जलवायु परिर्वतन : कुछ महत्वपूर्ण तथ्यसुरेश अवस्थी दिसम्बर 2004 में कार्बन व्यवसाय को लेकर डरबन सम्मेलन तथा फरवरी 2005 में पुनः क्योटो प्रोटोकॉल को अन्तिम रूप देते हुए 2012 तक 1990 के स्तर पर कार्बन डाई-ऑक्साइड उत्सर्जन लाने की सहमति बनी। इसी सन्दर्भ में 2007 में बाली (इण्डोनेशिया) में हुए सम्मेलन में विकसित देशों पर जिम्मेदारी डाली गई, क्योंकि मात्रा 20 प्रतिशत संख्या वाले ये देश 80 प्रतिशत कार्बन डाई-ऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं।डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में दिसम्बर के मध्य में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के बाद समूचे विश्व में जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में बहस तेज हो गई है। दरअसल, 1980 के दशक के अन्त में इसे लेकर विश्व भर में चिन्ता बढ़ी। 1992 में ब्राजील के रियो-डि-जिनेरो में एक पृथ्वी सम्मेलन हुआ और धरती को बचाने की कवायद में तेजी आने लगी। इसी सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन पर यूएन फ्रेमवर्क बनाया गया। इसी में औद्योगिक देशों को वैश्विक तपन के मौजूदा स्वरूप के लिए जिम्मेदार मानते हुए ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर रोक लगाने की बात की गई। इसके बाद 1997 में जापान के क्योटो में हुए सम्मेलन में 40 औद्योगिक देशों के लिए 1990 के स्तर के आधार पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मानक तय किए गए। तत्पश्चात दिसम्बर 2004 में कार्बन व्यवसाय को लेकर डरबन सम्मेलन तथा फरवरी 2005 में पुनः क्योटो प्रोटोकॉल को अन्तिम रूप देते हुए 2012 तक 1990 के स्तर पर कार्बन डाई-ऑक्साइड उत्सर्जन लाने की सहमति बनी। इसी सन्दर्भ में 2007 में बाली (इण्डोनेशिया) में हुए सम्मेलन में विकसित देशों पर जिम्मेदारी डाली गई, क्योंकि मात्रा 20 प्रतिशत संख्या वाले ये देश 80 प्रतिशत कार्बन डाई-ऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं।
कार्बन डाई-ऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, ओजोन जैसी 6 गैसों को ग्रीनहाउस गैस कहा जाता है। इनमें से कार्बन डाई-ऑक्साइड पर्यावरण के लिए सबसे अधिक खतरनाक है। इन गैसों के उत्सर्जन से धरती का तापमान बढ़ रहा है। इसे ही ग्लोबल वार्मिंग अथवा वैश्विक तपन कहा जाता है। इसके कारण उत्पन्न प्रमुख समस्याएँ इस प्रकार हैं :ओजोन परत में छिद्र : धरती के वातावरण में मौजूद ओजोन की परत हमें सूर्य से निकलने वाली पराबैंगनी किरणों से बचाती है। परन्तु हवाई ईन्धन और रेफ्रिजरेशन उद्योग से उत्सर्जित होने वाली सीएफसी (क्लोरोफ्लोरो कार्बन) गैस से धरती के वातावरण में विद्यमान ओजोन की सुरक्षा छतरी में छिद्र हो गए हैं।
समुद्र स्तर में वृद्धि : वैश्विक तपन के फलस्वरूप हिम (ग्लेशियर) पिघल रहे हैं जिसके कारण समुद्र के जल स्तर में तेजी से वृद्धि हो रही है। आशँका है कि इससे कुछ वर्षों में मालदीव जैसे द्वीपीय देश दुनिया के नक्शे से लुप्त हो जाएँगे।
भू-जल का विषैला होना : समुद्र का जल स्तर बढ़ने से तटवर्ती क्षेत्रों के भू-जल के खारा होने का खतरा बढ़ गया है। समुद्र के तटीय इलाकों में पेयजल और निस्तारी जल की समस्या शुरू हो सकती है।
ध्रुवों की बर्फ का पिघलना : वैश्विक तपन के कारण पृथ्वी के ध्रुवों की बर्फ पिघल रही है। इससे समुद्र के जल स्तर में वृद्धि हो रही है। इसके साथ ध्रुवीय भालू (पोलर बियर) जैसे जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।
वन क्षेत्रों का सिकुड़ना : बदलते मौसम, औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण जंगलों की कटाई से वन क्षेत्र काफी सीमित होता जा रहा है। आशँका है कि अगले दो दशकों में केवल 10 प्रतिशत वन ही बचेंगे।
लुप्तप्राय जीव : उपर्युक्त समस्याओं के कारण धरती पर जैव-विविधता संकीर्ण होती जा रही है। अन्देशा है कि वैश्विक तपन के दुष्प्रभाव से धरती पर विद्यमान पौधों की 56 हजार प्रजातियों और जीवों की 37,000 नस्लें लुप्तप्राय होती जा रही हैं।
क्योटो प्रोटोकॉल में प्रदूषण कम करने के दो तरीके सुझाए गए थे। इस कमी को कार्बन क्रेडिट की इकाई में मापा जाना था। एक कार्बन यूनिट एक टन कार्बन के बराबर है। पहला तरीका जो सुझाया गया था, उसके अनुसार अमीर देश स्वच्छ विकास तन्त्र में निवेश करें अथवा बाजार से कार्बन क्रेडिट खरीद लें। अर्थात यदि विकसित देशों की कम्पनियाँ स्वयं ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी न ला सकें तो वे विकासशील देशों से कार्बन क्रेडिट खरीद लें। चूँकि भारत और चीन जैसे देशों में इन गैसों का उत्सर्जन कम होता है, इसलिए यहाँ कार्बन क्रेडिट का बाजार काफी बड़ा है। कार्बन क्रेडिट कमाने के लिए कम्पनियाँ ऐसी परियोजनाएँ लगाती हैं जिनसे वायुमण्डल की कार्बन डाई-ऑक्साइड में कमी आए या फिर स्वच्छ विकास तन्त्र के उपयोग से कम से कम कार्बनिक गैस का उत्सर्जन हो। इसके तहत वृक्षारोपण, कचरे से ऊर्जा उत्पादन, ठोस कचरा प्रबन्धन, जल प्रबन्धन और नवीकरणीय/अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं, जैव ईन्धन, सौर ऊर्जा का उत्पादन आदि शामिल हैं।
क्योटो प्रोटोकॉल के तहत 40 औद्योगिक देशों को अलग सूची एनेक्स-1 में रखा गया है। ये देश 2012 के लिए निर्धारित लक्ष्य से काफी दूर हैं जिसके कारण वैश्विक तपन में वृद्धि हो रही है। अन्य देश चाहते हैं कि एनेक्स-1 के देश अपने उत्सर्जन में तेजी से कटौती करें। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे 2012 तक अपने उत्सर्जन में 5.2 प्रतिशत की कटौती (1990 के स्तर से) करें। एनेक्स-1 का कोई भी देश इतनी भारी मात्रा में कटौती करने का इच्छुक नहीं है। एनेक्स-1 देशों के लिए ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी करना बाध्यकारी है। इसके अलावा विकासशील देशों की सहायता के लिए एक कोष बनाने की बात भी कही गई है। प्रोटोकॉल के लक्ष्यों को पूरा करने पर कार्बन क्रेडिट दिए जाने की व्यवस्था भी प्रोटोकॉल में की गई है। अमेरिका विश्व का सबसे बड़ा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जक देश है। उसने क्योटो प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर तो किए हैं परन्तु उसकी पुष्टि अभी तक नहीं की है। इसलिए एनेक्स-1 में होने के बावजूद उसने कोई लक्ष्य उत्सर्जन में कमी लाने के लिए नहीं रखा है।
एनेक्स-1 में शामिल अधिकतर देश 2012 तक के लिए निर्धारित लक्ष्य से अभी कोसों दूर हैं। उनसे अपेक्षा की जाती है कि संकल्पित अवधि के द्वितीय चरण (अभी यह परिभाषित नहीं है। यह अवधि 2012-17 अथवा 2012-2020 कोई भी तय की जा सकती है) में तेजी से भारी कटौती करेंगे। अपेक्षा है कि एनेक्स-1 देश 2020 तक अपने उत्सर्जन में 1990 के स्तर की तुलना में 40 प्रतिशत की कमी लाएँगे। परन्तु इनमें से कोई भी देश इसके लिए तैयार नहीं है। यूरोपीय संघ ने अवश्य 2020 तक 20 प्रतिशत कटौती करने की पेशकश की है और यदि अन्य देश भी इसी प्रकार की प्रतिबद्धता दिखाते हैं तो वह 30 प्रतिशत तक कटौती करने को तैयार है। हाल ही में (नवम्बर 2009) चीन ने 2020 तक 2005 के स्तर पर 40-45 प्रतिशत की कटौती का प्रस्ताव रखा है। भारत और चीन एनेक्स-1 में नहीं आते। परन्तु उनकी बढ़ती विकास दर को देखते हुए विकसित देश उन पर भी बाध्यकारी शर्तें थोपने के हिमायती हैं।
भारत में कुल 1.8 अरब टन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। इसमें से अकेले कार्बन डाई-ऑक्साइड की मात्रा 1.3 अरब टन है। प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 1.8 टन के लगभग है। तुलनात्मक दृष्टि से अमेरिका में 6 अरब टन का उत्सर्जन होता है जो प्रति व्यक्ति 20 टन से अधिक है। विश्व औसत 4.5 टन प्रति व्यक्ति है। एनेक्स-1 देशों का औसत प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 12 टन है।
भारत का दृष्टिकोण दो सिद्धान्तों पर आधारित है। पहला, भारत का मानना है कि वायुमण्डल में ग्रीनहाउस गैसों का जो भण्डार है वह पिछले 150-200 वर्षों में जमा हुई है और उसके लिए एनेक्स-1 के देश ही उत्तरदायी हैं। अतः उत्सर्जन में कटौती भी उन्हीं को करनी चाहिए। दूसरा, संयुक्त राष्ट्र कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (यूएनएफसीसीसी) ने समानता के सिद्धान्त पर भी जोर दिया है जिसके अनुसार विश्व के सभी नागरिकों की उत्सर्जन में समान भागीदारी है। भारत की प्रति व्यक्ति आय विश्व औसत से बहुत कम है। एनेक्स-1 देशों के मुकाबले तो कोई गिनती ही नहीं। अतः भारत के लिए कोई बाध्यकारी उत्सर्जन लक्ष्य नहीं तय किया जा सकता।
भारत ने कहा कि वह विकसित देशों के उत्सर्जन से मुकाबला नहीं करना चाहता, परन्तु कभी भी उनके उत्सर्जन से अधिक प्रति व्यक्ति उत्सर्जन नहीं करेगा। साथ ही, कार्बन मुक्त अर्थव्यवस्था को अपनाने के लिए और अधिक प्रयास करेगा। इन प्रयासों में, सौर ऊर्जा का अधिक उत्पादन, नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों को बढ़ावा और उत्सर्जन में कमी लाने वाले वाहनों एवं उपकरणों के उपयोग को बढ़ावा देना शामिल है। भारत ने इसलिए स्वच्छ ऊर्जा विकास के लिए आधुनिक तकनीकी और उसको अपनाने के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता दिए जाने पर जोर दिया है। एनेक्स-1 देशों को इसके लिए आगे आना होगा। इस सन्दर्भ में बौद्धिक सम्पदा अधिकारों में शिथिलता लाए जाने की माँग की गई है।
1. अन्तर-शासकीय जलवायु परिवर्तन पैनल (आईपीसीसी) : विश्व मौसम विज्ञानी संगठन और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा 1998 में स्थापित यह संस्था मानवीय गतिविधियों द्वारा मौसम में होने वाले खतरनाक परिवर्तनों का मूल्यांकन करती है। डॉ. आर. के. पचौरी इसके अध्यक्ष हैं।
2. यूरोपीय पर्यावरण एजेंसी (ईईए) : यह यूरोपीय संघ का पर्यावरण प्रहरी है। इसका काम यूरोप के वातावरण और पर्यावरण पर निरन्तर निगरानी रखना है।
3. यूएन एनवायरमेण्ट प्रोग्राम (यूएनईपी) : संयुक्त राष्ट्र द्वारा गठित यह संस्था बेहतर पर्यावरणीय नीति के क्रियान्वयन में विकासशील देशों की सहायता करती है।
4. दि एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट (टेरी) : भारत की प्रमुख पर्यावरण अनुसन्धान संस्था है।
वर्ष 2007-2008 में विश्व के कुछ चुनिन्दा महानगरों में प्रति व्यक्ति प्रदूषित गैसों का उत्सर्जन इस प्रकार रहा :
ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती हेतु भारत के प्रयास और लक्ष्य निम्न हैं :
1. नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग को प्रोत्साहन : राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन का लक्ष्य 2020 तक 20 मेगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन करना है। इससे 40 लाख टन कार्बन डाई-ऑक्साइड के उत्सर्जन में कमी आएगी।
2. कोयला आधारित संयन्त्रों में दक्षता : सुपर क्रिटिकल बॉयलर प्रौद्योगिकी के उपयोग से वर्ष 2030 तक मौजूदा 30 प्रतिशत की कार्य कुशलता (किफायत) में 10 प्रतिशत की वृद्धि।
3. अनिवार्य ईन्धन दक्षता : वर्ष 2011 से सभी वाहनों को इस मानक का पालन करना होगा। परिवहन क्षेत्र उत्सर्जन में 15 प्रतिशत का योगदान करता है। नये ऊर्जा-क्षम इंजनों के विकास हेतु वाहन उद्योग तैयार।
4. अनिवार्य भवन निर्माण संहिता : पर्यावरण संवेदी अभिकल्पन से आवासीय और कार्यालयीन परिसरों मं ऊर्जा के उपयोग में 50 प्रतिशत की कटौती की जा सकती है।
5. जैविक कृषि क्षेत्र का विस्तार : अभी केवल 0.5 प्रतिशत क्षेत्र में ही जैविक कृषि होती है। इस क्षेत्र का विस्तार करने से मिथेन के उत्पादन में कमी लाई जाएगी।
प्रदूषणकारी ऊर्जा के उपयोग में कमी लाने के इरादे से भारत सरकार रणनीतिक (महत्वपूर्ण) ज्ञान राष्ट्रीय मिशन की स्थापना का विचार कर रही है। करीब 22 अरब रुपए की यह परियोजना उत्सर्जन में कमी लाने और जलवायु परिवर्तन के विभिन्न पहलुओं पर स्वदेशी तकनीक के विकास और अनुसन्धान को बढ़ावा देगी।
(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं)
वैश्विक तपन अर्थात वायुमण्डल में ग्रीनहाउस गैसों का विस्तार
कार्बन डाई-ऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, ओजोन जैसी 6 गैसों को ग्रीनहाउस गैस कहा जाता है। इनमें से कार्बन डाई-ऑक्साइड पर्यावरण के लिए सबसे अधिक खतरनाक है। इन गैसों के उत्सर्जन से धरती का तापमान बढ़ रहा है। इसे ही ग्लोबल वार्मिंग अथवा वैश्विक तपन कहा जाता है। इसके कारण उत्पन्न प्रमुख समस्याएँ इस प्रकार हैं :ओजोन परत में छिद्र : धरती के वातावरण में मौजूद ओजोन की परत हमें सूर्य से निकलने वाली पराबैंगनी किरणों से बचाती है। परन्तु हवाई ईन्धन और रेफ्रिजरेशन उद्योग से उत्सर्जित होने वाली सीएफसी (क्लोरोफ्लोरो कार्बन) गैस से धरती के वातावरण में विद्यमान ओजोन की सुरक्षा छतरी में छिद्र हो गए हैं।
समुद्र स्तर में वृद्धि : वैश्विक तपन के फलस्वरूप हिम (ग्लेशियर) पिघल रहे हैं जिसके कारण समुद्र के जल स्तर में तेजी से वृद्धि हो रही है। आशँका है कि इससे कुछ वर्षों में मालदीव जैसे द्वीपीय देश दुनिया के नक्शे से लुप्त हो जाएँगे।
भू-जल का विषैला होना : समुद्र का जल स्तर बढ़ने से तटवर्ती क्षेत्रों के भू-जल के खारा होने का खतरा बढ़ गया है। समुद्र के तटीय इलाकों में पेयजल और निस्तारी जल की समस्या शुरू हो सकती है।
ध्रुवों की बर्फ का पिघलना : वैश्विक तपन के कारण पृथ्वी के ध्रुवों की बर्फ पिघल रही है। इससे समुद्र के जल स्तर में वृद्धि हो रही है। इसके साथ ध्रुवीय भालू (पोलर बियर) जैसे जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।
वन क्षेत्रों का सिकुड़ना : बदलते मौसम, औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण जंगलों की कटाई से वन क्षेत्र काफी सीमित होता जा रहा है। आशँका है कि अगले दो दशकों में केवल 10 प्रतिशत वन ही बचेंगे।
लुप्तप्राय जीव : उपर्युक्त समस्याओं के कारण धरती पर जैव-विविधता संकीर्ण होती जा रही है। अन्देशा है कि वैश्विक तपन के दुष्प्रभाव से धरती पर विद्यमान पौधों की 56 हजार प्रजातियों और जीवों की 37,000 नस्लें लुप्तप्राय होती जा रही हैं।
क्या है कार्बन ट्रेडिंग?
क्योटो प्रोटोकॉल में प्रदूषण कम करने के दो तरीके सुझाए गए थे। इस कमी को कार्बन क्रेडिट की इकाई में मापा जाना था। एक कार्बन यूनिट एक टन कार्बन के बराबर है। पहला तरीका जो सुझाया गया था, उसके अनुसार अमीर देश स्वच्छ विकास तन्त्र में निवेश करें अथवा बाजार से कार्बन क्रेडिट खरीद लें। अर्थात यदि विकसित देशों की कम्पनियाँ स्वयं ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी न ला सकें तो वे विकासशील देशों से कार्बन क्रेडिट खरीद लें। चूँकि भारत और चीन जैसे देशों में इन गैसों का उत्सर्जन कम होता है, इसलिए यहाँ कार्बन क्रेडिट का बाजार काफी बड़ा है। कार्बन क्रेडिट कमाने के लिए कम्पनियाँ ऐसी परियोजनाएँ लगाती हैं जिनसे वायुमण्डल की कार्बन डाई-ऑक्साइड में कमी आए या फिर स्वच्छ विकास तन्त्र के उपयोग से कम से कम कार्बनिक गैस का उत्सर्जन हो। इसके तहत वृक्षारोपण, कचरे से ऊर्जा उत्पादन, ठोस कचरा प्रबन्धन, जल प्रबन्धन और नवीकरणीय/अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं, जैव ईन्धन, सौर ऊर्जा का उत्पादन आदि शामिल हैं।
क्या है क्योटो प्रोटोकॉल?
क्योटो प्रोटोकॉल के तहत 40 औद्योगिक देशों को अलग सूची एनेक्स-1 में रखा गया है। ये देश 2012 के लिए निर्धारित लक्ष्य से काफी दूर हैं जिसके कारण वैश्विक तपन में वृद्धि हो रही है। अन्य देश चाहते हैं कि एनेक्स-1 के देश अपने उत्सर्जन में तेजी से कटौती करें। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे 2012 तक अपने उत्सर्जन में 5.2 प्रतिशत की कटौती (1990 के स्तर से) करें। एनेक्स-1 का कोई भी देश इतनी भारी मात्रा में कटौती करने का इच्छुक नहीं है। एनेक्स-1 देशों के लिए ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी करना बाध्यकारी है। इसके अलावा विकासशील देशों की सहायता के लिए एक कोष बनाने की बात भी कही गई है। प्रोटोकॉल के लक्ष्यों को पूरा करने पर कार्बन क्रेडिट दिए जाने की व्यवस्था भी प्रोटोकॉल में की गई है। अमेरिका विश्व का सबसे बड़ा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जक देश है। उसने क्योटो प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर तो किए हैं परन्तु उसकी पुष्टि अभी तक नहीं की है। इसलिए एनेक्स-1 में होने के बावजूद उसने कोई लक्ष्य उत्सर्जन में कमी लाने के लिए नहीं रखा है।
क्या है मौजूदा विवाद?
एनेक्स-1 में शामिल अधिकतर देश 2012 तक के लिए निर्धारित लक्ष्य से अभी कोसों दूर हैं। उनसे अपेक्षा की जाती है कि संकल्पित अवधि के द्वितीय चरण (अभी यह परिभाषित नहीं है। यह अवधि 2012-17 अथवा 2012-2020 कोई भी तय की जा सकती है) में तेजी से भारी कटौती करेंगे। अपेक्षा है कि एनेक्स-1 देश 2020 तक अपने उत्सर्जन में 1990 के स्तर की तुलना में 40 प्रतिशत की कमी लाएँगे। परन्तु इनमें से कोई भी देश इसके लिए तैयार नहीं है। यूरोपीय संघ ने अवश्य 2020 तक 20 प्रतिशत कटौती करने की पेशकश की है और यदि अन्य देश भी इसी प्रकार की प्रतिबद्धता दिखाते हैं तो वह 30 प्रतिशत तक कटौती करने को तैयार है। हाल ही में (नवम्बर 2009) चीन ने 2020 तक 2005 के स्तर पर 40-45 प्रतिशत की कटौती का प्रस्ताव रखा है। भारत और चीन एनेक्स-1 में नहीं आते। परन्तु उनकी बढ़ती विकास दर को देखते हुए विकसित देश उन पर भी बाध्यकारी शर्तें थोपने के हिमायती हैं।
भारत में कितना उत्सर्जन होता है?
भारत में कुल 1.8 अरब टन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। इसमें से अकेले कार्बन डाई-ऑक्साइड की मात्रा 1.3 अरब टन है। प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 1.8 टन के लगभग है। तुलनात्मक दृष्टि से अमेरिका में 6 अरब टन का उत्सर्जन होता है जो प्रति व्यक्ति 20 टन से अधिक है। विश्व औसत 4.5 टन प्रति व्यक्ति है। एनेक्स-1 देशों का औसत प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 12 टन है।
भारत की स्थिति
भारत का दृष्टिकोण दो सिद्धान्तों पर आधारित है। पहला, भारत का मानना है कि वायुमण्डल में ग्रीनहाउस गैसों का जो भण्डार है वह पिछले 150-200 वर्षों में जमा हुई है और उसके लिए एनेक्स-1 के देश ही उत्तरदायी हैं। अतः उत्सर्जन में कटौती भी उन्हीं को करनी चाहिए। दूसरा, संयुक्त राष्ट्र कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (यूएनएफसीसीसी) ने समानता के सिद्धान्त पर भी जोर दिया है जिसके अनुसार विश्व के सभी नागरिकों की उत्सर्जन में समान भागीदारी है। भारत की प्रति व्यक्ति आय विश्व औसत से बहुत कम है। एनेक्स-1 देशों के मुकाबले तो कोई गिनती ही नहीं। अतः भारत के लिए कोई बाध्यकारी उत्सर्जन लक्ष्य नहीं तय किया जा सकता।
भारत ने कहा कि वह विकसित देशों के उत्सर्जन से मुकाबला नहीं करना चाहता, परन्तु कभी भी उनके उत्सर्जन से अधिक प्रति व्यक्ति उत्सर्जन नहीं करेगा। साथ ही, कार्बन मुक्त अर्थव्यवस्था को अपनाने के लिए और अधिक प्रयास करेगा। इन प्रयासों में, सौर ऊर्जा का अधिक उत्पादन, नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों को बढ़ावा और उत्सर्जन में कमी लाने वाले वाहनों एवं उपकरणों के उपयोग को बढ़ावा देना शामिल है। भारत ने इसलिए स्वच्छ ऊर्जा विकास के लिए आधुनिक तकनीकी और उसको अपनाने के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता दिए जाने पर जोर दिया है। एनेक्स-1 देशों को इसके लिए आगे आना होगा। इस सन्दर्भ में बौद्धिक सम्पदा अधिकारों में शिथिलता लाए जाने की माँग की गई है।
कुछ प्रमुख पर्यावरण संस्थाएँ
1. अन्तर-शासकीय जलवायु परिवर्तन पैनल (आईपीसीसी) : विश्व मौसम विज्ञानी संगठन और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा 1998 में स्थापित यह संस्था मानवीय गतिविधियों द्वारा मौसम में होने वाले खतरनाक परिवर्तनों का मूल्यांकन करती है। डॉ. आर. के. पचौरी इसके अध्यक्ष हैं।
2. यूरोपीय पर्यावरण एजेंसी (ईईए) : यह यूरोपीय संघ का पर्यावरण प्रहरी है। इसका काम यूरोप के वातावरण और पर्यावरण पर निरन्तर निगरानी रखना है।
3. यूएन एनवायरमेण्ट प्रोग्राम (यूएनईपी) : संयुक्त राष्ट्र द्वारा गठित यह संस्था बेहतर पर्यावरणीय नीति के क्रियान्वयन में विकासशील देशों की सहायता करती है।
4. दि एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट (टेरी) : भारत की प्रमुख पर्यावरण अनुसन्धान संस्था है।
वर्ष 2007-2008 में विश्व के कुछ चुनिन्दा महानगरों में प्रति व्यक्ति प्रदूषित गैसों का उत्सर्जन इस प्रकार रहा :
दिल्ली | 1.6 टन |
वाशिंगटन | 19.7 टन |
टोरण्टो | 8.2 टन |
शंघाई | 8.1 टन |
न्यूयॉर्क | 7.1 टन |
लन्दन | 6.2 टन |
कोलकाता | 1.83 टन |
बंगलुरू | 0.82 टन |
स्रोत : आईसीएलईआई |
ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती हेतु भारत के प्रयास और लक्ष्य निम्न हैं :
1. नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग को प्रोत्साहन : राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन का लक्ष्य 2020 तक 20 मेगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन करना है। इससे 40 लाख टन कार्बन डाई-ऑक्साइड के उत्सर्जन में कमी आएगी।
2. कोयला आधारित संयन्त्रों में दक्षता : सुपर क्रिटिकल बॉयलर प्रौद्योगिकी के उपयोग से वर्ष 2030 तक मौजूदा 30 प्रतिशत की कार्य कुशलता (किफायत) में 10 प्रतिशत की वृद्धि।
3. अनिवार्य ईन्धन दक्षता : वर्ष 2011 से सभी वाहनों को इस मानक का पालन करना होगा। परिवहन क्षेत्र उत्सर्जन में 15 प्रतिशत का योगदान करता है। नये ऊर्जा-क्षम इंजनों के विकास हेतु वाहन उद्योग तैयार।
4. अनिवार्य भवन निर्माण संहिता : पर्यावरण संवेदी अभिकल्पन से आवासीय और कार्यालयीन परिसरों मं ऊर्जा के उपयोग में 50 प्रतिशत की कटौती की जा सकती है।
5. जैविक कृषि क्षेत्र का विस्तार : अभी केवल 0.5 प्रतिशत क्षेत्र में ही जैविक कृषि होती है। इस क्षेत्र का विस्तार करने से मिथेन के उत्पादन में कमी लाई जाएगी।
प्रदूषणकारी ऊर्जा के उपयोग में कमी लाने के इरादे से भारत सरकार रणनीतिक (महत्वपूर्ण) ज्ञान राष्ट्रीय मिशन की स्थापना का विचार कर रही है। करीब 22 अरब रुपए की यह परियोजना उत्सर्जन में कमी लाने और जलवायु परिवर्तन के विभिन्न पहलुओं पर स्वदेशी तकनीक के विकास और अनुसन्धान को बढ़ावा देगी।
(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं)
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