जनभागीदारी से दूर होती फ्लोरोसिस की बीमारी

meet on fluorosis
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राज्य स्तरीय कार्यशाला में बनी सहमति, स्थानीय समुदायों, स्यवंसेवी संगठनों और सरकार के तालमेल से दूर हो सकती हैं फ्लोरोसिस जैसी क्षेत्र आधारित बीमारियाँ

पेयजल से पैदा होने वाली इस बीमारी की भयावहता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है देश के 20 राज्य और अकेले मध्य प्रदेश के 27 जिले इसकी चपेट में हैं। पानी में फ्लोराइड की बढ़ी हुई मात्रा कई तरह की बीमारियों को जन्म दे सकती है। इससे निपटने के क्रम में शासकीय-स्वयंसेवी प्रयास और आम लोगों में जागरुकता दोनों समान रूप से आवश्यक हैं। प्रदेश के 27 जिलों में पेयजल फ्लोराइड से ग्रस्त है, लोक विज्ञान संस्थान तथा कुछ अन्य संस्थाओं के साथ मिलकर प्रदेश सरकार तेजी से इस समस्या से निपटने का प्रयास कर रही है।राजधानी भोपाल स्थित पलाश रेजिडेंसी होटल में 18 नवम्बर को ‘सहभागी भूजल प्रबन्धन के जरिए फ्लोरोसिस शमन’ विषय पर आयोजित एक दिवसीय कार्यशाला में पानी में फ्लोराइड की जरूरत से ज्यादा मौजूदगी से होने वाली समस्याओं और उनसे निपटने के जनभागीदारी वाले तरीकों के बारे में न केवल गहन चर्चा हुई बल्कि वहाँ ऐसे निष्कर्ष भी निकाले गए जो इस बीमारी से जूझ रहे जिलों और आबादी को नई राह दिखा सकते हैं।

कार्यशाला के समापन तक इस बात पर आम सहमति बन गई कि स्थानीय समुदायों को यदि थोड़ा शोध, थोड़ा प्रशिक्षण और सरकारी-गैरसरकारी मदद मुहैया करा दी जाये तो वे स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियों के कारण उपजी फ्लोरोसिस जैसी समस्याओं से काफी हद तक खुद ही निपट सकते हैं।

कार्यशाला का आयोजन देहरादून स्थित शोध संस्था लोक विज्ञान संस्थान (पीएसआई), ने लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग (पीएचईडी), भोपाल, फ्रैंक वाटर यूके, वसुधा, विकास संस्थान, वाटर एड, इनरेम फ़ाउंडेशन और अर्घ्यम के सहयोग से किया था।

कार्यशाला को सम्बोधित करते हुए इनरेम फ़ाउंडेशन के डॉ. सुन्दरराजन कृष्णन ने एक फिल्म की मदद से फ्लोरोसिस की समस्या की गम्भीरता पर प्रकाश डाला। वाटर एड के प्रतिनिधि श्रीकांत ने बताया कि कैसे उनकी संस्था लम्बे समय से फ्लोराइड प्रबन्धन पर काम कर रही है।

एडवांस सेंटर फॉर वाटर रिसोर्स डेवलपमेंट एंड मैनेजमेंट के डॉ. हिमांशु कुलकर्णी ने तकनीक और प्रक्रिया के द्वंद्व को रेखांकित किया। उन्होंने अपने अनुभवों को आधार बनाकर कहा कि समय रहते पानी पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। उन्होंने कहा कि पानी एक नैसर्गिक आवश्यकता है और उसे लेकर उद्यमी की तरह सोचना लाभदायक नहीं हो सकता।

फ्लोराइड नॉलेज एंड एक्शन नेटवर्क (एफकेएन) के विकास रत्न, पीएसआई के अनिल गौतम, पीएसआई के ही संस्थापक निदेशक रवि चोपड़ा, तथा पीएचई विभाग के विभिन्न अधिकारियों ने भी समस्या के विभिन्न पहलुओं पर अपनी बात रखी।

फ्लोराइड से निपटने की तैयारीमुख्यतया पेयजल से पैदा होने वाली इस बीमारी की भयावहता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है देश के 20 राज्य और अकेले मध्य प्रदेश के 27 जिले इसकी चपेट में हैं। पानी में फ्लोराइड की बढ़ी हुई मात्रा कई तरह की बीमारियों को जन्म दे सकती है। इससे निपटने के क्रम में शासकीय-स्वयंसेवी प्रयास और आम लोगों में जागरुकता दोनों समान रूप से आवश्यक हैं।

प्रदेश के 27 जिलों में पेयजल फ्लोराइड से ग्रस्त है, लोक विज्ञान संस्थान तथा कुछ अन्य संस्थाओं के साथ मिलकर प्रदेश सरकार तेजी से इस समस्या से निपटने का प्रयास कर रही है। कार्यशाला के दौरान इस समस्या के विविध पहलुओं पर चर्चा के साथ-साथ इसके प्रभाव को कम करने के लिये सर्वमान्य हल पर पहुँचने का प्रयास किया गया।

कार्यशाला के आरम्भिक सत्र में ही पीएचईडी (इन्दौर क्षेत्र) के मुख्य अभियन्ता के के सोनगरिया ने उत्साहवर्धक खबर देते हुए बताया कि इन्दौर क्षेत्र के 12 फ्लोरोसिस प्रभावित जिलों में से 8 को इससे मुक्त करा लिया गया है। वहीं इन्दौर क्षेत्र में काफी वक्त बिता चुके और अब पीएचईडी भोपाल में मुख्य अभियन्ता के रूप में पदस्थ कार्यक्रम के अध्यक्ष सी एस संकुले ने बताया कि झाबुआ प्रदेश में फ्लोरोसिस प्रभावित क्षेत्र के रूप में 1986 में चिन्हित होने वाला पहला जिला बना। उन्होंने फ्लोरोसिस की भयावहता पर प्रकाश डालने के अलावा इससे निपटने को लेकर सरकार और स्वयंसेवी संगठनों के प्रयासों को लेकर भी सन्तोष जताया।

पहले सत्र में ही पीएसआई के संस्थापक निदेशक रवि चोपड़ा ने भी अपनी बात रखी। उन्होंने सहभागी भूजल प्रबन्धन की महत्ता का उल्लेख किया और देश में आदिवासियों को लेकर हो रहे दूसरे दर्जे के व्यवहार पर चिन्ता जताई। उन्होंने जोर देकर कहा कि सबको स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना सरकार की ज़िम्मेदारी है। उन्होंने कहा कि इस समस्या का स्थानीय स्तर पर बिना पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ किये हल निकालना सम्भव है।

पीएसआई के ही अनिल गौतम ने एक प्रजेंटेशन के माध्यम से उपस्थित लोगों को बताया कि कैसे वर्ष 2003 में इसे लेकर काम करना आरम्भ किया गया। प्रदेश के धार जिले में इस समस्या की गम्भीरता को उन्होंने आँकड़ों के जरिए प्रस्तुत किया। तकरीबन 54 फीसदी आदिवासी आबादी वाले इस जिले में 13 से 18 वर्ष की उम्र के युवाओं में फ्लोराइड की समस्या बहुतायत में थी।

समस्या से निजात पाने के लिये तकनीकी जानकारी देने के अलावा लोगों को आपसी भागीदारी के साथ काम करने के लिये भी प्रेरित किया गया। पीएसआई की टीम ने बाक़ायदा जागरुकता अभियान चलाकर लोगों को प्रेरित किया कि वे साफ पानी को एक दूसरे के साथ साझा करें।

पीएसआई, देहरादून की टीम ने पानी की उपयोगिता और फ्लोराइड के प्रति उनमें जागरुकता पैदा करने के लिये प्रभावित गाँवों में कालापानी, बड़ी छतरी और दहेरिया नामक तीन गाँवों में पायलट परियोजनाओं की शुरुआत की गई। इस आयोजन को वित्तीय मदद फ्रैंक वाटर, यूके ने मुहैया कराई।

इस पहल के तहत स्थानीय स्तर पर पानी और भूविज्ञान, भूजल आदि की जाँच की गई उसके बाद क्रियान्वयन की योजना, मासिक हिस्सेदारी और सामुदायिक रूप से जल के साझा उपयोग की विस्तृत कार्य योजना तैयार की गई और उसे अमलीजामा पहनाया गया।फ्लोराइड से निपटने की तैयारीइन गाँवों में जल उपयोगकर्ता समितियों का गठन किया गया जिनका काम पीने का साफ पानी एकत्रित करना और हर हालत में उसकी देखभाल और साफ-सफाई सुनिश्चित करना है।

कालापानी गाँव की जल उपयोगकर्ता समिति की अध्यक्ष सक्कू बाई ने कार्यशाला में अपने अनुभव साझा किये।

पीएसआई तथा अन्य संस्थानों के अलावा प्रदेश का पीएचई विभाग भी फ्लोरोसिस की समस्या से निपटने के सख़्ती से प्रयास कर रहा है। इस कार्यशाला की मदद से इस मुद्दे पर काम करने वाले सभी लोगों और पीड़ितों को एक मंच मुहैया कराया गया ताकि वे एक दूसरे के बारे में बेहतर समझ कायम करते हुए सहभागिता आधारित भूजल प्रबन्धन की मदद से इस समस्या से निपटने के तरीके और स्पष्ट ढंग से सीख सकें।

कार्यशाला का उद्देश्य यह भी था कि पीएचईडी तथा अन्य सम्बन्धित शासकीय विभागों, नागरिक समाज, वित्तीय मदद मुहैया कराने वाली एजेंसियों तथा विभिन्न समुदायों के बीच फ्लोरोसिस की समस्या से निपटने के लिये तालमेल भरे कदमों की सम्भावनाएँ तलाशी जा सकें।

कार्यशाला के दौरान भावनात्मक क्षण उस समय आये जब उपरोक्त तीनों गाँवों की जल उपयोगकर्ता समिति के सदस्यों को सम्मानित किया गया। यह इन सदस्यों की लगन और मेहनत ही है जो पीएसआई की सामुदायिक सहयोग वाली इस योजना को सफल बना रही है। कालापानी गाँव के किसान उदय सिंह ने तो फ्लोराइड के कम स्तर वाला अपना कुआँ ही गाँव के लोगों को इस्तेमाल के लिये दान में दे दिया है।

फ्लोरोसिस की बीमारी मुख्य रूप से पीने के पानी के जरिए शरीर में फ्लोराइड की अधिक मात्रा पहुँचने से होती है। यह शरीर में मौजूद कैल्शियम से क्रिया करता है और कैल्शियम फ्लोरोटाइट बनाता है। इसकी वजह से हड्डियों में विकार उत्पन्न होने लगता है। यह बीमारी दाँतों में तथा गम्भीर होने पर शरीर की अन्य हड्डियों में घर कर जाती है। इसकी वजह से तंत्रिका तंत्र पर दबाव पड़ता है और आगे चलकर लकवा भी हो सकता है।

दन्त फ्लोरोसिस की बीमारी दाँतों के विकास को प्रभावित करती है लेकिन केवल बचपन में। एक बार दाँत निकल आने के बाद यह बीमारी नहीं होती। हैण्डपम्प में इससे निपटने की किट लगाकर काफी राहत पाई जा सकती है लेकिन उसकी देखभाल और मरम्मत की समस्या के चलते वह प्रभावी हल नहीं बन पाता। ऐसे में सामुदायिक भागीदारी ही इससे निपटने का प्रभावी तरीका है।फ्लोराइड से निपटने की तैयारीकार्यक्रम के मुख्य अतिथि पीएचईडी, भोपाल के मुख्य अभियन्ता सी एस संकुले थे। जबकि कार्यक्रम का संचालन वसुधा की गायत्री परिहार और पीएसआई की अनीता शर्मा ने किया।

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Post By: RuralWater
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