जलवायु संकट : प्रभावित होती आजीविका, सामाजिक गतिविधियां और कठिनतम होता जीवन

पड़ोसी गांव पल्ला में आलू, राजमा तथा चौलाई का उत्पदन बढ़ा है और आपदाओं से उनका नुकसान भी कम हुआ है। इसका मुख्य कारण है कि वहां पर आज भी जैविक खेती की जाती है तथा गांव, वनों से घिरा है। अतः जिस संस्था से मैं जुड़ा हूं, वह कुछ सालों से इस दिशा में काम कर रही है। जल व बीज संरक्षण को लेकर पदयात्राएं की गई हैं। विलुप्त पारंपरिक जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने व स्थानीय वृक्षारोपण का भी काम किया गया है। मुझे उम्मीद है कि इससे कुछ तो बिगड़ती स्थिति की रफ्तार को हम रोक पाएंगे

मैं लक्ष्मण सिंह नेगी गांव पिल्खी, विकासखंड जोशीमठ, जिला चमोली उत्तराखंड का निवासी हूं। करीब 4800 फीट की ऊंचाई पर स्थित, हमारा गांव छोटा ही है जिसमें 14-15 परिवार ही हैं। मैं एक सीमांत कृषक हूं। मेरे परिवार की करीब 15 नाली (करीब 6 बीघा) जमीन है जिसमें हम मिश्रित खेती कर धान, गेहूँ, रामदाना, राजमा, सरसों, खीर, हल्दी, धनिया, मिर्च आदि उगाते हैं। पिछले 10 वर्षों से मैं अपने इलाके में कार्य कर रही एक सामाजिक संस्था, जयनन्दा देवी स्वरोजगार शिक्षण संस्थान ‘जनदेश’ से भी जुड़ा हूं। 9 नवंबर 2000 में स्थापित पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में जनपद चमोली उच्च हिमालयी क्षेत्र है। हमारे जनपद में सदाबहार बर्फीली चोटियों की श्रृंखला है और यहीं हिन्दु धर्म की आस्था के कई तीर्थ स्थित हैं, जिनमें प्रमुख बद्रीनाथ धाम। हमारे जनपद में ही कई प्रमुख नदियों का उद्गम है जिनमें सबसे बड़ी है अलकनंदा। इस नदी में छोटी नदियों के अलावा, पांच बड़ी नदियों का संगम पड़ता है जिनमें से पांचवा संगम देवप्रयाग पर भागीरथी से मिलने के बाद दोनों गंगा कहलाती हैं।

हमारा समाज मुख्यतः कृषक समाज है और ज्यादातर लोग छोटे किसान हैं। अनाज के अलावा फल व मसालों का भी अच्छा उत्पादन होता है। गाय-भैंस लगभग हर परिवार में होती हैं और कुछ परिवार भेड़-बकरियां भी पालते हैं। जंगलों से भी अपनी जरूरत के लिए हमें कुछ मिलता है और कुछ कच्चा माल जैसे रिंगाल से विभिन्न आकार-प्रकार की टोकरियां आदि बनाना कई परिवारों का पारंपरिक रोजगार है। प्राकृतिक सौंदर्य व धार्मिक स्थलों की वजह से यहां पर्यटन से भी कई लोगों की आजीविका चलती है। तो ये सभी हमारे लोगों की आजीविकाओं के मुख्य जरिए हैं। उच्च क्षेत्र होने की वजह से यहां सामान्य तौर पर वर्षा अधिक होती है, सर्दियों में मौसम काफी ठंडा रहता है और नवम्बर से फरवरी के बीच बर्फ भी गिरती है और यहां की जलवायु व विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण हम लोगों को अपनी आजीविका और जीवनयापन हेतु बहुत संघर्ष करना पड़ता है।

मैं साफ तौर पर महसूस करता हूं कि पिछले 10-20 सालों में हमारा जीवन कठिन से कठिनतर होता जा रहा है और इसका बहुत बड़ा कारण हमारे यहां तेजी से बदल रहा मौसम है। मौसम बदल ही नहीं रहा, बल्कि बहुत अनिश्चित हो गया है। हमारी कृषि व सामाजिक गतिविधियां अक्सर मौसम पर आधारित होती हैं और पहले हमारा सब काम अक्सर उसी अनुरूप सुचारू रूप से चलता था- हल लगाने का समय, बीज बोने का समय आदि सभी पूर्व-निर्धारित होते थे। यहां तक कि हमारा पूरा ज्ञान व जीवनयापन मौसम की उसी नियमित सुनिश्चितता पर आधारित था, पर अब हम कुछ भी अंदाज नहीं लगा पा रहे हैं कि कब सूखा पड़ेगा, कब सामान्य रहेगा। बारिश का पता नहीं लग रहा है कि कब आएगी या आएगी भी कि नहीं; या आएगी तो कितनी आएगी और रिमझिम आएगी या मूसलाधार आएगी। पहले पहाड़ों में बरसात के समय झड़ लगती थी यानि कि रिमझिम होती थी जिससे हमारी फसलें सही तरह से पक जाती थीं। अब मूसलाधार होती है, चार दिन की बारिश एक ही दिन में हो जाती है। उससे नुकसान ही हो रहा है।

जिस साल गर्मी अधिक होती है उस साल सूखे की स्थिति हो जाती है और अगर बारिश आकस्मिक या तेज होती है तो त्वरित बाढ़ एवं भूस्खलन की स्थिति पैदा कर देती है तथा सर्दियों में हम लोगों को शीत लहर से जूझना पड़ रहा है। मौसम की अनिश्चितता का ताजा उदाहरण इस साल अगस्त-सितम्बर में अत्यधिक वर्षा होना है जिससे पूरे इलाके में भारी नुकसान हुआ है। विडंबना यह है कि इतनी बारिश होने के दो-एक महीने बाद ही आजकल पानी की कमी फिर सताने लगी है। बारिश का पानी जमीन में नहीं समाया बल्कि तेजी से नीचे बह गया। यह काफी कुछ हमारे इलाकों में जंगलों के कटान से भी हुआ है। पहले कभी इस तरह की बारिश होती थी तो हमारा मानना है कि जाड़ों में अच्छी बर्फ पड़ेगी, पर हम अब पक्का नहीं कर सकते कि इस साल की अत्यधिक बारिश के बाद जाड़ों में क्या स्थिति होगी।

हमारे इलाके में बर्फ गिरना बहुत कम हो गया है। 1990 तक मुझे याद है कि मेरे गांव में 3-4 फीट तक बर्फ पड़ जाया करती थी जो काफी दिनों तक बनी रहती थी। अब बर्फ कुछ ही इंच पड़ती है और वह भी एक-दो दिन ही टिकती है और वह भी अक्सर अब दिसंबर में नहीं पड़ती बल्कि फरवरी-मार्च तक जाकर पड़ती है। इन सबसे हमारी खेती पर बहुत बुरा असर पड़ा है। पहाड़ी खीरा बड़े आकार का व बहुत रसीला होता है पर मैं अपने खेत में देख रहा हूं कि उसका पौधा बहुत देर से पनप रहा है, जिसकी वजह से वह जल्दी बूढ़ा हो रहा है। ऐसे में वह न तो पहले जैसा आकार पा रहा है, न ही उसमें पहले जैसी मिठास रही है। यही हाल कद्दू का भी है। बर्फ के न होने से हमारी जाड़ों की फसल अक्सर सूखाग्रस्त हो जा रही है। मेरा परिवार आलू व मटर बो तो रहे हैं पर इधर कुछ सालों से जाड़ों में बर्फ न पड़ने से सूख जा रहे हैं, यहां तक कि उनकी फसल काटी ही नहीं जा रही है। सरसों की फसल भी न के बराबर हो पा रही है। फसल की गुणवत्ता में भी कमी आ रही है।

बारिश की अनिश्चितता और सूखा से फसल के पकने का समय भी आगे-पीछे हो गया है या फिर पौधों पर बालियां कम हो रही हैं और बालियों में दाने कम। साल भर में मेरे परिवार में जितनी फसल होती थी, अब उससे आधी या थोड़ा ही ज्यादा हो पा रही है। गांव में जलस्रोतों के सूखने का क्रम निरंतर बढ़ता जा रहा है। पिछले इन 10-15 सालों में हमारी खाद्य सुरक्षा का गंभीर प्रश्न खड़ा हो गया है। मेरे निकटवर्ती गांवों में जहां सेब का अच्छा उत्पादन होता था। अब, मैं देखता हूं कि वहां हर साल कम से कम सेब हो रहा है। यह इसलिए कि उस पर फूल बेमौसम खिल जा रहा है जिससे उस पर फल कम, कमजोर व रोगग्रस्त हो रहे हैं। यह उन परिवारों के लिए विकट समस्या है जिनके लिए सेब आय व आजीविका का एक अच्छा साधन था। अब, मैं देखता हूं कि सेब सिर्फ 7500 फीट के ऊपर के गांवों में हो पा रहा है। हमारे जंगलों में भी अब हमें पहले से कम उत्पाद मिल पा रहे हैं और हमारे व आसपास के गांवों में रिंगाल की चीजें अब उतनी ज्यादा नहीं बन रही हैं जितना पहले बनती थीं क्योंकि जंगल से अब कच्चा माल कम प्राप्त हो रहा है।

उपाय साधन


मैं सोचता हूं कि इन परिस्थितियों में जैविक खेती एक समाधान हो सकती है। हमारे पूरे क्षेत्र में जहां आलू, राजमा व रामदाना के उत्पादन में काफी कमी आई है, हम देख रहे हैं कि पड़ोसी गांव पल्ला में आलू, राजमा तथा चौलाई का उत्पदन बढ़ा है और आपदाओं से उनका नुकसान भी कम हुआ है। इसका मुख्य कारण है कि वहां पर आज भी जैविक खेती की जाती है तथा गांव, वनों से घिरा है। अतः जिस संस्था से मैं जुड़ा हूं, वह कुछ सालों से इस दिशा में काम कर रही है। जल व बीज संरक्षण को लेकर पदयात्राएं की गई हैं। विलुप्त पारंपरिक जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने व स्थानीय वृक्षारोपण का भी काम किया गया है। मुझे उम्मीद है कि इससे कुछ तो बिगड़ती स्थिति की रफ्तार को हम रोक पाएंगे लेकिन सबसे जरूरी है कि इस तरह के संरक्षण कार्य को लेकर सरकारी नीतियां व कार्यक्रम सहायक हों, जैसा कि अभी है नहीं।

दरअसल जलवायु परिवर्तन की उपरोक्त घटनाओं तथा उनसे मेरे साथ-साथ स्थानीय निवासियों के जीवन आजीविका एवं पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों हेतु मुख्य दोषी हमारी सरकारें (केंद्र एवं राज्य) और उनकी दोषपूर्ण विकास नीतियां हैं। हमारी कृषि विभाग भी दोषी है, जो हमें अपने क्षेत्र के अनुरूप खेती करने के लिए हतोत्साहित करता है व असंगत व प्रतिकूल खेती को बढ़ावा दे रहा है। इनके चलते जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया व प्रभाव बढ़ रहे हैं। इन सभी दोषियों पर जलवायु परिवर्तन से लोगों को हो रहे नुकसान की भरपाई के लिए तथा उन्हें भविष्य में सक्षम बनाने के लिए जवाबदेह बनाया जाना चाहिए।

नाम : लक्ष्मण सिंह नेगी
उम्र : 38 वर्ष
व्यवसाय : कृषि

पता :-


ग्राम पिल्खी, विकासखंड जोशीमठ, जिला चमोली, उत्तराखंड

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