जमालपुर जल-समाधि (1968)

तटबन्धों के अन्दर की सारी फसल मारी गई और बड़ी तादाद में घर गिरे। कोसी और कमला की सहायक धाराओं जैसे तिलयुगा, भुतही बलान, खड़क, घोरदह, पाँची, धोकरा, बिहुल, गेहुमां और सुपैन आदि ने अपने हिस्से की तबाही अगल से मचाई। इस तरह कोसी तटबन्धों के अन्दर और बाहर, दोनों तरफ, तबाही का मंजर था मगर इसका क्लाइमेक्स अभी बाकी था। कोसी तटबन्धों के बीच बाढ़ का पानी जैसे-जैसे दक्षिण की ओर गया, बरबादियों के नये-नये किस्से लिखता गया।

‘‘मैंने अपने जीवन में ऐसी बाढ़ कभी नहीं देखी यद्यपि मैं इसी इलाके का रहने वाला हूँ।’’ यह कहना था अक्टूबर 1968 में ललित नारायण मिश्र का जो कि उस समय केन्द्र में रक्षा राज्य मंत्री थे और सहरसा तथा दरभंगा के बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करके लौटे थे। हुआ यह कि इस साल 3-4 अक्टूबर को कोसी के बिहार तथा नेपाली जलग्रहण क्षेत्र में जम कर बेमौसम की बारिश हुई और यह सारा पानी गरजते हुये घाटी से निकल कर मैदानों में आया। मैदान में उतरते ही इसने पहला काम नेपाल में चतरा नहर के हेड-वर्क्स की सुरक्षा के लिए बनाये गये कॉफर बांध को ध्वंस करने का किया। यह स्थान बीरपुर बराज और भारत नेपाल सीमा से कोई 42 किलोमीटर उत्तर में है। 5 अक्टूबर को यह प्रवाह 25,853 क्यूमेक (करीब 9,13,00 क्यूसेक) था और जब यह पानी बीरपुर बराज पहुँचा तो बराज के सारे 56 पफाटक एक साथ खोल देने पड़े क्योंकि इतना पानी आ जाने की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। कोसी नदी में अब तक का सर्वाधिक प्रवाह 1954 में देखा गया था जबकि नदी तटबन्धों के बीच क़ैद न होकर पूरी तरह से आजाद थी और उस समय भी यह 8,54,00 क्यूसेक (24,210 क्यूमेक) तक ही सीमित था। लेकिन अब बराज के नीचे, और ऊपर भी, नदी पर दोनों ओर तटबन्ध बने हुये थे जिनकी इस प्रवाह के सामने परीक्षा होने वाली थी।

इतनी वर्षा और उसके परिणामस्वरूप नदी के उफनते पानी ने किसी अमंगल की सूचना काफी पहले दे दी थी। भागलपुर के आयुक्त वी0 पी0 कश्यप और सहरसा के जिलाधिकारी एस0 के0 चतुर्वेदी स्थिति पर नियंत्रण रखने के लिए सुपौल में मौजूद थे और तटबन्धों के बीच बहती कोसी पूर्वी तटबन्ध पर बराज से 28 किलोमीटर दक्षिण तटबन्ध के ऊपर से बह निकलने को बेकरार थी। इंजीनियरों और स्थानीय लोगों की कोशिशों से यह दुर्घटना जैसे-तैसे टल गई। मगर बाढ़ का लेवल जब इतना ऊँचा हो गया तो तटबन्ध के अन्दर फंसे लगभग 400 के आस-पास गाँवों के अस्तित्व पर बन आई। यहाँ के निवासियों की रक्षा के लिए यह जरूरी था कि उन्हें सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया जाय। तेज बारिश और नदी की उफनती धारा ने मिल कर यह काम नामुमकिन सा कर दिया मगर जहाँ लोग भांप गये थे कि तीन दिनों की लगातार बारिश गजब ढायेगी वहाँ नावों की तैयारी कर ली गई थी और लोगों ने ऊँचे और सुरक्षित स्थानों पर पहले से ही जाना शुरू कर दिया था। जहाँ से तटबन्ध नजदीक पड़ता था वहाँ लोग तटबन्धों पर भाग आये थे। कितनी जानें तो इन सुरक्षित स्थानों की तलाश में चली गईं।

निर्मली के रिंग बांध पर आस-पास के गाँवों के लोग भाग कर आये थे जिनमें जिरौली, हरियाही, नवटोलिया, रसुआर, केवट पट्टी, कदमाहा, कटैया, सोनापुर, दुधैला और दिघिया आदि गाँवों के लोग शामिल थे। निर्मली के नागरिकों और व्यापारियों ने इनके लिए रहने-खाने का इंतजाम किया। प्रखण्ड कार्यालय भी बाढ़ पीडि़तों से भरा पड़ा था। यहाँ की व्यवस्था प्रखण्ड कार्यालय की तरफ से हुई। निर्मली पर स्वयं खतरे की घंटी बज रही थी क्योंकि इसके रिंग बांध के बाहर नदी का पानी तटबन्ध के ऊपरी तल से मात्रा डेढ़ मीटर नीचे था और कस्बे के अधिकांश हिस्से में वर्षा का पानी भरा हुआ था। यहाँ भी अस्तित्व की ही लड़ाई लड़ी जा रही थी क्योंकि रिंग बांध में किसी दरार की हालत में कस्बे की सारी आबादी की जल-समाधि हो जाती। यह काम किसी भी मायने में आसान नहीं था क्योंकि भारी और लगातार बारिश की वजह से न तो कहीं मजदूर मिलते थे और न ही जरूरत की जगहों पर कोई सामान पहुँचाया जा सकता था। तटबन्ध की किसी भी मरम्मत के लिये सूखी मिट्टी चाहिये जो कहीं उपलब्ध नहीं थी।

यही हालत करीब-करीब पूरे तटबन्ध पर थी। आमतौर पर 15 सितम्बर तक बाढ़ के मौसम की समाप्ति मान ली जाती है और सारे सम्बद्ध लोग इस समय तक एक राहत की सांस लेते हैं। सरकारी कर्मचारी, इंजीनियरिंग विभाग, ठेकेदार, नाविक आदि सभी लोगों की मुराद होती है कि सितम्बर खैर से पार हो जाये तो गंगा नहायें। मगर इस साल तो कुछ और ही बदा था। तटबन्धों के अन्दर की सारी फसल मारी गई और बड़ी तादाद में घर गिरे। कोसी और कमला की सहायक धाराओं जैसे तिलयुगा, भुतही बलान, खड़क, घोरदह, पाँची, धोकरा, बिहुल, गेहुमां और सुपैन आदि ने अपने हिस्से की तबाही अगल से मचाई। इस तरह कोसी तटबन्धों के अन्दर और बाहर, दोनों तरफ, तबाही का मंजर था मगर इसका क्लाइमेक्स अभी बाकी था। कोसी तटबन्धों के बीच बाढ़ का पानी जैसे-जैसे दक्षिण की ओर गया, बर्बादियों के नये-नये किस्से लिखता गया। (देखें बाक्स- ‘ऊपर से बारिश और नीचे से त्राहि गोबिन्द’)

तटबन्ध टूटने के बाद बाहर के तथाकथित बाढ़ सुरक्षित क्षेत्रों में क्या हुआ उसका किस्सा बताती हैं डॉ. उषा किरण खान। देखें बॉक्स- दो घण्टे के अन्दर भीतर और बाहर सब बराबर हो गया। बांध जमालपुर में 6 अक्टूबर को टूटा। यह दरारें पश्चिमी तटबन्ध के 40 किलोमीटर (किशुनीपट्टी से शुरू होकर) पर मुसहरिया के पास दो स्थानों पर, खैसा के पास दो स्थानों पर और गण्डौल (सहरसा) के पास एक जगह, कुल मिला कर पाँच जगहों पर पड़ीं। उसके बाद हवाई सर्वेक्षण का दौर चला। सबसे पहले गये ललित नारायण मिश्र जिन्होंने जमालपुर के पास एक-डेढ़ किलोमीटर की दूरी में तटबन्ध को पाँच जगह टूटे हुये देखा और जान-माल और फ सल के भारी नुकसान होने की संभावना जताई। उनका कहना था कि लोग बड़ी तादाद में मरे होंगे। उधर रिलीफ कमिश्नर एस॰ एन॰ सिंह का कहना था कि जमालपुर के पास चार जगह तटबन्ध टूटा है। बिहार प्रदेश कांग्रेस पार्टी के भूतपूर्व अध्यक्ष राजेन्द्र मिश्र का कहना था कि इस बाढ़ में दरभंगा, सहरसा और पूर्णियाँ में भारी तबाही हुई है और कम-से-कम 200 लोग मारे गये हैं।

के॰ एन॰ लाल (74) भूतपूर्व इंजीनियर-इन-चीफ , बिहार सरकार बताते हैं कि, ‘...मैं उस समय कोसी प्रोजेक्ट के चीफ इंजीनियर का तकनीकी सलाहकार था और पटना में नियुक्त था और सीनियर एक्जीक्यूटिव इंजीनियर की रैंक में था। दुर्गा पूजा के बाद का समय था, बाढ़ के मौसम के बाद की चहल-पहल थी। प्रायः सभी अधिकारी और कर्मचारी अपने-अपने घर पर थे। कुछ छुट्टी पर तो कुछ छुट्टी के बिना भी। मेरे पास बराहक्षेत्र कन्ट्रोल रूम से वायरलेस से सूचना आई कि 9,13,000 क्यूसेक का डिस्चार्ज जा रहा है और उचित कार्यवाही का संदेश था। मैंने तुरन्त गणना की कि इतने पानी को नीचे पहुँचने में कितना समय लगेगा और फिर सहरसा और दरभंगा के कलक्टर और मधुबनी के एस॰ डी॰ एम॰ को बचाव और राहत कार्यों की तैयारी के संदेश दिये। आकाशवाणी के निदेशक उस समय कोई शर्मा जी थे जिनसे अनुरोध किया कि वह आधे-आधे घन्टे पर समाचार प्रसारित कर लोगों को सुरक्षित स्थानों पर जाने को कहें। कोसी प्रोजेक्ट के मुख्य प्रशासक अब्बास साहब राँची में थे, वह रेडियो पर समाचार सुन कर पटना आ गये। धीरे-धीरे चीफ इंजीनियर और सुपरिन्टेडिंग इंजीनियर भी आ गये। दूसरे दिन हवाई जहाज से हम सभी लोग बीरपुर गये। ...सब पानी से लबालब था, तटबन्ध के अन्दर भी और बाहर भी। जमालपुर में जहाँ तटबन्ध टूटा वहाँ टूटने या न टूटने से कोई फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि तटबन्ध के बाहर वैसे भी कमला-बलान और गेहुमां का पानी भरा ही रहता है। एक भी आदमी नहीं मरा और किसी को भी यह अहसास नहीं होने पाया कि इतनी बड़ी दुर्घटना हो गई है। बाद में पी॰ एन॰ कुमरा ने एक एन्क्वायरी की थी, उसमें उन्होंने क्या लिखा था वह मुझे याद नहीं है। जमालपुर के पास की मिट्टी चिकनी मिट्टी थी और यह सूख कर पत्थर जैसी हो जाती है। मुमकिन है कि ऐसी ही बनी दरारों से पानी बह कर आने लगा हो और तटबन्ध टूट गया हो।’

कोसी प्रोजेक्ट के मुख्य प्रशासक एस॰ ए॰ एफ॰ अब्बास 6 अक्टूबर को पटना से हवाई जहाज से इलाके को देखने गये। उन्हें इस बात की खुशी हुई कि इस बाढ़ ने तटबन्धों की क्षमता का परीक्षण करने का एक मौका मुहैया करवाया और तटबन्ध इस इम्तहान में पास हुये हैं। उन्होंने आगे कहा कि इस मौके का फायदा तकनीकी आंकड़े इकट्ठा करने में उठाया जायेगा जिन्हें बाद में केन्द्रीय जल आयोग और हाइड्रॅालिक रिसर्च स्टेशन, पूना भेजा जायेगा जहाँ उनकी छान-बीन की जायेगी और यह पता लगाने की कोशिश की जायेगी कि अगर भविष्य में ऐसा कभी फिर होता है तो उस परिस्थिति में क्या किया जाना चाहिये।

धीरे-धीरे यह जाहिर हुआ कि इस बाढ़ में तटबन्धों के बीच के सारे गाँवों पर बाढ़ का असर पड़ा और पश्चिमी तटबन्ध के बाहर 96 गाँवों के 70,000 हेक्टेयर से अधिक के क्षेत्र में पानी पैफला। इनमें से 25 गाँव बिरौल प्रखण्ड में, 26 गाँव घनश्यामपुर प्रखण्ड में, 30 गाँव कुशेश्वर स्थान में तथा 15 गाँव सिंघिया प्रखण्ड (समस्तीपुर जिला) के थे। खगड़िया जिले के गाँवों को मिला कर इन गाँवों की संख्या 150 के आसपास होती थी। स्पष्ट है कि जब कोसी प्रोजेक्ट के मुख्य प्रशासक अब्बास साहब खुद अपनी पीठ थपथपा रहे थे तब उनके सामने तटबन्धों की सलामती का मसला ज्यादा अहम था बनिस्बत लोगों की जान-माल की हिफाजत के और जिन तटबन्धों को वह परीक्षा में पास होने का प्रमाण पत्र दे रहे थे, बकौल ललित नारायण मिश्र, वह तटबन्ध पाँच जगहों पर फेल हो चुके थे। तटबन्धों के अन्दर लगी हुई 60 प्रतिशत खेती भी बह गई थी। हजारों की तादाद में जानवर मारे गये और सैकड़ों की तादाद में लाशें तैरती देखी गईं।

राज्यपाल की तरफ से हालात की जानकारी लेने के लिए उनके दो सलाहकारों, एम॰ एस॰ राव और डी॰ बी॰ आनन्द को हवाई सर्वेक्षण के लिए भेजा गया और 10 अक्टूबर 1968 को पटना में तत्कालीन गृह मंत्री यशवंत राव चव्हाण की अध्यक्षता में एक पार्लियामेन्टरी सलाहकार समिति की बैठक निर्धारित की गई जिसमें यह कहा गया कि राज्य सरकार इस अप्रत्याशित बाढ़ के मद्देनजर राहत और पुनर्वास के काम को सर्वोच्च प्राथमिकता दे। इसके अलावा तटबन्ध टूटने की जाँच किसी वरिष्ठ अधिकारी से करवाई जाये और केन्द्र सरकार राहत कार्य चलाने के लिए 10 करोड़ रुपयों की व्यवस्था करे। यहाँ यह बता देना जरूरी है कि इस बाढ़ के समय राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू था और कोई लोकप्रिय सरकार नहीं थी। यही वजह थी कि इस मसले पर विधान सभा या विधान परिषद में कोई बहस नहीं हुई।

केन्द्रीय सिंचाई मंत्री डॉ. के॰ एल॰ राव ने बिहार के इस बाढ़ क्षेत्र का हवाई दौरा 11 अक्टूबर को किया और सुझाव दिया कि (1) कमला-बलान तटबन्ध को पश्चिमी कोसी तटबन्ध से जोड़ दिया जाय, (2) तटबन्धों के कन्ट्री-साइड वाले हिस्से पर 3 मीटर चौड़ी एक सर्विस सड़क बनाई जाय जिससे निरीक्षण में सुविधा हो सके, (3) तटबन्धों पर हमेशा नजर रखी जाय और जहाँ जरूरी हो उन्हें ऊँचा और मजबूत किया जाय, (4) निर्मली के नीचे पश्चिमी कोसी तटबन्ध पर जाने के लिये कोई रास्ता नहीं है, इसका निर्माण किया जाय, (5) तटबन्धों के बीच रह रहे लोगों को वहाँ से हटाया जाय, (6) जल्दी एक ड्रेजर की व्यवस्था की जाये और (7) निर्मली के नीचे पश्चिमी कोसी तटबन्ध पर जाने के लिए कमला-बलान पर एक पुल बनाया जाय।

कोसी योजना में पुनर्वास का काम बड़ी मंथर गति से चल रहा था और उसमें भी बहुत से परिवार पुनर्वास में जाकर वापस लौट आये थे। ऐसे लोगों की हालत अब सांप-छछूंदर की थी। घर छोड़ कर पुनर्वास में गये और वह रास नहीं आया तो फिर गाँव में लौटे जहाँ उन पर तटबन्धों की वजह से कोसी की सरकारी मार पड़ी और सरकारी चीजें मान्यता प्राप्त होती हैं। मगर दुर्योग और विपत्ति के समय सरकार बड़ी विनम्र होती है। उसी विनम्रता में सरकार ने तटबन्ध टूटने की जिम्मेवारी खालिस लखनवी अन्दाज में अदना से चूहों और लोमड़ियों के नाम कर दी।

डॉ. राव की पहल पर केन्द्रीय जल आयोग के चीफ इंजीनियर (बाढ़ नियंत्रण), पी॰ एन॰ कुमरा ने 12 और 13 अक्टूबर 1968 को जमालपुर जाकर तटबन्ध टूटने की जाँच की। वह बराज पर भी गये और उन्होंने करीबन सारे तटबन्ध का निरीक्षण किया। उनका कहना था कि, ‘वहाँ बहुत सी लोमड़ियों की मांदें थी। चूहों के बिल भी वहाँ थे। लोमड़ियों की मांदें बड़ी थीं। तटबन्ध पर ढेले-पत्थर भी थे जिनसे पता चलता है कि निर्माण के समय उन पर अच्छी तरह दुरमुस नहीं किया गया था। न तो कहीं तटबन्धों के ऊपर होकर पानी बहा और न ही तटबन्धों की नींव में कोई खराबी थी क्योंकि जहाँ-जहाँ तटबन्ध टूटे हैं वहाँ की धरती बहुत अच्छी हालत में थी। तटबन्ध अपने अन्दर से होने वाले रिसाव के कारण टूटा है। स्थानीय लोगों का भी कहना है कि जब पानी का लेवल बहुत ऊँचा उठ गया तब यह पानी तटबन्ध की कन्ट्री-साइड में लोमड़ियों की मांदों से होकर बहने लगा। तब तटबन्ध बैठ गया और टूट गया।’ कुमरा ने अपनी रिपोर्ट में यह भी लिखा कि अक्टूबर के महीने में बाढ़ की कोई उम्मीद नहीं करता है। इसलिए तटबन्ध पर नजर रखने का काम थोड़ा ढीला था। 6 अक्टूबर 1968 की सुबह जब रिसाव शुरू हुआ तब वहाँ नियुक्त असिस्टेन्ट इंजीनियर मौजूद नहीं था। जो ओवरसियर वहाँ के प्रभारी थे वह भी छुट्टी पर गये हुये थे। पानी का लेवल एकाएक बड़ी तेजी से बढ़ा और देखते-देखते तटबन्ध टूट गया। तटबन्धों के निर्माण के बाद अपने तरह की यह पहली घटना थी। इन सभी कारणों से हालात बिगड़ गये और शीघ्र ही तटबन्धों से होने वाला रिसाव कटाव में बदल गया। उधर बिहार के जल संसाधन विभाग के भूतपूर्व चीफ इंजीनियर पी॰ एन॰ त्रिवेदी का कहना है कि ‘‘...वुफमरा ने यह कैसे लिख दिया कि न तो तटबन्धों के ऊपर से होकर पानी बहा और न ही तटबन्धों की नींव में कोई खराबी थी। मैंने खुद नाव पर बैठ कर कई बार वह गड्ढे पार किये थे जहाँ तटबन्ध टूटा था। यह स्थान तब मेरे कार्य क्षेत्र में आता था।’’ सच चाहे जो भी रहा हो, इतना जरूर है कि कुमरा की रिपोर्ट की जानकारी के॰ एन॰ लाल और पी॰ एन॰ त्रिवेदी तक को नहीं थी। इसके अलावा तटबन्ध पानी के रिसाव के कारण टूटा या ऊपर से पानी बह जाने के कारण, मतभेद इस पर भी था। सबसे आश्चर्यजनक बात थी कि स्थानीय लोगों ने रात के अंधेरे में लोमड़ियों की मांदों और चूहों के बिलों से रिसते हुए पानी को देखा। कुमरा को रिपोर्ट लिखते समय यह क्यों पता नहीं था कि तटबन्ध 1963 में डलवा में टूट चुका था और कुनौली में सिर्फ एक साल पहले उस तरह की घटना होते-होते बची? इण्डियन नेशन-पटना (दि॰ 13 अक्टूबर 1968) में ‘कोसी का पानी तटबन्ध के ऊपर से बहा’ शीर्षक से छपे एक लेख में केशव कुमार ने यह शिकायत की कि, ‘यह बुनियादी तथ्य कि पहली बार कोसी का पानी 24 फुट ऊँचे तटबन्ध के ऊपर से दो स्थानों पर बहा, ऐसा लगता है, जान बूझ कर छिपाया जा रहा है।’

कुछ कठिनाई बीरपुर बराज पर भी 5 अक्टूबर को देखने में आई थी मगर इसके पहले कि वहाँ कोई नुकसान होता, स्थिति पर काबू पा लिया गया। पूर्वी तटबन्ध पर 19 कि.मि., 63 से 65 कि.मी., 92 से 96 किमी. तथा 105 किलोमीटर पर पानी का जबर्दस्त दबाव था मगर भगवान की दया से कहीं भी कोई अप्रिय घटना नहीं हुई।

बिहार के साथ-साथ इस साल पश्चिम बंगाल, असम और उड़ीसा में भी बाढ़ से भारी तबाही हुई थी। कुमरा को जमालपुर भेज कर डॉ. के॰ एल॰ राव खुद एक सेमिनार में भाग लेने के लिए अमेरिका चले गये। प्रशासनिक, तकनीकी और राजनैतिक क्षेत्रों में इस संवेदनहीनता का जिक्र करते हुये एच॰ एन॰ मुखर्जी ने लोकसभा में अपना विक्षोभ जताते हुये कहा था कि, ‘‘ दूसरे स्तर पर, मेरे सम्मानित मित्र और मंत्री डॉ. के॰ एल॰ राव, जो खुद भी एक इंजीनियर हैं, इस महाप्रलय के तुरन्त बाद एक सेमिनार में भाग लेने अमेरिका चले गये। मुझे यह कहते हुये बहुत दुःख होता है कि जीवन के इस पड़ाव पर अर्जित किया हुआ उनका ज्ञान हमारे देश के लिए बहुत ज्यादा फायदेमंद नहीं होने वाला है।’’

कुमरा की जाँच रिपोर्ट से लगता है कि उन्होंने कारण पहले खोज लिया था, निरीक्षण के लिए वह जमालपुर बाद में पहुँचे। तटबन्ध जहाँ कहीं भी टूटता है वहाँ से नींव का पता तक नहीं लगता है। यह नामुमकिन है कि 25,000 क्यूमेक के डिस्चार्ज पर पानी बड़ी शान्ति और सुव्यवस्थित तरीके से तटबन्ध से होकर गुजरा हो। नामुमकिन यह भी है कि जिस 12 अक्टूबर को कुमरा जमालपुर पहुँचे, उस दिन नदी वहाँ सूख गई हो। यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि जिस जगह तटबन्ध निर्माण का काम दस साल पहले खत्म हो गया हो वहाँ कुमरा को ऐसे ढेले-पत्थर मिले जिनको देख कर उन्हें लगा कि ‘निर्माण के समय उन पर अच्छी तरह से दुरमुस नहीं किया गया था।’ उनके सामने निश्चित रूप से यह लक्ष्य रहा होगा कि उनकी जाँच से तटबन्धों के प्रति लोगों में किसी भी प्रकार के उत्साह की कमी न आये और इसके लिए ‘बेवजह’ किसी इंजीनियर को परेशानी में न डाला जाय। यह जरूर सच है कि बाद में एक असिस्टेन्ट इंजीनियर और दो ओवरसियरों को वहाँ निलम्बित किया गया। उन्हें यह भी मालूम रहा होगा कि उनकी रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं होगी और ‘लोकहित’ में उसे गोपनीय करार दे दिया जायेगा। वैसे भी केन्द्रीय जल आयोग और जल संसाधन विभाग गोपनीयता के दुर्भेद्य किले हैं। बाघिन को खूंटे से बांध कर दुहना आसान है मगर इन संस्थानों से खास आदमी भी कोई रिपोर्ट नहीं निकाल सकता तब फिर आम आदमी किस खेत की मूली है?

के.एन. लालके.एन. लालइस पूरे मसले की गूंज लोकसभा में काफी समय तक सुनाई पड़ी। डॉ. सुशीला नैय्यर के एक सवाल के जवाब में केन्द्रीय उप-सिंचाई मंत्री सिद्धेश्वर प्रसाद ने बताया कि, ‘‘ राज्य सरकार ने दो ओवरसियरों और वर्क-चार्ज कर्मियों को निलम्बित कर दिया है और उनके ऊपर कर्तव्यहीनता के लिए विभागीय कार्यवाही की जा रही है। राज्य सरकार द्वारा भी इस पूरे प्रकरण की जाँच की जा रही है।’’ सिद्धेश्वर प्रसाद के इस उत्तर से सांसद कामेश्वर सिंह संतुष्ट नहीं थे। उनका कहना था कि, ‘कोसी में जो बाढ़ आई उसमें एक नई थ्योरी बताई गई कि चूहों ने सूराख कर दिये थे। मेरा कहना है कि चूहों के सूराख नहीं थे बल्कि सरकार की लापरवाही थी। छोटे-मोटे चूहों को, अर्थात ओवरसियर्स वगैरह को तो सरकार ने सस्पेण्ड कर दिया लेकिन जो मोटे चूहे थे, जो बड़े अधिकारी हैं, जो वाकई पैसा खाते हैं, उनके खिलाफ कोई ऐक्शन अभी तक नहीं लिया गया।’’ उधर सरकार द्वारा कोई त्वरित कार्यवाही न किये जाने की सफाई देते हुये सिद्धेश्वर प्रसाद ने सांसद गुणानन्द ठाकुर को बताया कि, ‘‘तटबन्ध के बीच बसे व्यक्तियों के साथ, विशेषकर रात को जबकि नदी का पानी चढ़ रहा था, संचार सम्बन्ध स्थापित करना स्वभावतः कठिन था। बाढ़ का पानी एकदम चढ़ गया था, इस बात का पता इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि बराहक्षेत्र पर जो निस्सार 4.10.1968 को 12 बजे दोपहर 3,25,000 क्यूसेक (9210 क्यूमेक) था वह 5.10.1968 को प्रातः एक बजे बढ़कर 9,13,000 क्यूसेक (25,853 क्यूमेक) हो गया था।’’

गुणानन्द ठाकुर का जो गुस्सा सरकार के ऊपर था वह थमने का नाम ही नहीं लेता था। उनका कहना था कि, ‘‘शुरू से हम लोग कोसी में रह गये और डॉ. राव की कृपा से सदा के लिए कोसी पीड़ित बना दिये गये। जो कोसी योजना बनी, उसके लिए तो हम सरकार को बधाई देते हैं। लेकिन जो सरकारी आंकड़े हैं, सरकार ने जो कोसी तटबन्ध के भीतर 300 गाँव के साढ़े तीन लाख लोगों को सदा के लिए उनकी किस्मत पर छोड़ दिया है उसकी हमें बड़ी चिन्ता है। किसी भी जनतांत्रिक सरकार को इसके लिए शर्म और लज्जा आनी चाहिए।’’ ठाकुर का यह आक्रोश वाजिब था क्योंकि वह खुद तटबन्धों के बीच सुपौल जिले के बनैनियाँ गाँव के रहने वाले थे। कोसी योजना में पुनर्वास का काम बड़ी मंथर गति से चल रहा था और उसमें भी बहुत से परिवार पुनर्वास में जाकर वापस लौट आये थे। ऐसे लोगों की हालत अब सांप-छछूंदर की थी। घर छोड़ कर पुनर्वास में गये और वह रास नहीं आया तो फिर गाँव में लौटे जहाँ उन पर तटबन्धों की वजह से कोसी की सरकारी मार पड़ी और सरकारी चीजें मान्यता प्राप्त होती हैं। मगर दुर्योग और विपत्ति के समय सरकार बड़ी विनम्र होती है। उसी विनम्रता में सरकार ने तटबन्ध टूटने की जिम्मेवारी खालिस लखनवी अन्दाज में अदना से चूहों और लोमड़ियों के नाम कर दी। कुमरा की रिपोर्ट पर भी गुणानन्द ठाकुर जम कर बरसे, ‘‘ ...बहुत से संसद सदस्य उस इलाके में घूमें हैं और देखा है कि कोसी से बर्बादी हुई लेकिन कुमरा साहब जब तटबन्ध टूट गया उसके पांच दिन बाद वह रिपोर्ट करते हैं। कहते हैं कि सियार के छेद से सरकार की यह योजना फेल कर गई, पांच जगह। जरा बहाना बाजी देखिये। दरभंगा जिले की लाखों की पापुलेशन खत्म हो गई, हजारों एकड़ फ सल बर्बाद हो गई। पांच जगह सियार के छेद से तटबन्ध का यह हाल हो गया।’’ गुणानन्द ठाकुर ने डॉ. के॰ एल॰ राव को भी नहीं बख्शा। जैसा कि हम जानते हैं कि तटबन्ध बनने के पहले कोसी अनेक धाराओं से होकर बहती थी। उस समय परेशानी यह थी कि नदी की मुख्य धारा कौन सी धार बनेगी इसका अंदाजा नहीं हो पाता था। मगर इतना जरूर होता था कि बहुत सी धाराओं में बहने के कारण नदी की मारक शक्ति घट जाती थी। तटबन्धों के निर्माण ने नदी को वह ताकत दे दी थी। ठाकुर ने आगे कहा कि, ‘‘ ...1954 में 8 लाख 15 हजार क्यूसेक (23,095 क्यूसेक) तक बाढ़ का पानी आ गया था और अबकी बार 1968 में जो बाढ़ आई उसमें 9 लाख 13 हजार क्यूसेक (25,853 क्यूमेक) पानी आ गया। आप स्वयं अन्दाजा कीजिये कि उस 8 लाख 15 हजार क्यूसेक पानी में जबकि तटबन्ध नहीं बना था पूरा दरभंगा और सहरसा जिला बर्बाद हुआ था। अब जबकि 9 लाख 13 हजार क्यूसेक पानी दस मील (16 किलोमीटर) के अन्दर आ गया है तो उसके परिणाम स्वरूप वहाँ के बसने वाले लोगों की कैसी दुर्दशा हुई होगी? क्या गारन्टी है कि वहाँ पर 10 लाख क्यूसेक (31,000 क्यूमेक) पानी नहीं आ सकता है? क्या राव साहब ऐसी गारन्टी दे सकते हैं?’’

इस पूरी बहस में एक बहुत ही सहानुभूति पूर्ण टिप्पणी की थी सांसद जगन्नाथ राव जोशी ने। उन्होंनें कहा था कि, ‘‘... बिहार की जनता आज बहुत तड़पती है। वहाँ पर बार-बार यही कहा जाता है कि कोसी हमारे प्रदेश में बहती है यदि वह अन्य किसी प्रदेश में बहती होती तो इसके संकटों के पूर्व ही इसका कोई इंतजाम हो गया होता। बिहार की जनता के मन में जो यह भाव है, इस भाव को निकालने की कोशिश यह सरकार करे-यही मैं चाहता हूँ।”

1969 में टूटे हुये पश्चिमी तटबन्ध को बांध दिया गया। राज्य सरकार ने जो जांच बैठाई थी, उसका कोई पता या हवाला नहीं मिलता। इतना जरूर था कि घोंघपुर के नीचे से जो कोसी नदी का पानी पीछे की ओर मुड़ कर महिषी, सिंघिया, घनश्यामपुर और कुशेश्वर स्थान प्रखण्ड के गाँवों को तबाह करता था, उसके खिलाफ लोगों ने आवाजें उठाईं। सरकार ने T आकार का एक लम्बा स्पर बनाकर कोसी के वापसी पानी का रास्ता बन्द कर दिया। इससे कोसी का पानी तो रुक गया मगर कमला-बलान का जो पानी अपने आप बाढ़ खत्म होने पर कोसी में चला जाता था उसका रास्ता भी बन्द हो गया। जो लोग पहले कोसी के पानी से 4 महीनें परेशान रहते थे वह अब कमला-बलान के पानी से लगभग पूरे साल तबाह होने लगे। इस विषय पर हम आगे भी चर्चा करेंगे।

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