जलवायु परिवर्तन और भारतीय कृषि

जलवायु परिवर्तन और भारतीय कृषि
जलवायु परिवर्तन और भारतीय कृषि

देश की आजादी के बाद, हमने जितनी भी उपलब्धियां हासिल कीं, उन सभी में देश को भुखमरी से आजादी दिलाना और खाद्य उत्पादन में देश को आत्मनिर्भर करना, हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि रही है। यह सब कुछ हमारे वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं के अथक प्रयास ही सम्भव हो सका है। सन् 1960-61 में हमारा खाद्य उत्पादन 82 मिलियन टन था जो आज 2013-14 में बढ़कर अपने रिकार्ड स्तर 264 मिलियन टन तक पहुंच गया है। बढ़ती हुई आबादी के बावजूद भी हमारी प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता बढ़ी है। आज भारत का विश्व में दलहन एवं तिलहन फसलों के उत्पादन में प्रथम, गेहूँ, चावल, एवं सब्जियों के उत्पादन में द्वितीय स्थान है।

लेकिन आज जलवायु परिवर्तन ने विश्व खाद्य सुरक्षा और जीवों के अस्तित्व पर एक बड़ा प्रश्न - चिन्ह खड़ा कर दिया है। भारतीय कृषि जिसे "मानसून का जुआ" कहा जाता है, वह भी इससे अछूती नहीं, अपितु अधिक संवेदनशील है। तापमान में वृद्धि एवं वर्षा के परिमाण में भिन्नता के फलस्वरूप इस सदी के अन्त तक फसलों के उत्पादन में 10 से 40 प्रतिशत तक की गिरावट संभव है (आई.पी.सी.सी., 2007 ) ।

पिछले कुछ दशकों से पृथ्वी के वातावरण की गैसीय संरचना महत्वपूर्ण परिवर्तन के दौर से गुजर रही है और काफी हद तक ऊर्जा, उद्योग व परिवहन क्षेत्रों से हो रहे अत्यधिक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन ने इस जलवायु परिवर्तन की गति को और तेजी प्रदान की है। कृषि विस्तार भी, बड़े पैमाने पर वनों की कटाई के साथ ही भूमि के उपयोग में तेजी से परिवर्तन और भूमि   प्रबन्धन के तरीकों में बड़ा बदलाव अनुभव कर रहा है। 30 सितम्बर 2013 को संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी समिति आई.पी.सी.सी. की रिपोर्ट के आधार पर वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि इंसानों के कारण ही धरती के तापमान में अत्यधिक बढोतरी हो रही है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग मनुष्यों के कार्यकलापों का नतीजा है। कार्यदल के सह अध्यक्ष किन दाहे ने कहा कि वैज्ञानिक आकलन से यह पता चलता है कि वातावरण और समुद्र गर्म हो गए हैं, वैश्विक स्तर पर समुद्र का जलस्तर बढा है और ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि हुई है। आई.पी.सी.सी ने अपनी रिपोर्ट में इस सदी के अंत तक समुद्र के जलस्तर में 10 से 32 इंच की वृद्धि का आकलन किया है जबकि इसने वर्ष 2007 की अपनी पूर्व रिपोर्ट में 7 से 23 इंच की वृद्धि की भविष्यवाणी की थी। शताब्दी के अंत तक दुनिया का औसत तापमान 0.3 से 4.8 डिग्री सेल्सियस बढ़ने का अनुमान लगाया गया है। यू एन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज के कार्यकारी सचिव क्रिस्टियानों फिंगुअर्स के अनुसार यह रिपोर्ट दुनिया के लिए एक अलार्म क्लॉक मूमेंट पैदा करती है। उन्होंने कहा कि यह हमें बताएगी कि जलवायु परिवर्तन के बारे में हम जो गया है। कुछ भी जानते थे, उसे दरअसल कम आंका गया है।

राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान के शोधकर्ताओं के जियोसाइंस जर्नल (जून, 2011 के अंक में प्रकाशित ) शोधपत्र के अनुसार ग्लेशियर का पिघलना आर्कटिक कार्बन को सोखना बहुत कम कर देगा। यह स्थिति  दुनिया के लिए बहुत घातक होगी चूंकि अकेले आर्कटिक महासागर और उसकी भूमि ही पूरी दुनिया का 25 फीसदी कार्बन सोखती है। शोध आधारित इस रिपोर्ट के अनुसार इस रफ्तार से बर्फ पिघलती रही तो अगले 40 सालों में आर्कटिक बर्फ रहित हो जाएगा।

चित्र 1
चित्र 1: वर्ष में आर्थिक क्षेत्रों से कुल मानवजनित जीएचजी उत्सर्जन (5002-770. /वर्ष) (स्रोत आईपीसीसी पांचवें आंकलन संश्लेषण की रिपोर्ट 2004)
चित्र 2: कृषि के क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, शमन और अनुकूलन का ढाँचा।
चित्र 2: कृषि के क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, शमन और अनुकूलन का ढाँचा।

मात्र कुछ दिन पूर्व ही नवम्बर 2014 में 'प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ अमेरिका' नामक पत्रिका में प्रकाशित शोधपत्र "रीसेंट क्लाइमेट एंड एयर पॉल्यूशन इम्पैक्ट ऑन इंडियन एग्रीकल्चर" (मौजूदा पर्यावरण और प्रदूषण का भारतीय कृषि पर प्रभाव) के अनुसार जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण का भारत के खाद्यानों पर बुरा असर पड़ रहा है। देश में बढ़ते प्रदूषित कोहरे (स्मॉग) के कारण फसलों की संभावित उपज आधी रह गयी है। वर्ष 2010 में जितनी फसल सम्भावित थी, वायु प्रदूषण के चलते उसकी पैदावार 50 प्रतिशत ही हुई। इस शोधपत्र में गत 30 वर्षों (सन् 1980 से 2010) में गेहूं और चावल की उपज का विश्लेषण किया गया है, जिसके आधार पर कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं और प्रमुख शोधकर्ता जेनिफर बर्नी ने भारत का एक सांख्यिकीय मॉडल तैयार किया है। इस मॉडल के अनुसार सघन में बसे राज्यों में गेहूं की उपज को वायु प्रदूषण के कारण वर्ष 2010 के मुकाबले 50 प्रतिशत तक कम किया गया है। आवश्यक खाद्य सामग्री के उत्पादन में कोहरे के कारण 90 प्रतिशत तक की कमी आई है। जेनिफर बर्नी के इस शोधपत्र के अनुसार धुंध / कोहरा जैसे अल्पावधि जलवायु प्रदूषण (एस. एल. सी.पी.) करने वाले तत्वों के प्रत्यक्ष प्रभाव के कारण 90 प्रतिशत तक की हानि हो रही है। इन तथ्यों का वैश्विक खाद्य सुरक्षा पर असर हो सकता है क्योंकि भारत एक प्रमुख चावल निर्यातक देश है। शोध में इसके लिए दो प्रमुख वायु प्रदूषक तत्वों ब्लैक कार्बन और भूस्तरीय ऑजोन को प्रमुख जिम्मेदार माना गया है। काला कार्बन और अन्य प्रदूषक तत्वों से बना स्मॉग तेजी से देश की मिट्टी के उपजाऊपन को कम कर रहा है। मात्र प्रदूषित वायु और काला कोहरा ही नहीं, वैश्विक तापमान बढने से मौसम में होने वाले बदलावों के चलते भी खाद्यानों की दस प्रतिशत उपज कम हो गई है।

जलवायु परिवर्तन का कृषि के विभिन्न क्षेत्रों पर प्रभाव

  • CO2 की मात्रा में बढ़ोतरी से एक तय सीमा तक ही कुछ फसलों को लाभ होगा। लाभ पाने वालों में सी-3 तंत्र से प्रकाश संश्लेषण करने वाले पौधे जैसे कि गेहूँ, चावल आदि शामिल हैं। मौसम की गतिविधियों जैसे बाढ़, सूखा, चक्रवात और लू से कृषि उत्पादन प्रभावित होगा । लू वर्षा आधारित सिंचाई वाले क्षेत्रों में मानसूनी वर्षा के समय और मात्रा में बदलाव संभव है, जिससे उत्पादकता - घटेगी।
  • तापमान वृद्धि से फसलों को अधिक सिंचाई की आवश्यकता पड़ेगी।
  • फलों, सब्जियों, चाय, कॉफी, खुशबूदार और औषधीय पौधों की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ सकता है।
  • फसलों एवं पौधों की रोग प्रतिरोधक क्षमता घट सकती है, जो अधिक मात्रा में रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग को बढ़ावा देगी फलस्वरूप मिट्टी की उर्वरकता घटेगी।
  • कार्बनिक पदार्थ सामग्री जो हमारी भारतीय मिट्टी में पहले से ही काफी कम है, उसमें और अधिक कमी आने की संभावना है।
  • तापमान वृद्धि, वर्षा की मात्रा और समय में परिवर्तन, समुद्र स्तर के बढ़ने से सीधे जैव-विविधता प्रभावित होगी।
  • समुद्र स्तर बढ़ने से तटीय क्षेत्रों की मिट्टी क्षारीय बनेगी जो कृषि के लिए लाभदायक नहीं है।

जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाव हेतु रणनीतियां

  • गर्मी, लवणता, सूखा, बाढ़ प्रतिरोधी एवं सहनशील किस्मों का विकास करना ।
  • फसल, भूमि के उपयोग एवं प्रबंधन को नई तकनीकों के अनुरूप तैयार करना ।
  • संसाधन संरक्षण प्रौद्योगिकी का विकास करना एवं ड्रिप सिंचाई जैसी तकनीकों को बढ़ावा देना जिससे जल संरक्षण में मदद मिलेगी।
  • फसल विविधीकरण एवं मृदा प्रबंधन का संवर्धन |
  • बेहतर मौसम की पूर्व एवं सटीक भविष्यवाणी एवं फसल बीमा ।
  • किसानों के प्राचीन स्वदेशी तकनीकी ज्ञान पर बड़े पैमाने पर शोध ।
  • वैकल्पिक क्षेत्रों में फसलों का स्थानांतरण |
  • पारिस्थितिकी एवं ऋतु फसलों का मौसम के अनुरूप समायोजन |
  • उपलब्ध संसाधनों का कुशल उपयोग तथा जैविक खादों के उपयोग एवं कीट प्रबंधन में व्यापक सुधार ।

आज भी हकीकत यह है कि कृषि क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव, अनुकूलन- आकलन और अनेक अनिश्चितताओं एवं विभिन्नताओं से भरा हुआ है। इसका प्रमुख कारण शोधकर्ताओं द्वारा अलग-अलग शोधकार्य प्रणाली का अपनाया जाना है, जो एक ठोस तर्कसंगत निष्कर्ष पर न पहुंच कर इसे और जटिल बना देती है । सीमाओं के पार भी अन्तरराष्ट्रीय मानक पद्धति विकसित करने की जरूरत है ताकि वैश्विक स्तर पर नीति निर्माता अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।

निष्कर्ष यह है कि समग्र विकास हेतु उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग करते हुए, मानव द्वारा प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाकर घायल हो चुके पर्यावरण को मूल रूप में लाने का सार्थक प्रयास किया जाए।

संदर्भ-

  1.  आई.पी.सी.सी. रिपोर्ट 2007 एवं आई.पी.सी.सी. संश्लेषण रिपोर्ट 2013-14 
  2.  जेनिफर बर्नी एट ऑल, 2014, " रीसेंट क्लाइमेट एंड एयर पॉल्यूशन इम्पैक्ट ऑन इंडियन एग्रीकल्चर "प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ अमेरिका"
  3. आई.पी.सी.सी., जलवायु परिवर्तन 2014, प्रभाव अनुकूलन और भेयता नीति निर्माता के लिए सारांश
  4.  जियोसाइंस पत्रिका ( जून 2011)

स्रोत:-हिंदी पर्यावरण पत्रिका,शुष्क अंचल क्षेत्रीय केन्द्र, जोधपुर, राजस्थान

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Post By: Shivendra
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