जनप्रतिनिधियों द्वारा जनविरोध

जिसके पास थाली है,
हर भूखा आदमी,
उसके लिए, सबसे भद्दी
गाली है
- धूमिल


मनरेगा की बकाया मजदूरी को लेकर मध्यप्रदेश सरकार का कहना है कि केंद्र से धन नहीं मिला। केंद्र का कहना है कि पिछला हिसाब न देना, भ्रष्टाचार की जांच में प्रगति न होना और कार्य की पूर्णता के प्रमाण पत्र प्रेषित न करने की वजह से धन का आबंटन रोका गया हैमध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल बड़वानी जिला मुख्यालय पर मनरेगा के अंतर्गत की गई मजदूरी के भुगतान में एक वर्ष तक की देरी के खिलाफ जिला कलेक्टर से बातचीत करने जा रही तीन हजार से अधिक आदिवासी महिलाओं को स्थानीय विधायक, सरपंचों, पंचों, भाजपा कार्यकर्ताओं एवं तथाकथित व्यापारिक एसोसिएशन के सदस्यों द्वारा गंतव्य तक जाने से बलपूर्वक रोका जाना भारतीय लोकतंत्र के इतिहास की सर्वाधिक शर्मनाक घटनाओं में गिना जाएगा। जागृत आदिवासी दलित संगठन के ये कार्यकर्ता मनरेगा में हुए कामों का वित्तीय लेखा जोखा भी मांग रहे थे, जिसका अधिकार स्वयं यह कानून उन्हें देता है। लेकिन जन प्रतिनिधियों का जनता के हक मानने में बाधा बनने की यह बिरली घटना हमारे सामने कई प्रश्न खड़े करती है और एक अंधियारे भविष्य की ओर भी संकेत करती है।

लोकतंत्र में असहमति का अधिकार सभी को है। लेकिन किसी अन्य की असहमति को बलात् रोकने की छूट किसी को भी नहीं है। बड़वानी के मामले में यह बात इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि रुकावट पैदा करने वाले राज्य के सत्तारूढ़ दल के विधायक हैं। यहां इस बात पर गौर करना आवश्यक है कि जिला प्रशासन का प्रत्येक वरिष्ठ नुमाइंदा यह कह रहा है कि संगठन व आदिवासियों की मांग एकदम वाजिब है। वे यह भी मान रहे हैं कि नियमित भुगतान नहीं हो रहा है और पंचायतों द्वारा कराए जा रहे निर्माण कार्यों की जांच जारी है। इससे यह भी साबित होता है कि सरपंचों एवं पंचायत सचिवों द्वारा आम आदिवासी नागरिकों के खिलाफ किए जा रहे विरोध प्रदर्शन की असलियत क्या है?

विधायक के नेतृत्व में हुए विरोध प्रदर्शन में एक अत्यंत रोचक तथ्य सामने आया। इस समूह ने पुलिस महानिरीक्षक का पुतला जलाते हुए ये उद्घोष किया कि वे संगठन के साथ अच्छा व्यवहार कर रही हैं। पुलिस का दोस्ताना व्यवहार वह भी वंचितों और आदिवासियों के पक्ष में, सुनकर सुखद आश्चर्य भी हुआ। जबकि वास्तविकता यह है कि बड़वानी जिले के ग्रामीण विकास विभाग का सालाना बजट करीब 380 करोड़ रुपए है यानि प्रतिदिन एक करोड़ रुपए से भी अधिक। जिन विभागों के माध्यम से इस धन को खर्च किया जाता है उनके द्वारा कई बार अपनी अनिमितताओं को लेकर हो रहे विरोध को दबाने के लिए पुलिस का अनुचित उपयोग किया जाता रहा है। ऐसे एक दर्जन से ज्यादा मामले पिछले दिनों पुलिस ने शासकीय अधिवक्ता से सलाह मशविरे के बाद वापस ले लिए, जिसकी वजह से पुलिस पर पड़ रहा अनावश्यक भार भी कम हुआ। इसी के साथ आम शहरी को यह भी सोचना होगा कि अपनी मजदूरी मांगने आया समुदाय किसी विवशता में खेती बाड़ी को छोड़कर अपने घर से निकला होगा।

बड़वानी जिले की स्थिति इस वर्ष और अधिक गंभीर है क्योंकि यहां औसत से काफी कम वर्षा होने से अकाल जैसी स्थितियां निर्मित हो रही हैं। पूर्व मं ऐसी परिस्थितियों में आदिवासी, महाराष्ट्र एवं गुजरात की ओर पलायन करते थे। लेकिन दुर्भाग्य से इस वर्ष इन दोनों प्रदेशों पर भी सूखे की मार पड़ी है इसलिए पलायन भी असंभव है। ऐसे में आदिवासी बुरी तरह से संकट में फंस गए हैं। वहीं मनरेगा की बकाया मजदूरी को लेकर मध्यप्रदेश सरकार का कहना है कि केंद्र से धन नहीं मिला। केंद्र का कहना है कि पिछला हिसाब न देना, भ्रष्टाचार की जांच में प्रगति न होना और कार्य की पूर्णता के प्रमाण पत्र प्रेषित न करने की वजह से धन का आबंटन रोका गया है।

लेकिन इसमें पिस तो गरीब आदिवासी ही रहा है। जिस वर्ग ने हिसाब नहीं दिया या भ्रष्टाचार किया है या औपचारिकताएं पूरी नहीं की हैं उनका वेतन तो हर महीने की पहली तारीख को निर्बाध जारी हो जाता है। वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार लगातार यह प्रचार कर रही है कि उसकी इस ‘फ्लेगशिप’ योजना ने भारतीय गांवों की तस्वीर बदल दी है। लेकिन वास्तविकता की ओर कोई ध्यान नहीं देना चाहता। किशन पटनायक ने कहा था ‘प्रशासन को सुधारना कोई क्रांतिकारी या वामपंथी कदम नहीं है। यह पूंजीवाद पर हमला भी नहीं है। यह दक्षिणपंथ व वामपंथ दोनों के लिए जरुरी है, क्योंकि यह कदम राज्य को विश्वसनीय बनाता है। इससे कानून का बेहतर ढंग से पालन होगा।’ लेकिन भारत में प्रशासन को सुधारने का कोई प्रयास सामने नजर नहीं आता। क्या यह संभव नहीं है कि मनरेगा के कार्य की जिम्मेदारी जिसमें वित्तीय जिम्मेदारी भी शामिल है, जिला कलेक्टर से वापस ले ली जाए और एक पूर्णकालिक जिला मनरेगा अधिकारी कार्यालय की स्थापना हो और उसे वित्तीय एवं तकनीकी निगरानी के लिए सक्षम बनाकर इस कानून की पूरी जिम्मेदारी सौंप दी जाए?

बड़वानी ऐसा जिला है, जिसकी 75 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है। इस जिले की अर्थव्यवस्था का आधार ही यही वर्ग है। यदि इसकी क्रयशक्ति में वृद्धि नहीं होगी तो व्यापार कैसे चलेगा? लेकिन तथाकथित व्यापारिक एसोसिएशन राजनीतिक दबाव के चलते विचित्र से बयान देने लगती हैं। उन्होंने संगठन के कार्यकर्ताओं को बड़वानी में न घुसने देने हेतु प्रशासन को ज्ञापन दिया है। यह अपने आप में एक गैरकानूनी मांग है। इसके बाद क्या आदिवासी अब यह मांग करें कि जिला कलेक्टर का कार्यालय बजाए बड़वानी के नजदीकी विकासखंड पाटी या कहीं और ‘स्थानांतरित’ किया जाए, क्योंकि बड़वानी का व्यापारी समुदाय उन्हें शहर में प्रवेश ही नहीं करने देना चाहता? स्थानीय विधायक ने हकों की इस लड़ाई को शहर बनाम गांव में बदलने का प्रयास किया है। इतना ही नहीं रैली के दौरान जब आदिवासी अपने छोटे माइक पर अपनी मांगों के संबंध में चर्चा कर रहे थे, तो व्यापारियों के समूह की अगुवाई में अत्यधिक शोर करने वाला ध्वनि विस्तारक (डीजे) उनके सामने लाकर खड़ा कर दिया गया, जिसके कानफोड़ू शोर से आदिवासियों की आवाज दब गई। लेकिन आवाज दबाने का यह तरीका कभी भी सफल नहीं हो सकता। केंद्र और राज्य सरकारें अपने-अपने तरीकों से लगातार गरीब विरोधी गतिविधियों को मूर्तरूप देने में लगी हैं। फिर बात चाहे केंद्र सरकार की हो या खुदरा में विदेशी निवेश की हो, डीजल व रसोई गैस की कीमत बढ़ाने की या बीमा और बैंक में तथाकथित सुधार की हो। वहीं दूसरी ओर राज्य सरकारें अपने करों में कमी नहीं कर रही है तथा राज्य परिवहन जैसे संस्थानों को भंग करके सार्वजनिक यातायात महंगा कर रहीं है तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को रसातल में ले जा रही हैं। सारा ध्यान प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर ही है। इसीलिए प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री लगातार विश्वबैंक जैसी संस्थाओं और विदेशी निवेशकों को लुभाने में लगे रहते है।

धूमिल ने अपनी कविता में यह भी लिखा था;


हर तरफ कुंआ है
हर तरफ खाई है
यहां सिर्फ, वह आदमी, देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है।


भ्रष्टाचार के पक्षकारों का बढ़ता साहस जिस भविष्य की ओर इशारा कर रहा है उसके बारे में सोचने में भी डर लगता है। आरोपों और प्रत्यारोपों के बीच गरीब व वंचित समुदाय की गर्दन दायें और बायें देखते हुए दुखने लगी है। उसकी समझ में ही नहीं आ रहा है कि अंततः वह उस अपराध की सजा क्यों भुगते जो उसने किया ही नहीं है। राजनीतिक अहंकार अपने चरम पर पहुंच कर अब तानाशाही की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध सामुहिक संघर्ष की बात लगातार जोर पकड़ती जा रही थी। लेकिन बड़वानी में भ्रष्टाचार के पक्ष में हो रहा राजनीतिक एवं प्रशासनिक संघर्ष एक नई भूल है, जिसका खामियाजा आने वाली पीढि़यां भुगतेंगी। वैसे दुखती गर्दन को आराम देकर वंचित समुदाय ने सीधे आगामी चुनावों पर टकटकी बांध ली है। केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर अब राजनीतिक दलों को चुनाव में तो जवाब देना ही होगा। वैसे कबीर ने भी कहा है,

दुर्बल को ना सताइये, जाकी मोटी हाय,
बिना जीव की सांस से, लोह भस्म हो जाए।


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