जंगल, बूँदें और जीवन

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आदिवासियों का यह पलायन इसलिए ज्यादा चिंताजनक हैं, क्योंकि यह सुविधाओं की खातिर न होकर अपने को जिंदा रखने के मकसद से किया जाता है। पानी की बूँदें नहीं रुकी तो जीवन के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने गड़बड़ाए। अपराध बढ़े। बूँदों का अभाव आदिवासियों के चेहरे पर साफ पढ़ा जाने लगा। जंगल से जुदा झाबुआ से लगातार रूबरू होने के बाद बचपन से हमारे संस्कार में शामिल ‘जल ही जीवन’ है और ‘बिन पानी सब सून’ के व्यावहारिक अध्याय हमने समझे......।

आदिवासियों का घर चारदिवारी भर नहीं है। उनके घर के मायने होते हैं- टापरा, बाहर मवेशियों के बाँधने की जगह, थोड़ा आगे उनका खेत, पास बह रहा कोई नाला, कूएँ और.........और..........आगे फैला हुआ जंगल....। हमारे घर के किसी कोने में टेबल, सोफा या किसी अलमारी के इधर-उधर होने से हमारी दिनचर्या प्रभावित होने लगती है। किसी कमरे की दीवार टूट जाए या छत क्षतिग्रस्त हो जाए तो हमारा जीवन किस हद तक प्रभावित होता है, यह हम भली भाँति जानते हैं। इसी तरह जब जंगल उजड़ता है तो इन आदिवासियों का घर उजड़ता है। घर उजड़ता है तो जीवन उजड़ता है। बिना जंगल के आदिवासी समाज एक मायने में उजड़ा हुआ जीवन ही तो जी रहा है। जंगल से जीवन उजड़ने की दास्तान क्या है........? और बूँदे इसमें क्या भूमिका निभाती हैं.....?

झाबुआ एक ढलानी इलाका है। इसलिए यह कहानी यहाँ कुछ तेज गति से दोहराई जाती है। जैसे-जैसे जंगल गायब होते जाते हैं- भूक्षरण बढ़ता जाता है। घने जंगल में पानी की बूँदें पहले वृक्षों की पत्तियों तथा तनों, डालियों, झाड़ियों आदि से टकराती है। इस टकराहट से इन बूंदों का आकार और गति कम होती है। जमीन पर इन बूँदों को सीधे पहुँचने के पहले अनेक ‘बेरीकेट्स’ का सामना करना पड़ता है। वृक्ष की पत्तियों से मुलाकात करती हुई जब ये नीचे धरती पर पहुँचती हैं, तो घास के तिनके इनके स्वागत में हाथ में वंदनवार लिए खड़े होते हैं। यानी यहाँ भी एकदम सीधे मिट्टी से इनका सम्पर्क नहीं हो पाता है। घने जंगल में तो कई बार सूखे पत्ते भी यत्र-तत्र बिखरे पड़े रहते हैं। इन प्रक्रिया से साफ जाहिर है कि बरसात की ये बूँदे अहिस्ता-अहिस्ता जमीन में समाती जाती हैं।

यदि जंगल घना है जो बरसात कितनी ही तेज क्यों न हो बूँदें तो अपनी गति इन अवरोधों के बहाने कम करती हुई मिट्टी के कणों के सामने बड़ी अदब से पेश आती है, जब मिट्टी से इन बूँदों का सम्पर्क होता है तो जमीन की ऊपर सतह पर मौजूद घास, बेले और झाड़ियों की जड़े इन्हें बहने से रोकते हुए जमीन के भीतर जाने की मनुहार करती हैं। बूँदें ये मनुहार स्वीकार करती हुई बड़े पेड़ों की जड़ों के आस-पास से होती हुई, जमीन के भीतर........और भीतर समाती जाती है। और जो बूँदें बहने की दिशा पकड़ती है वे सूखे पत्तों, पेड़ों की जड़ों के कारण अकेले ही बिदा होती है। इन अवरोधों के होते ये जंगल से मिट्टी के कणों को अपने साथ ले जाने की हिमाकत नहीं कर सकती हैं। नीचे गई बूँदें काफी समय बाद तक तलहटी के खेतों में नमी बनाए रखती हैं। यही बूँदे आस-पास के कुओं में जाकर वहाँ के जलस्तर को ऊपर उठा देती है। जंगल खत्म होने से क्या हुआ.........?

दरअसल जंगल खत्म होने से जीवन के सही मायने खत्म होने लगे। जंगल कटा तो पहाड़ियों की जमीन और बरसात की बड़ी व तेज गति से आ रही बूँदों के बीच फासला कहाँ रह गया! कहाँ रह गए वे अवरोध जो इनकी गति को कम करते और कहाँ रह गए वे नन्हें-नन्हें वंदनवार जो बूँदों का स्वागत करके प्रकृति की गोद में समा जाने की मनुहार करते! कुछ तो नहीं रह गया। जब कुछ भी नहीं रह गया तो ये बूँदें भला वीरानी में अकेली कहाँ रुकती। इस हालात में जब तक बूँदें सीधी इस जमीन पर गिरती हैं, तो उनका सबसे पहला काम अपने आधार से जमीन पर एक छोटा सा गड्ढा करना होता है। तब मिट्टी के कण अपनी जगह से उछलकर इधर-उधर जा गिरते हैं। जब कोई रुकावट नहीं होती है, तो बरसात की ये बूँदें ढलान पर बहने लगती है, इस बहाव में वे मिट्टी को भी अपने साथ बहा ले जाती है। यह प्रकिया अनवरत जारी रहती है। बूँदों के नहीं रुकने की वजह से भूमिगत जल भी निरन्तर कम होता जाता है।

कुछ समय बाद उपजाऊ व कीमती मिट्टी तो इन बूँदों के साथ बह जाती हैं और बाद में हमारे सामने होते हैं अनउपजाऊ पत्थर। जो भविष्य में आने वाले जंगल के सपनों की जड़ों में एक तरह से मिट्टी डालने का काम कर देते हैं।

झाबुआ में पानी रोकने के अभियान के शुरुआती दिनों में तत्कालीन वन मण्डलाधिकारी श्री एबी. गुप्ता ने 1996 के दौरान हमें पहली बार काकनवाणी की पहाड़ियों पर बूँदों को रोके जाने के परिणामों से रूबरू कराया था। हम मानों चमत्कृत हो गए थे। ढलान पर जगह-जगह मिट्टी और पत्थर की रोक लगाने के बाद जो पानी नीचे आ रहा था वह एकदम स्वच्छ था। इसमें मटमैलापन बिल्कुल नहीं था।

श्री गुप्ता के अनुसार- पहाड़ी पर मिट्टी व बोल्डरों की रोक से हम एक-एक ट्रक मिट्टी इस पानी के साथ बह जाने से रोक रहे हैं। इसीका परिणाम है कि नाले का पानी एकदम स्वच्छ दिख रहा है। यदि यहाँ जंगल आबाद रहता तब भी इसी तरह का स्वच्छ जल मिलता। इस पानी को पिया भी जा सकता है।

काकनवाणी या ऐसे ही स्थानों की मिसाल हमें गुजरे जमाने की याद दिलाती है। जब घने जंगलों के कारण कई परेशानियों से हमें अपने आप निजात मिल जाया करती थी। झाबुआ तो इक्कीसवीं सदी की सबसे प्रमुख तौर पर उभर कर वाली पानी की समस्या की हांडी का एक चावल भर है। इससे साफ तौर पर समझा जा सकता है कि पानी की बूँदें- किस तरह हमारे सामाजिक व आर्थिक जीवन के लिए प्राण वायु हैं। आदिवासी क्षेत्रों में इन बूँदों का महत्व और बढ़ जाता है। हमने देखा- झाबुआ के घने जंगलों के गायब होने से मिट्टी का कटाव बड़े पैमाने पर शुरू हुआ। एक सर्वेक्षण के अनुसार इससे 60 फीसदी से ज्यादा जमीन पथरीली व बंजर हो गई। इसे कृषि के लिए भी अनुपयुक्त माना गया। पहाड़ के पहाड़ बंजर दिखाई देने लगे। तेज बरसात के बाद नदी-नालों व तालाबों में बही मिट्टी का प्रतिशत बढ़ने लगा। नदी-नालों में जल्दी ही बाढ़ आने लगी। जमीन में पानी के रिसाव की सम्भावनाएँ ही खत्म होने लगी। किसी जमाने में बारह मास बहने वाले नदी और नाले अब सूखने लगे। कुओं में जल-स्तर कम होने की शुरुआत के साथ वे भी स्थाई रूप से केवल ‘मौसमी’ होकर रह गए। मनुष्यों व जानवरों के लिए पीने के पानी की समस्या खड़ी होने लगी।

खेतों में नमी के अभाव के चलते वे भी केवल एक फसली होकर रह गए। जब ज्यादा सूखा पड़ता है। तब अधिकांश क्षेत्रों के आदिवासियों को अपनी एक फसली जीवन रेखा मक्का से भी हाथ धोना पड़ता है, पहले ही नंगी हो चली पहाड़ियों से अब क्या उम्मीद रखें। मवेशियों को चारा कहाँ से खिलाएँ? बार-बार अकाल और सूखे का सामना करते-करते वहाँ के आदिवासी सुकुन भरे जीवन के सपने छोड़ने लगे। मोटे अनुमान के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों के अभाव व रोजगार की कमी की स्थिति में आदिवासियों की 50 से 60 फीसदी आबादी 8 से 10 महीनों के लिए आस-पास के शहरों में पलायन करने लगी। इन आदिवासियों का यह पलायन इसलिए ज्यादा चिंताजनक हैं, क्योंकि यह सुविधाओं की खातिर न होकर अपने को जिंदा रखने के मकसद से किया जाता है। पानी की बूँदें नहीं रुकी तो जीवन के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने गड़बड़ाए। अपराध बढ़े। बूँदों का अभाव आदिवासियों के चेहरे पर साफ पढ़ा जाने लगा। जंगल से जुदा झाबुआ से लगातार रूबरू होने के बाद बचपन से हमारे संस्कार में शामिल ‘जल ही जीवन’ है और ‘बिन पानी सब सून’ के व्यावहारिक अध्याय हमने समझे......।

.........लेकिन झाबुआ के कुछ एक इलाकों में अब बदलाव की बयार के हल्के से झौंके आ रहे हैं। कतिपय गाँवों में पानी की बूँदों को लेकर चेतना जागी है। आदिवासी समाज पहाड़ों पर, पठारों पर, धरती पर, खेत के किनारे तो मेड़ों पर, नदी, नालों व तालाबों में पानी की इन अनमोल बूँदों को रोकने के मनुहार में जुटा है। झाबुआ के इस तरह के गाँवों का भ्रमण करने के बाद सामाजिक व आर्थिक जीवन में बदलाव के व्यापक संकेत भी दिख रहे हैं। जीवन लौट रहा है। बादलों से खुद को जुदा कर धरती की प्यास बुझाने की ललक के साथ आई बूँदों की गति में, पेड़ों के पत्तों पर, बूँदों की फिसलन में, तो घास के किसी तिनके की मनुहार के बाद बूँद-बूँद मिट्टी के साथ एकाकार हो, उसी में समाते जाने की तहजीब में समाज की मुस्कान दिख रही है।

जंगल में हमने इन ‘जीवन-बूँदों’ के मुख से, घास के तिनके को सम्बोधित कुछ गीत यूँ सुने............!

मैं सदियों से
बादलों को छोड़कर आती रही
लेकिन बदलते वक्त के साथ
धरती पर मुझे कोई नहीं मिला।
आखिर कितना इन्तजार करती।
मैं चल निकली
नदी के सफर में
काल के प्रवाह में।
मैं चिंतित रहती
जब आप नहीं होंगे
तो बंजर और विरानियाँ होंगी।

लो इतने में
मैं समुद्र बन गई....।
लहरों और तुफानों में खेलती रही
सूरज की दृष्टि के बाद
मुझे उपर जाना पड़ा।
वहाँ बादलों की ओट से
तुमको निहारती रही।
धरती पर फिर लौटी.....।

आज तुम मेरे सामने हो
एक पाल सा अहसास है।
मैं अब नहीं जाऊँगी।
मिट्टी में समाऊँगी।
दोनों मिलकर ठान लेगें।
कुछ गीत यूं गुन गुनाएंगे।
रुक जाओ, रेगिस्तान।


समाज यदि थोड़ी भी पहल करें तो इन बूँदों की मनोकामना को पूरा किया जा सकता है.....। तब हम सब मिलकर कहेंगें....... रुक जाओ, रेगिस्तान.......।

- इन्दौर (म.प्र.)

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