जलते जंगल व्याकुल लोग


वनों की हिफाजत और पौधरोपण के काम में नाम मात्र की रकम खर्च की जाती है। हर साल पहाड़ के जंगलों में आग लगती है। पर जंगल की आग को आर्थिक एवं पारिस्थितिकी के नजरिए से नहीं देखा जाता। वनाग्नि के प्रबन्ध का तकनीकी प्रशिक्षण की पुख्ता व्यवस्था नहीं है। अव्यवहारिक वन कानूनों ने वनोपज पर स्थानीय निवासियों के नैसर्गिक अधिकारों को खत्म कर दिया है। नतीजन ग्रामीणों और वनों के बीच की दूरी बढ़ी है। जंगलों से आम आदमी का सदियों पुराना रिश्ता कायम किये बिना जंगलों को आग और इससे होने वाले नुकसान से बचाना सरकार और वन विभाग के बूते से बाहर हो गया है। इन्द्र देव की कृपा हुई और उत्तराखण्ड में जंगलों को भस्म कर देने वाली भीषण आग कुछ शान्त हो गई। बारिश नहीं हुई होती तो इस दावानल को बुझाना उत्तराखण्ड के राष्ट्रपति शासन के बस में नहीं था। पिछले एक पखवारे से पहाड़ के ज्यादातर जंगल जबरदस्त आग में धधक रहे थे। कई इलाकों में यह आग जंगल की सीमाएँ लाँघकर आबादी तक पहुँच गई है। करीब 2 हजार हेक्टेयर जंगल इस आग के चपेट में आया और जो नुकसान हुआ उसका अभी तक आकलन ही नहीं पाया है।

इस साल अप्रैल के महीने में ही कुमाऊँ के जंगलों में अगलगी की 300 से अधिक घटनाएँ घट चुकी हैं। इसकी वजह से करीब पौने सात सौ हेक्टेयर वन क्षेत्र नष्ट हो गया। जंगल में लगी आग न केवल बेशकीमती वन सम्पदा और जैव विविधता को नुकसान पहुँचा रही है बल्कि वन्य जीव भी अपनी जान बचाने के लिये यहाँ-से-वहाँ भागते नजर आ रहे हैं।

जंगलों में चारों ओर आग लगी होने की वजह से इन दिनों पहाड़ में धुंध सी छाई हुई है। हर तरफ से उठते काले धुएँ के गुबार से आसमान भी धुँधला नजर आ रहा है। वनाग्नि के चलते पहाड़ का तापमान चार से पाँच डिग्री तक बढ़ गया है। इस सबके बीच उत्तराखण्ड में मौजूद जंगलों के एवज में 'ग्रीन बोनस' माँगने वाले सियासतदां कुर्सी छीनने और कुर्सी बचाने की रस्साकशी में मशगूल हैं।

आग लगने की घटनाओं से अब तक तीन लोगों के मरने और आग बुझाने की कोशिशों में दर्जनों लोगों के घायल होने की खबर है। वन क्षेत्रों में मौजूद अनेक पौधालय जल गए हैं। इस भीषण आग में अनेक प्रजाति के जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों की विभिन्न प्रजातियों के विलुप्त होने की आशंका जताई जा रही है। जिससे भविष्य में पारिस्थितिकी संकट उत्पन्न हो सकता है।

कई इलाकों में जंगलों से गुजर रही बीएसएनएल की केबलें भी आग में जलकर स्वाहा हो गई हैं। जंगलात महकमा स्थानीय ग्रामीणों की मदद से आग में काबू पाने के लिये जूझ रहा है। नैनीताल के जिला मजिस्ट्रेट दीपक रावत ने वनाग्नि के मद्देनजर सभी अफसरों की छुट्टियाँ रद्द कर दी हैं। उन्होंने जिले की 30 न्याय पंचायतों के लिये इतने ही नोडल अधिकारी तैनात कर दिये हैं।

पहाड़ के जंगलों में आग लगना एक स्थायी समस्या है। 2005 से 2015 के दरमियान कुमाऊँ के वनों में आग लगने की करीब 2238 घटनाएँ दर्ज हुईं। इसमें तकरीबन 5356.77 हेक्टेयर वन आग की भेंट चढ़ गए थे। आग की इन घटनाओं में करोड़ों रुपए मूल्य की वन सम्पदा जलकर स्वाहा हो गई। अनेक प्रजाति के नवजात पौधे, दुर्लभ जड़ी-बूटी और वनस्पति आग में भस्म हो गई थी। अनगिनत वन्य जीव और पशु-पक्षी जल मर गए। आग बुझाने की कोशिशों में अनेक लोग गम्भीर रूप से जख्मी हुए थे। पर इस साल लम्बे वक्त से बारिश नहीं होने से मौसम बेहद शुष्क है। तेज हवाएँ चल रहीं हैं। इससे आग की मारक क्षमता बढ़ गई है। जिसके चलते जंगल बारूद की ढेर की तरह आग में धधक रहे हैं।

उत्तराखण्ड का भौगोलिक क्षेत्रफल 53483 वर्ग किलोमीटर है। इसमें 64.79 फीसद यानि 34651.014 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र है। 24414.408 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र जंगलात विभाग के नियंत्रण में है। वन विभाग के नियंत्रण वाले वन क्षेत्र में से करीब 24260.783 वर्ग किलोमीटर आरक्षित वन क्षेत्र है। बाकी 139.653 वर्ग किलोमीटर जंगल वन पंचायतों के नियंत्रण में हैं।

जंगलात महकमे के नियंत्रण वाले वनों में से 394383.84 हेक्टेयर में चीड़ के जंगल हैं। 383088.12 हेक्टेयर में बांज के वन हैं। 614361 हेक्टेयर में मिश्रित जंगल हैं। जबकि तकरीबन 22.17 फीसद क्षेत्र वन रिक्त है। यही चीड़ के जंगल ही वनाग्नि के लिये आग में घी का काम करते हैं।

प्रदेश के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा उत्तराखण्ड की वनोपज से आता है। पर दुर्भाग्य से यहाँ के वनों की आमदनी का एक छोटा सा हिस्सा ही वनों की हिफाजत में खर्च किया जाता है। वन महकमें के हिस्से आने वाली रकम का एक बड़ा हिस्सा विभाग के अफसरों और कारिंदों की तनख्वाह वगैरह में खर्च हो जाता है।

वनों की हिफाजत और पौधरोपण के काम में नाम मात्र की रकम खर्च की जाती है। हर साल पहाड़ के जंगलों में आग लगती है। पर जंगल की आग को आर्थिक एवं पारिस्थितिकी के नजरिए से नहीं देखा जाता। वनाग्नि के प्रबन्ध का तकनीकी प्रशिक्षण की पुख्ता व्यवस्था नहीं है। अव्यवहारिक वन कानूनों ने वनोपज पर स्थानीय निवासियों के नैसर्गिक अधिकारों को खत्म कर दिया है। नतीजन ग्रामीणों और वनों के बीच की दूरी बढ़ी है। जंगलों से आम आदमी का सदियों पुराना रिश्ता कायम किये बिना जंगलों को आग और इससे होने वाले नुकसान से बचाना सरकार और वन विभाग के बूते से बाहर हो गया है। लेकिन इस जमीनी हकीकत को स्वीकारने का साहस किसी में नहीं है।

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