भारत की स्थिति ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में निश्चित ही श्रेष्ठ है, चाहे वह समग्र उत्सर्जन का मामला हो या प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन का। प्रश्न उठता है कि जलवायु परिवर्तन की विनाशकारी स्थिति को आमन्त्रण देने में किसका अधिक योगदान है? विकसित देशों का या विकासशील देशों का? विकसित देश जलवायु परिवर्तन का दोष विकासशील राष्ट्रों के मत्थे मढ़ने की कोशिश करते हैं। इसीलिए अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन किसी न्यायपूर्ण और बाध्यकारी समझौते तक नहीं पहुँच पा रहे और समतामूलक पर्यावरणीय मसौदों को लागू करने में दिक्कतें आ रही हैं। वर्तमान समय में यह बात सामान्य ज्ञान का हिस्सा समझी जाती है कि धरती का तापमान तेजी से बढ़ रहा है और पृथ्वी की जलवायविक दशाओं में नकारात्मक परिवर्तन प्रारम्भ हो चुके हैं। जलवायु परिवर्तन इस समय एक गम्भीर समस्या के रूप में सामने आया है जिससे निपटना मानवता एवं सभ्यता के लिए अनिवार्य होता जा रहा है।
आज लगभग सभी बड़े अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर यह विमर्श के प्रमुख मुद्दे के रूप में उभरा है, क्योंकि यह हम सबके अस्तित्व से जुड़ा मसला है। राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरणविदों की चिन्ताएँ हों या अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित कोपेनहेगन सम्मेलन- ये सभी विश्व के लोगों को जागरूक बनाने की कोशिश का हिस्सा है ताकि जलवायु परिवर्तन के खतरे का मुकाबला किया जा सके।
इस सन्दर्भ में यह जानना महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है कि जलवायु परिवर्तन की खतरनाक स्थिति के कारण क्या हैं और इसने किन-किन खतरनाक प्रभावों को जन्म दिया है। जलवायु परिवर्तन के कारणों का सम्बन्धहरितगृह प्रभाव और वैश्विक तपन से है। सूर्य से आने वाले विकिरण का लगभग चालीस प्रतिशत धरती के वातावरण तक पहुँचने से पहले ही अन्तरिक्ष में लौट जाता है। इसके अतिरिक्त पन्द्रह प्रतिशत वातावरण में अवशोषित हो जाता है तथा शेष पैंतालीस प्रतिशत विकिरण ही पृथ्वी के धरातल तक पहुँचता है।
धरती की सतह तक पहुँचने के बाद यह विकिरण गर्मी (दीर्घ तरंगों) के रूप में पृथ्वी से परावर्तित होता है। वायुमण्डल में उपस्थित कुछ प्रमुख गैसें लघुतरंगी सौर विकिरण को पृथ्वी के धरातल तक आने तो देती हैं लेकिन पृथ्वी से व परावर्तित होने वाले दीर्घतरंगी विकिरण को बाहर नहीं जाने देतीं और इसे अवशोषित करलेती हैं। इस वजह से पृथ्वी का औसत तापमान पैंतीस डिग्री सेल्सियस के लगभग बना रहता है।
वास्तव में इस प्रक्रिया के अन्तर्गत गैसें ऊपरी वायुमण्डल में एक ऐसी परत बना लेती हैं जिसका असर पौधों को बाहरी गर्मी-सर्दी से बचाने के लिए बनाए गए ग्रीनहाउस की छत की तरह होता है। लेकिन पिछले कुछ दशकोंसे वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है। ग्रीनहाउस गैसों में हो रही इस वृद्धि से वायुमण्डल में विकिरणों के अवशोषण करने की क्षमता निरन्तर बढ़ रही है।
इसी वजह से धरती का तापमान बढ़ रहा है और जलवायु में विनाशकारी परिवर्तन मानवता की चौखट पर दस्तक दे रहा है। जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी कारणों में प्रमुख कारण उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइडकी मात्रा में वृद्धि होना है। उद्योगों की चिमनियों, फैक्टरियों और वाहनों से निकलने वाला धुआँ तथा घरों, दफ्तरों आदि में विविध उपकरणों से निकलने वाली गर्म वाष्प आदि प्रतिदिन हमारे वातावरण में पर्याप्त गर्मी छोड़ती है।
औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला कचरा प्रायः गर्म होता है जिसे नदी-नालों में बहा दिया जाता है। वातावरण में अनावश्यक ताप घोलने में सबसे आगे है- ताप बिजलीघर। यहाँ कोयला जलाकर विद्युत प्राप्त की जाती है जिससे बड़ी मात्रा में ताप विसर्जित होता है। ताप पानी के लगभग सभी गुणों को प्रभावित करता है। गर्म पानी में ठण्डे पानी की अपेक्षा रासायनिक पदार्थ व अपशिष्ट अधिक घुलनशील हो जाते हैं। अनेक प्रदूषण नियन्त्रक वैज्ञानिकों का कहना है कि नब्बे डिग्री फारेनहाइट से अधिक ताप अधिकांश मछलियों को सहन नहीं होता है।
आज अनेक नदियों का तापमान इस सीमा को पार कर रहा है जिससे जलीय जीवों पर खतरा बढ़ गया है। पिछली एक शताब्दी में पेट्रोलियम पदार्थों एवं अन्य जीवाश्म ईंधनों के प्रयोग में गुणात्मक वृद्धि हुई है। परिवहन के साधनों में अभूतपूर्व प्रगति के चलते वाहनों से उत्सर्जित खतरनाक जहरीली गैसों की सान्द्रता बढ़ी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के हालिया अनुमान के मुताबिक संसार के करीब आधे शहरों में कार्बन मोनो-आॅक्साइड की मात्रा हानिकारक स्तर तक पहुँच चुकी है।
कुल मिलाकर पिछले छह सौ वर्षों में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा पैंसठ प्रतिशत से भी अधिक बढ़ गई है। वर्तमान उपभोक्तावादी जीवनशैली ने भी इन खतरनाक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में बढ़ोतरी की है। तालिका-1 से यह स्पष्ट होता है कि विकसित देशों में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किस विनाशकारी सीमा तकपहुँच गया है।
भारत की स्थिति ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में निश्चित ही श्रेष्ठ है, चाहे वह समग्र उत्सर्जन का मामला हो या प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन का। प्रश्न उठता है कि जलवायु परिवर्तन की विनाशकारी स्थिति को आमन्त्रण देने में किसका अधिक योगदान है? विकसित देशों का या विकासशील देशों का? विकसित देश जलवायु परिवर्तन का दोष विकासशील राष्ट्रों के मत्थे मढ़ने की कोशिश करते हैं। इसीलिए अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन किसी न्यायपूर्ण और बाध्यकारी समझौते तक नहीं पहुँच पा रहे और समतामूलक पर्यावरणीय मसौदों को लागू करने में दिक्कतें आ रही हैं।
जलवायु परिवर्तन का एक अन्य कारण है- क्लोरोफ्लोरो कार्बन का उत्सर्जन। ये वायुमण्डल में ऊपर जाते हैं और ओजोन परत को क्षति पहुँचाते हैं। ओजोन परत, सौर विकिरण में उपस्थित पराबैंगनी किरणों से धरती पर निवास करने वाले प्राणियों की रक्षा करती है और जीवनरक्षक छतरी का काम करती है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन का उपयोग रेफ्रिजरेटर, एयरकम्डीशनर, फोम और एरोसोल आदि के निर्माण में होता है। ब्रिटिश अण्टार्कटिका सर्वेक्षण दल के अनुसार अण्टार्कटिक क्षेत्र के ऊपर करीब 3.5 वर्गमील का एक ओजोन छिद्र बन चुका है जिसके जरिए पराबैंगनी किरणें धरती तक पहुँचकर तापमान में वृद्धि कर रही हैं और जलवायु में परिवर्तन ला रही हैं।
ओजोन परत हमारी रक्षा करती है किन्तु इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि ओजोन हर प्रकार से हमारे लिए लाभदायक ही है। पृथ्वी के तापमान को बढ़ाने और जलवायु में परिवर्तन लाने में एक अन्य प्रकार के ओजोन का भी योगदान होता है। यह ओजोन वह है जो वायुमण्डल के निचले भाग में निर्मित होती है। इसके मुख्य स्रोत हैं- पेट्रोल और कोयला जैसे ईंधन। इसके अलावा मिथेन भी वायुमण्डल के निचले भाग में ओजोन गैस का निर्माण करती है। इस वजह से पृथ्वी का तापमान बढ़ता है और जलवायु परिवर्तन का संकट पैदा होता है।
जलवायु को बिगाड़ने में परमाणु संयन्त्रों का भी बहुत योगदान है। आज परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण उपयोग का मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि परम्परागत ईंधन समाप्ति की ओर अग्रसर हैं। एक प्रतिवेदन के अनुसार वर्तमान में परमाणु संयन्त्रों से पूरे संसार में लगभग दस लाख मेगावाट बिजली पैदा की जा रही है तथा दिनोंदिन इस प्रकार की बिजली की मात्रा बढ़ती जा रही है।
ऐसी दशा में वायुमण्डल में उत्सर्जित ताप की मात्रा तो बढ़ेगी ही। आमतौर पर पाँच सौ मेगावाट के संयन्त्र में प्रशीतक के रूप में प्रयुक्त होने वाले जल को जब किसी झील या नदी में छोड़ा जाता है तब उस झील या नदी में दस से तीस डिग्री सेल्सियस तक की तापीय वृद्धि होती है। इसे कम करके जलवायु परिवर्तन की विकृति को रोका जा सकता है।
व्यापक वन विनाश ने भी जलवायु की दशाओं को बिगाड़ा है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के अनुसार, वर्ष 1950 से 1983 के मध्य अमरीका के 38 प्रतिशत और अफ्रीका के 24 प्रतिशत वन समाप्त हो गए थे। नाइजीरिया के 5 प्रतिशत, पराग्वे के 4.6 प्रतिशत, जमैका और श्रीलंका के 6.5 प्रतिशत तथा नेपाल के 3 प्रतिशत वन प्रत्येक दशक काटे जा रहे हैं।
कुछ देशों में वन का प्रतिशत तो इतना कम हो गया है कि वहाँ मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। उदाहरण के लिए अफ्रीकी देश सियरालियोन में जहाँ पहले 7.4 प्रतिशत क्षेत्रफल पर वन थे, वहीं आज यह प्रतिशत घटकर मात्रा 3.0 ही रह गया है। इसी प्रकार के प्रतिमान एशिया में भी देखने को मिलते हैं। उदाहरणार्थ, जावा और सुमात्रा जैसे सुन्दर द्वीपों वाले इण्डोनेशिया के एक-तिहाई वन क्षेत्र अब समाप्त हो चुके हैं।
दक्षिणी अमरीका महाद्वीप की बात की जाए तो वहाँ ब्राजील के अमेजन बेसिन के एक-चौथाई वन नष्ट हो चुके हैं। अमरीकन प्रोग्राम फाॅर नेचर कंवेंशन के मुताबिक, अगले दो दशक में कोस्टारिका और पनामा जैसे देशों में सम्पूर्ण वन क्षेत्र लुप्त हो जाएँगे। भारत की स्थिति भी प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती क्योंकि यहाँ भी प्रतिवर्ष लगभग तेरह लाख हेक्टेयर क्षेत्र के जंगल समाप्त हो रहे हैं।
विभिन्न प्रकार के वनों की कटाई के भयंकर परिणाम सामने आए हैं। इनमें सर्वाधिक चिन्ताजनक है ऊष्णकटिबन्धीय सदाबहार वनों का विनाश। उष्णकटिबन्धीय सदाबहार वनों को ‘पृथ्वी का फेफड़ा’ भी कहा जाता है यानी इन्हीं की बदौलत हमारी पृथ्वी साँस लेती है।
इन वनों के विनाश से वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में चिन्तनीय वृद्धि हुई है। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण सम्बन्धी एजेंसी (यूनाइटेड नेशंस इंवायरनमेंटल प्रोग्राम) के पिछले तीन दशक के अध्ययन के अनुसार पृथ्वी पर पैदा होने वाली कुल कार्बन डाइऑक्साइड को कार्बन-चक्र में लाने की क्षमता अपर्याप्त साबित होती जा रही है। यह जलवायु परिवर्तन के लिहाज से घातक है।
लेकिन निर्वनीकरण से उपजी समस्याओं की शृंखला यहीं समाप्त नहीं होती। वन विनाश के कारण एक अन्य प्रक्रिया भी जन्म लेती है जिसके तहत् हरियाली विहीन मिट्टी सूर्य की किरणों को परावर्तित करके वापस लौटा रही है। इस वजह से वर्षा में कमी आ रही है।
जलवायु परिवर्तन के कारणों की चर्चा करते समय सामान्य प्राकृतिक कारकों की भूमिका भी हमारे सामने आती है। इसके अन्तर्गत ज्वालामुखी उद्गार और भूकम्प जैसे विनाशकारी कारकों का नाम लिया जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन पर डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के एक प्रतिवेदन के मुताबिक हिमालय के ग्लेशियर प्रतिवर्ष 8 से 64 मीटर की दर से सिकुड़ रहे हैं। किलीमंजारो के ग्लेशियर वर्ष 1910 से 2005 की अवधि के मध्य लगभग अस्सी फीसदी पिघल चुके हैं। दक्षिणी एंडीज पर्वतमाला में स्थित कटुलस्ख्या बर्फ टोपियाँ वर्ष 1960 के बाद बीस फीसदी पिघल चुकी हैं।
रिपोर्ट के अनुसार सन् 2005 में आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ सबसे कम पाई गई। हिमनदें जल आपूर्ति के सतत् स्रोत होने के साथ-साथ जलवायु चक्र में अपनी महती भूमिका निभाते हैं। हिमनदों के अस्तित्व पर मँडराता खतरा पूरे विश्व के लिए चिन्ता का विषय है और इस खतरे से पार पाने के लिए दुनिया के सभी देशों को मिलकर कार्य करना होगा।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव इतने बहुआयामी हैं कि उनकी सूची बना पाना सम्भव नहीं है। फिर भी इन प्रभावों में प्रमुख हैं: भारत के हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों पर प्रभाव, वनीय पारिस्थितिकी का विनाश, सागरीय जैवमण्डल पर संकट, मानव समुदाय पर खतरा, मानसून में विकृतियाँ और कृषि पर दुष्प्रभाव। मानव समुदायपर जलजनित, तापजनित और वायुजनित बीमारियों का प्रकोप शुरू हो गया है।
बाढ़ और सूखे के प्रभाव के साथ-साथ जलवायु की भयंकर दशाओं के चलते विस्थापन बढ़ा है। कृषि उत्पादन मेंगिरावट की आशंकाएँ दर्ज की जा रही हैं और शरणार्थियों की समस्याएं बढ़ रही हैं। ये सारी बातें जलवायु परिवर्तन से निकटता से जुड़ी हैं।
ग्रीनहाउस गैसों के स्रोतों एवं उनके घातक प्रभावों को तालिका-2 से समझा जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के कारणों और प्रभावों का विश्लेषण करके इसके खतरे की गम्भीरता का अनुमान लगाया जा सकता है। पर्यावरण से सम्बद्ध होने के कारण जलवायु परिवर्तन किसी एक देश का संकट न होकर पूरे विश्व का संकट है और इस संकट का मुकाबला पूरे विश्व को मिलकर ही करना होगा।
पर्यावरणीय जागरुकता के प्रचार-प्रसार के लिए आज लगभग सभी मानविकी विषयों में पर्यावरणीय पहलू परजोर दिया जा रहा है। राजनीति जैसे विषय में भी राॅबर्ट गुडिन आज हरित राजनीतिक सिद्धान्त की बातें करते हैं ताकि पृथ्वी की हरियाली सुरक्षित रहे। उधर रूडोल्फ बाहरो जैसे पारिस्थितिकीय चिन्तक ने अपनी कृतियों- परफाॅम रेड टू ग्रीन और बिल्डिंग द ग्रीन मूवमेंट के माध्यम से पर्यावरण की बदहाली के सामाजिक-राजनीतिक कारण भी खोजे हैं।
कहना न होगा कि पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान के लिए और अधिक निवेश की आवश्यकता है ताकि हम सभी के अस्तित्व से जुड़ा यह खतरा खत्म हो सके। विकसित राष्ट्रों को भी चाहिए कि वे ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर राजनीति करने के बजाय ईमानदारी से विकासशील राष्ट्रों का साथ दें। ऐसा करके ही हम अपनी पृथ्वी को हरी-भरी बनाए रख सकते हैं।
लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं।
ई-मेल: pranjaldhar@gmail.com
आज लगभग सभी बड़े अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर यह विमर्श के प्रमुख मुद्दे के रूप में उभरा है, क्योंकि यह हम सबके अस्तित्व से जुड़ा मसला है। राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरणविदों की चिन्ताएँ हों या अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित कोपेनहेगन सम्मेलन- ये सभी विश्व के लोगों को जागरूक बनाने की कोशिश का हिस्सा है ताकि जलवायु परिवर्तन के खतरे का मुकाबला किया जा सके।
इस सन्दर्भ में यह जानना महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है कि जलवायु परिवर्तन की खतरनाक स्थिति के कारण क्या हैं और इसने किन-किन खतरनाक प्रभावों को जन्म दिया है। जलवायु परिवर्तन के कारणों का सम्बन्धहरितगृह प्रभाव और वैश्विक तपन से है। सूर्य से आने वाले विकिरण का लगभग चालीस प्रतिशत धरती के वातावरण तक पहुँचने से पहले ही अन्तरिक्ष में लौट जाता है। इसके अतिरिक्त पन्द्रह प्रतिशत वातावरण में अवशोषित हो जाता है तथा शेष पैंतालीस प्रतिशत विकिरण ही पृथ्वी के धरातल तक पहुँचता है।
धरती की सतह तक पहुँचने के बाद यह विकिरण गर्मी (दीर्घ तरंगों) के रूप में पृथ्वी से परावर्तित होता है। वायुमण्डल में उपस्थित कुछ प्रमुख गैसें लघुतरंगी सौर विकिरण को पृथ्वी के धरातल तक आने तो देती हैं लेकिन पृथ्वी से व परावर्तित होने वाले दीर्घतरंगी विकिरण को बाहर नहीं जाने देतीं और इसे अवशोषित करलेती हैं। इस वजह से पृथ्वी का औसत तापमान पैंतीस डिग्री सेल्सियस के लगभग बना रहता है।
वास्तव में इस प्रक्रिया के अन्तर्गत गैसें ऊपरी वायुमण्डल में एक ऐसी परत बना लेती हैं जिसका असर पौधों को बाहरी गर्मी-सर्दी से बचाने के लिए बनाए गए ग्रीनहाउस की छत की तरह होता है। लेकिन पिछले कुछ दशकोंसे वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है। ग्रीनहाउस गैसों में हो रही इस वृद्धि से वायुमण्डल में विकिरणों के अवशोषण करने की क्षमता निरन्तर बढ़ रही है।
इसी वजह से धरती का तापमान बढ़ रहा है और जलवायु में विनाशकारी परिवर्तन मानवता की चौखट पर दस्तक दे रहा है। जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी कारणों में प्रमुख कारण उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइडकी मात्रा में वृद्धि होना है। उद्योगों की चिमनियों, फैक्टरियों और वाहनों से निकलने वाला धुआँ तथा घरों, दफ्तरों आदि में विविध उपकरणों से निकलने वाली गर्म वाष्प आदि प्रतिदिन हमारे वातावरण में पर्याप्त गर्मी छोड़ती है।
औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला कचरा प्रायः गर्म होता है जिसे नदी-नालों में बहा दिया जाता है। वातावरण में अनावश्यक ताप घोलने में सबसे आगे है- ताप बिजलीघर। यहाँ कोयला जलाकर विद्युत प्राप्त की जाती है जिससे बड़ी मात्रा में ताप विसर्जित होता है। ताप पानी के लगभग सभी गुणों को प्रभावित करता है। गर्म पानी में ठण्डे पानी की अपेक्षा रासायनिक पदार्थ व अपशिष्ट अधिक घुलनशील हो जाते हैं। अनेक प्रदूषण नियन्त्रक वैज्ञानिकों का कहना है कि नब्बे डिग्री फारेनहाइट से अधिक ताप अधिकांश मछलियों को सहन नहीं होता है।
आज अनेक नदियों का तापमान इस सीमा को पार कर रहा है जिससे जलीय जीवों पर खतरा बढ़ गया है। पिछली एक शताब्दी में पेट्रोलियम पदार्थों एवं अन्य जीवाश्म ईंधनों के प्रयोग में गुणात्मक वृद्धि हुई है। परिवहन के साधनों में अभूतपूर्व प्रगति के चलते वाहनों से उत्सर्जित खतरनाक जहरीली गैसों की सान्द्रता बढ़ी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के हालिया अनुमान के मुताबिक संसार के करीब आधे शहरों में कार्बन मोनो-आॅक्साइड की मात्रा हानिकारक स्तर तक पहुँच चुकी है।
कुल मिलाकर पिछले छह सौ वर्षों में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा पैंसठ प्रतिशत से भी अधिक बढ़ गई है। वर्तमान उपभोक्तावादी जीवनशैली ने भी इन खतरनाक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में बढ़ोतरी की है। तालिका-1 से यह स्पष्ट होता है कि विकसित देशों में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किस विनाशकारी सीमा तकपहुँच गया है।
भारत की स्थिति ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में निश्चित ही श्रेष्ठ है, चाहे वह समग्र उत्सर्जन का मामला हो या प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन का। प्रश्न उठता है कि जलवायु परिवर्तन की विनाशकारी स्थिति को आमन्त्रण देने में किसका अधिक योगदान है? विकसित देशों का या विकासशील देशों का? विकसित देश जलवायु परिवर्तन का दोष विकासशील राष्ट्रों के मत्थे मढ़ने की कोशिश करते हैं। इसीलिए अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन किसी न्यायपूर्ण और बाध्यकारी समझौते तक नहीं पहुँच पा रहे और समतामूलक पर्यावरणीय मसौदों को लागू करने में दिक्कतें आ रही हैं।
जलवायु परिवर्तन का एक अन्य कारण है- क्लोरोफ्लोरो कार्बन का उत्सर्जन। ये वायुमण्डल में ऊपर जाते हैं और ओजोन परत को क्षति पहुँचाते हैं। ओजोन परत, सौर विकिरण में उपस्थित पराबैंगनी किरणों से धरती पर निवास करने वाले प्राणियों की रक्षा करती है और जीवनरक्षक छतरी का काम करती है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन का उपयोग रेफ्रिजरेटर, एयरकम्डीशनर, फोम और एरोसोल आदि के निर्माण में होता है। ब्रिटिश अण्टार्कटिका सर्वेक्षण दल के अनुसार अण्टार्कटिक क्षेत्र के ऊपर करीब 3.5 वर्गमील का एक ओजोन छिद्र बन चुका है जिसके जरिए पराबैंगनी किरणें धरती तक पहुँचकर तापमान में वृद्धि कर रही हैं और जलवायु में परिवर्तन ला रही हैं।
ओजोन परत हमारी रक्षा करती है किन्तु इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि ओजोन हर प्रकार से हमारे लिए लाभदायक ही है। पृथ्वी के तापमान को बढ़ाने और जलवायु में परिवर्तन लाने में एक अन्य प्रकार के ओजोन का भी योगदान होता है। यह ओजोन वह है जो वायुमण्डल के निचले भाग में निर्मित होती है। इसके मुख्य स्रोत हैं- पेट्रोल और कोयला जैसे ईंधन। इसके अलावा मिथेन भी वायुमण्डल के निचले भाग में ओजोन गैस का निर्माण करती है। इस वजह से पृथ्वी का तापमान बढ़ता है और जलवायु परिवर्तन का संकट पैदा होता है।
जलवायु को बिगाड़ने में परमाणु संयन्त्रों का भी बहुत योगदान है। आज परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण उपयोग का मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि परम्परागत ईंधन समाप्ति की ओर अग्रसर हैं। एक प्रतिवेदन के अनुसार वर्तमान में परमाणु संयन्त्रों से पूरे संसार में लगभग दस लाख मेगावाट बिजली पैदा की जा रही है तथा दिनोंदिन इस प्रकार की बिजली की मात्रा बढ़ती जा रही है।
ऐसी दशा में वायुमण्डल में उत्सर्जित ताप की मात्रा तो बढ़ेगी ही। आमतौर पर पाँच सौ मेगावाट के संयन्त्र में प्रशीतक के रूप में प्रयुक्त होने वाले जल को जब किसी झील या नदी में छोड़ा जाता है तब उस झील या नदी में दस से तीस डिग्री सेल्सियस तक की तापीय वृद्धि होती है। इसे कम करके जलवायु परिवर्तन की विकृति को रोका जा सकता है।
व्यापक वन विनाश ने भी जलवायु की दशाओं को बिगाड़ा है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के अनुसार, वर्ष 1950 से 1983 के मध्य अमरीका के 38 प्रतिशत और अफ्रीका के 24 प्रतिशत वन समाप्त हो गए थे। नाइजीरिया के 5 प्रतिशत, पराग्वे के 4.6 प्रतिशत, जमैका और श्रीलंका के 6.5 प्रतिशत तथा नेपाल के 3 प्रतिशत वन प्रत्येक दशक काटे जा रहे हैं।
कुछ देशों में वन का प्रतिशत तो इतना कम हो गया है कि वहाँ मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। उदाहरण के लिए अफ्रीकी देश सियरालियोन में जहाँ पहले 7.4 प्रतिशत क्षेत्रफल पर वन थे, वहीं आज यह प्रतिशत घटकर मात्रा 3.0 ही रह गया है। इसी प्रकार के प्रतिमान एशिया में भी देखने को मिलते हैं। उदाहरणार्थ, जावा और सुमात्रा जैसे सुन्दर द्वीपों वाले इण्डोनेशिया के एक-तिहाई वन क्षेत्र अब समाप्त हो चुके हैं।
दक्षिणी अमरीका महाद्वीप की बात की जाए तो वहाँ ब्राजील के अमेजन बेसिन के एक-चौथाई वन नष्ट हो चुके हैं। अमरीकन प्रोग्राम फाॅर नेचर कंवेंशन के मुताबिक, अगले दो दशक में कोस्टारिका और पनामा जैसे देशों में सम्पूर्ण वन क्षेत्र लुप्त हो जाएँगे। भारत की स्थिति भी प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती क्योंकि यहाँ भी प्रतिवर्ष लगभग तेरह लाख हेक्टेयर क्षेत्र के जंगल समाप्त हो रहे हैं।
विभिन्न प्रकार के वनों की कटाई के भयंकर परिणाम सामने आए हैं। इनमें सर्वाधिक चिन्ताजनक है ऊष्णकटिबन्धीय सदाबहार वनों का विनाश। उष्णकटिबन्धीय सदाबहार वनों को ‘पृथ्वी का फेफड़ा’ भी कहा जाता है यानी इन्हीं की बदौलत हमारी पृथ्वी साँस लेती है।
इन वनों के विनाश से वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में चिन्तनीय वृद्धि हुई है। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण सम्बन्धी एजेंसी (यूनाइटेड नेशंस इंवायरनमेंटल प्रोग्राम) के पिछले तीन दशक के अध्ययन के अनुसार पृथ्वी पर पैदा होने वाली कुल कार्बन डाइऑक्साइड को कार्बन-चक्र में लाने की क्षमता अपर्याप्त साबित होती जा रही है। यह जलवायु परिवर्तन के लिहाज से घातक है।
लेकिन निर्वनीकरण से उपजी समस्याओं की शृंखला यहीं समाप्त नहीं होती। वन विनाश के कारण एक अन्य प्रक्रिया भी जन्म लेती है जिसके तहत् हरियाली विहीन मिट्टी सूर्य की किरणों को परावर्तित करके वापस लौटा रही है। इस वजह से वर्षा में कमी आ रही है।
जलवायु परिवर्तन के कारणों की चर्चा करते समय सामान्य प्राकृतिक कारकों की भूमिका भी हमारे सामने आती है। इसके अन्तर्गत ज्वालामुखी उद्गार और भूकम्प जैसे विनाशकारी कारकों का नाम लिया जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन पर डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के एक प्रतिवेदन के मुताबिक हिमालय के ग्लेशियर प्रतिवर्ष 8 से 64 मीटर की दर से सिकुड़ रहे हैं। किलीमंजारो के ग्लेशियर वर्ष 1910 से 2005 की अवधि के मध्य लगभग अस्सी फीसदी पिघल चुके हैं। दक्षिणी एंडीज पर्वतमाला में स्थित कटुलस्ख्या बर्फ टोपियाँ वर्ष 1960 के बाद बीस फीसदी पिघल चुकी हैं।
रिपोर्ट के अनुसार सन् 2005 में आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ सबसे कम पाई गई। हिमनदें जल आपूर्ति के सतत् स्रोत होने के साथ-साथ जलवायु चक्र में अपनी महती भूमिका निभाते हैं। हिमनदों के अस्तित्व पर मँडराता खतरा पूरे विश्व के लिए चिन्ता का विषय है और इस खतरे से पार पाने के लिए दुनिया के सभी देशों को मिलकर कार्य करना होगा।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव इतने बहुआयामी हैं कि उनकी सूची बना पाना सम्भव नहीं है। फिर भी इन प्रभावों में प्रमुख हैं: भारत के हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों पर प्रभाव, वनीय पारिस्थितिकी का विनाश, सागरीय जैवमण्डल पर संकट, मानव समुदाय पर खतरा, मानसून में विकृतियाँ और कृषि पर दुष्प्रभाव। मानव समुदायपर जलजनित, तापजनित और वायुजनित बीमारियों का प्रकोप शुरू हो गया है।
बाढ़ और सूखे के प्रभाव के साथ-साथ जलवायु की भयंकर दशाओं के चलते विस्थापन बढ़ा है। कृषि उत्पादन मेंगिरावट की आशंकाएँ दर्ज की जा रही हैं और शरणार्थियों की समस्याएं बढ़ रही हैं। ये सारी बातें जलवायु परिवर्तन से निकटता से जुड़ी हैं।
ग्रीनहाउस गैसों के स्रोतों एवं उनके घातक प्रभावों को तालिका-2 से समझा जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के कारणों और प्रभावों का विश्लेषण करके इसके खतरे की गम्भीरता का अनुमान लगाया जा सकता है। पर्यावरण से सम्बद्ध होने के कारण जलवायु परिवर्तन किसी एक देश का संकट न होकर पूरे विश्व का संकट है और इस संकट का मुकाबला पूरे विश्व को मिलकर ही करना होगा।
पर्यावरणीय जागरुकता के प्रचार-प्रसार के लिए आज लगभग सभी मानविकी विषयों में पर्यावरणीय पहलू परजोर दिया जा रहा है। राजनीति जैसे विषय में भी राॅबर्ट गुडिन आज हरित राजनीतिक सिद्धान्त की बातें करते हैं ताकि पृथ्वी की हरियाली सुरक्षित रहे। उधर रूडोल्फ बाहरो जैसे पारिस्थितिकीय चिन्तक ने अपनी कृतियों- परफाॅम रेड टू ग्रीन और बिल्डिंग द ग्रीन मूवमेंट के माध्यम से पर्यावरण की बदहाली के सामाजिक-राजनीतिक कारण भी खोजे हैं।
कहना न होगा कि पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान के लिए और अधिक निवेश की आवश्यकता है ताकि हम सभी के अस्तित्व से जुड़ा यह खतरा खत्म हो सके। विकसित राष्ट्रों को भी चाहिए कि वे ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर राजनीति करने के बजाय ईमानदारी से विकासशील राष्ट्रों का साथ दें। ऐसा करके ही हम अपनी पृथ्वी को हरी-भरी बनाए रख सकते हैं।
लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं।
ई-मेल: pranjaldhar@gmail.com
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Post By: Shivendra