पेरिस जलवायु सम्मेलन, 30 नवम्बर-12 दिसम्बर 2015 पर विशेष
वायुमंडल में विषैली गैसों का जो ज़ख़ीरा तैर रहा है, वह ऊँचे पायदान पर विराजे देशों की देन है। तथ्य है कि अम्ब्रेला समूह ने अपने बेतहाशा बढ़ते उत्सर्जन पर नियंत्रण करने के लिये अपनी ओर से कोई प्रयास नहीं किये। धन देकर सहयोग नहीं किया। तकनीक के स्तर पर भी कोई मदद नहीं की है। विकासशील विश्व में स्वच्छ ऊर्जा के लिये कोई पैसा नहीं दिया। विडम्बना यह कि इसके बावजूद वे विकासशील दुनिया के स्तर पर स्वच्छ ऊर्जा का स्थानान्तरण होते देखना चाहते हैं।
जब से जलवायु सम्बन्धी वार्ताओं के दौर चले हैं, तब से पेरिस में पहली बार हुआ कि अभी तक जलवायु वार्ताओं के फ़ैसलों को धता बताने वाले देशों के अम्ब्रेला समूह के देश अपनी बातचीत, बयानों और सुनने वालों के समक्ष संयम धरे दिखलाई पड़े। यह समूह अमेरिका के नेतृत्व में सक्रिय रहा है।ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने वाले देश इसमें शामिल रहे हैं। जलवायु परिवर्तन का सामना करने की गरज से कोई सक्रियता नहीं दिखाने के लिये ये देश हमेशा कठघरे में रहे हैं।
पेरिस में इन देशों ने अपनी छवि बदलने की कोशिश की है। अब ये अच्छे देश हैं। इतने उत्साही हो चले हैं कि तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के मंसूबे के बजाय 1.5 डिग्री सेल्सियस रखने की बात कह रहे हैं। उनका कहना है कि वे ऐसा छोटे द्वीपीय देशों की चिन्ता में पड़कर कह रहे हैं। ये छोटे देश तापमान बढ़ने से सर्वाधिक प्रभावित हो सकते हैं।
वे इस दिशा में प्रगति की निगरानी की बात कह रहे हैं। साथ ही, इस लक्ष्य को हासिल करने के लिये प्रयासों में तेजी लाने के भी हिमायती हैं। उनके कथन पर मंत्रमुग्ध सुनने वाले लोग प्रतिक्रिया जतला रहे हैं कि इन देशों का ऐसा कहना कैसे गलत हो सकता है।
इन देशों की सोच में यह बदलाव कोई रातों-रात नहीं हुआ है। न ही यह एकाएक है। इन देशों ने अपने स्तर पर पहले से इसकी पूरी तैयारी की है ताकि अच्छे से इसकी पटकथा लिखी जा सके। उसका प्रचार भी अच्छे से किया जा सके।
अमेरिका में नागरिक समाज को यह कहकर खुश कर दिया गया कि उनके अच्छे दिन आ गए हैं- अमेरिका के स्वैच्छिक संगठनों का पूरा समर्थन साथ है क्योंकि ये एनजीओ मानते (सोचे-समझे या सरल भाव से) हैं कि उनकी सरकार इतना कुछ कर रही है। वह भी रिपब्लिकन पार्टी के विरोध के बावजूद। उनका मीडिया पूरी तरह से सतर्क है।
न्यूयॉर्क टाइम्स तथा बीबीसी जैसों को झिड़काया गया है। भारत जैसे विकासशील देशों की सरकारों से दुर्व्यवहार के लिये फटकार लगाई गई है। सो, जो अमेरिकी सरकार के अधिकारी नहीं कह सकते उनका मीडिया कह देता है। यह सब चालबाजी है। खासी ड्रामेबाजी। बिना संकेत मिले भला कौन बोलता है।
अगर आप उनमें से नहीं हैं, तो पटकथा पर नाटकबाजी के लिये पहले से रिहर्सल भी आपके लिये मौजूद है। प्रतिक्रिया की त्वरितता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है। भारत के प्रधानमंत्री ने जब पेरिस में अपने सम्बोधन में कार्बन बजट में खासी हिस्सेदारी की बात कही तो न्यूयॉर्क टाइम्स ने उनकी लानत-मलानत करते हुए एक लेख छापा।
इसी उदाहरण से आपके सामने सारा माजरा साफ हो जाता है। कहानी इस तरह आगे बढ़ती है। अगर कोई मुद्दा उठाता है, तो पहले उसे अड़चनबाज करार देकर खारिज कर देते हैं। फिर, कहा जाता है कि मुद्दा उठाने वाले लोग अमेरिका विरोधी हैं या विघ्न-संतोषी।
फिर भी आप अपनी बात कहना जारी रखते हैं, तो आपको सीधे-सीधे कह दिया जाता है कि आप अवांछित प्राणी हैं। कहना तो वे यही चाहते हैं कि आप दफा हो जाओ क्योंकि आपकी दावत समाप्त हो गई है। जलवायु परिवर्तन वास्तविक है और जो उत्सर्जन खत्म हो सकता था, खत्म किया जा चुका है। बचा कुछ नहीं है।
शट-अप कहते देर नहीं लगाएँगे विकसित देश
लेकिन आप हार नहीं मानते। अगर आप अपनी बात कहना जारी रखते हैं और माँग करते हैं कि बातचीत बराबरी की होनी चाहिए। यह कहते हैं कि उनमें इच्छा के अभाव ने विश्व को जोखिम के कगार पर ला खड़ा किया है।
यह कहते हैं कि उन्हें स्पेस खाली करनी चाहिए। तो उनकी प्रतिक्रिया होती है-शट-अप। वे सीधे-सीधे कहते हैं: तुम्हारे दरवाजे पर मौत मँडरा रही है और तुम रोटी माँग रहे हो। कितने अनैतिक हो तुम? कितने असंवेदनशील हो? लानत है तुम पर।
ये देश भूल जाते हैं कि वही हैं जो बेहद खराब मौसम से जुड़ीं आपदाओं से बर्बाद होते पीड़ित देशों के थोड़े और बचे-खुचे संसाधनों के तलबगार हैं। पीड़ित देश तापमान बढ़ाने के लिये उत्तरदायी नहीं हैं, लेकिन फिर भी सर्वाधिक प्रभावित हैं। वायुमंडल में विषैली गैसों का जो जखीरा तैर रहा है, वह ऊँचे पायदान पर विराजे देशों की देन है।
तथ्य है कि अम्ब्रेला समूह ने अपने बेतहाशा बढ़ते उत्सर्जन पर नियंत्रण करने के लिये अपनी ओर से कोई प्रयास नहीं किये। धन देकर सहयोग नहीं किया। तकनीक के स्तर पर भी कोई मदद नहीं की है। विकासशील विश्व में स्वच्छ ऊर्जा के लिये कोई पैसा नहीं दिया।
विडम्बना यह कि इसके बावजूद वे विकासशील दुनिया के स्तर पर स्वच्छ ऊर्जा का स्थानान्तरण होते देखना चाहते हैं। विडम्बना नहीं बल्कि तथ्य यह भी है कि एक बार कार्बन बजट-जिसका खासा हिस्सा वे समाप्त कर चुके हैं-समाप्त हुआ नहीं कि कोई भी कुछ नहीं कर पाएगा। सिवाय अन्याय की गुहार लगाते हुए रोने-चिल्लाने के।
यह भी तथ्य है कि ये देश उत्सर्जन पर लगाम लगाने के लिये कोई ज्यादा इच्छुक नहीं हैं। लेकिन जलवायु वार्ता समाप्त हो चुकी है, अब कोई उनसे ऐसे असुविधाजनक सवाल पूछने की स्थिति में नहीं है। वार्ता को लेकर जड़ता की जो स्थिति बन जाती है, उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। पेरिस में कोप 21 में केवल एक बयान था, बातचीत नहीं थी।
यूरोपीय लोगों ने इस कांफ्रेंस का आयोजन किया। वे पार्श्व में चले गए। फ्रेंच लोग विवाद को सुलझाने में कुशल समझे जाते हैं। लेकिन इस बार खोखले साबित हुए। अप्रासंगिक दिखे। लेकिन यह स्पष्ट है कि अगर हम एक खुले स्वतंत्र विश्व में रहना चाहते हैं, तो असन्तुष्टों की आवाज़ दबाई नहीं जा सकती।
असन्तोष के स्वर को वैधता प्रदान नहीं की जा सकती। उसे मौन नहीं किया जा सकता। जलवायु परिवर्तन एक तरह की असहिष्णुता है। और तमाम असहिष्णुताओं की भाँति ही इसका मुकाबला करना होगा। इस पर विजय पानी होगी।
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