जलमोर्चे पर महिलाएं

जलमोर्चे पर महिलाएं
जलमोर्चे पर महिलाएं

प्रकृति के सभी प्राणियों के जीवन में जल का इतना महत्त्व है कि जल के बिना जीवन संभव ही नहीं है। इसीलिए कहा जाता है कि जल ही जीवन है, जल है तो कल है। हड़प्पा से लेकर यूनान तक दुनिया की सभी प्राचीन सभ्यताएं और नगर नदियों के किनारे बसाए गए और इन सभी में जल संचयन, संग्रहण और प्रबंधन की वैज्ञानिक व्यवस्था के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। जल का महत्त्व समझाने के लिए सभी प्राचीन धार्मिक और अन्य अहम ग्रंथों में जल को सब रोगों की नाशक औषधि के रूप में व्याख्यायित किया गया है। रहीम लिखते हैं, 'रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुष, चून।'

वर्तमान समय में जल का सदुपयोग और संरक्षण न होने से तथा इसके सही प्रबंधन और भौतिक बुनियादी ढांचे में निवेश के अभाव में जल संकट का खतरा निरंतर बढ़ता जा रहा है, जिस पर समय रहते काबू नहीं पाया गया तो निश्चित ही मानव जीवन खतरे में पड़ जाएगा। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से जल अभाव की समस्या भी गंभीर रूप ले रही है। समय की जरूरत है कि जल का प्रबंधन उचित ढंग से किया जाए जिसमें महिलाओं की भूमिका सबसे ज्यादा कारगर सिद्ध हो सकती है, क्योंकि आम तौर पर पूरे विश्व में दिनचर्या के घरेलू कार्यों जैसे खाना बनाना, कपड़े धोना, सफाई इत्यादि को महिलाओं द्वारा किया जाता है। पानी एकत्रित करने की जिम्मेदारी भी महिलाओं के कंधों पर होती है। अधिकांश विकसित और अविकसित देशों में जल की जरूरत पूरा करने के लिए महिलाएं प्राकृतिक स्रोतों पर आश्रित होती हैं।
चूंकि जल संग्रहण करना महिलाओं का पारंपरिक काम है, इसलिए उन्हें जल प्रबंधन की गहरी समझ है। अच्छे से समझ है कि कितना पानी कहां पर खर्च करना है, और कितना कहां पर बचाना है। महिलाएं ही घर में बच्चों और पुरुषों को पानी बर्बाद करने से रोक सकती हैं, और उन्हें पानी की बचत करना भी सिखा सकती हैं।

जल प्रबंधन में महिलाओं की भूमिका

जल प्रबंधन में महिलाओं की भूमिका इसलिए और भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि महिलाओं के लिए जल संकट 'पर्सनल' है। जब भी जल संकट पैदा होता है, तो सबसे ज्यादा समस्याओं का सामना महिलाओं को ही करना पड़ता है। उन्हें जल लाने के लिए मीलों लंवी दूरी तय करनी पड़ती है, जिसका कुप्रभाव उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है। कई बार जल की कमी होने पर परिवार के पुरुषों से उन्हें शारीरिक और मानसिक हिंसा का शिकार भी होना पड़ता है। संसार में महिलाएं ही वो समूह हैं, जिन्हें जल संरक्षण और प्रबंधन का सबसे लंबा अनुभव है परंतु इसके बावजूद बहुत छोटे स्तर पर इनके अनुभव का प्रयोग किया जा रहा है। आवश्यक है कि उनको जल योद्धा के रूप में सामने आने दिया जाए और जल प्रबंधन में इनके अनुभव का प्रयोग बड़े स्तर पर किया जाए।

ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां महिलाओं ने जल प्रबंधन के लिए विशेष योगदान दिया है। केरल की आदिवासी महिला 'मायलम्मा ने अपने गांव प्लाचीमाड़ा में अमेरिकी कंपनी कोकाकोला को प्लांट बंद करने पर मजबूर कर दिया। हुआ यूं कि 2000 में केरल में पलक्कड़ जिले के प्लाचीमाड़ा गांव में कोकाकोला ने अपना प्लांट लगाया। इसके दो वर्षों में ही गांव के सभी कुओं का पानी सूख गया। खारा और जहरीला हो गया, जो भी इन कुओं का पानी पीता बीमार हो जाता। प्लाचीमाड़ा की महिलाएं लंबी दूरी तय करके पानी लाने को मजबूर हो गईं। परन्तु 'मायलम्मा ने जब आकलन किया कि इतने सालों से पानी की कभी कमी नहीं आई तो अब कैसे आई। उन्हें पता चला कि कोकोकोला के आने के बाद से कुएं का पनी सूखा है। क्योंकि कोकोकोला का प्लोंट हर दिन दस लाख लीटर पानी खींच रहा था। और लाखों लीटर गंदा-जहरीला  पानी ज़मीन में छोड़ रहा था। बक इसके बाद 'मायलम्मा ने गांव की महिलाओं को इकट्ठा करके सत्याग्रह शुरू कर दिया। मायलम्मा के लंबे संघर्ष और सत्याग्रह का ही नतीजा था कि विश्व की इतनी बड़ी कंपनी को झुकना पड़ा। संयंत्र बंद करना पड़ा। मायलम्मा कोई पढ़ी-लिखी महिला नहीं थी, ना ही उन्होंने पर्यावरण के क्षेत्र में कोई डिग्री हासिल कर रखी थी। फिर भी वह संघर्ष और सत्याग्रह कर पाईं। तो इसलिए कि सालों-साल से प्रकृति और जीवन के संबंध को समझती थीं। उन्हें यह डर था कि 2 वर्षों में कोका-कोला ने यह हालात पैदा कर दिए तो आने वाले समय में संघर्ष करके जल का दोहन ना रोका गया तो भावी  पीढ़ियों का बुरा हश्र होगा।

बुंदेलखंड क्षेत्र जो सूखा पीड़ित क्षेत्र में शामिल है, में गंगा और बबीता ने महिला की महिलाओं की टोली बनाकर ‘जल सहेली अभियान’ के अंतर्गत तालाबों को संरक्षित किया और उनके द्वारा बचाए और साफ किए गए तालाब आज कई गांव के लिए जीवन रेखा का काम कर रहे हैं।

नौलों-धाराओं का पुनरुज्जीवन 

उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के चनोली गांव की निवासी माया वर्मा एक जल चैंपियन हैं, जिन्होंने अल्मोड़ा के 15 गांवों में पारंपरिक हिमालयी जल स्त्रोतों नौलों और धाराओं को पुनरुज्जीवित करने में मदद की है। अक्टूबर, 2017 से वर्मा और उनकी साथी गांव की महिलाओं के प्रयासों के कारण, पुनरुज्जीवित नौलों में अब पूरे वर्ष पानी रहता है। पहले ये गर्मियों में सूख जाते थे जबकि नौले मध्य-हिमालयी ऊंचाई में पाए जाते हैं, धारे ज्यादातर ऊपरी हिमालय में, बर्फ रेखा के ठीक नीचे पाए जाते हैं। 

1992 में रियो में संपन्न हुए संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एवं विकास सम्मेलन में इस तथ्य को स्वीकार किया गया कि जल प्रबंधन के सभी चरणों में महिलाओं की सहभागिता से लाभ मिलता है, इसलिए जल प्रबंधन के कार्यक्रमों और निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं की सहभागिता बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि इस संकट को बड़ा होने से पहले ही दूर कर लिया जाए।

ये उदाहरण दिखाते हैं कि जल प्रबंधन में महिला और पुरुषों की समान भागीदारी होनी चाहिए। महिलाओं के सामूहिक ज्ञान का उपयोग करते हुए उन्हें निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया में तुरंत प्रभाव से शामिल किया जाना चाहिए। जल प्रबंधन में लैंगिक समानता और महिलाओं के प्रतिनिधित्व के बिना जल से संबंधित परियोजनाओं का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन संभव नहीं है। हाल-फिलहाल में विश्वबैंक ने पूरे विश्व की 122 जल परियोजनाओं के प्रभाव का मूल्यांकन किया तो पाया कि जिन परियोजनाओं में महिलाओं की भागीदारी थी, वे परियोजनाएं जिनमें 6-7 गुणी ज्यादा सफल रहीं, उन परियोजनाओं की तुलना में जिनमें महिलाओं को शामिल नहीं किया गया था। इसलिए भारत में भी जल प्रबंधन के क्षेत्र में चल रहे 'जल जीवन मिशन, 'अटल भूजल योजना', 'जल शक्ति अभियान' आदि के निर्णय निर्माण में महिलाओं को बड़ी संख्या में शामिल किया जाना चाहिए, ताकि इनके अनुभव से लाभ लेते हुए इन अभियानों को प्रभावी रूप से सफल बनाया जा सके।


चंद्रिका आर्य दिल्ली विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कॉलर हैं। सह-लेखक राजेश कुमार स्वतंत्र शोधार्थी हैं। 
स्रोत : 06 अप्रैल 2024, हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा

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