जलवायु संकट : कृषि, पशुपालन व जीवनयापन की कठिनाइयां

नदियों का जलस्तर बढ़ जाने के कारण ऐसे उथले स्थान अब कम हो गए हैं जहाँ से ये मछुआरे मछली पकड़ा करते थे। नदियों के किनारों पर मिट्टी और गाद जमा होने के कारण बीच में उनकी गहराई बढ़ गई है। इस क्षेत्र की नदियों में पाई जाने वाली मछलियों की कई प्रजातियाँ जैसे हिल्सा, पॉम्फ्रेट, मेकरिल, चकलि (क्षेत्रीय नाम), बॉल (क्षेत्रीय नाम), सिम्यूल (क्षेत्रीय नाम), मेड (क्षेत्रीय नाम), तारा आदि की संख्या बहुत कम हो गई है।

मैं जिला 24 परगना, सुंदरवन के बड़े विकासखंडों में से एक पाथर प्रतिमा का किसान नेता अनिमेश गिरि हूँ। यहाँ रहने वाले अधिकांश लोग छोटे किसान और मछुआरा समुदाय के हैं। चक्रवात, मिट्टी की अत्यधिक लवणता और पानी के भराव ने हमारे गांव सहित पूरे सुंदरवन को हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया है।

सुंदरवन संसार के सबसे असुरक्षित पारिस्थितिकी क्षेत्रों में से एक है। यहाँ किसी न किसी प्राकृतिक आपदा के आने का डर हमेशा ही बना रहता है। यह एक बाढ़ प्रभावित क्षेत्र है। यहाँ मीठा पानी, दलदल और विभिन्न प्रकार के वनस्पतियों से भरा हुआ जंगल है, जो 10 हजार किमी. के क्षेत्र में फैला हुआ है। निम्न स्तर का विकास, आधारभूत संरचनाओं का अभाव, अत्यधिक गरीबी, ऊर्जा की मांग अत्यधिक होने के बाद भी उसकी कम उपलब्धता, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, संक्रामक और पानी से होने वाली बीमारियों डायरिया, मलेरिया आदि की अधिकता इस क्षेत्र की कमजोरियाँ बन चुकी हैं।

तापमान में परिवर्तनः- पिछले दो-तीन वर्षों में क्षेत्र के तापमान में बहुत अधिक बदलाव आया है। यहां ग्रीष्म ऋतु के साथ ही शीत ऋतु का तापमान भी पहले की तुलना में काफी बढ़ गया है। इस वर्ष गर्मी पिछले कुछ वर्षों की तुलना में बहुत अधिक भीषण थी। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव ऋतु चक्र पर भी पड़ा है। वसंत तो अब नजर ही नहीं आता और पतझड़ के काल में भी कमी आई है।

वर्षा की दशाओं में बदलावः- हमारे क्षेत्र में वर्षा की दशाओं में बहुत अधिक परिवर्तन आया है। विशेषतः पिछले दो वर्षों में वर्षा बहुत अनियमित हो गई है। इसकी आवृति और मात्रा में बदलाव आया है, यद्यपि वर्षा ऋतु के काल में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं आया लेकिन वर्षा की मात्रा बढ़ गई है। विशेषकर पिछले तीन-चार वर्षों में बिजली की कड़क और बादलों की गरज के साथ 6-7 दिनों तक चलने वाली मूसलाधार बारिश अब एक-दो दिन के लिए ही आती है। इस वर्ष बारिश 20-25 दिन देरी से आई।

तीव्र जलवायु घटनाएः- चक्रवात, दबाव, चक्रवातीय तूफान, प्रचण्ड तूफान की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। उदाहरण के लिए पिछले दो वर्षों में हमने तीन बड़ी प्राकृतिक आपदाओं सिद्र, नरगिस और आईला का सामना किया है। इन आपदाओं के परिणामस्वरूप क्षेत्र का एक बड़ा भूखंड खारे पानी में डूब गया।

भू-क्षतिः- जिन द्वीपों पर लोगों ने अपना आवास बनाया हुआ था, प्राकृतिक आपदाओं के कारण उनकी भारी भू-क्षति हुई है। इन द्वीपों का 60 प्रतिशत हिस्सा जलमग्न हो गया है। यह संपूर्ण क्षेत्र भौतिक रूप से निचले डेल्टा मैदानों से घिरा हुआ है, जिनका निर्माण मानसूनी और चक्रवातीय घटनाओं के फलस्वरूप हुए अवसादन से हुआ है। बारिश और चक्रवातीय घटनाओं की संरचना में आने वाले परिवर्तनों ने इस आवासीय स्थान पर सीधा प्रभाव डाला है।

कृषि कार्यों पर प्रभावः- जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव हमारी कृषि पर पड़ा है। फसलों को नुकसान पहुँचाने वाले कीटों का हमला तो बढ़ा ही है, साथ ही ब्लास्ट जैसी बीमारियों का प्रकोप भी फसलों पर बढ़ गया है। संभवतः इसका कारण बादलों का अधिक समय तक छाया रहना हो सकता है। साथ ही रसायनों के अत्यधिक प्रयोग ने भी मिट्टी और पौधों की बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता को कम किया है। खेती पर आने वाली लागत में वृद्धि हुई है लेकिन उससे होने वाली आय में आशा के अनुरूप वृद्धि नहीं होने के कारण कृषि लाभकारी नहीं रही। वर्ष 2004 में खेती पर आने वाला खर्च 3600 रुपए था और आज यह पहले की तुलना में लगभग दो गुना बढ़कर 6000 रुपए तक हो गया है। वहीं 2004 में जहां हम प्रति एकड़ 90 किलोग्राम तक (अधिक उपज वाली प्रजाति) चावल प्राप्त करते थे, वहां अब सिर्फ 66 किग्रा प्रति एकड़ ही मिल रहा है। अभी हाल ही दक्षिण से आने वाली एक हवा ने धान की तैयार खड़ी फसल को नष्ट कर दिया। यह धान की खेती के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। फलों के उत्पादन के मामले में भी नए पेड़ तो अभी अच्छी फसल दे रहे हैं लेकिन पुराने पेड़ों का उत्पादन पिछले 3-4 वर्षों में बहुत घट गया है।

पशु पालन पर आने वाले खर्च में भी बहुत अधिक वृद्धि हुई है। पहले पशुओं के चरने के लिए यहाँ बड़ी मात्रा में चारागाह उपलब्ध थे लेकिन अब उनमें से अधिकांश या तो नदियों में डूब गए हैं या फिर उनमें अब पशुओं के चरने के लिए चारा ही नहीं बचा है। इससे पशुओं के चारे और उन्हें होने वाली बीमारियों के इलाज पर आने वाला खर्च बढ़ गया है।

पीने योग्य पानी की उपलब्धता भी घटती जा रही है। यहाँ पर जमीन में 15 से 20 फिट गहरे कई नलकूप लगाए हैं। इनके कारण भूमि में दरारें पड़ने लगी हैं। ठंड और गर्मी के मौसम में हमें अक्सर इन नलकूपों से खारा पानी प्राप्त हो रहा है।

जीवन यापन में कठिनाईः जलवायु परिवर्तन ने यहाँ के जलीय जीवन पर भी विपरीत असर डाला है, जिससे यहाँ बसने वाले मछुआरा समुदाय पर आजीविका का खतरा मंडराने लगा है। 10 वर्ष पहले तक मछुआरा महीने में 15 दिन ही मछली पकड़ने का काम करता था और इससे वह कम से कम 1000 रुपए की आय प्राप्त करता था लेकिन पिछले 2-3 वर्षों में उनकी आय 300 से 400 रुपए तक ही सिमट कर रह गई है। पहले सामान्यतः एक मछुआरा मछली पकड़ने के काम से साल के 8 महीने अपना जीविकोपार्जन अच्छी तरह से कर लेता था। परंतु अब प्रकृति में हुए परिवर्तनों के कारण मछली पकड़कर अपने जीवन का निर्वाह करना उसके लिए मुश्किल हो रहा है। जिस काम से पहले वह साल के आठ महीने आराम से अपना घर चला पाता था अब उस काम से 2-3 महीने का भी खर्च नहीं निकाला जा रहा। नदियों का जलस्तर बढ़ जाने के कारण ऐसे उथले स्थान अब कम हो गए हैं जहाँ से ये मछुआरे मछली पकड़ा करते थे। नदियों के किनारों पर मिट्टी और गाद जमा होने के कारण बीच में उनकी गहराई बढ़ गई है। इस क्षेत्र की नदियों में पाई जाने वाली मछलियों की कई प्रजातियाँ जैसे हिल्सा, पॉम्फ्रेट, मेकरिल, चकलि (क्षेत्रीय नाम), बॉल (क्षेत्रीय नाम), सिम्यूल (क्षेत्रीय नाम), मेड (क्षेत्रीय नाम), तारा आदि की संख्या बहुत कम हो गई है। इन मछुआरों के लिए आय और जीवन यापन के साधन के रूप में अब केवल लोट (lote) मछली ही एक मात्र विकल्प है। मछुआरे छोटी जाली वाले जाल का उपयोग कर रहे हैं जिसमें नदियों में पाए जाने वाले छोटे-छोटे जीव और छोटी मछलियां भी फंस जाते हैं लेकिन इनका कोई व्यावसायिक उपयोग न होने के कारण इन्हें वापस नदियों में छोड़ना पड़ता है।

हमारी आजीविका के स्रोत और विपत्ति के समय ढाल बनकर हमारी रक्षा करने वाले वनस्पति को भी गैरकानूनी ढंग से काटा जा रहा है। इस कटाई ने हमारी नदियों के बाँध को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाया है।

हमारी कृषि को बचाने के प्रयास किए जाएँ। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग के साथ ही अतिरिक्त सिंचाई और ईंधन पर आधारित कृषि पर रोक लगाई जाए। पारंपरिक बीजों के उपयोग को प्रोत्साहन दिया जाए जिससे ऊर्जा की खपत को कम किया जा सके। वनस्पतियों के रोपण के प्रयास किए जाएँ। जल और वन संसाधनों के अनुचित ढंग से होने वाले अत्यधिक दोहन पर रोक लगाई जाए।

नाम : अनिमेश गिरी
उम्र : 35 वर्ष,
व्यवसाय : कृषि,
पता : ग्राम पाथर प्रतिमा, जिला 24 परगना, सुंदरवन, पश्चिम बंगाल


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Post By: tridmin
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