जलवायु परिवर्तनः रोगवाहक जन्य रोगों के विशेष संदर्भ में मानव स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव

जलवायु परिवर्तनः रोगवाहक जन्य रोगों के विशेष संदर्भ में मानव स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव
जलवायु परिवर्तनः रोगवाहक जन्य रोगों के विशेष संदर्भ में मानव स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव

पृथ्वी पर प्राणियों का अस्तित्व तथा उनका सतत विकास वातावरण के साथ उनके सकारात्मक सामंजस्य का द्योतक है। परन्तु विगत कुछ वर्षों से गरमाती धरती, तेजी से महामारियों एवं विलुप्त होती प्रजातियों से यह सम्बन्ध  हिलता सा दिख रहा है। फरवरी 2007 में पेरिस में कुल 130 देशों के 2500 वैज्ञानिकों के दल के साथ जलवायु परिवर्तन पर निगरानी के लिए गठित अंतर शासकीय पैनल (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेन्ज) (IPCC) की ड्राफ्ट रिपोर्ट द्वारा प्राप्त आंकड़े चौकाने वाले हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि वर्ष 2100 तक तापमान में 1.4 से 5.8°C तक की वृद्धि के साथ समुद्र के स्तरों में 18-59 से.मी. तक की वृद्धि की संभावना है जिसके चलते तटवर्ती क्षेत्रों में जल प्लावन के कारण वर्ष 2050 तक 200 मिलियन लोग अपनी जगह से अलग हो जाएंगे (चित्र 1)।

मानसून अपनी चाल बदल रहा है तथा कहीं बाढ़, कहीं सूखा, स्पष्ट दिखाई दे रहा है। चक्रवात, दावानल, अत्यधिक वर्षा, सूखा, भुखमरी आदि के साथ डेंगी, चिकनगुन्या, मलेरिया आदि रोगों की महामारियों का खतरा बढ़ गया है तथा नए क्षेत्रों में इसके चपेट में आने की आशंका बढ़ गई है। भूमण्डलीय तापन ने पृथ्वी पर जीवन में परिवर्तन लाना शुरू कर दिया है तथा वैज्ञानिकों का मत है कि वर्ष 1950 के पश्चात् हुई वार्मिंग (तापन) के लिए मानव गतिविधियां विशेष रूप से जीवश्म ईंधन का प्रयोग जिम्मेदार है। प्रस्तुत लेख में भूमण्डलीय तापन से सम्बद्ध विभिन्न पहलुओं तथा रोगवाहकजन्य रोगों के विशेष संदर्भ में मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इसके प्रभावों तथा बचाव पर चर्चा की गई है, ताकि समय रहते मानव जाति अपने को इस भयावह संकट से उबार पाए।

जलवायु परिवर्तन संबद्ध अप्रत्याशित मौसमी घटनाएं

मौसम वैज्ञानिक एवं पर्यावरणविद् विगत कई वर्षों से पूरे विश्व में तेजी से बदलती पर्यावरणीय घटनाओं एवं मौसम परिवर्तन से काफी चिंतित हैं। पिछले दशक के दौरान कई अप्रत्याशित मौसमी घटनाएं सुनने में आईं जिसमें 26 दिसम्बर, 2004 को हिन्द महासागर में इंडोनेशिया के समीप इस क्षेत्र के लिए अपेक्षाकृत अति असामान्य सुनामी जैसी प्रलयंकारी घटना के पश्चात् कश्मीर, उत्तरांचल एवं अन्य पर्वतीय स्थानों पर आशातीत बर्फबारी, तिब्बत में पारचू झील के हिम खण्डों के पिघलने से हिमाचल में आई बाढ़, अमेरिका के न्यू आर्लीन्स में केटरीना चक्रवात तथा उसके पश्चात् गुजरात, मुम्बई एवं राजस्थान जैसे मरुस्थलीय क्षेत्रों में हुई अभूतपूर्व वर्षा तथा लेह में बादल फटने जैसी घटनाओं के फलस्वरूप आई बाढ़ एवं जल भराव के कारण जन जीवन ठप्प पड़ जाने के साथ करोड़ों रुपये की आर्थिक क्षति एवं जान-माल के नुकसान के साथ स्वास्थ्य खतरों में वृद्धि हो गई।

भूमण्डलीय तापन एवं जलवायु परिवर्तन

पिछले 1000 वर्षों से पृथ्वी का वातावरण एवं सागर का औसत तापमान आपेक्षिक रूप से स्थिर रहा है, परन्तु 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में वैज्ञानिकों ने भूमण्डलीय तापन पर बल देना शुरू कर दिया। धरती के बढ़ते तापमान एवं जलवायु परिवर्तन सम्बद्ध अध्ययन बड़े चिंताजनक हैं। वर्ल्ड वाच इंस्टीट्यूट के अनुसार धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। इससे ध्रुवों एवं हिमशिखरों पर जमी बर्फ पिघलने लगी है। धरती की जलवायु को संतुलित रखने के लिए महासागरों की अहम् भूमिका होती है. इनमें भी परिवर्तन आ रहा है। पिछले सौ वर्षों में समुद्र के जल स्तर में धीरे-धीरे 18 से.मी. तक की वृद्धि हुई है। समुद्र के स्तरों में 1 मीटर की वृद्धि से बांग्लादेश का 17% हिस्सा जलमग्न हो सकता है। विश्व की करीब 40% आबादी तटवर्ती क्षेत्रों के 6 कि.मी. की परिधि में निवास करती है। समुद्र के स्तरों में वृद्धि से निचले क्षेत्रों में स्थित नगरों एवं शहरों को खतरा उत्पन्न हो सकता है। लोगों के विस्थापन से स्वास्थ्य समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं।

मौसम परिवर्तन एवं ग्रीन हाउस प्रभाव

स्वीडेन के वैज्ञानिक स्वान्टे अरहीनियस ने वर्ष 1896 में वर्णन किया कि वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड के दो गुना बढ़ जाने से पृथ्वी के तापमान में 5-6°C (सेल्सियस) तक की वृद्धि हो सकती है। इस प्रभाव के अंतर्गत ग्रीन हाउस गैसें सूरज की गर्मी को शोषित कर लेती हैं, परन्तु पृथ्वी की गर्मी के कुछ भाग को बाहर जाने से रोकती हैं। तापमान में वृद्धि के साथ वैज्ञानिकों द्वारा वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों (GHGs) जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोफ्लोरोकार्बन, सल्फर हेक्ज़ाफ्लोराइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरोकार्बन, एरोसॉल, जलवाष्प, ओज़ोन, आदि में वृद्धि देखी गई है। ये वातावरण में ग्लास (शीशे) का कार्य करती हैं जो पृथ्वी के विकिरण के कुछ भाग को अन्तरिक्ष में जाने से रोकती हैं, जबकि सूर्य के विकिरण को पृथ्वी तक पहुंचने में कोई बाधा नहीं उत्पन्न करती हैं। जीवाश्म ईंधन (तेल, कोयला, प्राकृतिक गैसें) का उत्सर्जन एवं निर्वनीकरण वातावरण में CO: की वृद्धि का प्रमुख कारण हैं (पेड़ CO: अवशोषित करने का कार्य करते हैं)। औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् CO2 के स्तरों में 29 प्रतिशत की वृद्धि (280ppm से 368 ppm) हुई है। औसत भूमण्डलीय तापमान एवं CO₂ के स्तरों के बीच सीधा सम्बन्ध है। यह CO₂ में वृद्धि पृथ्वी के वनस्पति आच्छादित विस्तार में आई कमी (निर्वनीकरण) के साथ भी सम्बद्ध रही है, जिसके परिणामस्वरूप CO अवशोषण में कमी होती है। मानव निर्मित अथवा प्राकृतिक सिंचित भूमि के कारण मीथेन की मात्रा में वर्ष 1750 की तुलना में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। उर्वरकों के अन्धाधुंध प्रयोग के फलस्वरूप सघन खेती के कारण वातावरण में नाइट्रस ऑक्साइड की मात्रा में 16 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। रेफीरिजरेशन एवं एअर कंडीशनर के बढ़ते प्रयोग की हाइड्रोफ्लोरोकार्बन, परफ्लोराकार्बन तथा सल्फर हेक्जाफ्लोराइड, हेलोकार्बन के साथ सम्बद्धता पाई गई है, जो सब बढ़ते तापमान एवं बिगड़ते पर्यावरण के लिए जिम्मेदार पाई गई हैं।

जलवायु परिवर्तन, क्योटो प्रोटोकॉल तथा अन्य अंतरराष्ट्रीय पहल

दिसम्बर, 1990 में संयुक्त राष्ट्र महासभा (यू.एन. जनरल एसेम्बली) में जलवायु परिवर्तन पर चिन्ता व्यक्त की गई तथा वर्ष 1992 में रियो सम्मेलन में यू.एन. फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेन्ज (UNFCCC) जो ग्लोबल वार्मिंग पर एक इंटरवेंशन ट्रीटी है, की शुरुआत हुई, जिसमें समस्या की गंभीरता को ध्यान में रखकर ग्रीन हाउस गैसों पर नियंत्रण रखने की चर्चा हुई तथा 21 मार्च, 1994 से इसने कार्य करना शुरू किया कि विकसित देशों द्वारा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए नीतियां तैयार की जाएं। क्योटो प्रोटोकोल इसका संशोधित रूप है। वर्ष 1997 में क्योटो (जापान) में विश्व जलवायु सम्मेलन हुआ। क्योटो प्रोटोकोल के अनुसार विकसित देश ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 1990 के स्तरों की तुलना में वर्ष 2008-2012 के बीच प्रतिवर्ष 5.2 प्रतिशत की दर से कटौती करेंगे। यह 16 फरवरी, 2005 से लागू हो गया।

बाली (इंडोनेशिया) में सम्पन्न जलवायु सम्मेलन में शामिल 110 देशों द्वारा 2012 के पश्चात् की नीतियों के लिए रोडमैप तैयार करने के लिए प्रयास किए गए तथा पिछले दिनों कोपेनहेगन (डेनमार्क) में जलवायु परिवर्तन पर सम्पन्न सम्मेलन (COP15) के दौरान क्योटो प्रोटोकॉल जो 2012 में समाप्त हो रहा है के पश्चात् की नीतियों हेतु फ्रेमवर्क तैयार करने पर चर्चा हुई।

जलवायु परिवर्तन पर अंतरशासकीय पैनल (IPCC)

संभावित वैश्विक जलवायु परिवर्तन की समस्या की गंभीरता को ध्यान में रखकर विश्व मौसम विज्ञानी संगठन (WMO) तथा संयुक्त राष्ट्र पर्यावरणी कार्यक्रम (UNEP) द्वारा वर्ष 1988 में जलवायु परिवर्तन पर अन्तर्शाशकीय पैनल (IPCC) की स्थापना की गई। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) का मुख्य कार्य जलवायु सम्बद्ध परिवर्तनों एवं सम्बद्ध प्रभावों पर नजर बनाए रखकर नियमित अंतराल पर जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी सूचना का आकलन करना है।

जलवायु परिवर्तन तथा ENSO/EL-Nino चक्र

जलवायु रूप से महत्त्वपूर्ण थर्मोहलाइन सर्कुलेशन (THC) अटलांटिक महासागर में कन्वेअर (वाहक) जैसा परिसंचरण है, जहां सतह के पास की धार (बहाव) उप-उष्णकटिबन्ध (सब-ट्रापिक्स) से गरम खारा-पानी उच्च उत्तरी लैटीट्यूड पर लाती है। यह परिसंचरण जलवायु को प्रभावित करता है। ENSO (El-nino Southern Oscillation) एक जटिल जलवायु सम्बद्ध घटना है। इसके अंतर्गत प्रशान्त महासागर एवं वातावरण में आए परिवर्तन शामिल हैं तथा यह प्रत्येक 2-7 वर्ष के बीच घटित होती है।

समुद्री परिसंचरण में आए परिवर्तनों के फलस्वरूप पूर्वी प्रशान्त महासागर में समुद्र सतही तापमान (SST) के गर्म [(El-nino) एलनीनो अथवा गर्मी की घटना)] तथा ठंडा होने [(La-nina) ला-नीना अथवा शीतल घटना) का चक्र चलता रहता है। ENSO के फलस्वरूप विश्व के कुछ भौगोलिक क्षेत्रों में वर्षा एवं तापमान में विविधता आ जाती है। जो गर्म घटना (El-nino) के दौरान औसतम कम वर्षा तथा ठंडी प्रावस्था (La-nina) के दौरान अधिक वर्षा के लिए जिम्मेदार है (चित्र 2)।

अत्यधिक सूखा अथवा अधिक वर्षा का मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। जलवायु परिवर्तन के कारण ENSO चक्र की आवृत्ति एवं तीव्रता प्रभावित हो सकती है।

जलवायु परिवर्तन के मानव स्वास्थ्य पर विश्वव्यापी प्रभाव

ग्लोबल वार्मिंग के कारण औसत तापमान में निरन्तर होती वृद्धि के फलस्वरूप न केवल तापमान अथवा गर्मी में वृद्धि होने की आशंका है बल्कि इसके पूरे मौसम पर विपरीत प्रभाव पड़ सकते हैं तथा बेमौसम अप्रत्याशित घटनाएं जैसे-लू, बाढ़, सूखा एवं आंधी-तूफान, चक्रवात, आदि की संभावनाएं ज्यादा उत्पन्न हो सकती हैं जिनके मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वर्ष 1960 के पश्चात् 39 नए रोग उभर कर आए हैं जिनका सम्बन्ध जलवायु परिवर्तन से हो सकता है तथा अनुमान है कि लगभग इसके कारण मृत्यु हो जाती है।

1,50,000 लोगों की अत्यधिक गर्मी (लू): बढ़ते तापमान के फलस्वरूप गर्मी एवं लू की घटनाओं में वृद्धि होने की संभावना बढ़ जाती है, जो कम तैयार क्षेत्रों को ज्यादा प्रभावित करती है। विगत वर्षों में यूरोप में 150 वर्षों की सर्वाधिक गर्मी की चपेट के कारण लगभग 25000 लोगों की मृत्यु हो गई तथा इण्डोनेशिया एवं बोर्नियो में मीलों जंगल जल कर नष्ट हो गए।

बाढ़ः ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर्स के पिघलने से असामयिक बाढ़ एवं जल भराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। बाढ़ के फलस्वरूप पीने के पानी का संदूषण तथा संक्रामक रोगों जैसे अतिसार, हैजा तथा श्वसनी रोगों एवं आबादी के एक स्थान पर एकत्रित होने से और गंभीर स्वास्थ समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं।

सूखाः गर्मी सम्बद्ध सूखे के कारण फसलों की क्षति से खाद्यों में कमीं एवं कुपोषण जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। वातावरण के लगातार गर्म होते जाने से मौसम सम्बंधी परिवर्तनों के फलस्वरूप कई हिस्से सूखे की चपेट में आ सकते हैं। हानिकारक कीटों का प्रकोप बढ़ सकता है तथा साथ में भुखमरी की विश्वव्यापी समस्या से जूझना पड़ सकता है।

मच्छर जनक रोगों पर प्रभाव

पृथ्वी पर मच्छरों की उपस्थिति अत्यन्त प्राचीन काल से विद्यमान है तथा स्थाई रूप से बर्फीले क्षेत्रों को छोड़कर विश्व के प्रत्येक क्षेत्र में इनकी उपस्थिति पाई जाती है। पूरे विश्व में मच्छरों की कुल 3500 प्रजातियां हैं, जिनका प्रजनन करने का तरीका, रक्तपान व्यवहार तथा जैविकी आचरण विभिन्न होता है। मच्छर का जीवन चक्र तापमान, आर्द्रता तथा वर्षा के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होता है, तथा जलवायु परिवर्तन के मद्देनज़र इनकी जैविकी में आया परिवर्तन मच्छरों की जीवन क्षमता तथा इनके द्वारा संचरित रोगों को प्रभावित कर सकता है।

तापमान में वृद्धि (औसतन 20-27°C तापमान पर) के साथ परजीवी की बाह्य उद्भवन अवधि ((EIP) (संक्रमित मच्छर की संक्रामक बनने तक की अवधि)] आश्चर्यजनक रूप से कम हो जाती है तथा मच्छर अतिशीघ्र संक्रामक हो जाते हैं। उच्च स्थलों (हाईलैण्ड) पर तापमान में मामूली वृद्धि के फलस्वरूप संचरण अवधि में आई वृद्धि के कारण मलेरिया तथा डेंगी की घटनाओं में वृद्धि हो सकती है। अस्थाई मलेरिया वाले क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव ज्यादा गंभीर हो सकते हैं।

जल के तापमान में वृद्धि के परिणामस्वरूप मच्छरों के डिंभकों को परिपक्व होने कम समय लगता है तथा संचरण अवधि के दौरान मच्छरों के जीवन चक्र के कई दौर पूरे हो जाते हैं, तथा उनकी संख्या में अतिशय वृद्धि हो जाती है। गर्म जलवायु में मादा मच्छर रक्त को तेजी से पचा जाती हैं, जिससे रक्तपान की आवृत्ति में वृद्धि हो जाने से रोग की तीव्रता बढ़ सकती है।

जलवायु परिवर्तन एवं भूमण्डलीय तापन के फलस्वरूप मलेरिया मुक्त क्षेत्रों में फिर से मलेरिया होने तथा नए क्षेत्रों में इसके पहुंचने का खतरा बढ़ सकता है। IPCC के अनुसार जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप 1-3% और आबादी को मलेरिया का खतरा बढ़ जाएगा तथा मलेरिया संचरण का क्षेत्र 45% से बढ़ कर 60% तक हो जाएगा। यह वृद्धि विकासशील देशो में ज्यादा हो सकती है।

जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप ENSO चक्र में आए परिवर्तन एवं अत्यधिक सूखे (El-nino के दौरान) तथा अत्यधिक वर्षा (ला-नीना) का मच्छरों की आबादी पर सीधा प्रभाव पड़ता है। मलेरिया की कई महामारियों का सम्बन्ध प्रत्येक 5-8 वर्ष के दौरान ENSO चक्र के साथ जुड़ा पाया गया है। इनमें से प्रमुख हैंः पूर्व ब्रिटिश कालीन पंजाब, पाकिस्तान, श्री लंका, यूगांडा के उच्च स्थल, कोलम्बिया, पेरु, बोलिविया, इक्वेडोर, वेनुजुएला, रवान्डा आदि।

El-nino सम्बद्ध सूखे की स्थिति में नदियां सूखकर गड्ढों में परिवर्तित हो जाती हैं जो रोगवाहक मच्छरों के पनपने को बढ़ावा प्रदान करती हैं। साथ में पेय जल आपूर्ति में कमी के कारण लोगों में जल संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। घरों के भीतर, ऊपर तथा आस-पास जल संग्रह के बर्तनों जैसे टंकियों, हौदों, मटकों, आदि में वृद्धि हो जाती है जो मच्छरों के पनपने को मौका प्रदान करते हैं। सूखाग्रस्त स्थिति में लोगों के एक स्थान से दूसरे स्थान तक अपने मवेशियों के साथ पलायन के फलस्वरूप मानवः मवेशी अनुपात में उल्लेखनीय गिरावट आ जाती है, जिसके कारण पशुरागी (Zooprophylactic) मच्छर मानवों में रक्तपान (Antropophilly) शुरू कर देते हैं।

अत्यधिक वर्षा (La-nina), हिम नदों (ग्लेशियर्स) के पिघलने से नदी में आई बाढ़ जैसी स्थिति आदि के कारण मच्छरों के प्रजनन स्थलों में बढ़ोतरी हो जाती है, जो रोगवाहक जन्य रोगों को प्रभावित करती है। पहाड़ी तथा हाई लैण्ड (उच्च स्थल) क्षेत्रों में बढ़ते तापमान के कारण मच्छरों की उत्तरजीविता बढ़ जाती है जो रोग संचरण की समयावधि को बढ़ावा प्रदान करता है।

विगत कुछ वर्षों में पूर्वी अफ्रीका के उच्च स्थलों पर मलेरिया की वृद्धि की घटनाओं को भूमण्डलीय तापन सम्बद्ध जलवायु परिवर्तन के साथ जोड़ा गया है। भारत के दार्जिलिंग जिले के कुर्सियांग में वर्ष 2000 एवं 2004 के दौरान वार्षिक परजीवी सूचकांक में 2 से 7.8 तक की वृद्धि देखी गई।

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय मलेरिया अनुसंधान संस्थान द्वारा जलवायु परिवर्तन एवं मलेरिया पर सम्पन्न अध्ययनों में देखा गया कि जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखण्ड तथा पूर्वोत्तर क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रति ज्यादा संवदेनशील हैं तथा मलेरिया संचरण की खिड़की (ट्रांसमिशन विण्डो) का विस्तार 2-3 माह बढ़ सकता है। जबकि दक्षिण भारतीय राज्यों को इसका कम खतरा है तथा उड़ीसा, आंध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में इसमें गिरावट आ सकती है।

मलेरिया के अलावा डेंगी एवं चिकनगुन्या जैसे रोगवाहक जन्य रोग भी जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवदेनशील हैं, तथा हाल के वर्षों में इन दोनों रोगों की घटनाओं में वृद्धि देखी गई है। विगत 50 वर्षों में डेंगी की व्यापकता में 30 गुना वृद्धि हुई है। मलेशिया में डेंगी के मामले वर्ष 1973 में 1000 से बढ़कर वर्ष 2007 में 46000 तक पहुंच गए। दिल्ली में वर्ष 1996 में डेंगी के कुल 16,517 मामले प्रकाश में आए तथा 545 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। इस रोग के मामले भूटान तथा नेपाल जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में भी देखे गए हैं। विगत वर्षों में इनके अनेक प्रकोप देख गए।

डेंगी का रोगवाहक मच्छर एडीज इजिप्टाई मुख्यतः घरों के भीतर जल संग्रह के स्थलों जिसमें टायर, टंकियां, घड़े, ड्रम, बाल्टियां, गमले तथा कूलर आदि शामिल हैं, में प्रजनन करता है, जिनकी संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है क्योंकि लोग जल संकट के कारण जल संग्रह को विवश हैं। अध्ययनों में देखा गया है कि तापमान में 1-2°C तक की वृद्धि से विषाणु का रिप्लीकेशन तेज हो जाता है, जो रोग वृद्धि के लिए जिम्मेदार है (चित्र 3)।

हालांकि, जलवायु परिवर्तन के रोगवाहक मच्छरों एवं उनके द्वारा जनित रोगों पर गंभीर प्रभाव पड़ते हैं परन्तु फिर भी सतर्कता बरतकर तथा बेहतर स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणाली के विकास द्वारा इन पर काबू पाया जा सकता है। पूर्व चेतावनी प्रणाली के द्वारा आने वाली घटनाओं के लिए बेहतर तैयारी के द्वारा भी इन पर नियंत्रण रखा जा सकता है। जन जागरण की भी आवश्यकता है ताकि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करके भूमण्डलीय तापन को कम किया जा सके। पिछले कुछ वर्षों से अर्थ आवर के दौरान बिजली के उपकरण को 1 घंटे बन्द करना इसी कड़ी का एक हिस्सा है। भारत सरकार द्वारा भी वर्ष 2008 में जलवायु परिवर्तन पर पार पाने के लिए एक 8 सूत्रीय राष्ट्रीय ऐक्शन प्लान (कार्य योजना) तैयार किया गया है।

यद्यपि, प्रकृति पर मनुष्य का कोई वश नहीं, परन्तु जागरूकता एवं सतर्कता बरत कर प्राकृतिक आपदा सम्बद्ध समस्याओं को कुछ हद तक कम अवश्य किया जा सकता है। स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणाली तथा अंतर्विभागीय सहयोग को दृढ़ता प्रदान करके स्वास्थ्य समस्याओं पर भी नियंत्रण रखा जा सकता है। अगर समय रहते, इस विषय पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो मानव स्वयं अपने अस्तित्व के लिए धरती पर संघर्ष करता नजर आएगा।

डॉ रजनी कान्त, वैज्ञानिक डी', प्रकाशन एवं सूचना प्रभाग, परिषद मुख्यालय, नई दिल्ली
स्रोत - आई सी एम आर पत्रिका, जून 2011, प्रकाशन एवं सूचना प्रभाग, भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली-110 029

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Post By: Kesar Singh
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