पिछले एक दशक में घाटा की जनसंख्या डेढ़ गुना हो गई है। किराया ग्रामीणों की आय का अच्छा खासा साधन है। यहां रहने वालों में प्रवासी मजदूरों और दूसरे कामगारों की भरमार है। नोटों के बल पर ग्रामीणों ने सारी व्यवस्थाएं कर लीं, लेकिन यहां आने वाले लोगों के लिए पानी कहां से आएगा, इसके बारे में समाज या सरकार द्वारा योजना बनाना तो दूर सोचा तक नहीं। पूर्वजों की जमीन की बिक्री से आए मुआवजे की राशि से लोगों की आंखों पर कैसे पट्टी बंध जाती है, इसके अध्ययन के लिए घाटा अच्छा खासा उदाहरण है। गुड़गांव-फरीदाबाद मार्ग पर बसे गुर्जर बाहुल्य गांव घाटा के लोगों के पास जमीन की बिक्री से इतना पैसा आया कि लोगों ने अपने गांव का नाम अमीरपुर रखने की मांग कर डाली। इसको लेकर कई पंचायतें और सभाएं भी हुईं। बात अदालत तक ले जाने की बात तक कही गई। यह अलग बात है कि बात सिरे नहीं चढ़ पाई।
यह कहानी उस गांव की भी है जो पानी के मामले में कभी सर्वाधिक धनी था। गुड़गांव के आसपास बसे दर्जनों गांवों में जब भी पानी का संकट होता था तो पानी में अमीर अकेला सबकी प्यास बुझाता था। पहाड़ी पर बसा यह गांव आज पानी के मामले में गुड़गांव के सबसे अधिक गरीब गांवों में से एक है। यहां के सैकड़ों घरों के लोगों को पानी के जुगाड़ के लिए रोज संघर्ष करना पड़ता है।
गुड़गांव शहर और आसपास के इलाके में कभी पानी का संकट न हो, इसके लिए अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में व्यापक बंदोबस्त किए थे। इसके लिए इलाके में काफी बांध और नाले बनवाए थे। घाटा का बंद (बांध) इलाके का सबसे महत्वपूर्ण बंद था। पहाड़ के नीचे एक बड़ी झील में दिल्ली के महरौली के इलाके से आने वाला पानी यहां एकत्र हो जाता था।
पहाड़ पर बसे घाटा से इस झील की गहराई 200 फुट से अधिक थी। यह बांध गुड़गांव तहसील का सबसे पुराना बांध था। इस बांध का निर्माण गवालपहाड़ी के बांध के साथ ही 1899-1900 में हुआ था। वर्ष 1943 में गुड़गांव में तैनात सेटलमेंट ऑफिसर (आईसीएस) अख्तर हुसैन द्वारा बांधों पर लिखे गए नोट के मुताबिक इस बांध की ऊंचाई पर 76363 रुपए खर्च हुए थे। यह उस बिंदु पर स्थित है जहां से बादशाहपुर नाला पहाड़ियों के बीच से निकलता है।
गवालपहाड़ी गांव के नीचे से आसपास की नालियों का सारा पानी सितंबर तक यहां रोक लिया जाता था। बाद में आवश्यकता के मुताबिक गवालपहाड़ी से मिले हुए पानी को मिलाकर इसे दूसरे गांवों के लिए बादशाहपुर के नाले से छोड़ा जाता था। इस नाले से पानी हासिल करके उत्पादित होने वाली फसलों पर आबियाना भी लगाया जाता था।
जरूरत के मुताबिक पानी छोड़ने और रोकने के लिए बांध पर बाकायदा लोहे के भारी भरकम गेट बनाए गए थे। ये गेट आज भी हैं। बांध की पूरी व्यवस्था सिंचाई विभाग के देखरेख में होती है। सिंचाई विभाग के यहां 2003 से तैनात चौकीदार मेहरचंद के मुताबिक बांध के साथ स्थित झील में पानी का संकट पिछले छह-साल से है।
बांध के पास स्थित सिंचाई विभाग की जमीन पर कब्जे की शिकायत भी मेहरचंद करते हैं। बंद पर अंग्रेजों द्वारा निर्माण कराया गया दो मंजिला चौकीदार भवन आज भी ज्यों-का-त्यों है। बांध में अब गांव का सड़ा हुआ पानी आता है।
बांध का उद्देश्य यहां पानी एकत्र कर दूसरे गांवों में आपूर्ति करना और बाढ़ से बचाना था। अब दोनों में से कोई उद्देश्य पूरा नहीं हो रहा है। कई बड़ी भवन निर्माण कंपनियों ने झील क्षेत्र में और आसपास 40-40 मंजिल की इमारतें खड़ी कर दी हैं।
ग्रामीणों का कहना है कि जब से यहां कंपनियों ने बड़े-बड़े बोर किए हैं पानी का सकंट गहरा गया है। यह पानी के प्रति लोगों की निष्ठुरता का ही परिणाम है कि वन विभाग को नए लगाए गए पेड़ों को बचाने के लिए टैंकर से पानी मंगवाना पड़ता है। गांव के सबमर्सिबलों ने अब जवाब देना शुरू कर दिया है।
सुबह तकरीबन 10.45 पर हम घाटा बांध का रास्ता पूछने के लिए ऊपर गए तो सेवानिवृत्त फौजी दयाराम प्लास्टिक के पाइप के माध्यम से अपने घर से तकरीबन 70 फुट दूर से पानी लाने के लिए मशक्कत कर रहे थे। बकौल दयाराम, गांव में पानी की जबरदस्त दिक्कत है, गांव के बाहर नगर निगम के चार सबमर्सिबलों से गांव में पानी की आपूर्ति होती है।
गांव में कलोबरा, दसघरा, ठग, नागा,लीलगर और कोली मोहल्ले हैं। आए दिन किसी-न-किसी मोहल्ले में पानी के लिए तनाव होता है। दसघरा के बुजुर्ग लाल सिंह के मुताबिक गांव के चारों कुएं अब ठप्प पड़ गए हैं। इसी मोहल्ले के रहने वाले और अब गुड़गांव शहर में रह रहे दिल्ली पुलिस से सेवानिवृत्त थानेदार सूरजमल बताते हैं, कुछ लोगों ने और कुछ सरकार व बिल्डरों की जोर-जबरदस्ती के चलते गांव की शामलात जमीन भी अब बिल्डरों के कब्जे में है।
भूजल स्तर कितना नीचे है? सवाल के जवाब में 80 साल के रामकरण कहते हैं, पानी नीचे बचा ही नहीं। हालांकि एक अन्य ग्रामीण के मुताबिक गांव में पानी भूजल स्तर अब 300 फुट तक नीचे चला गया है।
पिछले एक दशक में घाटा की जनसंख्या डेढ़ गुना हो गई है। किराया ग्रामीणों की आय का अच्छा खासा साधन है। यहां रहने वालों में प्रवासी मजदूरों और दूसरे कामगारों की भरमार है। नोटों के बल पर ग्रामीणों ने सारी व्यवस्थाएं कर लीं, लेकिन यहां आने वाले लोगों के लिए पानी कहां से आएगा, इसके बारे में समाज या सरकार द्वारा योजना बनाना तो दूर सोचा तक नहीं।
पूर्वजों की जमीन की बिक्री से आए मुआवजे की राशि से लोगों की आंखों पर कैसे पट्टी बंध जाती है, इसके अध्ययन के लिए घाटा अच्छा खासा उदाहरण है। यहां लोग शादियों, जन्मदिन समारोहों और यहां तक कि मरणोपरांत होने वाले समारोहों पर लाखों खर्च देते हैं।
नवागंतुक पीढ़ियों के जन्मदिन समारोहों का कुआं पूजन का शगुन करने वाली वर्तमान पीढ़ी को इस बात से कोई लेना देना नहीं है कि उसके पीने के लिए भविष्य में पानी कहां से आएगा। इस इलाके में कई शादियों में हेलीकाप्टर से दुल्हनें लाई गई हैं। सूरजमल कहते हैं, यही हाल रहा तो भविष्य में पानी भी हेलीकाप्टर से लाना होगा, फिलहाल मंहगी स्पॉर्ट्स यूटिलिटी व्हीकल्स में तो आता ही है।
नरक जीते देवसर (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
क्रम | अध्याय |
1 | |
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3 | पहल्यां होया करते फोड़े-फुणसी खत्म, जै आज नहावैं त होज्यां करड़े बीमार |
4 | |
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6 | |
7 | |
8 | |
9 | |
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11 | जिब जमीन की कीमत माँ-बाप तै घणी होगी तो किसे तालाब, किसे कुएँ |
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16 | सबमर्सिबल के लिए मना किया तो बुढ़ापे म्ह रोटियां का खलल पड़ ज्यागो |
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19 | |
20 | पाणी का के तोड़ा सै,पहल्लां मोटर बंद कर द्यूं, बिजली का बिल घणो आ ज्यागो |
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