाने वाली नर्मदा के बहने का क्या सम्बन्ध है? यह मानने को जी भी नहीं चाहता कि नर्मदा जैसी विशाल नदी का अस्तित्व जंगलों के होने या नहीं होने से जुड़ा हो सकता है।

मैकल पर्वत के घने जंगलों की कोख से उत्पन्न हुई नर्मदा अपने पूरे प्रवाह पथ में जंगलों से नाता बनाए रखती है। नर्मदा व उसकी सहायक नदियों का जंगल से यह नाता समाज के लिये कितना उपयोगी और अमूल्य है इसी बात को वैज्ञानिक धरातल पर रेखांकित करना इस पुस्तक का उद्देश्य है।

नर्मदा को धार्मिक आस्था से मैया कहने और मानने वाली अथवा इसका दोहन करने के लिये निरन्तर काम कर रही संस्थाओं के प्रतिनिधियों को यह समझाना थोड़ा कठिन हो सकता है कि करोड़ों वर्षों से बहती चली आ रही नर्मदा नदी को जंगलों से क्या लेना-देना है? परन्तु यह एक निर्विवाद सत्य है कि हिमविहीन जलग्रहण क्षेत्रों वाले नर्मदा के उद्गम से लेकर समुद्र मिलन तक, वन अंचलों से आने वाली सहायक नदियाँ अपना पानी मिलाते चलती हैं, जिससे नर्मदा का प्रवाह पुष्ट होता है।

नर्मदा की अनेक सहायक नदियाँ भी वन अंचलों से ही आती हैं और इस प्रकार नर्मदा के प्रवाह की मात्रा, अवधि और गुणवत्ता तीनों ही वन आवरण से प्रभावित होते हैं। अतः यह न केवल भावनात्मक रूप से बल्कि वैज्ञानिक तौर पर भी कहना ठीक है कि- जंगल रहे ताकि नर्मदा बहे! आगे के विवरण में हम जल, जमीन और जंगल के आपसी रिश्ते पर टिके इस वक्तव्य का वैज्ञानिक तथ्यों के सन्दर्भ में परीक्षण करेंगे।

जल जमीन और जंगल : चोली-दामन का साथ


हिम विहीन पहाड़ों से निकलने वाली मध्य प्रदेश की नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र में जल, जमीन और जंगल का साथ चोली-दामन के साथ जैसा अंतरंग है। यह तो सच है कि वैज्ञानिक बादलों को आकर्षित करके वर्षा कराने में वनों की भूमिका के बारे में कोई स्पष्ट मत अभी तक नहीं बना सके हैं परन्तु यह तो पक्के तौर पर मान्य है कि बारिश में धरती पर गिरने वाले जल की मात्रा और प्रकृति जंगलों से प्रभावित होती है और उनको प्रभावित भी करती है।

छठीं शताब्दी के विद्वान वराहमिहिर अपने प्रसिद्ध ग्रंथ वृहत्संहिता के ‘दकार्गलाध्याय’ खण्ड में बताते हैं कि वर्षा से गिरने वाले जल की प्रकृति सारे संसार में लगभग एक जैसी ही होती है परन्तु धरती के सम्पर्क में आते ही अलग-अलग स्थानों की मिट्टी में मौजूद अलग-अलग खनिजों के कारण हर जगह पर मिट्टी का अलग-अलग तरह का घोल निर्मित होता है जिसके फलस्वरूप अलग-अलग तरह की वनस्पतियाँ तथा वन पैदा हो जाते हैं।

इस प्रकार वनों का प्रजातिवार भौगोलिक वितरण काफी हद तक जल और मिट्टी के सम्पर्क के कारण तय होता है। यह भी एक ज्ञात तथ्य है कि वनों में मौजूदा वृक्ष वाष्पोत्सर्जन की जैविक क्रिया के दौरान बहुत सारा जल जमीन की निचली परतों से खींचकर वायु मण्डल में निरन्तर वापस भेजते रहते हैं, जिसके फलस्वरूप वन आच्छादित क्षेत्रों में वातावरण का तापमान नम और ठंडा रहा करता है। जल, जमीन और जंगल के इसी सम्बन्ध को पहले व्यापक परिप्रेक्ष्य में और फिर नर्मदा के विशेष परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास हम इस पुस्तक में करेंगे।

खेद का विषय है कि जल, जमीन और जंगल के चोली-दामन जैसे अटूट रिश्ते को जोड़कर समग्रता में देखने की दृष्टि हमारे अधिकांश नीति नियंता और वन प्रबन्धक अभी तक विकसित नहीं कर पाये हैं। यहाँ तक कि भारत के जल विज्ञान संस्थानों अथवा वन विज्ञान संस्थानों में वन-जल विज्ञान (Forest Hydrology) जैसा कोई एकीकृत विषय अथवा विभाग ही नहीं है जो जल और जंगलों को आपस में जुड़ा हुआ मानकर उनका प्रबन्धन करता हो।

आज की स्थिति में जल संसाधनों के प्रबन्धन का काम देख रहे इंजीनियरों और अधिकारियों को यांत्रिकीय व्यवस्थाओं के मुकाबले वनों की कोई फिक्र नहीं रहती और बहुधा वे वनों को विकास की बड़ी बाधा के तौर पर ही समझते और समझाया करते हैं। इसी प्रकार वन विशेषज्ञ और वन अधिकारी अपने जंगलों को बचाने और उनका प्रबन्धन करने की जद्दोजहद में पानी के पहली और जल प्रबनधकों के नजरिए पर प्रायः ध्यान नहीं दे पाते हैं।

जल और जंगल की दो अलग-अलग विधाओं के विशेषज्ञों की एक-दूसरे के प्रति अज्ञान, अरुचि और आपसी तालमेल के अभाव के फलस्वरूप जहाँ एक ओर जल संसाधनों के प्रबन्धन से जुड़े मंत्रालय, विभाग और संस्थान जल के आधुनिक और एकीकृत प्रबन्धन में वनों की भूमिका को लेकर कोई खास फिक्रमंद नहीं दिखाई देते वहीं वन संसाधनों के प्रबन्धन का जिम्मा उठाने वाले मंत्रालय, विभाग, संस्थान और शोधकर्ता पानी के मुद्दे पर अपनी कोई सीधी जिम्मेदारी नहीं महसूस करते। यद्यपि राष्ट्रीय वन आयोग (2006) ने पानी को वनों का प्रमुख उत्पाद मानते हुए देश की उत्पादकता से जोड़कर देखने की अनुशंसा की थी परन्तु इस दिशा में कोई दीर्घकालिक शुरुआत अभी तक नहीं हो सकी है। नक्कारखाने में तूती की आवाज जैसी इस पुस्तक या ऐसे ही कुछ इक्का-दुक्का अलग-थलग और नजरअन्दाज पड़े हुए कुछ दूसरे प्रयासों को छोड़ दिया जाये तो वन और जल का पारस्परिक सम्बन्ध अभी तक नीति, प्रबन्धन व क्रियान्वयन स्तर पर एक होने की बाट जोह रहा है।

नर्मदा अंचल के जंगल और जल का आपसी सम्बन्ध


सतपुड़ा, मैकल और विंध्य पर्वत मालाओं के जंगल नर्मदा की सहायक नदियों से हमारे शरीर की नस-नाड़ियों की तरह ऐसी अन्तरंगता से जुड़े हैं कि उन्हें अलग करके देख पाना भी कठिन है। इन दोनों को अलग-अलग मानकर प्रबन्धन करने से इन दोनों की आपूरणीय क्षति हो रही है और यदि हमारी मानसिकता, नीतियों और योजनाओं में बिना किसी बदलाव के आगे भी ऐसे ही चलता रहा तो स्थिति का और बिगड़ना तय है। नर्मदा बेसिन के जल अपवाह तंत्र और वन क्षेत्र के मानचित्रों को एक साथ देखने पर वनों तथा नर्मदा अंचल की नदियों के बीच अन्तरंग सम्बन्ध का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है और दोनों की पारस्परिक निर्भरता को समझा जा सकता है।

नर्मदा और इसकी सहायक नदियों को केवल मानसूनी वर्षा से मिलने वाले जल का ही सहारा है। अतः मानसून में बारिश से मिलने वाला जल जमीन में सोखा जाना अत्यन्त आवश्यक है। नर्मदा जलागम में मौजूद जंगल वर्षा में आने वाले जल को धारा के रूप में बहने से रोककर धरातल पर परत के रूप में फैला देते हैं जिससे उसे जमीन के भीतर अवशोषित कर लेने में मदद मिलती है।

इस क्रिया के कारण जिससे जल का प्रवाह धरती की सतह के ऊपर-ऊपर होने की बजाय निचली परतों में रिसकर अधोसतहीय हो जाता है और प्रवाह की गति धीमी होकर काफी लम्बे समय तक चलती है। यह क्रिया न केवल नर्मदा बल्कि इसकी सभी सहायक नदियों और उनको पूरित करने वाले छोटे-बड़े नालों के जलागम क्षेत्र में होती है जिसके सम्मिलित प्रभाव से बहुत बड़े भू-भाग में वर्षा से प्राप्त होने वाला जल सतही प्रवाह के रूप में ऊपर-ऊपर बहुत कम समय में तेजी से सब कुछ बहा ले जाने की बजाय धीरे-धीरे अन्दर रिस-रिसकर जमीन को भीतर ही भीतर तर रखता है व अदृश्य रूप से सतह के नीचे-नीचे जलधाराओं की ओर बहता रहता है और उन्हें दीर्घजीवी बनाता है।

पानी के प्रवाह को नियंत्रित करने के अतिरिक्त नर्मदा अंचल के वन वायु, जलप्रवाह और वर्षा की गिरती बूँदों से होने वाले मिट्टी का कटाव रोककर भूमि के क्षरण की गति कम करते हैं। इस कारण नर्मदा और इसकी सहायक बड़ी नदियों, छोटी सरिताओं और सिंचाई परियोजनाओं में बने जलाशयों में गाद जमा होने (siltation) पर अंकुश बना रहता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि जहाँ भूमि पर वनस्पति का आवरण हो वहाँ भूमि क्षरण की गति नंगी भूमि की तुलना में बहुत धीमी हो जाती है और उपजाऊ मिट्टी बह-बहकर नदी-नालों में जाने पर काफी सीमा तक अंकुश लग जाता है।

यदि इन नदी-नालों के जलागम क्षेत्र वनविहीन हो जाएँ तो उसका असर न केवल इन नदी-नालों के जल्दी सूख जाने के रूप में दिखाई देने लगेगा बल्कि अन्ततः नर्मदा को इन सहायक नदी-नालों से प्राप्त होने वाले जल की मात्रा भी काफी घट जाएगी। पहाड़ी क्षेत्र में वनस्पति आवरण घट जाने से वर्षा ऋतु में ये सभी नदी-नाले अपने जलग्रहण क्षेत्र में प्राप्त जल को रोक नहीं पाएँगे और उसके प्रचंड वेग से बार-बार बाढ़ की मुसीबत झेलने को अभिशप्त हो जाएँगे। कमोबेश यही स्थिति खुद नर्मदा की भी होगी जो मानसून में अपने कगारों को लाँघकर खेतों-खलिहानों और बस्तियों में बार-बार जा घुसेगी और बाद के महीनों में लोग सिकुड़ी हुई नर्मदा नदी को पैदल ही पार कर लिया करेंगे।

ऐसी दशा में नर्मदा अंचल को कुदरती तौर पर मिलने वाला पानी भूजल भण्डारों में जमा हुए बिना तेजी से बह जाने के कारण मानसून के बाद सूखे की समस्या भी हमेशा चुनौती देती रहेगी। इस प्रकार वन आवरण घट जाने की स्थिति में नर्मदा को भी अपनी अधिकांश सहायक नदियों की भाँति ही एक मानसूनी, मौसमी नदी में बदलते देर नहीं लगेगी जिससे स्थानीय स्तर पर आकस्मिक बाढ़ तथा सूखे की स्थितियाँ बार-बार निर्मित होंगी और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को बार-बार धमकाती रहेंगी।

अतः यदि नर्मदा को एक बेकाबू और अल्पजीवी बरसाती नदी बनने से बचाना हो तो इसके सहायक नदी-नालों में वर्षाऋतु में प्राप्त होने वाले जल को यथासम्भव गिरने के स्थान पर पहाड़ों और मैदानों दोनों में ही रोकना होगा। यह काम वनों द्वारा प्राकृतिक रूप से मुफ्त में किया जाता है अतः नर्मदा के जलागम क्षेत्र में घने वनों का होना इस नदी की शोभा से कहीं ज्यादा अस्तित्व के लिये अत्यन्त आवश्यक है। सघन वन आवरण की उपस्थिति यहाँ के जलीय चक्र को भी प्रभावित करती है अतः नर्मदा अंचल के वन सामाजिक तथा व्यावसायिक लाभों से कहीं अधिक यहाँ के जलीय चक्र को सुचारू बनाए रखने की दृष्टि से जरूरी हैं।

नर्मदा घाटी के वनों का स्वभाव विलक्षण है। ये सच्चे सन्तों की तरह ही ‘परमारथ के कारने साधुन धरा सरीर’ की उक्ति को पूरी तरह चरितार्थ करते हैं। जैसे सच्चे संत दूसरों को कष्ट देने की बजाय खुद कष्ट उठाकर समाज का कल्याण करने में लगे रहते हैं वैसे ही वन अपने आप को वातावरण के अनुरूप ढालकर नदियों में जाने वाले पानी की मात्रा में कमी नहीं आने देते। शुष्क क्षेत्रों में गर्मी बढ़ने पर पर्णपाती वनों में अधिकांश वृक्ष अपने पत्ते गिराकर पर्णविहीन सूखे-सूखे बड़े बुरे से दिखने लगते हैं परन्तु यह पानी बचाने का जंगलों का कुदरती तरीका है।

जरा सोचिए कि यदि ये वृक्ष शुष्क, कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी पानी का खर्च करने में संयम न बरतकर हमेशा हरे पत्तों से युक्त रहते और वाष्पोत्सर्जन की दैनंदिन जैविक क्रिया में पानी उड़ाते रहते तो निरन्तर होने वाले वाष्पोत्सर्जन के माध्यम से कितना पानी वापस वातावरण में पहुँच जाता और नर्मदा व इसकी सहायिकाएँ उतना पानी मिलने से वंचित रह जातीं। ये पर्णपाती वन गर्मी में वाष्पोत्सर्जन की अपनी दर घटाने के लिये पतझड़ में जो कष्ट उठाते हैं वह परोक्ष रूप से नदियों के लिये बड़ा महत्त्वपूर्ण है। नर्मदा तथा उसकी सहायक नदियों के पानी का उपयोग करने वाले गाँवों और नगरों के निवासियों को वनों के इस परमार्थ और उपकार के लिये उनका ऋणी होना चाहिए।

नदियों के परिप्रेक्ष्य में वन आच्छादित जलग्रहण क्षेत्रों की भूमिका को वर्षा आकर्षित करने, सरिताओं में प्रवाह की निरन्तरता बनाए रखने, प्रदूषण घटाकर जल की गुणवत्ता में सुधार करने, पेयजल स्रोतों की कुदरती सफाई करने, नदियों के कगारों के कटाव पर रोक लगाने, जलाशयों में गाद जमाव पर अंकुश बनाए रखने और कुछ हद तक बाढ़ नियंत्रण में उपयोगिता के पैमाने पर समझा और आँका जा सकता है। हम इस बारे में अगले अध्याय में और विस्तार से चर्चा करेंगे।

नर्मदा और इसकी सहायक नदियों का जंगल से सम्बन्ध


नर्मदा और इसकी सहायक नदियों का सतपुड़ा और विंध्य पहाड़ों के जंगलों के साथ बड़ा अन्तरंग सम्बन्ध है। नर्मदा का उद्गम अमरकंटक मध्य प्रदेश के पूर्वी भाग में पाये जाने वाले थोड़े से साल वनों के बीच स्थित है। शुरुआत के कुछ क्षेत्र के सदाबहार साल वनों और पचमढ़ी के निकट कुछ खण्डों को छोड़ दिया जाय तो अपनी सागर तक की बाकी यात्रा में नर्मदा जिन वनों के बीच से होकर गुजरती है उनमें केवल मिश्रित वन और सागौन वन ही हैं। नर्मदा की अधिकांश सहायक नदियाँ भी मिश्रित वनों के बीच उत्पन्न होकर अपने वन आच्छादित जलागम से जल की एक-एक बूँद बटोरते हुए इसकी ओर बढ़ती हैं।

यदि ओंकारेश्वर में मांधाता द्वीप को केन्द्र में रखकर नर्मदा के जलग्रहण क्षेत्र को पूर्वी और पश्चिमी दो काल्पनिक खण्डों में बाँटकर देखें तो हम पाते हैं कि पूर्वी खण्ड में वन आवरण अभी भी अपेक्षाकृत अच्छा है जबकि पश्चिमी खण्ड में काफी वनभूमि होते हुए भी वनों की दशा काफी बिगड़ चुकी है और वन आवरण का घनत्व शनैः शनैः विरल होता चला गया है। लगभग यही स्थिति नर्मदा की सहायक नदियों के जलग्रहण क्षेत्र की भी है। पूर्वी खण्ड में औसत वार्षिक वर्षा की मात्रा भी पश्चिमी क्षेत्र से अधिक है और इस खण्ड में आने वाली सहायक नदियाँ पश्चिमी खण्ड की सहायक नदियों की अपेक्षा अधिक समय तक बहती रहती हैं जो स्थानीय जल चक्र पर वनों के प्रभाव को रेखांकित करता है।

नर्मदा अंचल के वन नर्मदा और इसकी सहायक नदियों के मामले में एक और बहुत बड़ा काम करते हैं, वह है-नदियों को मर्यादित, अनुशासित रखते हुए वर्षा ऋतु में उच्छशृंखल होने से बचाना। जो काम भगवान शिव ने गंगा अवतरण के समय अपनी खुली जटाओ में गंगा के प्रचंड प्रवाह को थामकर किया था वही काम छोटे पैमाने पर नर्मदा अंचल के जंगल यहाँ के हर नदी-नाले के साथ कर रहे हैं।

ऊँची नीची पहाड़ियों और ढलानों से युक्त नर्मदा अंचल में वर्षा ऋतु में मिलने वाला सारा पानी एक साथ पहुँच जाये तो यह नदियों को विनाशकारी तांडव करने पर विवश कर सकता है और हमारे सारे विकास को अपनी प्रचंड बाढ़ में ध्वस्त कर सकता है। इसकी बानगी हमने पिछले दशक में कई बार विकराल बाढ़ के रूप में देखी भी है। नदियों के इस सम्भावित तांडव नृत्य को आनन्ददायक मधुर नृत्य में बदलकर नर्मदा अंचल के वन समाज का कितना कल्याण कर रहे हैं उसकी कीमत यदि हमने आज नहीं समझी तो आगे चलकर उसे समझने के साथ-साथ चुकाना भी पड़ेगा।

जैसा कि हम पहले कह आये हैं, नर्मदा अंचल के जंगल यहाँ की नदियों के लिये किसी गुप्त गुल्लक या ‘जल बैंक’ जैसा काम करते हैं जिसमें नदियों के बुरे वक्त के लिये काफी सारा पानी नदियों को बिना बताए ही जमा कर दिया जाता है जो धीरे-धीरे उनके काम आता रहता है। पानी की कमाई के मामले में नर्मदा और इसकी सहायक नदियों की हालत वेतनभोगी उन ईमानदार कर्मचारियों जैसी है जिनकी कोई गुप्त या ऊपरी आय नहीं होती। उन्हें पानी की उतनी कमाई से ही गुजर बसर करनी पड़ती है जो मानसून उन्हें उनके मेहनताने के रूप में दे जाता है।

नर्मदा और इसकी सखी नदियों को ग्लेशियरों के पिघलने से हिमालय की नदियों को मिलने वाले अतिरिक्त पानी की तरह पूरे साल कोई अतिरिक्त या ऊपरी कमाई नहीं होती। नर्मदा की इन सहायक निदियों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि इन्हें इनका पूरे साल का वेतन मानसून के केवल तीन-चार महीनों में ही मिल जाता है जिससे कुछ महीनों तक तो ये भरपूर उछल-कूद और मौजमस्ती करती हैं और साल पूरा होते-होते आखिरी महीनों में फाके की नौबत आ जाती है।

कभी-कभार अचानक होने वाली वर्षा या शरद ऋतु की हल्की वर्षा के रूप में थोड़ा बहुत बोनस इन्हें अवश्य मिलता है परन्तु उससे ज्यादा उधारी पहले से रहने के कारण ये कुछ बचा नहीं पाती हैं। सरकारी कर्मचारियों को भी पूरे साल का वेतन अगर एक साथ दे दिया जाये तो उनकी हालत भी शायद ऐसी ही हो - कुछ महीनों की ‘ऐश’ तथा बाद में ‘नो कैश’ अर्थात फाकामस्ती और उधारी। सतपुड़ा, विंध्य और इनके साथी छोटे-बड़े पहाड़ों में फैले हुए जंगल नर्मदा की सहायक नदियों की इस आदत से खूब अच्छी तरह वाकिफ हैं। इसीलिये वे इन्हें फिजूलखर्ची से रोकने के लिये काफी सारा पानी सोखकर जमीन की निचली सतहों में पहुँचा देते हैं जिससे वह तुरन्त नदियों में पहुँचकर तेजी से बह जाने की बजाय उन्हें धीरे-धीरे जल की नियमित आमदनी कराता रहता है। यही काम यदि कृत्रिम रूप से ईंट पत्थर की संरचनाएँ बनाकर करना हो तो कितना श्रम, पूँजी और समय लगेगा इसकी कल्पना भी कठिन है।

जंगल के राज जान लो नदियों की जुबानी


नर्मदा को मैकलसुता भी कहते हैं। मैकल पर्वत श्रेणी में बसे अमरकंटक से निकलकर गाँवों-जंगलों से गुजरती नर्मदा नदी का प्रवाह वनों से जुड़ा हुआ है। नर्मदा पुराण से पता चलता है कि नर्मदा का जंगलों से नाता युगों पुराना है। नर्मदा की अनेक सहायक नदियाँ वनवासी अंचलों से आती हैं जिनकी हरियाली केवल सुन्दरता की दृष्टि से नहीं बल्कि नदी-नालों में जलधारा को बारहमासी और सदानीरा बनाए रखने के लिये भी जरूरी है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि जंगल बारिश के मौसम में बादलों से वर्षा को खींचते हैं और उसे सोखकर धीरे-धीरे रिसते हुए अपनी जड़ों से साल भर छोड़ते रहते हैं। इसी कारण घने वन अंचलों में नदियाँ साल भर पानी से लबालब भरी रहती हैं। जंगलों और नदियों के इसी वैज्ञानिक राज को सरल भाषा में उजागर करता गीत।

आओ तुम्हें सुनाएँ एक खास कहानी,
जंगल के राज जान लो नदियों की जुबानी।

युग-युग से नर्मदा का जंगलों से है नाता;
जंगल घने थे, नर्मदा पुराण बताता।
सखियाँ भी नर्मदा की जंगलों में पली हैं;
वनवासी बेटियों की तरह भोली-भली हैं।
जंगल ने इनकी खूबसूरती को सँवारा;
हरियाली की चुनकी से इनका रूप निखारा।
बारिश में टपकी बूँदों को धरती में समाते;
जंगल नदी की धारा बारामासी बनाते।
सदियों से यूँ ही आ रही नदियों में रवानी;
जंगल से नर्मदा की जुगलबंदी पुरानी।
आओ तुम्हें सुनाएँ एक खास कहानी, जंगल के राज…

दामन से बादलों के बारिशों को खींचते;
फिर हौले-हौले धरती के सीने को सींचते।
हरियाली के कालीन में बूँदों को संजोए;
नदियों के भाग जंगलों में रहते पिरोए।
नदियाँ सभी उपजती हैं जंगल की कोख से;
बिखरे हैं जहाँ जिंदगी के रंग शोख से।
अपनी जड़ों से धीरे-धीरे छोड़ते हैं जल;
नदियों को सदानीरा बनाते हैं ये जंगल।
जंगल के चप्पे-चप्पे से रिसता हुआ पानी;
भूजल को बढ़ाता है जानते सभी ज्ञानी।
आओ तुम्हें सुनाएँ एक खास कहानी, जंगल के राज…
नदियाँ तो हमेशा से सभ्यता की धुरी हैं;
लेकिन ये सभी आज प्रदूषण से डरी हैं।
खेतों से, कारखानों से आता है जो पानी;
जहरीले घोल साथ में लाता है जो पानी।
उसको भी छानने में मददगार हैं जंगल;
भगवान शिव के रूप हैं, अवतार हैं जंगल।
जंगल नहीं रहे तो नदियाँ रूठ जाएँगी;
ताण्डव कभी करेंगी, कभी सूख जाएँगी।
टूटेगी जंगलों से बंधी डोर सुहानी;
पछताना पड़ेगा अगर ये बात न मानी।

आओ तुम्हें सुनाएँ एक खास कहानी,
जंगल के राज जान लो नदियों की जुबानी।


वनों की मुख्य पैदावार : पानी


वनों की मुख्य पैदावार पानी है और यह पानी दिन-ब-दिन कम हो रहा है। पीने के लिये पानी की कमी, सिंचाई के लिये पानी की कमी। सर्वत्र नदी जल बँटवारे के झगड़े। यह सब पानी कहाँ गया? लोगों को प्रायः नदी-नालों और जलाशयों में पानी दिखाई देता है, लेकिन यह पानी तो पेड़ की जड़ों से बूँद-बूँद कर टपकता है। जहाँ कहीं भी नदियों के पर्वतीय जलग्रहण क्षेत्रों में खनन या पेड़ों की कटाई होती है, पानी सूख जाता है। -सुन्दरलाल बहुगुणा, चिपको सन्देश

जीवनदायिनी का जीवनदाता : जंगल


बेशक नर्मदा जीवनदायिनी है, मगर उसके जीवन का दाता भी कोई और है। हित साधक भक्तिभाव में हमने कभी यह देखा या सोचा ही नहीं कि नर्मदा कमजोर और बूढ़ी क्यों लग रही है? सहायक नदियों सहित उसकी शिराओं में प्रवाह क्यों सूखता जा रहा है? क्या जीवनदायिनी का जीवन संकट में पड़ रहा है तो इसका जीवनदाता कौन है और वह इसे जीवन देने में कंजूसी क्यों कर रहा है? कभी नहीं सोचा तो अब सोचना जरूरी है क्योंकि नर्मदा के जीवन के साथ हमारा जीवन जुड़ा है। नर्मदा, हमारे अपने जीवन की चिन्ता है। कौन देता है नर्मदा को जीवन?

पेड़ ही होते हैं जिनके कारण पहाड़ों के भीतर छुपे पेट पानी से लबालब होते और पूरे साल धीरे-धीरे रिसकर नर्मदा को सदानीरा बनाते हैं। बर्फ जो नहीं कर सकती पेड़ करते हैं। एक अदृश्य तंत्र की तरह न केवल नर्मदा बल्कि उसकी सहायक नदियों को भी पानी देते हैं ताकि नर्मदा साल भर बहती रहे। -महेश श्रीवास्तव, वरदा नर्मदा


जंगल से पारिस्थितिक सुरक्षा


हमारी खाद्य सुरक्षा की पहली शर्त जल और उपजाऊ मिट्टी की मौजूदगी है। ये दोनों ही जंगल और जलग्रहण क्षेत्रों के संरक्षण से अन्तरंगता से जुड़े हैं। भारत में जल की कमी के संकट को गम्भीरता और उसके खतरनाक परिणामों को अभी पूरी तरह समझ नहीं जा रहा है और इसीलिये इस बात को लोगों को बड़ा कम अहसास है कि मात्रा और गुणवत्ता दोनों की दृष्टि से वनों की सबसे प्रमुख पैदावार पानी है। -राष्ट्रीय वन आयोग, (2006)

पानी के थोक और खुदरा कारोबारी हैं वन


वन वास्तव में पानी के थोक और खुदरा व्यापारी हैं। भूमि और जल के साथ वनों के संरक्षण सम्बन्ध बारीकी और गहराई से समझने की आवश्यकता है। वर्षाकाल में हमारे वृक्ष समूह वर्षाजल की पहली मार को झेलते हैं जो यदि वृक्ष और वनस्पतिविहीन धरती पर सीधे पड़े तो मिट्टी को काटकर ऐसे बेहड़ बना दे जैसे ग्वालियर, मुरैना, भिंड और दतिया जिलों में हैं। इसलिये वृक्षों को शिव की जटा की उपमा देकर उनकी वंदना की गई है। -महेश श्रीवास्तव, प्रणाम मध्य प्रदेश

हिंदुस्तान का इतिहास प्रांतों के अनुसार या राज्यों के अनुसार लिखने की बजाय यदि नदियों के अनुसार लिखा गया होता तो उसमें प्रजा-जीवन प्रकृति के साथ ओत-प्रोत हो गया होता और हरेक प्रदेश का पुरुषार्थी वैभव नदी के उद्गम से लेकर मुख तक फैला दिखाई देता। -काका कालेलकर

बूँद और बीज : नदी और वन का सृजन


हर जंगल का बनना एक बीज से और हर नदी का बनना एक बूँद से प्रारम्भ होता है। बीज से जंगल बनने की यात्रा आकाश की ओर तथा बूँद से नदी बनने की यात्रा पाताल की ओर चलती है। विपरीत दिशाओं में निरन्तर चल रही इन दो यात्राओं के बीच जीवन के सृजन से लेकर विसर्जन तक सभी कुछ सिमट जाता है। बीज और बूँद की इन दोनों यात्राओं में गहरा सम्बन्ध है। यही सम्बन्ध जंगल को नदियों का मायका बनाता है। मायका जितना समृद्ध हो नदियाँ उतनी ही सदानीरा और समाज उतना ही सुकून से रहता है। मायके में हालात बिगड़ें तो नदियाँ बेहाल और समाज बेचैन होने लगता है। समाज, जंगल और नदियों के इसी गूढ़ सम्बन्ध को वैज्ञानिक नजरिए से देखने के साथ-साथ विकास की नीतियों और कार्यक्रमों में समावेश करने की बड़ी सख्त जरूरत है। -पंकज श्रीवास्तव, पानी के लिये वन प्रबंध

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