थाइलैंड दक्षिण पूर्व एशिया में स्थित है। इसका प्राचीन नाम श्यामदेश या स्याम है। इसकी पूर्वी सीमा पर लाओस और कम्बोडिया, दक्षिण सीमा पर मलेशिया और पश्चिम सीमा पर म्यान्मार है। इस देश के इतिहास में देखें तो सन् 1767 में बर्मा द्वारा अयुध्या के पतन के बाद थोम्बुरी राजधानी बनी। सन् 1782 में बैंकॉक में चक्री राजवंश की स्थापना हुई उसी को इसका आरंभ माना जाता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका में 1992 में सत्ता पलट के बाद नया संवैधानिक राजतंत्र घोषित कर दिया गया।
इस देश का कुल क्षेत्रफल 513225 वर्ग किलोमीटर है। इस देश का मौसम उष्णकटिबंधीय गीला और शुष्क जलवायु से प्रभावित है। 'चाओ फ्रया' नदी इस देश की प्रमुख नदी है, जिसके आस-पास थाईलैण्ड के मध्यवर्ती मैदान विस्तृत हैं।
मैं, थाइलैंड में 28 नंवम्बर 2016 से 2 दिसम्बर 2016 तक रहा था। बैंकॉक में कार्यक्रम के आयोजक श्री मुकुन्द बाबल ने विश्व शांति यात्रा दल का स्वागत किया। एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ टीच, बैंकॉक में एशिया के सभी देशों के सरकारी व गैर सरकारी प्रतिनिधि इस कन्वेशन में शामिल हुए थे। इसका शुभारंभ मेरी बातचीत से कराया था। यहां पर मैंने तरुण भारत संघ के अनुभव बताते हुए कहा कि, एशिया के सभी देशों में जल-संरक्षण एवं प्रबंधन का ज्ञान अभी भी बचा हुआ है; लेकिन सरकारें उस ज्ञान का उपयोग नहीं कर रहीं। इसलिए पिछले 100 वर्षों में बाढ़-सुखाड़ बहुत तेजी से बढ़ा है। हमें इससे मुक्ति की जरूरत है। इस हेतु राज और समाज की सभी संस्थाओं की जिम्मेदारी और हकदारी को समझकर काम करें तो एशिया में बढ़ती बाढ़ व सुखाड़ से मुक्ति पाई जा सकती है। इस भाषण के साथ तरुण भारत संघ की प्रस्तुति की, जिसमें बाढ़ व सुखाड़ मुक्ति के साथ जलवायु अनुकूलन और उन्मूलन के भी अनुभव बताये।
थाइलैंड के हवाई अड्डे पर उतरते ही भारतीय शास्त्रों में समुद्र मंथन के चित्रण से लेकर अनेक चित्र बैंकॉक हवाई अड्डे पर दृष्टिगत होने लगते हैं। वैसे तो यह राष्ट्र एशिया का ही हिस्सा है तो मुझे लगा ही नहीं कि, मैं, भारत से दूसरे देश में हूं। मुझे यहां हिन्दी में बात करने वाले बहुत से लोग मिल गए और तौर-तरीका भारतीय जैसा ही था। इस देश में अब दुनियाभर से पर्यटक बढ़ी संख्या में जाते हैं। उनमें सबसे अधिक भारतीयों की संख्या होती है।
थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक के सरकारी संस्थानों में जब मैं, पहुंचा तो देखा कि, इतना बड़ा संस्थान जिसमें एशिया के सभी देशों का पैसा लगा है, वह बैंकॉक के बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में बना है। तब समझ में आया कि आज की जो आधुनिक योजना है, वह प्रकृति के प्रभाव से अपनी तकनीक व इंजीनियरिंग द्वारा बचने का घमंड पाले हुए है। उनके मन में प्रकृति और मानवता का बराबर सम्मान नहीं है। इसलिए इनका जहां जो मन करता है, वहीं सभी कुछ कर लेते हैं।
यहां पर मैं पूरे एशिया के वैज्ञानिकों, सरकारी बड़े अधिकारियों तथा तकनीकी व इंजीनियरिंग विशेषज्ञों के साथ रहा। मैंने अपना जलवायु परिवर्तन अनुकूलन व उन्मूलन का अनुभव साझा किया। मेरा अनुभव सुनकर इन्होंने मुझसे कोई सवाल तो नहीं पूछे लेकिन तालियां खूब बजाई। इस तरह का काम एशिया के किसी भी देश में प्रायोगिक तौर पर अब तक समय सिद्ध सफल नहीं हुआ है। भारत के अनुभव को
अपने-अपने देशों में भी इसी प्रकार के प्राकृतिक पुनर्जनन कार्य को विस्तार देने का संकल्प, पूरे सम्मेलन काल में सुनने को नहीं मिला। इस सम्मेलन में विस्थापन की बहुत चिंता प्रकट की गईं, लेकिन विस्थापन रोकने के लिए आगे आकर काम करने का संकल्प किसी ने नहीं लिया। सरकारें अपनी रिपोर्ट ही सुनाती हैं।
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