नदी तट पर साक्षी बने रहना कठिन है। संगीत सभा में बैठकर अकंपित बने रहना कहां संभव होता है? काव्य या गीत सुनकर भी बौद्धिक बने रहने वाले विरले ही होते हैं। गीत, काव्य और संगीत अपना प्रभाव छोड़ते ही हैं। प्रभाव भाव का ही परिणाम है। नदियां केवल प्राकृतिक निर्माण नहीं हैं। उनका भी व्यक्तित्व है। उनका भी मन है। बुद्धि और प्रज्ञा भी। नदियां भी सुनती हैं। वे भी प्रसन्न और अप्रसन्न होती हैं। उनके भी चित्त में जीवेष्णा है। वे भी हम सबकी तरह दीर्घायु चाहती हैं। वे भी जीने की अभिलाषा रखती हैं। जल के बिना जीवन नहीं। जल अपरिहार्य है। जल रस है। शरीर की मुख्य जरूरत। इसीलिए बार-बार प्यास लगती है। ऋग्वेद के ऋषियों ने जल को बहुवचन रूप में ‘जलमाताएं’ गाया है। जल पुलकित करता है। मेघ आते हैं, वर्षा होती है। कीट-पतंग भी हर्ष उल्लास में भीग जाते हैं। जलविहीनता वस्तुत: रसविहीनता है और रसविहीन प्राणी जीवंत नहीं होते।
जल सृष्टि का मूल घटक है। ऋग्वेद में अगाध जल से ही सृष्टि सृजन के संकेत हैं। यूनानी दर्शन के प्रथम चिंतक थेल्स ने भी जल को आदि तत्व बताया है। नदियां इस जल का प्रवाहमान रूप हैं। जल के अन्य कई रूप भी हैं। पृथ्वी की सतह पर बहता जल नदी कहलाया और आकाश पर वाष्प रूप में लहराता जल मेघ।
पृथ्वी के उत्तुंग शिखरों-पर्वतों पर शीत प्रभाव से हिमशैल बना जल बर्फ हो गया। भूगर्भ में भी जलधाराएं हैं। हम विभिन्न उपकरणों के माध्यम से भूगर्भ जल निकालते हैं और उसका उपयोग या दुरुपयोग करते हैं। लेकिन धरती पर प्रवाहित नदियां जलमाताओं का जीवंत रूप हैं। वे नमस्कारों के योग्य हैं।
जल के अभाव में जीवन की कल्पना नहीं। ग्रीष्म ऋतु में जलाभाव होता है। वनस्पतियां हताश हो जाती हैं। रूखी-सूखी, निर्जल, रसहीन और मृतप्राय। पर्जन्य आते हैं। आकाश में बादल छा जाते हैं। वनस्पतियां, कीट-पतंग और सभी प्राणी आकाश में घूमते-इठलाते मेघ देखकर पुलकित होते हैं। वर्षा होती है। वनस्पतियां लहक उठती हैं, सभी प्राणी लहलहा जाते हैं।
सूखी नदियां पुनर्नवा तरुणाई पाती हैं। नाद हहराता है, ध्वनि तरंगों का विस्तार होता है। जल आपूरित नदी का दर्शन ही अपने आप में विराट मधु अनुभव है। नदी तट पर खड़े होना स्थिरिता है, लेकिन नदी प्रवाह को देखते हुए हम स्थिर नहीं रह जाते हैं। नदी बहती है, नाद करती है।
अथर्ववेद के ऋषि ने ठीक ही गाया है- हे सरिताओं! आप नाद करते हुए बहती हैं, इसीलिए आप नदी हैं। यहां ऋषि का ध्यान रूप नहीं, नाद पर है। नदी में रूप और नाद दोनों हैं। सो नदी तट पर द्रष्टा की तरह खड़े या बैठे हमारा मन भी बहता है, नदी के साथ-साथ। जलतरंगों के नाद के साथ। हम नदी के साथ अंतरसंबंधित होते हैं। पहले हम इस प्रवाह के साक्षी बनते हैं। सिर्फ देखने वाले तटस्थ। लेकिन तटस्थता टूटती है। प्रवाह समेटता है- हम भी प्रवाह का भाग बन जाते हैं।
नदी तट पर साक्षी बने रहना कठिन है। संगीत सभा में बैठकर अकंपित बने रहना कहां संभव होता है? काव्य या गीत सुनकर भी बौद्धिक बने रहने वाले विरले ही होते हैं। गीत, काव्य और संगीत अपना प्रभाव छोड़ते ही हैं। प्रभाव भाव का ही परिणाम है।
नदी का नाद और प्रत्यक्ष प्रवाह हमको अपने साथ बहाते ही हैं। मैं अपने गांव से होकर बहने वाली सई नदी का परिजन हूं। हमारी जन्मभूमि में सई नदी बहती है। बचपन से ही हम उसका दुलार, रस और प्यार पाते रहे हैं। मैंने सई नदी के प्रवाह को बचपन में जिज्ञासावश देखा है। फिर जब-जब सई को देखा, तब-तब सई नदी ही मुझे देखती हुई दिखाई पड़ी। देखादेखी दोतरफा ही थी। फिर हमारी कर्मभूमि से होकर बहने वाली गंगा का पुण्याहवाचन करने का सौभाग्य मिला। जान पड़ता है कि मेरे भीतर अनेक नदियां हैं। एक विशाल नदी तंत्र।
सरस्वती का प्रवाह भरतजनों की वंश परंपरा के कारण है और गंगा का प्रवाह प्रत्यक्ष प्रीति के चलते। सई तो अपनी है ही। भीतर अनेक नाद हैं, अनेक नदियों के। नदियों को नष्ट करने वाली आधुनिक सभ्यता का कोलाहल भी है। लेकिन नदी-नाद का संगीत पृष्ठभूमि में लगातार बजता ही रहता है।
नदी और नाद अनुषंगी है। नदी और सभ्यता अंगांगी हैं। दुनिया की सभी सभ्यताओं का विकास नदी तट पर हुआ। मिश्र की प्राचीन सभ्यता नील नदी के तट पर उगी और तरुण हुई। विश्वविख्यात मैसोपोटामिया सभ्यता का जन्म और विकास यूपटिस और टाइग्रिस नदियों के तट पर हुआ।
चीनी सभ्यता भी होयांग-हो और मांगलिंग नदियों के तट पर विकसित हुई। भारत तो नदी संस्कृति का देश ही है। भारतीय संस्कृति, दर्शन और सभ्यता का विकास सरस्वती-सिंधु नदियों के वत्सल आंचल में हुआ। ऋग्वेद में दोनों नदियों का प्रवाह है। सरस्वती भौगोलिक नदी है, लेकिन साधारण नदी नहीं।
ऋषियों के काव्य गायन में वह ‘अंबितमा, नदीतमा और देवितमा’ भी है। यही वाग्देवी और ज्ञान की अधिष्ठात्री भी हैं। सभी नदियां उपास्य हैं। गंगा, यमुना सहित अन्य सभी नदियों ने भारत के मन, बुद्धि और प्रज्ञान अनुभवों को अपने जल से सींचा है। नदियों के तट भारत दर्शन का झरोखा बने हैं। आधुनिक काल में भी नदियों के संगम/मिलन स्थल करोड़ों भारतवासियों के मिलन और संगमन का केंद्र हैं। नदियां हमारे लिए भूगोल का ही भाग नहीं, वे हमारी माताएं हैं।
नदी जीवमान दिव्य चेतना है। प्रतिपल गतिशील। निरंतर प्रवहमान। चरैवेति, चरैवेति की प्राणवान निरंतरता। ऋग्वेद का नदी सूक्त सुमधुर काव्य अनुभूति है। कहते हैं- हे गंगा, यमुना, सरस्वती, शतुद्रि (सतलज), परूष्णी (रावी), अस्किनी (चिनाव), मरूदृधा, वितस्ता, सुषोमा और आर्जीकीया (व्यास) नदियां आप हमारी स्तुति सुनो। यहां नदी प्रवाह जैसा ही ऋषि चित्त का भी प्रवाह है। वे नदियों से भी मंत्र स्तुति सुनने का निवेदन कर रहे हैं।
नदियां केवल प्राकृतिक निर्माण नहीं हैं। उनका भी व्यक्तित्व है। उनका भी मन है। बुद्धि और प्रज्ञा भी। नदियां भी सुनती हैं। वे भी प्रसन्न और अप्रसन्न होती हैं। उनके भी चित्त में जीवेष्णा है। वे भी हम सबकी तरह दीर्घायु चाहती हैं। वे भी जीने की अभिलाषा रखती हैं। वे भी सागर से मिलने की मुक्ति कामना से भरीपूरी हैं। वे हमारी संरक्षक हैं।
वैदिक ज्ञान का अधिकांश भाग उनकी ही जलधाराओं के तट पर अनुभव में आया है। भारत सौभाग्यशाली है। यहां वर्षाजल से ही प्रवहमान नदियों की तुलना में हिमशिखरों से निकली नदियों की संख्या बड़ी है। वे बारहमासी सदानीरा है।
वैदिक ऋषि यह बात जानते थे अथर्ववेद के ऋषि कहते हैं- हिम आच्छादित पर्वत शिखरों से प्रवहमान नदियां समुद्र में मिलती हैं। प्रार्थना है कि दुखनाशक वे जलधाराएं हमारे अंतःकरण के कष्ट को दूर करने वाली औषधियां प्रदान करें। नदियां धन-वस्त्र सहित अनेक संपदा देती हैं। सरस्वती-सिंधु आदि को ऐसा ही बताया गया है। अथर्ववेद के ऋषि उनसे औषधियां मांग रहे हैं।
वनस्पतियों का जीवन जल है। जल का प्रवाह नदियां हैं। सदानीरा नदियों का उद्गम हिमशिखर है। हिमशैल पिघलते हैं। नदियां वेगवती सींचती हैं। वनस्पतियां खिलती हैं। प्राणरस के कारण वे औषधियां होती हैं। जन्म, यौवन, अनुभव और बुढ़ापे तक की हमारी जीवनयात्रा में नदियों की प्रीति है। सो नदियों का पोषण, नीराजन और आराधन भारत की रीति है।
लेकिन हम भारत के लोग नदियों की हिंसा पर उतारू हैं, गंगा संघर्ष कर रही हैं। सरस्वती संभवतः इसी कोप में अंतर्धान हो गईं। नदी सूक्त, नदी स्तुति, पुण्याहवाचन, कीर्तन और पूजार्चन की जल संस्कृति वाले इस राष्ट्र में नदियों की हिंसा बहुत व्यथित कर रही है।
जल सृष्टि का मूल घटक है। ऋग्वेद में अगाध जल से ही सृष्टि सृजन के संकेत हैं। यूनानी दर्शन के प्रथम चिंतक थेल्स ने भी जल को आदि तत्व बताया है। नदियां इस जल का प्रवाहमान रूप हैं। जल के अन्य कई रूप भी हैं। पृथ्वी की सतह पर बहता जल नदी कहलाया और आकाश पर वाष्प रूप में लहराता जल मेघ।
पृथ्वी के उत्तुंग शिखरों-पर्वतों पर शीत प्रभाव से हिमशैल बना जल बर्फ हो गया। भूगर्भ में भी जलधाराएं हैं। हम विभिन्न उपकरणों के माध्यम से भूगर्भ जल निकालते हैं और उसका उपयोग या दुरुपयोग करते हैं। लेकिन धरती पर प्रवाहित नदियां जलमाताओं का जीवंत रूप हैं। वे नमस्कारों के योग्य हैं।
जल के अभाव में जीवन की कल्पना नहीं। ग्रीष्म ऋतु में जलाभाव होता है। वनस्पतियां हताश हो जाती हैं। रूखी-सूखी, निर्जल, रसहीन और मृतप्राय। पर्जन्य आते हैं। आकाश में बादल छा जाते हैं। वनस्पतियां, कीट-पतंग और सभी प्राणी आकाश में घूमते-इठलाते मेघ देखकर पुलकित होते हैं। वर्षा होती है। वनस्पतियां लहक उठती हैं, सभी प्राणी लहलहा जाते हैं।
सूखी नदियां पुनर्नवा तरुणाई पाती हैं। नाद हहराता है, ध्वनि तरंगों का विस्तार होता है। जल आपूरित नदी का दर्शन ही अपने आप में विराट मधु अनुभव है। नदी तट पर खड़े होना स्थिरिता है, लेकिन नदी प्रवाह को देखते हुए हम स्थिर नहीं रह जाते हैं। नदी बहती है, नाद करती है।
अथर्ववेद के ऋषि ने ठीक ही गाया है- हे सरिताओं! आप नाद करते हुए बहती हैं, इसीलिए आप नदी हैं। यहां ऋषि का ध्यान रूप नहीं, नाद पर है। नदी में रूप और नाद दोनों हैं। सो नदी तट पर द्रष्टा की तरह खड़े या बैठे हमारा मन भी बहता है, नदी के साथ-साथ। जलतरंगों के नाद के साथ। हम नदी के साथ अंतरसंबंधित होते हैं। पहले हम इस प्रवाह के साक्षी बनते हैं। सिर्फ देखने वाले तटस्थ। लेकिन तटस्थता टूटती है। प्रवाह समेटता है- हम भी प्रवाह का भाग बन जाते हैं।
नदी तट पर साक्षी बने रहना कठिन है। संगीत सभा में बैठकर अकंपित बने रहना कहां संभव होता है? काव्य या गीत सुनकर भी बौद्धिक बने रहने वाले विरले ही होते हैं। गीत, काव्य और संगीत अपना प्रभाव छोड़ते ही हैं। प्रभाव भाव का ही परिणाम है।
नदी का नाद और प्रत्यक्ष प्रवाह हमको अपने साथ बहाते ही हैं। मैं अपने गांव से होकर बहने वाली सई नदी का परिजन हूं। हमारी जन्मभूमि में सई नदी बहती है। बचपन से ही हम उसका दुलार, रस और प्यार पाते रहे हैं। मैंने सई नदी के प्रवाह को बचपन में जिज्ञासावश देखा है। फिर जब-जब सई को देखा, तब-तब सई नदी ही मुझे देखती हुई दिखाई पड़ी। देखादेखी दोतरफा ही थी। फिर हमारी कर्मभूमि से होकर बहने वाली गंगा का पुण्याहवाचन करने का सौभाग्य मिला। जान पड़ता है कि मेरे भीतर अनेक नदियां हैं। एक विशाल नदी तंत्र।
सरस्वती का प्रवाह भरतजनों की वंश परंपरा के कारण है और गंगा का प्रवाह प्रत्यक्ष प्रीति के चलते। सई तो अपनी है ही। भीतर अनेक नाद हैं, अनेक नदियों के। नदियों को नष्ट करने वाली आधुनिक सभ्यता का कोलाहल भी है। लेकिन नदी-नाद का संगीत पृष्ठभूमि में लगातार बजता ही रहता है।
नदी और नाद अनुषंगी है। नदी और सभ्यता अंगांगी हैं। दुनिया की सभी सभ्यताओं का विकास नदी तट पर हुआ। मिश्र की प्राचीन सभ्यता नील नदी के तट पर उगी और तरुण हुई। विश्वविख्यात मैसोपोटामिया सभ्यता का जन्म और विकास यूपटिस और टाइग्रिस नदियों के तट पर हुआ।
चीनी सभ्यता भी होयांग-हो और मांगलिंग नदियों के तट पर विकसित हुई। भारत तो नदी संस्कृति का देश ही है। भारतीय संस्कृति, दर्शन और सभ्यता का विकास सरस्वती-सिंधु नदियों के वत्सल आंचल में हुआ। ऋग्वेद में दोनों नदियों का प्रवाह है। सरस्वती भौगोलिक नदी है, लेकिन साधारण नदी नहीं।
ऋषियों के काव्य गायन में वह ‘अंबितमा, नदीतमा और देवितमा’ भी है। यही वाग्देवी और ज्ञान की अधिष्ठात्री भी हैं। सभी नदियां उपास्य हैं। गंगा, यमुना सहित अन्य सभी नदियों ने भारत के मन, बुद्धि और प्रज्ञान अनुभवों को अपने जल से सींचा है। नदियों के तट भारत दर्शन का झरोखा बने हैं। आधुनिक काल में भी नदियों के संगम/मिलन स्थल करोड़ों भारतवासियों के मिलन और संगमन का केंद्र हैं। नदियां हमारे लिए भूगोल का ही भाग नहीं, वे हमारी माताएं हैं।
नदी जीवमान दिव्य चेतना है। प्रतिपल गतिशील। निरंतर प्रवहमान। चरैवेति, चरैवेति की प्राणवान निरंतरता। ऋग्वेद का नदी सूक्त सुमधुर काव्य अनुभूति है। कहते हैं- हे गंगा, यमुना, सरस्वती, शतुद्रि (सतलज), परूष्णी (रावी), अस्किनी (चिनाव), मरूदृधा, वितस्ता, सुषोमा और आर्जीकीया (व्यास) नदियां आप हमारी स्तुति सुनो। यहां नदी प्रवाह जैसा ही ऋषि चित्त का भी प्रवाह है। वे नदियों से भी मंत्र स्तुति सुनने का निवेदन कर रहे हैं।
नदियां केवल प्राकृतिक निर्माण नहीं हैं। उनका भी व्यक्तित्व है। उनका भी मन है। बुद्धि और प्रज्ञा भी। नदियां भी सुनती हैं। वे भी प्रसन्न और अप्रसन्न होती हैं। उनके भी चित्त में जीवेष्णा है। वे भी हम सबकी तरह दीर्घायु चाहती हैं। वे भी जीने की अभिलाषा रखती हैं। वे भी सागर से मिलने की मुक्ति कामना से भरीपूरी हैं। वे हमारी संरक्षक हैं।
वैदिक ज्ञान का अधिकांश भाग उनकी ही जलधाराओं के तट पर अनुभव में आया है। भारत सौभाग्यशाली है। यहां वर्षाजल से ही प्रवहमान नदियों की तुलना में हिमशिखरों से निकली नदियों की संख्या बड़ी है। वे बारहमासी सदानीरा है।
वैदिक ऋषि यह बात जानते थे अथर्ववेद के ऋषि कहते हैं- हिम आच्छादित पर्वत शिखरों से प्रवहमान नदियां समुद्र में मिलती हैं। प्रार्थना है कि दुखनाशक वे जलधाराएं हमारे अंतःकरण के कष्ट को दूर करने वाली औषधियां प्रदान करें। नदियां धन-वस्त्र सहित अनेक संपदा देती हैं। सरस्वती-सिंधु आदि को ऐसा ही बताया गया है। अथर्ववेद के ऋषि उनसे औषधियां मांग रहे हैं।
वनस्पतियों का जीवन जल है। जल का प्रवाह नदियां हैं। सदानीरा नदियों का उद्गम हिमशिखर है। हिमशैल पिघलते हैं। नदियां वेगवती सींचती हैं। वनस्पतियां खिलती हैं। प्राणरस के कारण वे औषधियां होती हैं। जन्म, यौवन, अनुभव और बुढ़ापे तक की हमारी जीवनयात्रा में नदियों की प्रीति है। सो नदियों का पोषण, नीराजन और आराधन भारत की रीति है।
लेकिन हम भारत के लोग नदियों की हिंसा पर उतारू हैं, गंगा संघर्ष कर रही हैं। सरस्वती संभवतः इसी कोप में अंतर्धान हो गईं। नदी सूक्त, नदी स्तुति, पुण्याहवाचन, कीर्तन और पूजार्चन की जल संस्कृति वाले इस राष्ट्र में नदियों की हिंसा बहुत व्यथित कर रही है।
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