पेरिस! दिसम्बर 2015 में आयोजित जलवायु सम्मेलन से सारी दुनिया ने बहुत उम्मीदें लगा रखी हैं। परन्तु विभिन्न देशों के विरोधाभासी हित इस सम्मेलन के किसी समझौते पर पहुँचने में सबसे बड़े बाधक हैं। इस वर्ष दिसम्बर में आयोजित होने वाले जलवायु बदलाव पर महासम्मेलन से बहुत उम्मीदें बंधी हुई हैं। जो भी धरती पर विविधता भरे जीवन की रक्षा के प्रति संवेदनशील हैं, वह यही चाहेंगे कि यह उम्मीदें पूरी हों और इस महासम्मेलन को अपने उद्देश्य में सफलता मिले। पर चिन्ता की बात यह है कि अनेक ऐसे संकेतक हैं जो इस सफलता की सम्भावना के बारे में गम्भीर शंकाएं उपस्थित कर रहे हैं।
तकनीकी भाषा में कहें तो इस महासम्मेलन की सफलता का एक बड़ा पैमाना यह होगा कि जलवायु बदलाव के दौर में धरती में तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित किया जा सके। कई शीर्ष वैज्ञानिक व विशेषज्ञ यह तय करने के लिए जुट रहे हैं कि इसके लिए ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में कितनी कमी करने की जरूरत है। यह कार्य सभी देशों को मिलकर तय करना है पर इसके लिए विकसित औद्योगिक देशों की जिम्मेदारी अधिक है क्योंकि ऐतिहासिक स्तर पर वे ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन के लिए अधिक जिम्मेदार रहे हैं।
फिलहाल विभिन्न देशों को कहा गया है कि वे ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 2030 तक कितनी कमी कर सकते हैं इसके बारे में अपना मसौदा प्रस्तुत करें। सभी देशों के मसौदों के आधार पर यह तय हो सकेगा कि क्या सभी देशों की मिली-जुली तैयारी तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेंटीग्रेड के लक्ष्य तक सीमित रखने के अनुकूल है कि नहीं।
यदि विभिन्न देशों के मसौदों में ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन की जो नियोजित कमी बताई गई, वह तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित रखने के अनुकूल नहीं है, तो इसका अर्थ यह है कि विभिन्न देशों को अपने ग्रीनहाऊस गैसों में उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों को अधिक करने के लिए कहा जाएगा। इससे काफी विवाद उत्पन्न हो सकते हैं।
यदि चर्चा के बाद कोई रास्ता नहीं निकला तो एक अन्य उपाय यह है कि जो तापमान वृद्धि को सीमित करने के लक्ष्य हमारे सामने हैं, उसके लिए जितनी ग्रीनहाऊस गैसों की वृद्धि जरूरी है, उसके लक्ष्य को कानूनी तौर पर मान्य बनाया जाए। पर इससे तो विवाद और भी बढ़ सकते हैं। एक न्याय संगत राह यह है कि बड़ी जिम्मेदारी को विकसित देश अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी के आधार पर स्वीकार करें। परन्तु हाल के समय में अधिकांश धनी देश ऐसी जिम्मेदारी को कानूनी तौर पर स्वीकार करने के लिए तैयार नजर नहीं आए हैं।
यहाँ यह बताना जरूरी है कि तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित रखने का अर्थ यह नहीं है कि इससे जलवायु बदलाव के गम्भीर दुष्परिणाम सामने नहीं आएँगे। तापमान वृद्धि को इतने पर सीमित रखने के बावजूद कई गम्भीर स्थितियाँ उत्पन्न होगी पर इससे आगे तो स्थिति असहनीय हो सकती है। अतः इस प्रयास से सभी दुष्परिणाम नहीं रुकने वाले हैं। यह तो केवल स्थिति को असहनीय हद तक बिगड़ने से बचाने का प्रयास है।
मान लीजिए कि ग्रीनहाऊस गैसों में वृद्धि को जरूरी सीमा तक रोकने का समझौता हो जाए तो भी यह विवाद का विषय बना रहेगा कि विभिन्न देश अपने स्वीकृत लक्ष्य की ओर किस हद तक व कैसे बढ़ रहे हैं। तथा इस पर कैसे निगरानी रखी जाए। इस बारे में आगे चलकर ढेर सारे विवाद उत्पन्न हो सकते हैं।
एक अन्य बड़ा मुद्दा यह है कि ग्रीनहाऊस गैसों में जरूरी कमी के लिए जो खर्च होगा उसकी व्यवस्था कैसे की जाएगी। विकसित देशों का चर्चित वायदा यह रहा है कि वे इसके लिए एक ऐसा कोष बनाएँगे जिससे वर्ष 2020 तक इस कार्य के लिए 100 अरब डालर प्रति वर्ष की सहायता निर्धन व विकासशील देशों को उपलब्ध हो सकेगी। पर अभी इसका बहुत कम हिस्सा ही उन्होंने उपलब्ध करवाया है।
इससे जुड़ा दूसरा मुद्दा धनी विकसित देशों द्वारा ग्रीनहाऊस गैसों को कम करने वाली तकनीकी के हस्तांतरण का है। विकासशील देशों का कहना है कि व्यापक जनहित के लिए जरूरी इस तकनीकी को पेटेंट व मोटे मुनाफे से मुक्त रखना चाहिए ताकि जलवायु बदलाव को थामने वाली तकनीकें दुनिया भर में सस्ती दरों पर उपलब्ध होती रहें। पर धनी देश अभी तक इसके लिए तैयार नजर नहीं आ रहे हैं।
अतः चाहे सभी चाहते हो कि पेरिस का महासम्मेलन सफल हो, पर वास्तविक स्थिति यह है कि अभी कई गम्भीर विवादों व समस्याओं का समाधान होना शेष है। (सप्रेस)
तकनीकी भाषा में कहें तो इस महासम्मेलन की सफलता का एक बड़ा पैमाना यह होगा कि जलवायु बदलाव के दौर में धरती में तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित किया जा सके। कई शीर्ष वैज्ञानिक व विशेषज्ञ यह तय करने के लिए जुट रहे हैं कि इसके लिए ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में कितनी कमी करने की जरूरत है। यह कार्य सभी देशों को मिलकर तय करना है पर इसके लिए विकसित औद्योगिक देशों की जिम्मेदारी अधिक है क्योंकि ऐतिहासिक स्तर पर वे ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन के लिए अधिक जिम्मेदार रहे हैं।
फिलहाल विभिन्न देशों को कहा गया है कि वे ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 2030 तक कितनी कमी कर सकते हैं इसके बारे में अपना मसौदा प्रस्तुत करें। सभी देशों के मसौदों के आधार पर यह तय हो सकेगा कि क्या सभी देशों की मिली-जुली तैयारी तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेंटीग्रेड के लक्ष्य तक सीमित रखने के अनुकूल है कि नहीं।
यदि विभिन्न देशों के मसौदों में ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन की जो नियोजित कमी बताई गई, वह तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित रखने के अनुकूल नहीं है, तो इसका अर्थ यह है कि विभिन्न देशों को अपने ग्रीनहाऊस गैसों में उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों को अधिक करने के लिए कहा जाएगा। इससे काफी विवाद उत्पन्न हो सकते हैं।
यदि चर्चा के बाद कोई रास्ता नहीं निकला तो एक अन्य उपाय यह है कि जो तापमान वृद्धि को सीमित करने के लक्ष्य हमारे सामने हैं, उसके लिए जितनी ग्रीनहाऊस गैसों की वृद्धि जरूरी है, उसके लक्ष्य को कानूनी तौर पर मान्य बनाया जाए। पर इससे तो विवाद और भी बढ़ सकते हैं। एक न्याय संगत राह यह है कि बड़ी जिम्मेदारी को विकसित देश अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी के आधार पर स्वीकार करें। परन्तु हाल के समय में अधिकांश धनी देश ऐसी जिम्मेदारी को कानूनी तौर पर स्वीकार करने के लिए तैयार नजर नहीं आए हैं।
यहाँ यह बताना जरूरी है कि तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित रखने का अर्थ यह नहीं है कि इससे जलवायु बदलाव के गम्भीर दुष्परिणाम सामने नहीं आएँगे। तापमान वृद्धि को इतने पर सीमित रखने के बावजूद कई गम्भीर स्थितियाँ उत्पन्न होगी पर इससे आगे तो स्थिति असहनीय हो सकती है। अतः इस प्रयास से सभी दुष्परिणाम नहीं रुकने वाले हैं। यह तो केवल स्थिति को असहनीय हद तक बिगड़ने से बचाने का प्रयास है।
मान लीजिए कि ग्रीनहाऊस गैसों में वृद्धि को जरूरी सीमा तक रोकने का समझौता हो जाए तो भी यह विवाद का विषय बना रहेगा कि विभिन्न देश अपने स्वीकृत लक्ष्य की ओर किस हद तक व कैसे बढ़ रहे हैं। तथा इस पर कैसे निगरानी रखी जाए। इस बारे में आगे चलकर ढेर सारे विवाद उत्पन्न हो सकते हैं।
एक अन्य बड़ा मुद्दा यह है कि ग्रीनहाऊस गैसों में जरूरी कमी के लिए जो खर्च होगा उसकी व्यवस्था कैसे की जाएगी। विकसित देशों का चर्चित वायदा यह रहा है कि वे इसके लिए एक ऐसा कोष बनाएँगे जिससे वर्ष 2020 तक इस कार्य के लिए 100 अरब डालर प्रति वर्ष की सहायता निर्धन व विकासशील देशों को उपलब्ध हो सकेगी। पर अभी इसका बहुत कम हिस्सा ही उन्होंने उपलब्ध करवाया है।
इससे जुड़ा दूसरा मुद्दा धनी विकसित देशों द्वारा ग्रीनहाऊस गैसों को कम करने वाली तकनीकी के हस्तांतरण का है। विकासशील देशों का कहना है कि व्यापक जनहित के लिए जरूरी इस तकनीकी को पेटेंट व मोटे मुनाफे से मुक्त रखना चाहिए ताकि जलवायु बदलाव को थामने वाली तकनीकें दुनिया भर में सस्ती दरों पर उपलब्ध होती रहें। पर धनी देश अभी तक इसके लिए तैयार नजर नहीं आ रहे हैं।
अतः चाहे सभी चाहते हो कि पेरिस का महासम्मेलन सफल हो, पर वास्तविक स्थिति यह है कि अभी कई गम्भीर विवादों व समस्याओं का समाधान होना शेष है। (सप्रेस)
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