यदि भारत कार्बन उत्सर्जन घटाने के अपने लक्ष्य पर संजीदगी से डटा रहता है तो नेतृत्व का मौका भारत के पास भी होगा; क्योंकि भारत में अभी भी एक बड़ी आबादी ऐसी है, जो कम उपभोग करती है; जो प्रकृति का रक्षण-पोषण में स्वयं का रक्षण-पोषण निहित मानती है। भारत के पास अपने कार्बन उत्सर्जन को बिना किसी विदेशी तकनीकी तथा आर्थिक मदद के नियंत्रित करने की क्षमता है। अमेरिकी राष्ट्रपति श्रीमान डोनाल्ड ट्रम्प ने समझौते से भागने की वजह अमेरिकी हित बताया है। गौर कीजिए कि वायुमण्डल में मौजूद नुकसानदेह गैसों ने जितनी जगह घेरी है, उसमें सबसे ज्यादा चीन (27.3 फीसदी) द्वारा उत्सर्जित की गई है। दुनिया की मात्र पाँच फीसदी आबादी अमेरिका में रहती है; किंतु 16.4 फीसदी जगह घेरने के साथ अमेरिका, दुनिया का दूसरा सबसे अधिक नुकसानदेह गैस उत्सर्जन करने वाला राष्ट्र है। इसी दोष को घटाने की खातिर, अमेरिका ने वर्ष 2030 तक जहरीली गैसों के अपने उत्सर्जन में 32 फीसदी घटोत्तरी का वादा किया था। यह वादा, पेरिस जलवायु समझौते का घोषित हिस्सा था। अपनी वादा पूर्ति के लिये अमेरिका को कोयले जैसे जीवाश्म ईंधनों से बिजली पैदा करने की बजाय, हरित विकल्पों पर जाना होगा; सड़कों पर दौड़ती साढ़े 25 करोड़ कारों में 50 प्रतिशत से अधिक की घटोत्तरी करनी होगी; आसमान में बेइंतहा उड़ानों की आवृत्ति घटानी होगी; सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देना बाध्यता होगी। इसके अलावा उपभोग व कचरा घटाने, जल व हरित क्षेत्र बढ़ाने जैसे कई और कदम भी उठाने होंगे।
अमेरिका का हित-अनहित
समझौते से बाहर होने के बावजूद यदि अमेरिका 32 फीसदी घटोत्तरी का लक्ष्य हासिल करने के कदम उठाता है, तो निस्संदेह, समझौते से हटना अमेरिका के लिये आर्थिक मुनाफे का सौदा साबित होगा। समझौते से बाहर होने की वजह से वह ‘ग्रीन क्लाइमेट फण्ड’ में अपने हिस्सेदारी देने से वह बच जायेगा। किंतु समझौते से बाहर होने के बाद अमेरिका अब यदि कार्बन उत्सर्जन कटौती के अपने लक्ष्य के लिये कदम उठाने के मामले में भी पीछे हटा, तो अमेरिका द्वारा वर्ष 2030 तक संभावित तीन अरब टन से अधिक नुकसानदेह गैस उत्सर्जन पर लगाम लगाना मुश्किल हो जायेगा। तय मानिए कि इसका नुकसान, दुनिया के साथ-साथ खुद अमेरिका को भी होगा।
आज अमेरिका के थर्मल पावर संयंत्रों से 120 मिलियन टन कचरा छोड़ने का आंकड़ा है। परिणामस्वरूप, 2004 के बाद से अब तक अमेरिका के एक दर्जन बड़े बिजली संयंत्र या तो बंद हो गये हैं अथवा उत्पादन गिर जाने से बंद होने के कगार पर हैं। उसने अपने कई बड़े बाँधों को तोड़ दिया है। खबर यह भी है कि आठ राज्यों ने तो नये बिजली संयंत्र लगाने से ही इंकार कर दिया है। अमेरिका में पानी की कुल खपत का सबसे ज्यादा, 41 प्रतिशत ऊर्जा उत्पादन में खर्च होता है। पानी पर यह निर्भरता इस कमी के बावजूद है कि कम होती बारिश व सूखा मिलकर 2025 तक ली वेगास, साल्ट लेक, जार्जिया, टेनेसी जैसे इलाकों के पानी प्रबंधन पर लाल निशान लगा देंगे। चेतावनी यह भी है कि 2050 तक कोलरेडा जैसी कई प्रमुख नदी के प्रवाह में भी 20 प्रतिशत तक कमी आ जायेगी। एक ओर ताजे पानी का बढ़ता खर्च, घटते जलस्रोत और दूसरी तरफ किसान, उद्योग और शहर के बीच खपत व बँटवारे के बढते विवाद। बड़ी आबादी उपभोग की अति कर रही है, तो करीब एक करोड़ अमेरिकी जीवन की न्यूनतम जरूरतों के लिये संघर्ष कर रहे हैं। विषमता का यह विष, सामाजिक विन्यास बिगाड़ रहा है।
यह चित्र बताता है कि यदि अमेरिका ने यदि कार्बन उत्सर्जन कटौती लक्ष्य से पीछे हटने की कोशिश की तो तात्कालिक आर्थिक लाभ चाहे जो हों, किंतु मौसमी बदलाव, जल विषमता, कृषि उत्पादकता में घटोत्तरी, सेहत के सत्यानाश, उद्योगों पर संकट और जैवविविधता में कमी के रूप में तापमान वृद्धि के जो भी नतीजे सामने आयेंगे, उनसे दुष्प्रभाव से बचने वाला अमेरिका भी नहीं। पलायन, सामाजिक विद्वेश, अपराध, हक पर हमला, बेरोज़गारी व महँगाई में बढ़ोत्तरी जैसे सामाजिक-आर्थिक अशांति के परिदृश्य अमेरिका में भी बढेंगे। ऐसे में पूरी दुनिया में नुकसानदेह उत्सर्जन के खिलाफ जंग और मुश्किल हो जायेगी। कोई ताज्जुब नहीं कि इसका अंत दुनिया के देशों के बीच टकराहट के रूप में हो और पानी के लिये तीसरे विश्व युद्ध की भविष्यवाणी सच हो जाये। यही कारण है कि दुनिया के अन्य देशों के अलावा खुद अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रम्प का विरोध हुआ है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने खुद इसकी निंदा की है। फ्रांस के राष्ट्रपति इमेन्युल मैकों ने इसे पृथ्वी के भविष्य की दिशा में बड़ी भूल घोषित किया है। तय मानिए कि अपनी घुटती सांसों के लिये श्रीमान ट्रम्प को कोसेंगी तो आने वाली अमेरिकी पीढ़ियाँ भी।
समझौता समीकरण पर प्रभाव
आइये, आर्थिक पहलू पर चर्चा करें। समझौते के तहत अमेरिका ने स्वीकार किया था कि गरीब देशों को कार्बन उत्सर्जन कटौती का लक्ष्य हासिल करने के लिये बनाये ‘ग्रीन क्लाइमेट फण्ड’ में तीन बिलियन डॉलर देगा। फिलहाल यह माना जा रहा है कि अमेरिका के भाग निकलने की मूल वजह, तीन बिलियन डॉलर की यह रकम ही है। अमेरिका की मंशा है कि वह समझौता तोड़ने की धमकी देकर रकम देने की इस आर्थिक जवाबदेही को कुछ कम करा लेगा। इसी इरादे से वह समझौते की शर्तों में कुछ बदलाव चाहता है। यदि ऐसा हो गया तो कोई ताज्जुब नहीं कि कुछ अन्य अमीर देश भी अमेरिका के नक्शे कदम पर चलकर रियायत हासिल करना चाहें।
इसका दुष्परिणाम यह होगा कि समझौते के तहत कार्बन कटौती के अपने लक्ष्य को पूरा करने का तात्कालिक आर्थिक बोझ गरीब देशों को काफी-कुछ खुद ही झेलना होगा। यदि अमीर देशों ने आर्थिक मोर्चे पर रियायत हासिल करनी चाही तो इसके असर की अगली संभावित कड़ी, गरीब देशों द्वारा आर्थिक रोना रोने के रूप में सामने आयेगी। वे कहेंगे कि कार्बन कटौती के पूर्व घोषित अपने लक्ष्य की पूर्ति करने की कोशिश में उनकी अर्थव्यवस्था चरमरा जायेगी; या तो अमीर देश तय मदद दें अन्यथा वह कार्बन कटौती लक्ष्य पूरा नहीं कर पायेंगे। जाहिर है कि ऐसा होने से पूरा का पूरा पेरिस जलवायु समझौता ही खतरे में पड़ जायेगा। रूस का संकेत है कि अमेरिका के हाथ पीछे खींचने से पेरिस समझौते का प्रभाव घटेगा। प्रभाव घटा तो तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस तक कम करने का लक्ष्य हासिल करना अपने आप में मुश्किल हो जायेगा।
नेतृत्व बदलाव का अवसर
जैसा कि दुनिया के सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जक राष्ट्र- चीन ने अन्य देशों के साथ मिलकर समझौते को जारी रखने का फैसला लिया है; यदि अमेरिका की धमकी के बावजूद, पेरिस समझौते की शर्तों में बदलाव नहीं होता है तो ऐसी स्थिति में सबसे पहली चुनौती यह होगी कि ‘ग्रीन क्लाइमेट फण्ड’ में अमेरिका की हिस्सेदारी की भरपाई कौन और क्यों करे? इस सवाल के उत्तर की तलाश एक सुअवसर भी हो सकती है। पूछिए कि कैसे? हम जानते हैं कि अमेरिकी की छवि, वैश्विक सरोकार के मसलों में अगुआई और दंबगई की है। समझौते से बाहर बने रहने की दशा में कम से कम जलवायु सरोकार के मामले में अगुआई का अवसर तो अमेरिका के हाथ से निकल ही जायेगा। ऐसी स्थिति में यह अवसर चीन, भारत और यूरोपीय संघ के पास होगा। यूरोपीय संघ के पास मौका आने की वजह कई राष्ट्रों की एकजुटता तथा यूरोपीय संघ की आर्थिक हैसियत होगी। चीन के पास मौका आने की वजह, सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जक राष्ट्र का समझौते पर डटे रहना तथा आर्थिक व सामरिक हैसियत की वजह से चीन का दूसरे देशों पर प्रभाव होगा।
2011 की जनगणना के अनुसार, आबादी के हिसाब से भारत की वैश्विक हिस्सेदारी 17 फीसदी के आस-पास है। ताजा आंकड़ों के अनुसार, आबादी के मामले में भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है; बावजूद इसके भारत में हो रहे नुकसानदेह उत्सर्जन ने वायुमण्डल में मात्र 6.6 फीसदी जगह ही घेरी है। आबादी के अनुपात में उत्सर्जन के प्रतिशत को सामने रखकर भारत कह सकता है कि बड़ा उत्सर्जक होने के बावजूद उसने 2005 के अपने कार्बन उत्सर्जन की तुलना में 2030 तक 30 से 35 फीसदी की कटौती का लक्ष्य रखा है। वर्ष 2030 तक 2.5 से तीन अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड अवशोषित करने के लिये वन क्षेत्र में इजाफे का लक्ष्य अतिरिक्त है। लक्ष्य हासिल करने के मद्देनजर, भारत सरकार ने सौर ऊर्जा उत्पादन में व्यापक कोशिशें शुरू कर दी है। 40 करोड़ एलईडी बल्ब घर-घर पहुँचाने का लक्ष्य अपनाकर हजारों मेगावाट बिजली बचाने का संकल्प लिया है। भारत को डीजल व पेट्रोल फ्री वाहन युक्त देश बनाने के लिये बिजली आधारित वाहनों को बाज़ार में उतारने की व्यवस्था बनाना शुरू कर दिया है। वृक्षारोपण की मुहिमें भी कई स्तर पर शुरू की गई हैं।
यदि भारत कार्बन उत्सर्जन घटाने के अपने लक्ष्य पर संजीदगी से डटा रहता है तो नेतृत्व का मौका भारत के पास भी होगा; क्योंकि भारत में अभी भी एक बड़ी आबादी ऐसी है, जो कम उपभोग करती है; जो प्रकृति का रक्षण-पोषण में स्वयं का रक्षण-पोषण निहित मानती है। भारत के पास अपने कार्बन उत्सर्जन को बिना किसी विदेशी तकनीकी तथा आर्थिक मदद के नियंत्रित करने की क्षमता है। भारत यदि वैश्विक कर्जदाताओं के ठगजाल से बाहर निकल सके; यदि भारत सादगी, स्वावलंबन और प्राकृतिक जीवन शैली को पुनः अपनी शक्ति बना सके तो तय मानिए उसके लिये लक्ष्य तय करना कोई मुश्किल नहीं। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत ने दुनिया के कई देशों के बीच समन्वय भूमिका निभाने की क्षमता हासिल कर ली है। यह एक अतिरिक्त कौशल है, जिसके बिना पर भारत तापमान वृद्धि नियंत्रित करने की वैश्विक पहल का अहम किरदार बनकर उभर सकता है। काश! ऐसा हो।
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