जनकल्याणी गोमती की पुकार

गोमती हूं, तीर्थ नैमिष धाम की पहचान हूं।
देव-ऋिषियों का सदा से कर रही गुणगान हूं।
ज्ञान-गौरव-भक्ति भावों से भरे मेरे किनारे।
तीर्थ-मठ-मंदिर-महाऋिषि धाम, गुरूद्वारा हमारे।
वृक्ष-वन पावन तपोमय भूमियां सम्पत्ति मेरी।
है सभी कुछ किंतु अब तो है अथाह विपत्ति मेरी।
एक मां के रूप में, मैंने सदा सबको दुलारा।
दी, सदा इस भूमि को शीतल सुधा सी नीरधारा।
उग गए मेरे किनारे, सैकड़ों उद्योग धंधे।
जो कि सरकारी विकासों से बने इस तरह अंधे।
रोज जहरीले रसायन से भरे नाले बहाते।
वे विषैले तत्व भी तो गोमती का जल कहाते।
और छोड़ो, किन मनुष्यों की नदी माँ हूं कहाती।
क्या उन्होंने भी कसर कुछ छोड़ रखी है, संघाती?
पुत्र मेरे हैं, मगर उल्लास मेरा छेक देते।
मूत्र-मल-कचड़ा व कूड़ा भी स्वयं का फेंक देते।
‘‘आदिगंगा’’ का शुभ नाम ऋिषियों ने दिया था।
यज्ञ-जप-तप-दान की छवि से मुझे पावन किया था।
हैं उन्हीं ऋषियों और मुनियों के सभी तो पुत्र पावन।
किंतु जल-पर्यावरण-वन का नहीं कुछ ध्यान चिंतन।
भूमि ने जलधार देकर, मुझे पावन तट बनाया।
एक ‘‘ममतापूर्णघट’’ को आप ने ‘‘मरघट’’ बनाया।
क्रूरता करके, किनारों को हमारे काट डाला।
और लासों से हमारे नीरतन को पाट डाला।
आज लो संकल्प, मेरा नीर तुम निर्मल करोगे।
स्वच्छता की क्रांति द्वारा कांतिमय भूतल करोगे।
क्या कभी उद्धार होगा इस दशा से, सोचती हूं?
श्रेष्ठ नैमिष के सपूतो! मैं तुम्हारी गोमती हूं।

प्रधानाचार्य गुरूगोविंद सिंह, रिखौना-सीतापुर

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