पर्यावरण में आ रहे बदलावों के प्रति उनमें चेतना बढ़ रही है। वैश्विक तपन के फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित आजीविका पर मंडरा रहे सम्भावित खतरे को माप कर बनाए गए इस कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामीण लोगों को जलवायु परिर्वतन से जुड़े मुद्दों के बारे में जानकारी देना है। इस उद्देश्य के लिए गठित हरित सेना (ग्रीन आर्मी) राज्य के 9 आदिवासी बहुल जिलों- धार, झाबुआ, बड़वानी, आलीराजपुर, मण्डला, डिण्डोरी, अनूपपुर, शहडोल और श्योपुर में सक्रिय है। इन मुद्दों के समाधान में ग्रामसभा की भूमिका के बारे में जागरुकता बढ़ रही है। आदिवासी बहुल मण्डला जिले के नूरपुर विकासखण्ड की तुमे गाओ ग्राम पंचायत के सरपंच हरि सिंह मरावी कहते हैं, ‘‘मैने लोगों को यह कहते सुना है कि कुछ हानिप्रद गैस वायुमण्डल में आकर मिल रही है, जिसके कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। यदि ऐसा है तो, इससे हमें भोजन देने वाली हमारी ज़मीन (धरती) खतरे में पड़ जाएगी।’’
कोपेनहेगन से कोसों दूर और अन्तरराष्ट्रीय वार्ताओं तथा कार्रवाई मंचों से परे मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में निवास करने वाले ग्रामीण और जनजातीय समुदायों के लिए जलवायु परिवर्तन कोई परिचित शब्दावली नहीं है। फिर भी, उन्हें अपने आसपास के वातावरण में बदलाव आता हुआ दिखाई देने लगा है।
हालांकि यह पूर्णतः स्पष्ट नहीं है परन्तु दिखाई दे रहा है। मध्य प्रदेश के उत्तर में श्योपुर जिला मुख्यालयसे करीब 60 किमी दूर दुबड़ी गाँव के 75 वर्षीय किसान वीर सिंह कहते हैं, ‘‘एकमात्र परिवर्तन जो मैं अनुभव करता हूँ वह यह कि कोई भी चीज़ समय पर नहीं हो रही है न बारिश न और न ही जाड़ा।’’ वे आगे कहते हैं कि एक बात पक्की है कि अब तो मौसम भी धोखेबाज़ हो गया है। मौसम के भरोसे चलने का समय गया।’’
यह नई समझ, किसी नीति सम्बन्धी मंचों, विशेषज्ञों और विद्वानों की ओर से उनमें नहीं आ पैदा हुई है। और न ही इसमें मीडिया की कोई भूमिका है। उनमें यह समझ अपने आसपास हो रहे परिवर्तनों को देखते हुए स्वतः विकसित हुई है। यह बात बिल्कुल सच लगती दिखाई दे रही है कि जलवायु परिवर्तन से देशभर के ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों और अन्य समुदायों पर असर पड़ने की आशंका है।
यह हमारी कृषि प्रणालियों को नुकसान पहुँचा सकता है, जिस पर तमाम लोगों का जीवन निर्भर है। परन्तु मध्य प्रदेश के इस अंचल में स्थानीय समुदायों को यह बात समझ में आ गई है कि दुनिया में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। पुरखों से विरासत में मिली हमारी दुनिया, पर्यावरण और इंसानों के सामंजस्य पर आधारित दुनिया, अब बदल रही है।
यह जागरुकता केवल समुदायों में ही नहीं आई है। मध्य प्रदेश ग्रामीण आजीविका परियोजना के एक अंग के रूप में 3,000 आजीविका उन्नायकों की पहल के फलस्वरूप वातावरण और पर्यावरण में आ रहे बदलावों के प्रति उनमें चेतना बढ़ रही है। वैश्विक तपन के फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित आजीविका पर मंडरा रहे सम्भावित खतरे को माप कर बनाए गए इस कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामीण लोगों को जलवायु परिर्वतन से जुड़े मुद्दों के बारे में जानकारी देना है।
इस उद्देश्य के लिए गठित हरित सेना (ग्रीन आर्मी) राज्य के 9 आदिवासी बहुल जिलों- धार, झाबुआ, बड़वानी, आलीराजपुर, मण्डला, डिण्डोरी, अनूपपुर, शहडोल और श्योपुर में सक्रिय है। इन मुद्दों के समाधान में ग्रामसभा की भूमिका के बारे में जागरुकता बढ़ रही है।
आजीविका उन्नायक जलवायु परिवर्तन की समस्या को समझने और उससे निपटने के मुख्य सन्देश के साथ सीधे ग्रामवासियों तक पहुँचने की सम्भावना के प्रति सजग हैं। हरि सिंह मरावी एक फिक्रमन्द सरपंच हैं। उनकीसमझ में यह बात आ चुकी है कि धरती का तापमान बढ़ रहा है, और इससे लोगों की आजीविका को नुकसान पहुँच सकता है।
वे यह सब बातें ग्राम सभा के समक्ष रखना चाहते हैं। ग्रामसभा ग्रामीण समुदाय को शिक्षित करने का मंच बन सकती है या फिर सामूहिक कार्रवाई के लिए कोई नियम तय कर सकती है। खुड़िया ग्राम पंचायत के सरपंच देव सिंह वरकड़े का कहना है कि ‘‘यदि ग़रीब ग्रामवासियों को तकलीफ उठानी पड़ेगी तो उनके पास सबसे प्रभावी समाधान भी होंगे और इस तरह के समाधानों के लिए इससे बेहतर अन्य कोई मंच नहीं हो सकता है।’’
परन्तु ज़मीनी स्तर पर यह कैसे काम करेगा। मण्डला ज़िले की जलतारा ग्रामपंचायत के पंच लामू सिंह मरावी ने कुछ मार्गदर्शक सिद्धान्त तय किए है। ‘‘हमें सिर्फ वही काम करने हैं जो हम बरसों से करते आ रहे हैं। हमें पानी बचाना होगा, बाग-बगीचों पर ध्यान देना, उनकी अच्छी देखभाल करनी होगी, खेतों को रसायन मुक्त करना होगा, बिजली की खपत में कमी लानी होगी और जो पेड़-पौधे, जंगल और वन्य जीव बचे हैं, उनका संरक्षण करना होगा। मैं तो यही समझता हूं, और यही सबको समझना होगा।’’
‘‘धरती माँ के साथ अच्छा बरताव करना सीखो और सब कुछ ठीक हो जाएगा,’’ यह कहना है पश्चिमी मध्य प्रदेश के झाबुआ जिला मुख्यालय से 15 किमी दूर स्थित बेहड़वी गाँव के भुवन सिंह का। तात्पर्य यह है कि वे वही करेंगे जो नैसर्गिक रूप से, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही, जन्मजात समझदारी पर आधारित होगा। यह समझदारी उन्हें बताती है कि धरती को हराभरा और शीतल बनाए रखो।
भुवन सिंह ने ग्रामवासियों का नेतृत्व करते हुए उन्हें 13 हेक्टेयर भूमि में बाग लगाने के लिए प्रेरित किया। पिछले तीन वर्षों से वे 50 हजार रुपए का हरा चारा पैदा कर रहे हैं। इसी गाँव के खूम सिंह का कहना है कि ‘‘हम लोग मछली पालन के लिए 15 हेक्टेयर के तालाब की देखभाल भी कर रहे हैं। हमारे पास प्राकृतिक संसाधनों के अलावा कुछ भी नहीं है। हमें किसी भी तरह इसी के साथ गुजारा करना है।’’ वह आजकल चर्चा में रहने वाली शब्दावली को बोझिल महसूस करता है।
हमें नहीं पता कि हमारे प्रयासों से कार्बन उत्सर्जन के शमन में कितना योगदान होगा। परियोजना से जुड़े अन्य लोग उसकी बारीकियों को समझ रहे हैं। झाबुआ जिले के राणापुर विकासखण्ड के तिकड़ीजोगी गाँव में आजीविका उन्नायक राम सिंह कहते हैं कि ‘‘हम निर्धन परिवारों को यह महत्वपूर्ण जानकारी देंगे कि गाँवोंमें किस प्रकार कार्बन उत्सर्जन पर रोक लगाई जा सकती है। जीवनस्तर में सुधार के लिए हम देसी तरीकों और बायोगैस (गोबर गैस) और सौर ऊर्जा प्रणलियों जैसे आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल कर सकते हैं।’’
जलवायु साक्षरता की गिनती प्रसार आजीविका उन्नायकों की शीर्ष प्राथमिकताओं में होती है। परियोजना समन्वयक एल एम बेलवाल का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के बारे में ग्रामसभाओं को यह समझाना अतिआवश्यक हो गया है कि इसका हमारी आजीविका पर कितना गम्भीर प्रभाव पड़ सकता है।
इस विषय पर जागरुकता फैलाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। बोधगम्य पर्यावरणीय परिवर्तनों से आपसी सामंजस्य बिठाना उसके प्रभावों के शमन के ठोस समाधानों से लोगों की जीवनशैली में बदलाव, नए विकल्पों और नवाचारी कार्यों के रास्ते तलाशना और आदिवासी समुदायों को उससे बचने में मदद करना, बल्कि उसकेप्रभाव तले दबने के बजाय उसको काबू में करना सिखाना, ज़रूरी हो गया है।
एक प्रकार से यह एक छोटा परन्तु नितान्त उल्लेखनीय कदम है। जलवायु परिवर्तन का सन्ताप झेलने वालों को प्रकृति के कोप से बचने का तौर-तरीका सीखना होगा ताकि वे अपनी नियति के नियन्ता स्वयं बन सकें और पर्यावरण से सामंजस्य और समरसता के अग्रदूत बन सकें।
कोपेनहेगन से कोसों दूर और अन्तरराष्ट्रीय वार्ताओं तथा कार्रवाई मंचों से परे मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में निवास करने वाले ग्रामीण और जनजातीय समुदायों के लिए जलवायु परिवर्तन कोई परिचित शब्दावली नहीं है। फिर भी, उन्हें अपने आसपास के वातावरण में बदलाव आता हुआ दिखाई देने लगा है।
हालांकि यह पूर्णतः स्पष्ट नहीं है परन्तु दिखाई दे रहा है। मध्य प्रदेश के उत्तर में श्योपुर जिला मुख्यालयसे करीब 60 किमी दूर दुबड़ी गाँव के 75 वर्षीय किसान वीर सिंह कहते हैं, ‘‘एकमात्र परिवर्तन जो मैं अनुभव करता हूँ वह यह कि कोई भी चीज़ समय पर नहीं हो रही है न बारिश न और न ही जाड़ा।’’ वे आगे कहते हैं कि एक बात पक्की है कि अब तो मौसम भी धोखेबाज़ हो गया है। मौसम के भरोसे चलने का समय गया।’’
यह नई समझ, किसी नीति सम्बन्धी मंचों, विशेषज्ञों और विद्वानों की ओर से उनमें नहीं आ पैदा हुई है। और न ही इसमें मीडिया की कोई भूमिका है। उनमें यह समझ अपने आसपास हो रहे परिवर्तनों को देखते हुए स्वतः विकसित हुई है। यह बात बिल्कुल सच लगती दिखाई दे रही है कि जलवायु परिवर्तन से देशभर के ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों और अन्य समुदायों पर असर पड़ने की आशंका है।
यह हमारी कृषि प्रणालियों को नुकसान पहुँचा सकता है, जिस पर तमाम लोगों का जीवन निर्भर है। परन्तु मध्य प्रदेश के इस अंचल में स्थानीय समुदायों को यह बात समझ में आ गई है कि दुनिया में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। पुरखों से विरासत में मिली हमारी दुनिया, पर्यावरण और इंसानों के सामंजस्य पर आधारित दुनिया, अब बदल रही है।
यह जागरुकता केवल समुदायों में ही नहीं आई है। मध्य प्रदेश ग्रामीण आजीविका परियोजना के एक अंग के रूप में 3,000 आजीविका उन्नायकों की पहल के फलस्वरूप वातावरण और पर्यावरण में आ रहे बदलावों के प्रति उनमें चेतना बढ़ रही है। वैश्विक तपन के फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित आजीविका पर मंडरा रहे सम्भावित खतरे को माप कर बनाए गए इस कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामीण लोगों को जलवायु परिर्वतन से जुड़े मुद्दों के बारे में जानकारी देना है।
इस उद्देश्य के लिए गठित हरित सेना (ग्रीन आर्मी) राज्य के 9 आदिवासी बहुल जिलों- धार, झाबुआ, बड़वानी, आलीराजपुर, मण्डला, डिण्डोरी, अनूपपुर, शहडोल और श्योपुर में सक्रिय है। इन मुद्दों के समाधान में ग्रामसभा की भूमिका के बारे में जागरुकता बढ़ रही है।
आजीविका उन्नायक जलवायु परिवर्तन की समस्या को समझने और उससे निपटने के मुख्य सन्देश के साथ सीधे ग्रामवासियों तक पहुँचने की सम्भावना के प्रति सजग हैं। हरि सिंह मरावी एक फिक्रमन्द सरपंच हैं। उनकीसमझ में यह बात आ चुकी है कि धरती का तापमान बढ़ रहा है, और इससे लोगों की आजीविका को नुकसान पहुँच सकता है।
वे यह सब बातें ग्राम सभा के समक्ष रखना चाहते हैं। ग्रामसभा ग्रामीण समुदाय को शिक्षित करने का मंच बन सकती है या फिर सामूहिक कार्रवाई के लिए कोई नियम तय कर सकती है। खुड़िया ग्राम पंचायत के सरपंच देव सिंह वरकड़े का कहना है कि ‘‘यदि ग़रीब ग्रामवासियों को तकलीफ उठानी पड़ेगी तो उनके पास सबसे प्रभावी समाधान भी होंगे और इस तरह के समाधानों के लिए इससे बेहतर अन्य कोई मंच नहीं हो सकता है।’’
परन्तु ज़मीनी स्तर पर यह कैसे काम करेगा। मण्डला ज़िले की जलतारा ग्रामपंचायत के पंच लामू सिंह मरावी ने कुछ मार्गदर्शक सिद्धान्त तय किए है। ‘‘हमें सिर्फ वही काम करने हैं जो हम बरसों से करते आ रहे हैं। हमें पानी बचाना होगा, बाग-बगीचों पर ध्यान देना, उनकी अच्छी देखभाल करनी होगी, खेतों को रसायन मुक्त करना होगा, बिजली की खपत में कमी लानी होगी और जो पेड़-पौधे, जंगल और वन्य जीव बचे हैं, उनका संरक्षण करना होगा। मैं तो यही समझता हूं, और यही सबको समझना होगा।’’
‘‘धरती माँ के साथ अच्छा बरताव करना सीखो और सब कुछ ठीक हो जाएगा,’’ यह कहना है पश्चिमी मध्य प्रदेश के झाबुआ जिला मुख्यालय से 15 किमी दूर स्थित बेहड़वी गाँव के भुवन सिंह का। तात्पर्य यह है कि वे वही करेंगे जो नैसर्गिक रूप से, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही, जन्मजात समझदारी पर आधारित होगा। यह समझदारी उन्हें बताती है कि धरती को हराभरा और शीतल बनाए रखो।
भुवन सिंह ने ग्रामवासियों का नेतृत्व करते हुए उन्हें 13 हेक्टेयर भूमि में बाग लगाने के लिए प्रेरित किया। पिछले तीन वर्षों से वे 50 हजार रुपए का हरा चारा पैदा कर रहे हैं। इसी गाँव के खूम सिंह का कहना है कि ‘‘हम लोग मछली पालन के लिए 15 हेक्टेयर के तालाब की देखभाल भी कर रहे हैं। हमारे पास प्राकृतिक संसाधनों के अलावा कुछ भी नहीं है। हमें किसी भी तरह इसी के साथ गुजारा करना है।’’ वह आजकल चर्चा में रहने वाली शब्दावली को बोझिल महसूस करता है।
हमें नहीं पता कि हमारे प्रयासों से कार्बन उत्सर्जन के शमन में कितना योगदान होगा। परियोजना से जुड़े अन्य लोग उसकी बारीकियों को समझ रहे हैं। झाबुआ जिले के राणापुर विकासखण्ड के तिकड़ीजोगी गाँव में आजीविका उन्नायक राम सिंह कहते हैं कि ‘‘हम निर्धन परिवारों को यह महत्वपूर्ण जानकारी देंगे कि गाँवोंमें किस प्रकार कार्बन उत्सर्जन पर रोक लगाई जा सकती है। जीवनस्तर में सुधार के लिए हम देसी तरीकों और बायोगैस (गोबर गैस) और सौर ऊर्जा प्रणलियों जैसे आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल कर सकते हैं।’’
जलवायु साक्षरता की गिनती प्रसार आजीविका उन्नायकों की शीर्ष प्राथमिकताओं में होती है। परियोजना समन्वयक एल एम बेलवाल का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के बारे में ग्रामसभाओं को यह समझाना अतिआवश्यक हो गया है कि इसका हमारी आजीविका पर कितना गम्भीर प्रभाव पड़ सकता है।
इस विषय पर जागरुकता फैलाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। बोधगम्य पर्यावरणीय परिवर्तनों से आपसी सामंजस्य बिठाना उसके प्रभावों के शमन के ठोस समाधानों से लोगों की जीवनशैली में बदलाव, नए विकल्पों और नवाचारी कार्यों के रास्ते तलाशना और आदिवासी समुदायों को उससे बचने में मदद करना, बल्कि उसकेप्रभाव तले दबने के बजाय उसको काबू में करना सिखाना, ज़रूरी हो गया है।
एक प्रकार से यह एक छोटा परन्तु नितान्त उल्लेखनीय कदम है। जलवायु परिवर्तन का सन्ताप झेलने वालों को प्रकृति के कोप से बचने का तौर-तरीका सीखना होगा ताकि वे अपनी नियति के नियन्ता स्वयं बन सकें और पर्यावरण से सामंजस्य और समरसता के अग्रदूत बन सकें।
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Post By: Shivendra