जंगल और उनके वृक्ष


भारतवर्ष के पर्वतीय क्षेत्रों में जंगलों से प्राप्त लकड़ी ही मुख्य रूप से ईंधन के रूप में प्रयोग की जाती है जहाँ गोबर तथा खेतीबार से मिलने वाला पर्याप्त अपशिष्ट नहीं मिलता। अनुमानतः देश में प्रतिवर्ष जंगलों से प्राप्त होने वाले पदार्थ हैं- 2700 लाख टन जलाने वाली लकड़ी, 2800 लाख टन जानवरों का चारा, 120 घन मीटर काष्ठ तथा 10 लाख टन सेमी कई गुना अधिक अन्य पदार्थ जैसे कंद, फल तथा औषधीय पदार्थ। वृक्षों के सर्वविदित लाभ हैं इनसे मिलने वाली पारिस्थितिक तथा आर्थिक सेवाएँ, जिनमें मिट्टी और भूमि का संरक्षण, इमारती लकड़ी तथा ईंधन, वन्य प्राणी, मनोरंजन इत्यादि सम्मिलित हैं। जंगलों से आबोंहवा में नमी रहती है। वर्षा के रूप में स्वच्छ जल मिलता है तथा ये कार्बन डाइऑक्साइड के सिंक (sink) के रूप में कार्य करते हैं। जीव-जगत के दो-तिहाई प्राणी इन्हीं में निवास करते हैं। वास्तव में पृथ्वी के जैव भार (Biomass) का 50% कार्बन जंगलों के रूप में संचित रहता है। वैज्ञानिकों ने वर्ष 2010 में IPCC (Intergovernmental Panel on climate change) के सम्मेलन में इस सुझाव पर जोर दिया था कि वृक्षों की कमी होने से वायुमण्डल की कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है जिससे भूमण्डलीय तापन को बल मिलता है।

वर्षा-प्रचुर वन (rain forests) विश्व के उन भागों में पाये जाते हैं जहाँ अधिक वर्षा होती है (78 सेमी प्रतिवर्ष से अधिक) भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्रों, पश्चिमी घाट तथा अन्य स्थानों में, जहाँ दक्षिण-पश्चिमी मानसून सक्रिय रहता है, घने जंगल पाये जाते हैं। विश्व के उष्ण-कटिबन्धीय वर्षा-प्रचुर वन, प्रकाश-संश्लेषण (Photo synthesis) द्वारा मिलने वाली समस्त ऑक्सीजन के 28 प्रतिशत अंश की आपूर्ति करते हैं। आज विश्व के शेष वर्षा-प्रचुर वनों का 30 प्रतिशत भाग ब्राजील में बचा है। इन जंगलों का भविष्य भी डगमगा गया है क्योंकि अनेक स्थानों में इन्हें काटकर खेती तथा आवास-विकास के लिये भूमि तैयार की जाने लगी है।

वृक्षों की जड़ें भूमि के भीतर चारों ओर फैलकर मिट्टी को पकड़े रहती हैं जिसका कुल आयतन वृक्ष के वायुमंडलीय आयतन से अधिक होता है। मिट्टी ही वृक्ष के लिये जल तथा आवश्यक पोषक आहार की पूर्ति करती है। पुराने वृक्षों की अपेक्षा नए वृक्ष वायुमण्डल से अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का शोषण करते हैं। इस प्रकार जंगल कार्बन डाइऑक्साइड के सिंक (Sink) के रूप में कार्य करते हैं, जो जीवित प्राणियों के श्वास लेने, ईंधन जलाने इत्यादि से वातावरण को मिलता है।

जंगलों से लकड़ी तथा अन्य उत्पाद तो मिलते ही हैं, अनेक जीवों के लिये ये ही आवास भी हैं। जलचक्र की यात्रा में इनका विशेष महत्त्व है। ये ही मिट्टी को बहने से रोकते हैं और भूमण्डलीय तापन को कम करते हैं। जंगल ही वृक्षों, जीवधारियों तथा सूक्ष्म जीवों के आवास हैं। ये पृथ्वी के सबसे बड़े तथा सबसे अधिक उत्पादी पारितंत्र हैं।

भारतवर्ष आज भी विश्व के उन देशों में गिना जाता है जहाँ विस्तृत रूप से जंगल विद्यमान हैं। इसका श्रेय पर्वतराज हिमालय को है जो भारत के 18 प्रतिशत क्षेत्र में फैला हुआ है।

आज हिमालयी क्षेत्र में भी अधिकाधिक जंगलों को काटा जाने लगा है। वर्षा होने पर वृक्षविहीन भूमि बूँदों की मार सहन नहीं कर सकती है और शिथिल हुई मिट्टी को अपने साथ बहाकर ले जाती है। फलस्वरूप खुली हुई जड़ें अपना काम सुचारु रूप से नहीं कर पातीं। एक अच्छा स्वाभाविक जंगल, जिसकी मिट्टी वृक्षों से गिरी हुई पत्तियों से ढँकी रहती है, वर्षा होने पर अपनी मिट्टी नहीं खोता और जल को अपने भीतर सोख लेता है। पर्वतीय क्षेत्रों में यही जलस्रोतों (springs) के रूप में वर्ष भर शुद्ध पेयजल की आपूर्ति करता है। वृक्ष विहीन क्षेत्रों में ये जलस्रोत प्रायः गर्मियों में सूख जाते हैं।

भारतवर्ष के पर्वतीय क्षेत्रों में जंगलों से प्राप्त लकड़ी ही मुख्य रूप से ईंधन के रूप में प्रयोग की जाती है जहाँ गोबर तथा खेतीबाड़ी से मिलने वाला पर्याप्त अपशिष्ट नहीं मिलता। अनुमानतः देश में प्रतिवर्ष जंगलों से प्राप्त होने वाले पदार्थ हैं- 2700 लाख टन जलाने वाली लकड़ी, 2800 लाख टन जानवरों का चारा, 120 घन मीटर काष्ठ तथा 10 लाख टन सेमी कई गुना अधिक अन्य पदार्थ जैसे कंद, फल तथा औषधीय पदार्थ।

हिमालय के किसान अपरदन कारक वातावरण से परिचित हैं और उन्होंने स्वयं को इसके लिये ढाल लिया है। ये भिन्न प्रकार की अनेक प्रजातियों को एक ही भूमि में उगाते हैं। इस विधि से क्रॉस-परागण को बल मिलता है, जिससे नई और प्रतिस्कन्दी (resilient) प्रजातियाँ जन्म लेती हैं। हिमालय के किसानों को अनेक नए और उपयोगी फलों और दलों की खोज का श्रेय है।

एग्रोफॉरेस्ट्री (Agro-forestry) खेती करने की वह विधि है जिसके अन्तर्गत वृक्षों, मुख्य फसलों तथा पशुओं के चारे का उत्पादन एक ही भूमि में एक साथ किया जाता है। भारत जैसे देशों में जहाँ अधिकांश किसानों के पास पर्याप्त भूमि नहीं है, एग्रोफॉरेस्ट्री एक उपयोगी विकल्प है। इससे भूमि की गुणवत्ता तथा उत्पादकता में सुधार होता है। भारत में फलों तथा काष्ठीय (woody) वनस्पति को घरों के आस-पास के खेतों में दीर्घकाल से लगाया जाता रहा है। इसे उचित प्रचार और प्रसार की आवश्यकता है। इनसे प्राप्त लकड़ी का उपयोग प्लाइवुड, इमारती लकड़ी तथा कागज बनाने वाले कारखानों में किया जा सकता है जो किसानों को आर्थिक लाभ दे सकता है।

भारत में सबसे अधिक जंगल इसके उत्तरी और पश्चिमी क्षेत्रों तथा पश्चिमी घाट में हैं। भारत में इतनी अधिक जनसंख्या होते हुए भी 30 प्रतिशत भूमि जंगलों के लिये सुरक्षित की गई है।

विश्व में जंगल ही वे प्रमुख संसाधन हैं जिनसे मनुष्य को ईंधन तथा दैनिक आवश्यकता की पूर्ति के लिये कागज मिलता है। वृक्ष ही उस अनूठी रासायानिक क्रिया प्रकाश संश्लेषण के लिये सक्षम है, जो वायु की कार्बन डाइऑक्साइड को लकड़ी तथा अन्य पदार्थों के रूप में बदल देती है। इस क्रिया में ऑक्सीजन गैस मिलती है जो समस्त प्राणियों के जीवन का आधार है। कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रो.टी.एम. दास का कहना है कि यदि एक वृक्ष 50 वर्ष जीता है तो इस अवधि में वह वायुमण्डल को 31,250 डॉलर मूल्य की ऑक्सीजन समर्पित करेगा। इस अनूठी क्रिया के लिये ऊर्जा सूर्य की किरणों से मिलती है। जंगल ही अपनी पारिस्थितिक (ecological) भूमिका में वायु, ताप, मिट्टी तथा जल पर प्रभाव डालते हैं। एक हरा-भरा पर्वत जिसमें परिपक्व (nature) जंगल विद्यमान हों, वर्षा के अधिक बादलों का अपरोधन (interception) करता है जिससे जलभृत (aquifers) परिपूर्ण हो जाते हैं तथा अनुप्रवाह (downstream) भूमि के अपरदन (erosion), वेगधाराओं (torrents) तथा बाढ़ से बचाव होता है। भूमिगत जलाशयों में पर्याप्त जल होने से नदियों में पूरे वर्ष जल रहता है। हिमालय के जंगलों के नष्ट होने का दुष्प्रभाव उत्तरी भारत के मैदानों में स्पष्ट रूप से प्रकट होता है। जहाँ हर साल भीषण बाढ़ और सिल्ट जमा होने (siltation) से जनधन की अत्यधिक हानि होती है।

डॉ. चन्द्र शेखर पाण्डे
पूर्व एमेरिट्स साइंटिस्ट
ग्राउंड फ्लोर, डी-80, नगंल देवत; वसंत कुंज, नई दिल्ली-110
070


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