जलीय खरपतवार : समस्याएं एवं नियंत्रण (Essay on Aquatic Weeds: Problems and Solutions)

जलकुम्भी खरपतवार,PC-Wikipedia
जलकुम्भी खरपतवार,PC-Wikipedia

सारांश

जल प्रकृति द्वारा दिया गया एक अनमोल उपहार है जिसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। बढ़ती हुई जनसंख्या, शहरीकरण, औद्योगीकरण एवं पर्यावरण प्रदूषण के कारण जल की खपत निरंतर बढ़ती जा रही है, जिसके कारण पृथ्वी पर जलचक्र का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। आज स्वच्छ पेयजल की समस्या एक जटिल वैश्विक चुनौती के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित हैं और आगे आने वाले कुछ वर्षों में पेयजल की समस्या विकराल रूप धारण करेगी, जिससे विश्व के सभी देश स्वच्छ जल को पाने के लिए युद्ध करेंगे। आज शहरों के अधिकांश नाले जिनमें मल, मूत्र, घरेलू कूड़ा कचरा एवं अन्य अपशिष्ट एवं रासायनिक पदार्थ मौजूद होते हैं, वे हमारी नदियों में जाकर गिरते हैं, वहीं शहरों में स्थापित औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले रासायनिक पदार्थ, प्लास्टिक एवं अन्य अशुद्धियाँ भी हमारी नदियों को प्रदूषित करती हैं। हमारे जल स्रोतों को प्रदूषित करने में खरपतवार अहम् भूमिका निभा रहे हैं। दूर से ही आकर्षित करने वाले जलीय पौधे जैसे जलकुम्भी और घड़ियाली खरपतवार आज जहाँ एक ओर जल प्रदूषण की समस्या को बढ़ा रहे है, वहीं दूसरी ओर इन खरपतवारों के कारण अन्य जलीय जंतुओं का अस्तित्व भी खतरे में है।

जलकुम्भी तालाब, झील, दलदली स्थानों एवं उथले जल वाले स्थानों में पाया जाने वाला खरपतवार है। यह खरपतवार बहुत ही तेजी के साथ अपनी वृद्धि करता है और लगभग बारह दिन में इस पौधे की संख्या दुगुनी हो जाती है। यह खरपतवार अधिक अम्लीय या क्षारीय जल में भी आसानी से उग सकता है। जलकुम्भी खरपतवार विश्व के लगभग अस्सी देशों में अपनी पैठ बना चुका है। जलीय खरपतवार बहुत ही तेजी के साथ जलाशयों में फैल जाते हैं और जल में उपस्थित अनेक प्रकार के पोषक तत्वों को अवशोषित कर लेते हैं जिससे जलीय जीवों जैसे मछलियों का विकास धीमा हो जाता है, वहीं इनकी तेजी से वृद्धि के कारण पानी में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है जिससे जलीय जंतुओं की वृद्धि रुक जाती है और जंतुओं की मृत्यु भी हो सकती है। वही जलकुम्भी युक्त तालाबों में बहुत बड़ी संख्या में मच्छर पनपते हैं जो कि तालाब के आसपास के क्षेत्रों में अनेक प्रकार के रोगों जैसे मलेरिया और डेंगू को फैलाते हैं। कुछ सर्वेक्षणों में पाया गया है कि खरपतवार वाले जलाशयों में जल का स्तर दो से चार गुना तक नीचे चला जाता है घड़ियाली खरपतवार या एलीगेटर वीड एक ऐसा खरपतवार है जो जल एवम् थल दोनों स्थानों पर अपना जीवन चक्र पूरा कर सकता है। इसके तने 3 से 4 मीटर तक लंबे होते हैं जो पानी की सतह के नीचे फैल कर जलाशयों के जलप्रवाह को पूर्ण रूप से अवरुद्ध कर देते हैं।

जलकुम्भी एवं घड़ियाली खरपतवार में जल से भारी धातुओं को सोखने की क्षमता होती है जिसके कारण इनका उपयोग प्रदूषित जल से भारी धातुओं जैसे कैडमियम, निकिल और लोहा एवं रंगाई के पदार्थों को हटा कर जल को स्वच्छ करने के लिए किया जा सकता है। जलीय खरपतवारों का उपयोग इथेनॉल, खाद और बायोगैस बनाने में किया जा सकता है। अतः आज यह आवश्यक है कि हमारे वैज्ञानिक जलीय खरपतवारों के बारे में आम जनता को जागरूक करें और खरपतवारों से उत्पन्न होने वाली समस्याएं और नियंत्रण के उपाय बताएं। जलकुम्भी और घड़ियाली खरपतवारों का नियंत्रण जैविक विधि यानी कीटों द्वारा आसानी से किया जा सकता है। वहीं जलीय खरपतवारों का उपयोग विभिन्न प्रकार के लघु एवं कुटीर उद्योगों में भी किया जा सकता है जिससे हमारे ग्रामीण युवा रोजगार प्राप्त करके धन अर्जित कर सकते हैं, जिससे आने वाले समय में जलीय खरपतवार रोजगार का साधन बन कर जल के प्रदूषण की समस्या का समाधान कर सकें।

Abstract - 

Water is a precious resource because life can not exist without it. Anthropogenic activities, industrialization and immense agricultural practices are adversely affecting the water bodies. Water hyacinth (Eichhornia crassipes) is a perennial aquatic herb which belongs to the family Pontederiaceae. Its rate of proliferation is extremely rapid and it can spread to cause infestations over large areas of water. It grows and forms mats up to 2 meters thick which can reduce light and oxygen, change water chemistry, affect flora and fauna of aquatic systems and cause significant increase in water loss due to evapotranspiration. It is now considered a serious threat to biodiversity. Aquatic weeds contain approximately 95% water and protein content and can be used for various applications. Water hyacinth can be used for water purification from sewage systems as it absorbs heavy metals. Water hyacinth can be used as a green manure or as compost. The compost increases soil fertility and crop yield and improves the quality of the soil. The use of water hyacinth for animal feed can solve the nutritional problems. Alligator weed (Alternanthera philoxeroides) is also a troublesome weed because it invades both land and water. Alligator weed forms stands of dense, interwoven stems which block irrigation ditches and infrastructure. It can replace the native vegetation and interferes with crops and pastures in low-lying, poorly drained areas and impede fishing and boating. For the management of aquatic weeds many technical solutions are available but there is a need to identify such eco- friendly strategies for the management and proper utilization of these aquatic weeds.

प्रस्तावना

जल प्रकृति द्वारा दिया गया एक ऐसा अनमोल उपहार है जिसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। बढ़ती हुई जनसंख्या, शहरीकरण, औद्योगीकरण एवं पर्यावरण प्रदूषण के कारण जल की खपत निरंतर बढ़ती जा रही है। जिसके कारण पृथ्वी पर जलचक्र का संतुलन बिगड़ता जा रहा है।

जल मानव को जीवित रखने के लिए ऑक्सीजन के बाद सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। लेकिन आज स्वच्छ पेयजल की समस्या एक जटिल वैश्विक चुनौती के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है। हाल में विश्व बैंक द्वारा दी गई रिपोर्ट के अनुसार, आगे आने वाले कुछ वर्षों में पेय जल की समस्या विकराल रूप धारण करेगी और विश्व के सभी देश स्वच्छ जल को पाने के लिए युद्ध करेंगे। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में फिलहाल 1123 अरब घनमीटर जल उपयोग करने के लिए उपलब्ध है। लेकिन जल की माँग 710 अरब घनमीटर है, और यह माँग वर्ष 2025 तक बढ़कर 1093 अरब घनमीटर हो जाएगी और यदि इसी प्रकार से जल की माँग बढ़ती रहेगी, तो वर्ष 2030 तक जल की आधी माँग भी पूरी नही हो पाएगी ( इंद्रेश चौहान, 2015) |

पानी का बंटवारा 

विश्व में कुल उपलब्ध जल में से मात्र 0.08% जल ही पीने के लिए उपलब्ध है। विश्व बैंक द्वारा दिए गए आँकड़ों के अनुसार एशिया और प्रशांत महाद्वीप के क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों का सबसे अधिक दोहन किया गया है। हमारे देश में कुल स्वच्छ जल की मात्रा 19 अरब घनमीटर हैं जिसका 86% नदियों, तालाबों और झीलों में उपलब्ध है। सन् 1947 में प्रत्येक व्यक्ति को हर वर्ष 5000 घनमीटर जल उपलब्ध था लेकिन आज यह उपलब्धता घटकर मात्र 2000 घनमीटर रह गई है। भारतवर्ष में बीस नदियों में से छः नदियों की स्थिति बहुत खराब है और आज इनमें 1000 घनमीटर से भी कम जल उपलब्ध है (दिग्विजय सिंह, 2015 )। 

केन्द्रीय भूजल बोर्ड के अनुसार हमारे देश के कुछ राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और पश्चिम बंगाल में वर्ष 2002-2012 के दौरान जलस्तर में चार मीटर से अधिक की गिरावट दर्ज की गई है, जो कि सोचने का विषय है। आज शहरों के अधिकांश नाले जिनमें मल, मूत्र, घरेलू कूड़ा, कचरा एवं अन्य अपशिष्ट एवं रासायनिक पदार्थ मौजूद होते हैं वे हमारी नदियों में जाकर गिरते हैं। वहीं शहरों एवम् कस्बों में स्थापित औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले रासायनिक पदार्थ, प्लास्टिक एवम् अन्य अशुद्धियाँ भी हमारी नदियों को प्रदूषित करती हैं।

आज भी हमारे देश की 62 करोड़ 20 लाख आबादी यानी लगभग 53.1% लोग खुले में शौच करने को मजबूर हैं और ये सभी कारक जल प्रदूषण को बढ़ाते हैं। पानी की गुणवत्ता की जाँच उसके भौतिक एवं रासायनिक गुणों के आधार पर की जा सकती है। जल का भौतिक परीक्षण रंग, गंध एवं स्वाद से किया जा सकता है। वहीं जल की कठोरता, अम्लीयता, भारी धातुओं एवं कार्बनिक यौगिकों की उपस्थिति का पता रासायनिक परीक्षणों द्वारा लगाया जा सकता है।

जलजनित रोग

आज सम्पूर्ण विश्व में लगभग दो अरब लोग दूषित जल जनित रोगों की चपेट में हैं और विश्व में हर वर्ष मरने वाले बच्चों में लगभग 60% बच्चे जल से पैदा होने वाले रोगों के कारण मरते हैं। 

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार संसार की छः अरब आबादी में से हर छठा व्यक्ति नियमित और सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति से वंचित है। हमारे देश के अधिकांश राज्य भी स्वच्छ पेयजल की समस्या से जूझ रहे हैं और देश की लगभग 85% ग्रामीण आबादी को स्वच्छ पेयजल नहीं मिल पा रहा है।

जलीय प्रदूषण को बढ़ावा देते खरपतवार

हमारे जल स्रोतों जैसे नदी, तालाब एवं पोखरों को प्रदूषित करने में खरपतवार अहम भूमिका निभा रहे हैं। आम-भाषा में खरपतवार को घास-फूस, तृण या नीदा आदि नामों से भी जाना जाता है और अंग्रेजी भाषा में इसे वीड कहते हैं। खरपतवार हर स्थान पर आसानी से उग सकते हैं और ये बहुत तेजी से अपनी वृद्धि करके एक स्थान से दूसरे स्थानों पर फैल जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार कृषि में प्रतिवर्ष बीमारियों से 22% कीटों द्वारा 29% खरपतवारों द्वारा 37% एवं अन्य कारणों से 12% तक की हानि होती है।

जलीय स्रोतों जैसे तालाब एवं पोखरों में पाई जाने वाली वनस्पतियों को मुख्यतः तीन समूहों में बाँटा जा सकता है जैसे

(i) जल की सतह पर पाए जाने वाली वनस्पतियां जलकुम्भी, लेंमना, पिस्टिया 
(ii) जलमग्न वनस्पतियाँ: हायड्रिला, सिरेटोफाइलम और 
(iii) तालाब के किनारे तथा गहरे जल में पाई जाने वाली वनस्पतियाँ जैसे आयपोमिया और कमल इत्यादि। 

दूर से ही आकर्षित करने वाले जलीय पौधे जैसे जलकुम्भी और घड़ियाली खरपतवार आज जहाँ एक ओर जल प्रदूषण की समस्या को बढ़ा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर इन खरपतवारों के कारण अन्य जलीय जंतुओं का अस्तित्व भी खतरे में है।

जलकुम्भी

तालाब, झील, दलदली स्थानों एवं उथले जल वाले स्थानों में पाया जाने वाला खरपतवार है। इसके पौधे ऊंचाई में कुछ इंच से लेकर तीन फीट तक के हो सकते हैं। जलकुम्भी की पत्तियां चिकने हरे रंग की होती हैं जो कि लंबाई में लगभग बीस सेंटीमीटर होती हैं। इस खरपतवार के फूल नीले, सफेद - बैंगनी रंग के होते हैं जो कि विशेष रूप से आकर्षित करने वाले होते हैं। इनकी पत्तियों में हवा भरी होती है जिससे ये जल की सतह पर आसानी से तैर सकती हैं। इनके बीज लम्बे समय तक जीवित रह सकते हैं। जलकुम्भी का पौधा जल में स्वच्छंद रूप से तैरता रहता है। यह खरपतवार पोन्टीडीएसी परिवार का सदस्य है। यह खरपतवार बहुत ही तेजी के साथ अपनी वृद्धि करता है और लगभग बारह दिन में इस पौधे की संख्या दोगुनी हो जाती है। यह खरपतवार अधिक अम्लीय या क्षारीय जल में भी आसानी से उग सकता है।

जलकुम्भी की उत्पत्ति दक्षिण अमेरिका के ब्राजील देश से हुई। प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. वीएस. राव (1988) के अनुसार वर्ष 1896 में जलकुम्भी का पौधा ब्राजील से भारतवर्ष आया और आज ये हमारे देश के दो लाख हेक्टेयर जलक्षेत्र में पाया जाता है। जलकुम्भी खरपतवार विश्व के लगभग अस्सी देशों में अपनी पैठ बना चुका है इसके फैलाव के सम्बन्ध में विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि इसके पौधों की सुन्दर आकृति एवं बनावट के कारण पर्यटक इस खरपतवार को अपने साथ अपने देशों में ले गए जिसके कारण आज जलकुम्भी विश्व के लगभग सभी महाद्वीपों जैसे एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड में पाया जाता है।

जलकुम्भी में 96% जल, 0.04% नाइट्रोजन, 0.06% फास्फोरस, 0.2% पोटेशियम, 3.5% कार्बनिक तत्व और 1% लौह तत्व जैसे - सोडियम, कैल्शियम और क्लोराइड आदि पाए जाते है। वहीं अनेक प्रकार के अमीनो अम्ल जैसे- लाइसिन, बैलिन, ल्यूसिन, आइसोल्यूसिन और फिनाइलएलानिन आदि भी जलकुम्भी में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। हाल ही में डॉ. पीजे. खनखने एवं उनके सहयोगियों (2011-2012) के अनुसार तालाबों की नगरी के रूप में प्रसिद्ध मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले के अधिकांश तालाबों का अस्तित्व संकट में है, जिसका मुख्य कारण तालाब में जलकुम्भी एवं घड़ियाली खरपतवार की उपस्थिति है। 

वर्तमान में जबलपुर शहर में घरों, औद्योगिक इकाइयों और बस्तियों से निकलने वाला अपशिष्ट जल तालाबों में मिलता है। सिवरेज जल में नाइट्रोजन की मात्रा अधिक होती है जो कि मूत्र की उपस्थिति के कारण होती है। यही नहीं घरेलू अपशिष्ट जल में फॉस्फेट भी अधिक मात्रा में मिलता है, इसका मूल कारण घर में कपड़े धोने या बर्तन साफ करने वाले साबुन में फॉस्फेट पाया जाना है। अतः नाइट्रोजन एवं फॉस्फेट युक्त अपशिष्ट जल, तालाबों एवं अन्य जलाशयों में मिलकर उन्हें प्रदूषित करता है। लेकिन जल स्रोतों में प्रचुर मात्रा में नाइट्रोजन एवम् फॉस्फेट की उपस्थिति खरपतवारों की वृद्धि के लिए वरदान साबित हुई है। हाल ही में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि जलीय खरपतवार बहुत ही तेजी के साथ जलाशयों में फैल जाते हैं और जल में उपस्थित अनेक प्रकार के पोषक तत्वों को अवशोषित कर लेते हैं जिससे जलीय जीवों जैसे मछलियों का विकास धीमा हो जाता है। वहीं उनकी तेजी से वृद्धि के कारण पानी में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है जिससे जलीय जंतुओं की वृद्धि रुक जाती है और जंतुओं की मृत्यु भी हो सकती है। 

वहीं जलकुम्भी युक्त तालाबों में बहुत बड़ी संख्या में मच्छर पनपते हैं जो कि तालाब के आसपास के क्षेत्रों में अनेक प्रकार के रोगों जैसे मलेरिया और डेंगू को फैलाते हैं। कुछ सर्वेक्षणों में पाया गया है कि जलकुम्भी वाले जलाशयों में जल का स्तर दो से चार गुना तक जलकुम्भी रहित जलाशयों की अपेक्षा नीचे चला जाता है। वहीं खेतों से निकलने वाले कृषि रसायन, कीटनाशक एवम् उर्वरक भी तालाबों में मिलकर जलकुम्भी की संख्या को बढ़ाते हैं जिससे जलाशयों का जलस्तर घटता जाता है।

घड़ियाली खरपतवार या एलीगेटर वीड

घड़ियाली खरपतवार या एलीगेटर वीड एक ऐसा खरपतवार है जो जल एवं थल दोनों स्थानों पर अपना जीवन चक्र पूरा कर सकता है जिस प्रकार से घड़ियाल जल और थल दोनों स्थानों पर रह सकता है उसी प्रकार से घड़ियाली खरपतवार दोनों ही स्थानों पर पाया जाता है। इस खरपतवार की उत्पत्ति अर्जेंटीना से हुई और भारतवर्ष में सर्वप्रथम सन् 1964 में इस खरपतवार को बंगाल राज्य में देखा गया और आज यह देश के लगभग सभी राज्यों में पाया जाता है आम भाषा में इसे पटपटा या पोला चारा के नाम से भी जाना जाता है।

घड़ियाली खरपतवार को उत्तरी अमेरिका, आस्ट्रेलिया और अर्जेन्टीना आदि देशों में एक हानिकारक खरपतवार के रूप में देखा जाता है। यह खरपतवार पानी के ऊपर तैरता है लेकिन इसके तने 3 से 4 मीटर तक लंबे होते हैं जो पानी की सतह के नीचे फैल कर जलाशयों के जलप्रवाह को पूर्ण रूप से अवरुद्ध कर देते हैं अमेरिका एवं अर्जेंटीना देशों की नदियों में इनका प्रकोप इतना अधिक बढ़ गया है कि वहाँ की नदियों में नाव और मोटर बोट का आवागमन नहीं हो पाता है। यही नहीं ये पौधे मोटर बोट की इंजन में फंसकर उन्हें खराब कर देते हैं जिससे इन देशों को प्रतिवर्ष लाखों डॉलर खर्च करके जलाशयों की सफाई करानी पड़ती है। ये खरपतवार जल में तीव्रता के साथ फैलाव करते हैं और जलाशयों में ऑक्सीजन और अन्य आवश्यक पोषक तत्वों की मात्रा को घटा देते हैं जिससे मछलियों की संख्या घट जाती है वहीं इसके तने जल में गहराई से फैले रहते हैं, जिससे ऐसे जल स्रोतों में मछली पकड़ना भी एक समस्या बन जाती है घड़ियाली खरपतवार में वाष्पोत्सर्जन भी तीव्र गति से होता है जिससे तालाबों में जल स्तर भी काफी घट जाता है। 

मध्यप्रेदश के जबलपुर जिले में स्थापित खरपतवार विज्ञान अनुसंधान निदेशालय के वैज्ञानिकों डॉ. सुशील कुमार एवम् डॉ. शोभा सौंधिया (2011-2012 ) ने अपने शोध पत्रों में जलीय खरपतवारों से उत्पन्न समस्याएं एवम् इनके नियंत्रण करने के अनेक उपायों पर प्रकाश डाला है। खरपतवार विज्ञान अनुसंधान निदेशालय में किए गए अध्ययनों के अनुसार यदि घड़ियाली खरपतवारों के तनों से सिर्फ गाँठों को काटकर पानी में फेंक दिया जाता है तो ऐसी गाँठों से लगभग 80% तक नए पौधे उत्पन्न हो जाते हैं।

इस प्रकार से इस पौधे में शाकीय प्रजनन की अदभुत क्षमता पाई जाती है घड़ियाली खरपतवार में फूल तो पैदा होते हैं लेकिन फलों में बीज नहीं उत्पन्न होते हैं अतः यह पौधा मुख्यतः शाकीय प्रजनन द्वारा ही वृद्धि करता है। जल के नीचे इस खरपतवार की जड़ें गुच्छे के रूप में फैल जाती हैं जो आपस में गुंथकर एक मजबूत पिण्ड बना लेती हैं जिस पर आदमी आसानी से चल सकता है वहीं नमभूमि में भी इसकी जड़ें एक मीटर गहराई तक प्रवेश कर जाती हैं जिससे फिर इनका नियंत्रण करना लगभग असंभव हो जाता है।

उड़ीसा राज्य में घड़ियाली खरपतवार को गेहूँ धान और मक्का के खेतों में देखा गया है जिससे यह इन खेतों में तेजी के साथ बढ़कर इन पौधे की वृद्धि को रोकता है।

जलीय खरपतवारों का नियन्त्रण

जलीय खरपतवारों की समस्या से निपटने के लिए वैज्ञानिकों ने अनेक प्रकार की भौतिक, रासायनिक एवम् जैविक विधियाँ खोजी हैं जिनके द्वारा जलाशयों में खरपतवारों की वृद्धि को रोका जा सकता है। जलीय खरपतवारों को नियन्त्रित करने की भौतिक विधियों में इन खरपतवारों को अनेक प्रकार के यंत्रों द्वारा काटकर एकत्रित किया जाता है फिर नाव में भरकर जलस्रोतों से निकाल लेते हैं। लेकिन जहाँ एक ओर इस विधि में बहुत अधिक समय और धन खर्च होता है वहीं दूसरी ओर कुछ समय बाद जल में फिर से इन खरपतवारों का वर्चस्व स्थापित हो जाता है। अनेक प्रकार के रासायन जैसे- पैराक्वैट, ग्लाइफोसेट और 2-4-डी के छिड़काव द्वारा भी जलीय खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है लेकिन इन रसायनों का उपयोग हमारे जलीय स्रोतों को प्रदूषित करता है और जलीय जन्तुओं के अस्तित्व के लिए संकट उत्पन्न कर सकता है, इसलिए बड़े पैमाने पर इन रसायनों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।

जलकुम्भी और घड़ियाली खरपतवार को नष्ट करने में नियोकेटिना नामक कीट बहुत ही उपयोगी साबित हुआ है। यह कीट इन पौधों का आकार और इनमें फूल और बीज उत्पन्न करने की क्षमता को घटा देता है जिससे जल में इन खरपतवारों की संख्या कम हो जाती है। वहीं कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि अपशिष्ट जल को जलाशयों में मिलने के पहले ही योजनाबद्ध तरीके से साफ करके छोड़ा जाए तो बहुत हद तक हम इन हानिकारक खरपतवारों की वृद्धि को रोक सकते हैं।

जलीय खरपतवारों के उपयोग

जलीय खरपतवारों के अनेक उपयोग भी हैं जैसे:-

1. जलकुम्भी एवं घड़ियाली खरपतवार में जल से भारी धातुओं को सोखने की क्षमता होती है। जिसके कारण इनका उपयोग प्रदूषित जल से भारी धातुओं जैसे कैडमियम, निकिल और लोहा आदि को हटा कर जल को स्वच्छ करने के लिए किया जा सकता है।

2. जलीय खरपतवारों का उपयोग इथेनॉल और बायोगैस बनाने में किया जा सकता है। फिलीपींस और इंडोनेशिया में इनका उपयोग कागज, रस्सी, बैग, टोकरी, जूते और अन्य सजावट के सामान बनाने के लिए किया जा रहा है। 

3. जलकुम्भी और घड़ियाली खरपतवारों का उपयोग खाद बनाने में भी किया जा सकता है।

4. भारत के कुछ दक्षिणी राज्यों और श्रीलंका में घड़ियाली खरपतवार का उपयोग सब्जी के रूप में किया जाता है। 

5. कुछ मवेशीपालक इन जलीय खरपतवारों का उपयोग गाय, भैंस, बकरी एवम् अन्य मवेशियों को खिलाने के लिए हरे चारे के रूप में भी करते हैं।

6. जलीय खरपतवारों में प्रचुर मात्रा में प्रोटीन, विटामिन और लौह तत्व पाए जाते हैं। विश्व के कुछ देशों जैसे चीन, थाईलैंड, फिलीपींस और इंडोनेशिया में इन जलीय खरपतवारों को चारे के रूप में मछलियों एवं मुर्गियों को खिलाते हैं।

7. जलीय खरपतवारों को हरे चारे के रूप में उपयोग करने के लिए सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि जलीय खरपतवारों में भारी धातुओं को सोखने की बहुत अधिक क्षमता होती है और ये भारी धातुएं जानवरों के दूध के माध्यम से खाद्य श्रृंखला द्वारा मनुष्यों के शरीर में प्रवेश करके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल सकती हैं।

और अंत में

अतः आज यह आवश्यक है कि हमारे वैज्ञानिक जलीय खरपतवारों के बारे में आम जनता को जागरूक करें और खरपतवारों से उत्पन्न होने वाली समस्याएं और नियंत्रण के उपाय बताएं। जलकुम्भी और घड़ियाली खरपतवारों का नियन्त्रण जैविक विधि यानी कीटों द्वारा आसानी से किया जा सकता है। वहीं जलीय खरपतवारों का उपयोग विभिन्न प्रकार के लघु एवम् कुटीर उद्योगों में भी किया जा सकता है जिससे हमारे ग्रामीण युवक रोजगार प्राप्त करके धन अर्जित कर सकते हैं। अतः वैज्ञानिकों को जलीय खरपतवारों के उपयोग के क्षेत्र में अभी और अधिक शोध करने की आवश्यकता है। जिससे आने वाले समय में जलीय खरपतवार रोजगार का साधन बन कर जल के प्रदूषण की समस्या का समाधान कर सकें।

संदर्भ सूची - 

1. पी. जे. खनखने, सुशील कुमार, वी. पी. सिंह एवं ए. आर. जी. रंगनाथा (2011-2012), "तालाबों का प्रदूषण व जलीय खरपतवार एक समस्या" तृण संदेश, 8:29-30. I
2. सुशील कुमार एवं शोभा सौंधिया (2011-2012). "घड़ियाली खरपतवार भारत में एक गंभीर समस्या" तृण संदेश, 8:31-32.
3. वी. एस. राव (1988), "खरपतवार विज्ञान के सिद्धांत" साइन्स पब्लिशर अमेरिका द्वारा प्रकाशित (ISBN 1- 57808-069-X)
4. दिग्विजय सिंह (2015), "भारत में पेयजल प्रदूषण और संरक्षण" 7:18-20. I 
5. इंद्रेश चौहान (2015), "ग्रामीण भारत में जल की गुणवत्ता कुरुक्षेत्र" 7:15-17.
6. पांचवीं राष्ट्रीय जल संगोष्ठी - 2015 राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की

स्रोत - भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान पत्रिका, वर्ष 24 अंक 1, जून 2016, पृ. 102-105
लेखक संपर्क - रीति थापर कपूर, एमिटी यूनिवर्सिटी, नोएडा - 201313, ईमेल- rkapoor@amity.edu


 

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