जब दुनिया के देश जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) द्वारा आयोजित 26वें सम्मेलन में जलवायु कार्रवाई पर अपने–अपने रुख पर चर्चा करने और विचार–विमर्श करने की दिशा में बढ़ रहे हैं‚ तो इस बीच विकासशील देशों में तीखी बहस चल रही है कि वे कोयले पर अपनी निर्भरता कैसे कम कर सकते हैं क्योंकि अक्षत ऊर्जा को अपनाने की दिशा में समर्पित प्रयास आगे बढ़े हैं। कॉप 26 के करीब आते–आते‚ आपूर्ति में कमी की अफवाहों के कारण कोयला भारत में सुर्खियों में रहा लेकिन इसे जलवायु विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों ने चुनौती दी। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण और बिजली मंत्रालय ने बताया कि 86 फीसदी कोयला संयंत्रों (135 में से 116) के पास अक्टूबर के दूसरे हफ्ते तक एक सप्ताह से कम के लिए कोयले की आपूर्ति थी। इस बयान के विपरीत घरेलू स्तर पर उपलब्ध विशाल कोयला भंडार को देखते हुए पर्याप्त आपूर्ति का दावा करते हुए विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों ने आपूर्ति में कमी को अफवाह बताया।
सच सामने आना अभी बाकी है‚ लेकिन निस्संदेह भारत 2030 के अंत तक गैर–जीवाश्म ईंधन ऊर्जा स्रोतों से 450 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन क्षमता के अपने उद्देश्य को पूरा करेगा। इसका 38.5 से 40 फीसद लक्ष्य प्राप्त कर लिया गया है। भारत में सौर और पवन ऊर्जा पहले से ही नई और चालू कोयला बिजली संयंत्रों के मुकाबले कम खर्चीली हैं। नये कोयला संयंत्रों की बजाय दीर्घकालिक और टिकाऊ विद्युत उत्पादन में निवेश से न सिर्फ पारिवारिक बचत बढ़ेगी‚ बल्कि कंपनियों और सरकारों का खर्च भी कम होगा जिन्हें बहुत अधिक बिजली की जरूरत पड़ती है।
दूसरी ओर‚ भारत अपनी वर्तमान बिजली उत्पादन का 70 प्रतिशत 135 कोयला बिजली संयंत्रों से प्राप्त करता है‚ जिनमें से अधिकांश केंद्र सरकार की एजेंसियों द्वारा निर्धारित प्रदूषण नियंत्रण उपायों को लागू करने में विफल रहे हैं। ग्रीनपीस इंडिया और सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (सीआरईए) द्वारा पिछले साल जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत 2019 में भी लगातार पांचवें वर्ष सल्फर डाइऑक्साइड का दुनिया का सबसे बड़ा उत्सर्जक बना रहा। यह जीवाश्म ईंधन (कोयला और तेल) के जलने से उत्पन्न होने वाली जहरीली गैस है‚ और उद्योगों द्वारा उत्सर्जित की जाती है। हृदय रोग और कैंसर सहित गंभीर बीमारियों का कारण बनती है।
दिल्ली सबसे प्रदूषित राजधानी
इससे भी बुरी बात है कि 106 देशों से संबंधित आईक्यूएयर की विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट‚ 2020 में भारत ने विशिष्ट स्थान हासिल किया है। दुनिया के 50 सबसे प्रदूषित शहरों में से 35 भारत के थे। इनमें से दिल्ली लगातार तीसरे वर्ष दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी थी। बिजली संयंत्रों के उत्सर्जन से निपटने के लिए 2015 से ही मानक प्रदूषण नियंत्रण उपाय मौजूद हैं‚ लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के बार–बार के निर्देशों के बावजूद इन 6 वर्षों में समय–सीमा को बढ़ाने के प्रयासों के साथ इन मानकों और उपायों के अनुपालन में कमी देखी गई है। कोयला बिजली संयंत्रों से बिगड़ती वायु गुणवत्ता में सुधार और इसके कारण होने वाले स्वास्थ्य दुष्प्रभावों को दूर करने के लिए पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 2015 की अधिसूचना के जरिए पाÌटकुलेट मैटर (पीएम) के लिए उत्सर्जन मानकों में संशोधन किया‚ पानी की खपत संबंधी सुरक्षित सीमाएं तय कीं और सल्फर डाइऑक्साइड‚ नाइट्रोजन ऑक्साइड एवं मरकरी (पारा) उत्सर्जन संबंधी नये मानक प्रस्तुत किए। इस अधिसूचना के निर्देशों के मुताबिक सभी संयंत्रों द्वारा अद्यतन मानकों को लागू करने के लिए 7 दिसम्बर‚ 2017 की समय–सीमा तय की गई थी‚ लेकिन 2017 और 2018 में सुप्रीम कोर्ट के बार–बार निर्देशों के बावजूद भारत में किसी भी बिजली संयंत्र ने उत्सर्जन मानकों का अनुपालन सुनिश्चित करने में उत्सुकता नहीं दिखाई। बिजली मंत्रालय की सहायता से 2015 के मानकों को 2017 तक लागू करना था लेकिन समय–सीमा 2022 तक के लिए बढ़ा दी गई। हालात बदतर बनाते हुए बिजली उत्पादक मानकों के अनुपालन को अतिरिक्त दो वर्षों यानी 2024 तक के लिए टालने के प्रयास कर रहे हैं।
पुराने संयंत्र बंद करने के फायदे
सी–40 सिटीज क्लाइमेट लीडरशिप ग्रुप‚ जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के लिए प्रतिबद्ध दुनिया के महानगरों का नेटवर्क‚ के हालिया अध्ययन में अनुमान लगाया है कि मौजूदा कोयला संयंत्रों (लगभग 46.5 गीगा वॉट वाले पुराने कोयला संयंत्र) में 20 फीसद संयंत्रों में उत्पादन बंद करने और दिल्ली‚ मुंबई‚ कोलकाता‚ बेंगलुरु तथा चेन्नई के आसपास नये कोयला बिजली संयंत्रों का निर्माण रोकने से 2020–30 के बीच महत्वपूर्ण फायदे प्राप्त होंगे। जैसे कि 2030 तक 1 लाख 60 हजार ग्रीन जॉब्स के अवसर पैदा होंगे‚ शहरी निवासियों को सस्ती बिजली मिलेगी और सबसे महत्वपूर्ण यह कि भारत के कुल वार्षिक ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन में प्रति वर्ष 11 फीसद की कमी होगी। जीएचजी उत्सर्जन में कमी कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में 274 मिलियन टन की कमी के बराबर होगी जो एक वर्ष के लिए 6 करोड़ वाहनों से होने वाले उत्सर्जन को रोकने के समान होगा।
2015 के पेरिस समझौते के तहत विकासशील देशों के लिए जीएचजी उत्सर्जन लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए यह खोज महत्वपूर्ण साबित होती है। इसके विपरीत‚ यदि कोयला क्षमता का वर्तमान प्रस्तावित विस्तार होता है‚ तो अध्ययन में अनुमान लगाया है कि आने वाले दशक में कोयलाजनित प्रदूषण से होने वाले स्वास्थ्य संबंधी नुकसान की आर्थिक कीमत 46.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो सकती है‚ जो 2018 में भारत के कुल सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय के दोगुने से भी अधिक है।
बिजली संयंत्र का प्रदूषण बहुत दूर तक फैल जाता है। हालांकि कई बिजली संयंत्र शहरों के करीब नहीं बने हैं‚ लेकिन इस साल की शुरु आत में दिल्ली–एनसीआर क्षेत्र में बिजली संयंत्रों के परिचालन पर अपने अध्ययन में सीआरईए ने पाया कि बिजली संयंत्र का उत्सर्जन इन उच्च घनत्व वाले क्षेत्रों में वायु प्रदूषण को बढ़ाता है‚ जिससे गंभीर और पुराने‚ दोनों तरह के रोगों से मृत्यु और बीमारी का खतरा बढ़ जाता है। अध्ययन के निष्कर्ष बताते हैं कि इन संयंत्रों से होने वाले प्रदूषण के परिणामस्वरूप देश भर में 55 फीसद प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ–समग्र परिचालन क्षमता के मुकाबले बिजली संयंत्र के उत्पादन का आकलन) पर 4800 से अधिक मौतें होंगी और 100 फीसद प्लांट लोड फैक्टर पर 8200 से अधिक मौतें होंगी। अध्ययन में सिफारिश की गई है कि उत्सर्जन मानक अधिसूचना‚ 2015 के अनुसार प्रदूषकों को सीमित करने के लिए ऐसे बिजली संयंत्रों के पुनःसंयोजन (रेट्रोफिटिंग) से ऐसी 62 फीसदी मौतों से बचा जा सकेगा।
राज्य स्थिति समझ रहे हैं
कुछ राज्य पुराने और अधिक प्रदूषण फैलाने वाले बिजली संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से हटाने के महत्व को समझ रहे हैं। महाराष्ट्र के ऊर्जा मंत्री नितिन राउत ने दो मौकों पर कहा कि राज्य की मंशा नये बिजली संयंत्र के निर्माण रोकने की है‚ जबकि इसके समानांतर राज्य के पर्यावरण मंत्री आदित्य ठाकरे ने पिछले साल केंद्र सरकार को पत्र लिखकर ताडोबा के पास बांदेर कोयला खदान की नीलामी का विरोध किया था‚ जिसे बाद में केंद्र सरकार ने वापस ले लिया। इन निर्णयों से राज्य सरकार को भविष्य में लाभ मिलेगा जैसा कि क्लाइमेट रिस्क होराइजंव ग्रुप के अध्ययन में सामने आया है। यह राज्य के बिजली उत्पादन क्षेत्र में महत्वपूर्ण बचत संबंधी सुझाव देता है। इसके मुताबिक 4‚020 मेगावाट उत्पादन क्षमता वाले पुराने कोयला बिजली संयंत्रों को 2022 तक बंद कर भुसावल में नई इकाई 6 के चल रहे निर्माण को रोक कर‚ जो आवश्यकताओं का अधिशेष है‚ और 2030 तक महंगे कोयला बिजली अनुबंधों के स्थान पर सस्ती नवीकरणीय ऊर्जा के दीर्घकालिक प्रतिस्थापन के जरिए पांच वर्षों में 16‚000 करोड़ तक और अगले दशक में 75‚000 करोड़ तक की बचत हो सकती है।
भविष्य की जलवायु आपदाओं से निपटते हुए भारत को चाहिए कि कॉप 26 से पहले विकासशील और विकसित दुनिया के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत कर अक्षत ऊर्जा लक्ष्यों को प्राप्त करने संबंधी अपना रुख साफ करे। साथ ही‚ उसे पारंपरिक जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन कम करने और कोयले पर बहुत अधिक निर्भर राज्यों की मदद करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा नीतियां एवं निवेश ढांचे को अपनाने की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए। भारत को चाहिए कि अपने यहां पुराने हो चुके संयंत्रों को बंद करे और स्वच्छ हवा तक पहुंच बढ़ाने की जरूरत को जमीन पर उतारे।
बिजली संयंत्र का प्रदूषण बहुत दूर तक फैल जाता है। हालांकि कई बिजली संयंत्र शहरों के करीब नहीं बने हैं‚ लेकिन इस साल की शुरु आत में दिल्ली–एनसीआर क्षेत्र में बिजली संयंत्रों के परिचालन पर अपने अध्ययन में सीआरईए ने पाया कि बिजली संयंत्र का उत्सर्जन उच्च घनत्व वाले क्षेत्रों में वायु प्रदूषण को बढ़ाता है‚ जिससे गंभीर और पुराने‚ दोनों तरह के रोगों से मृत्यु और बीमारी का खतरा बढ़ जाता है। अध्ययन के निष्कर्ष बताते हैं कि इन संयंत्रों से होने वाले प्रदूषण के परिणामस्वरूप देश भर में 55 प्रतिशत प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ– समग्र परिचालन क्षमता के मुकाबले बिजली संयंत्र के उत्पादन का आकलन) पर 4800 से अधिक मौतें होंगी और 100 प्रतिशत प्लांट लोड फैक्टर पर 8200 से अधिक मौतें होंगी।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं वन्य जीव विशेषज्ञ हैं।
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