मानसून की आहट के साथ ही पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में छिटपुट बारिश क्या हुई कि साथ-साथ मुसीबत आ गयी। गर्मी से निजात के आनंद की कल्पना करने वाले लोग सड़कों पर पानी भरने से ऐसे दो-चार हुए कि अब बारिश के नाम से ही डर रहे हैं। बारिश के मौसम में यह हालत केवल दिल्ली की ही नहीं बल्कि कमोबेश हर शहर की है। बरसात में ऐसा ही होता है। सड़कों पर पानी के साथ वाहनों का सैलाब और दिन बीतते-बीतते पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती जनता। कोलकाता को तो इस बार पहली ही बारिश ने दरिया बना दिया है। पिछले साल हरियाणा, पंजाब के कई तेजी से उभरते शहर- अंबाला, हिसार, कुरूक्षेत्र, लुधियाना आदि एक रात की बारिश में तैरने लगे थे। रेल, बसें सभी कुछ बंद! अहमदाबाद, सूरत के हालत भी ठीक नहीं थे। पटना में गंगा तो नहीं उफनी पर शहर के वीआईपी इलाके घुटने-घुटने पानी में तर रहे। बहरहाल, किसी भी शहर का नाम लें, बारिश के कारण जीना मुहाल होता है लोगों का। विडंबना है कि शहर नियोजन के लिए गठित लंबे-चौडे़ सरकारी अमले पानी के शहरों में ठहरने पर खुद को असहाय पाते हैं।
सारा दोष नालों की सफाई न होने, बढ़ती आबादी, घटते संसाधन और पर्यावरण से छेड़छाड़ के मत्थे होता है। वैसे इस बात की जवाब कोई नहीं दे पाता है कि नालों की सफाई साल भर क्यों नहीं होती और इसके लिए मई-जून का ही इंतजार क्यों होता है। दिल्ली की ही बात करें तो सब जानते हैं कि यहां बने पुलों के निचले सिरे, अंडरपास और सबवे हल्की सी बरसात में भी जलभराव के स्थाई स्थल हैं, लेकिन कोई भी जानने का प्रयास नहीं करता कि आखिर इनके डिजाइन में कोई कमी है या फिर रखरखाव में। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वहां बस गई। यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्ज्वल भविष्य की लालसा में पलायन करने की बढ़ती प्रवृति का परिणाम है कि शहरों की आबादी बढ़ती जा रही है।
दिल्ली, कोलकाता, पटना जैसे महानगरों में जल निकासी की माकूल व्यवस्था न होना जल भराव का स्थाई कारण कहा जाता है। मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और सीवर की 50 साल पुरानी व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही हैं। बंगलूरू में पारंपरिक तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़छाड़ को बाढ़ का कारक माना जाता है। शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जलस्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थाई निर्माणों को हटाने का करना होगा। पानी यदि किसी पहाड़ी से नीचे बह कर आ रहा है तो उसका संग्रहण किसी तालाब में ही होगा लेकिन विडंबना है कि ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट की नदियों में खो गए हैं।
परिणामस्वरूप हल्की बारिश में भी पानी कहीं का कहीं बहने लगता है। महानगरों में भूमिगत सीवर जल भराव का सबसे बड़ा कारण हैं। पॉलीथीन, अपशिष्ट रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्रा ऐसे कारण हैं, जो गहरे सीवर के दुश्मन हैं। महानगरों में सीवर और नालों की सफाई भ्रष्टाचार का बड़ा माध्यम है। यह कार्य किसी जिम्मेदार एजेंसी को सौंपना आवश्यक है, वरना आने वाले दिनों में महानगरों में कई-कई दिनों तक जल-भराव के कारण यातायात के साथ स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर खतरा होगा। नदियों या समुद्र के किनारे बसे नगरों के तटीय क्षेत्रों में निर्माण कार्य पर पाबंदी का कड़ाई से पालन करना समय की मांग है। तटीय क्षेत्रों में अंधाधुंध निर्माण जल बहाव के मार्ग में बाधा है, जिससे बाढ़ की स्थिति बन जाती है।
विभिन्न नदियों पर निर्माणाधीन बांधों के बारे में नए सिरे से विचार जरूरी है। गत वर्ष सूरत में आई बाढ़ हो या उसके पिछले साल सूखाग्रस्त बुंदेलखंड के कई जिलों का जलप्लावन, स्पष्ट होता है कि कुछ अधिक बारिश होने पर बांधों में क्षमता से अधिक पानी भर जाता है। ऐसे में बांधों का पानी छोड़ना पड़ता है। अचानक छोड़े गए इस पानी से नदी का संतुलन गड़बड़ाता है और वह बस्ती की ओर दौड़ पड़ती है। यही हाल दिल्ली में यमुना के साथ होता है। हरियाणा के बांधों से जैसे ही पानी छोड़ा जाता है, राजधानी की कई बस्तियां जलमग्न हो जाती हैं। बांध बनाते समय उसकी अधिकतम क्षमता, अतिरिक्त पानी आने पर उसके अन्यत्र भंडारण के प्रावधान रखना शहरों को बाढ़ के खतरे से बचा सकता है। महानगरों में बाढ़ का मतलब है परिवहन और लोगों का आवागमन ठप होना। इस जाम के ईंधन की बर्बादी, प्रदूषण स्तर में वृद्धि और मानवीय स्वभाव में उग्रता जैसे कई दीघ्रगामी दुष्परिणाम होते हैं। जल भराव और बाढ़ मानवजन्य समस्याएं हैं और इसका निदान दूरगामी योजनाओं से ही संभव है।
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