पहाड़ हमेशा से संवेदनशील रहे हैं। हर कदम पर संघर्ष और चुनौती यहां के लोगों के जीवन का हिस्सा रहे हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन बढ़ने के साथ-साथ पहाड़ पर चुनौतियों का स्वरूप ही बदलता जा रहा है। बादल फटना, बाढ़, भूस्खलन और भू-कटाव आदि एक तरह से लोगों के जीवन का हिस्सा ही बन गए हैं, जिनसे हर साल उन्हें दो-चार होना पड़ता है। इससे न केवल यहां के लोगों का जीवन अव्यवस्थित होता है, बल्कि खेती की जमीन बर्बाद होने से उनके सामने रोजी-रोटी का संकट भी खड़ा हो जाता है। बाढ़ और भू-कटाव आदि घटनाएं जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड आदि हिमालयी राज्यों में हर साल बरसात के दौरान देखने को मिलती हैं, लेकिन बीते कुछ वर्षों में इनमे इजाफा देखने को मिला है। विशेषकर उत्तराखंड़ में ये काफी तेजी से बढ़ रही हैं, जो कई बार आपदा का रूप भी धारण कर लेती हैं। इन्हीं आपदाओं में से एक केदारनाथ आपदा भी थी। हालांकि, इन घटनाओं को इंसानों द्वारा ‘प्राकृतिक आपदा’ का नाम दे दिया जाता है, किंतु ये सभी परेशानियां मानवीय गतिविधियों से जन्मी हैं, जिनका समाधान ड्रेनेज सिस्टम को सुधार कर और जलस्रोतों को पुनर्जीवित कर किया जा सकता है।
भारत में करीब 5 मिलियन स्प्रिंग्स हैं, जिनमें से 3 मिलियन स्प्रिंग्स इंडियन हिमालय रीजन में हैं, लेकिन अधिकांश स्प्रिंग्स सूख चुके हैं या सूखने की कगार पर हैं। उत्तराखंड़ में लगभग ढाई लाख नौले-धारे / स्प्रिंग्स हैं, जिन पर पर्वतीय गांव पानी के लिए निर्भर हैं। उत्तराखंड़ में 12 हजार से ज्यादा नौले-धारे व स्प्रिंग्स या तो सूख गए हैं या सूखने की कगार पर हैं। अकेले अल्मोड़ा जिले में 83 प्रतिशत स्प्रिंग्स सूख चुके हैं। हिमाचल प्रदेश के शिमला में जल संकट गहराने का कारण भी जलस्रोतों का सूखना ही है, जबकि उत्तराखंड के मसूरी और नैनीताल आदि पर्वतीय शहर भी भीषण जलसंकट की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। जम्मू कश्मीर और शिलांग के भी कई इलाकों में जल संकट बढ़ गया है।
वैसे तो जलस्रोतों के सूखने के कई कारण हैं, लेकिन मानवीय हस्तक्षेप के कारण स्रोतों के कैचमेंट क्षेत्र में हुआ अतिक्रमण अहम कारण है, तो वहीं वनों के कटान ने इसे काफी बढ़ा दिया है। जिस कारण सैंकड़ों स्रोत तो धरातल पर अब नजर ही नहीं आते हैं और न ही उनके कोई निशान दिखते हैं। स्रोतों के समाप्त होने से बरसात के पानी को निकासी का पर्याप्त मार्ग नहीं मिल पाता है और पानी इधर-उधर बहने लगता है। इसके अलावा व्यवस्थित ड्रेनेज सिस्टम के अभाव के कारण भी ऐसा होता है। हमारे यहां वर्तमान में भी ड्रेनेज की जो व्यवस्था है, वो समस्या को और बढ़ाती है। इससे पानी जहां-तहां बहता है या जमा होने लगता है, जो पहाड़ों पर पानी की निकासी के नए रास्तों का स्वतः ही निर्माण कर लेता है। पहाड़ों पर विशेषकर चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों के अभाव के कारण पानी मिट्टी को काटने लगता है। इससे भू-कटाव और भूस्खलन बढ़ता है। पानी के ठहराव से पहाड़ी कमजोर होने लगती है और फिर बरसात में गिरने लगती है।
भू-वैज्ञानिक डीपी डोभाल का कहना है कि पानी इधर-उधर न बहे और भू-कटाव न हो इसके लिए पहाड़ पर सूख चुके जलस्रोतों (नौले-धारे, नाले व गधेरों) को पुनर्जीवित करने की जरूरत है। साथ ही ड्रेनेज सिस्टम को भी ठीक करना होगा।
उत्तराखंड़ में प्राकृतिक आपदा में कृषि भूमि को नुकसान
वर्ष | कृषि भूमि को क्षति (हेक्टेयर) |
2014 | 1285.53 |
2015 | 15.479 |
2016 | 112.245 |
2017 | 21.044 |
2018 | 963.284 |
2019 | 238.838 |
प्राकृतिक जलस्रोतों को पुनर्जीवित करना इसलिए जरूरी है क्योंकि ये पानी के कुदरती मार्ग हैं, जिनका निर्माण प्रकृति ने व्यवस्था स्थापित करने के लिए ही किया है, लेकिन इनसे खिलवाड़ कृषि सहित इंसानों के लिए संकट खड़ा कर रहा है। प्राकृतिक आपदाओं में सबसे ज्यादा नुकसान कृषि भूमि को ही होता हैं। उत्तराखंड़ में वर्ष 2014 में 1285.53 हेक्टेयर कृषि जमीन को नुकसान पहुंचा था, जबकि 2015 में 15.479 हेक्टेयर, 2016 में 112.245 हेक्टेयर, 2017 में 21.044 हेक्टेयर, 2018 में 963.284 हेक्टेयर, 2019 में 238.838 हेक्टेयर कृषि भूमि को नुकसान पहुंचा था। ये सभी आंकड़ें सरकार हैं। ऐसे ही कई आंकड़ें सरकार तक पहुंच ही नहीं पाते हैं। इन सबसे बचने के लिए भू-वैज्ञानिक किसानों को भू-कटाव के प्रति जागरुक करते हुए पानी का ठीक प्रकार से उपयोग करने की सलाह देते हैं। हालांकि ये काम किसान अकेले नहीं कर सकते हैं। यदि इस कार्य में सरकार भी मदद करे तो कृषि भूमि को कटाव से बचाया जा सकता है। किंतु, कोई भी कार्य शुरू करने से पहले उस पर गहन अध्ययन और सुनियोजित तरीके से समाधान होना चाहिए।
सिंचाई विभाग के प्रमुख अभियंता मुकेश मोहन का कहना है कि प्रदेश में जिस जगह बाढ़ आने के चलते कृषि भूमि का कटाव हो रहा है, उन जगहों के लिए बाढ़ सुरक्षा योजना बनाई गई है, जिसे नाबार्ड और भारत सरकार को प्रस्ताव भेजकर स्वीकृत कराया जा रहा है।
हालांकि, भू-कटाव के समाधान के लिए मनरेगा के तहत विभिन्न स्थानों पर चैकडैम बनाए जा रहे हैं। वृहद स्तर पर पौधारोपण को बढ़ावा दिया जा रहा है। व्यवस्थित ढंग से पौधारोपण करने से मृदाअपरदन और भू-कटाव को रोकने में सहायता मिलेगी। वृक्षों की संख्या का बढ़ना जल संकट के समाधान की ओर भी एक कदम हो सकता है, क्योंकि पेड़ वर्षा जल को जमीन के अंदर पहुंचाने का कार्य करते हैं और वातावरण को संतुलित भी करते हैं। लेकिन ये उपाय तब तक निराधार हैं, जब तक जलस्रोतों को अतिक्रमणमुक्त नहीं किया जाता और सरकारी योजनाओं के निर्माण में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को प्राथमिकता नहीं दी जाती है।
उदाहरण के तौर पर, उत्तराखंड़ के चमोली जिले में एक गांव के एकमात्र जलस्रोत को उजाड़ कर प्रधानमंत्री सड़क योजना के अंतर्गत सड़क का निर्माण किया जा रहा है। इसका गांववाले काफी विरोध भी कर रहे हैं। इंडिया वाटर पोर्टल ने इस पूरे मामले को प्रमुखता से कवर किया था। यहां प्रशासन को समझना होगा कि भले ही सड़क बनने से आवाजाही सुगम हो जाएगी, लेकिन भविष्य में इसके भीषण परिणाम भुगतने पड़ेंगे, क्योंकि जब पानी की निकासी का प्राकृतिक मार्ग बंद कर दिया जाता है या उसमें अवरोध पैदा किया जाता है, तो पानी स्वतः ही नया रास्ता बनाता है, जिससे बाढ़ के हालात उत्पन्न होने हैं। केदारनाथ आपदा सहित बिहार और असम में बाढ़ आने का यही कारण है। ऐसे में जनता को भी समाधान की ओर योगदान देने की जरूरत है और प्रकृति को उसके मूल रूप में ही बने रहने दिया जाए। क्योंकि इन समस्याओं का सामना सत्ता से ज्यादा जनता को करना पड़ता है।
हिमांशु भट्ट (8057170025)
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