जलागम विकास में लाभों का बँटवारा, एवं गरीब वर्ग का सशक्तिकरण

पाठ-8

भूमिका


भारत में तेजी से घट रही प्राकृतिक सम्पदाओं का कारण है देश की बढ़ती जनसंख्या तथा उनकी बढ़ती हुई जमीन पर निर्भरता। 1952 से 1981 तक के बीच भारत में खेती योग्य भूमि 0.48 हेक्टेयर/व्यक्ति से घट कर 0.20 हेक्टेयर/व्यक्ति हो गई है।

भूमि जो हमारी जीविका का मूल आधार है, दिनों दिन तेजी से नष्ट होती जा रही है। अगर पानी की उपलब्धता पर ध्यान दें तो भारत को प्रतिवर्ष 42 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी उपलब्ध होता है। मगर पेड़-पौधों तथा जमीन के उचित प्रबन्धन के अभाव में इसमें से लगभग 32 प्रतिशत पानी सतही बहाव के रूप में बहकर निकल जाता है और अपने साथ हर वर्ष 5500 करोड़ टन सतही उपजाऊ मिट्टी बहा कर ले जाता है, जिससे मिट्टी के पोषक तत्वों की कमी होती जा रही है और जमीन की उत्पादकता क्रमशः घटती जा रही है। वर्तमान में भारतवर्ष की कुल भौगोलिक भूमि 32.9 करोड़ हेक्टेयर में से 17.5 करोड़ हेक्टेयर (लगभग 50 प्रतिशत से ज्यादा) भूमि भू-क्षरण, लवणीयता, जल जमाव, भूस्खलन इत्यादि से समस्याग्रस्त है। जमीन की कम उत्पादकता से देश की ग्रामीण जनसंख्या की मूलभूत अवश्यकतायें जैसे अनाज, ईंधन, चारा, पानी एवं रोजगार की कमी लगातार बढ़ती ही जा रही है। इसलिए जरूरत है जमीन और पानी का समुचित उपयोग करने की। समय की इन माँगों को देखते हुए 70 के दशक में सरकार ने जलागम विकास के नाम पर कई कार्यक्रम चलाये हैं। इन जलागम विकास कार्यक्रम के दो मुख्य उद्देश्य थेः

1. पानी को पहाड़ से घाटी तक दौड़ने के बजाय चलकर बढ़ने दिया जाए जिससे भूक्षरण में कमी आये और जमीन में नमी तथा भूजल स्तर भी बढ़े।
2. फलस्वरूप भूमि में नये जीवन का सृजन होगा जिससे भूमि की उत्पादकता के साथ-साथ सम्पूर्ण जैवभार उत्पादन में भी वृद्धि होगी।

परन्तु 1980 से 1990 के इस सम्पूर्ण प्रक्रिया एवं प्रयास में लोगों की भूमिका को नकारा गया, परिणामस्वरूप ये योजनाएँ अपने उद्देश्यों की पूर्ति करने में असफल रहीं। तब सरकार ने कई स्वयं सेवी संस्थाओं तथा अन्य संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे सफल जलागम परियोजनाओं का अध्ययन किया और उनकी उपलब्धियों के कारणों की खोज की। सन 1994-95 में इन्हीं संस्थाओं के साथ विचार-विमर्श कर ग्रामीण विकास मन्त्रालय ने राष्ट्रीय स्तर पर जलागम संरक्षण एवं विकास मार्गनिर्देशिका निकाली जिसे वर्ष 2008 में समान मार्गनिर्देशिका के रूप में देश भर में समान रूप से लागू किया गया इसमें निम्नलिखित बिन्दुओं पर जोर दिया गया।

1. योजना निर्माण, क्रियान्वयन एवं प्रबंधन में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की गयी
2. संसाधनों के उचित उपयोग से निरन्तर आत्म निर्भरता
3. सतत एवं न्यासंगत रूप से लाभों के बँटवारे की उपभोक्ता समूह की नियमावली में स्पष्ट व्यवस्था द्वारा गरीब वर्ग का सशक्तिकरण

पूर्व चलित विकास परियोजनाओं की सबसे बड़ी कमी रही है - लाभों का कुछ सीमित लोगों तक ही रह जाना। नयी मार्गनिर्देशिका के अनुसार जलागम प्रबन्धन का एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है, समाज के गरीब और पिछड़े लोगों को समान लाभ दिलाना। देश के विभिन्न क्षेत्रों में कई ऐसे उदाहरण हैं, जिससे यह साबित हो गया कि गरीब और पिछड़े वर्ग के लोगों को अगर लाभों के बँटवारे की व्यवस्था बनाकर उचित एवं न्यायसंगत अवसर दिया जाए तो सफलता शत-प्रतिशत निश्चित है। इसी उद्देश्य पर आधारित कुछ सफल उदाहरणों का संक्षिप्त वर्णन नीचे दिये गये हैं:

(1) चक्रीय विकास प्रणाली


1986 में श्री पी.आर. मिश्रा ने सोसाइटी ऑफ हिल रिसोर्स मैनेजमेंट के माध्यम से चक्रीय विकास प्रणाली का सफलता पूर्वक शुरूआत किया। चक्रीय विकास प्रणाली का मुख्य उद्देश्य है बंजर भूमि पर चक्रीय निवेश द्वारा ग्रामीण लोगों, विशेषतः गरीबों को आत्मनिर्भर बनाना। इस प्रणाली में प्रथम निवेश का लाभ दूसरे निवेश के लिए धन के रूप में प्रयोग किया जाता है। पूरे लाभ का 30 प्रतिशत जो कि गाँव का अंश है, 7-8 साल के बाद भूमि पर पुनर्निवेश कर दिया जाता है। इस तरह नव रोजगार के सृजन और आय अर्जन के पनपने से गरीब लोगों में आत्मनिर्भरता आई।

इस प्रणाली की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें ढालदार बंजर भूमि को जमीन मालिकों से जमा कर भूमिहीन एवं सीमांत लोगों को खेती करने का मौका दिया जाता है, तथा इस प्रणाली से प्राप्त लाभ (अनाज, ईंधन, चारा, एवं फल) को सब लोगों-जमीन मालिक, जमीन पर काम करने वाले मजदूर तथा ग्राम समाज में बाँटा जाता है।

पूरी प्रणाली से प्राप्त लाभ को 4 भागों में बाँटा जाता हैं:

1. कल्याण कोष में 10 प्रतिशत (दूसरे गाँव में कार्य शुरू करने हेतु)
2. जमीन मालिक (सरकार या व्यक्तिगत) को 30 प्रतिशत
3. मजदूरों (भूमिहीन एवं सीमांत लोग) के लिए 30 प्रतिशत
4. ग्राम समाज के लिये 30 प्रतिशत (भूमि पर पुनर्निवेश हेतु)

(2) पानी पंचायत:-


1972 में महाराष्ट्र के पुरंधर ब्लॉक में सूखा पड़ने के पश्चात श्री वी. बी. सालुंखे ने लगभग 50 लिफ्ट सिंचाई योजना शुरू की। 1974 से सालुंखे जी ने ग्राम गौरव प्रतिष्ठान ट्रस्ट द्वारा नये गाँव में 16 हेक्टेयर बंजर जमीन को वनीकरण, उद्यानीकरण, मिट्टी बाँध, कंटूर बाँध आदि द्वारा इस क्षेत्र को पाँच साल में सूखा मुक्त करने में सफल हुए। इस प्रयोग के परिणाम से पानी के समान बँटवारे तथा गरीब एवं पिछड़े लोगों को समान हक दिलाने के सिद्धान्त निकल कर आये। इस परियोजना में किसी भी लिफ्ट योजना के लाभार्थियों के समूह को पानी पंचायत कहा जाता है। पानी पंचायत के संचालन के नियम निम्नलिखित हैंः

1. लिफ्ट सिंचाई योजना से मिलने वाले पानी का हिस्सा परिवार में उनके सदस्यों के आधार पर (0.5 एकड़/व्यक्ति) दिया जाता है। पानी मिलने की अधिकतम सीमा 2.5 एकड़ प्रति परिवार है।
2. जमीन बेची जा सकती है किन्तु पानी का हक नहीं बेचा जा सकता है। यह व्यक्ति के साथ ही रहता है।
3. अधिक पानी वाली फसल जैसे गन्ना आदि नहीं उगा सकते हैं, ताकि ज्यादा जमीन सिंचाई के अन्तर्गत आ सके तथा लोगों को अधिक से अधिक लाभ मिल सके।
4. भूमिहीन लोगों को भी पानी का हक है ताकि वे बड़े किसानों के साथ बँटायीदार के रूप में रोजगार प्राप्त कर सके।

इस पूरी प्रक्रिया से अधिक जमीन वाले लोगों को अपनी जमीन भूमिहीन या सीमान्त लोंगों को देनी पड़ी क्योंकि उनके पास पानी नहीं था और जिनके पास जमीन नहीं थी, उनको जमीन बँटाई पर मिल गई। इस तरह लाभों का हक समान रूप से सबको मिला।

सूखा मुक्त अभियान


सन 1993-95 में बिहार राज्य के पलामू जिले में लोक विज्ञान संस्थान, देहरादून ने वहाँ के स्थानीय संस्थाओं के सहयोग से जलागम विकास के आधार पर लगभग 125 गाँवों में सूखा मुक्ति अभियान चलाया। इस पूरे कार्यक्रम में गरीब एवं कमजोर वर्ग के सशक्तिकरण पर विशेष ध्यान रखा गया। शुरूआती कार्य के रूप में हर गाँव में ग्रामस्तरीय संगठनों (पानी पंचायत) द्वारा सिंचाई के लिये मिट्टी के बाँध बनाये गये। तदपश्चात नर्सरी, वृक्षारोपण, भूमि सुधार एवं कुटीर उद्योग के कार्यक्रम भी चलाये गये। वर्षा के पश्चात बाँध में पानी होने पर विभिन्न पानी पंचायतों से विचार विमर्श करके लाभों के बँटवारें के लिए नियम बनाये गए जो निम्न प्रकार से हैंः

1. सिंचित क्षेत्र में स्थित गैर मजुरवा (आम) जमीन निम्नलिखित तरीकों से बाँटी जाती है: (अ) भूमिहीन सदस्यों में बराबर बाँट दी जाती है (ब) भूमिहीन बँटाईदार के रूप में खेती करते हैं (स) भूमिहीन सामूहिक खेती करते हैं।
2. सिंचाई के पानी के बदले में लाभार्थी किसान अनाज का पूर्व निश्चित हिस्सा जमा करते हैं।
3. संग्रहित अन्न का बँटवारा निम्नलिखित तरीकों से होता है। (अ) एक हिस्सा ग्राम कोष के नाम पर होता है जिसे या तो बेच कर ग्राम कोष में वृद्धि की जाती है या तो अन्न भण्डार (ग्रेन गोला) के रूप में रहता है। (ब) शेष हिस्सा उन लोगों, जिनकी जमीन एक एकड़ से कम है, उनके बीच श्रमदान के अनुपात में बाँट दिया जाता है। उनका यह हिस्सा जमा करके विपरीत परिस्थितियों में भी माँगने पर दिया जाता है।
4. डूब क्षेत्र में जमीन का अनुपात तय किया जाता है तथा उसी के अनुसार डूब के हिस्से का बँटवारा होता है। डुब क्षेत्र में संसाधनविहीन/गरीब वर्ग के समूह द्वारा मछली पालन किया जाता है। उत्पादित मछली का बँटवारा निम्न प्रकार से होता है। (अ) एक हिस्सा डूब क्षेत्र के जमीन मालिकों में बाँट दिया जाता है। गैर मजुरवा जमीन होने की स्थिति में वह हिस्सा ग्रामकोष का अंग बन जाता है। (ब) एक हिस्सा मछली पालन वाले समूह के सदस्यों का होता है तथा (स) शेष हिस्सा ग्रामकोष में जमा होता है। या ग्रामकोष के समस्त सदस्यों के बीच बराबर बाँट दिया जाता है।

कई गाँवों में पानी पंचायत के सदस्यों ने उपलब्ध लाभ, जैसे अनाज तथा मछली के बँटवारे का हिस्सा उपरोक्त तरीकों से सुनिश्चित करने की कोशिश की, जिससे गरीब वर्ग के लोगों को आर्थिक लाभ मिला तथा ग्राम कोष में वृद्धि से गाँव भी आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ा।

उपसंहार


सरकार ने अपनी कई योजनायें तो गरीबों के लिए बनायी, परन्तु उनकी भागीदारी को पूर्ण रूप से नकार दिया। परिणामतः परियोजना से प्राप्त लाभ, कुछ एक लोगों के हाथों में केन्द्रित हो गई तथा अमीर लोग और अमीर होते गये। आज जरूरत है परियोजनाओं के सम्पूर्ण विकेन्द्रीकरण, जिसमें समाज के गरीब एवं पिछड़े लोगों को परियोजना के हर सीढ़ी पर समान अधिकार मिल सके। समाज में समानता तभी आ सकती है, जब हम लाभों को गरीब वर्ग तक पहुँचाने की व्यवस्था सुनिश्चित कर सकेंगे।

जलागम प्रबन्धन से जुड़े हुए कार्यकर्ताओं एवं ग्रामीण लोगों को इन सफल उदाहरणों का अध्ययन करना होगा। गरीब वर्ग की जलागम प्रबन्धन योजनाओं में भागीदारी तभी सुनिश्चित हो सकती है, जब उन तक लाभ पहुँचाने की उचित व्यवस्था हो। इसके लिए योजना बनाते हुए इन चरणों पर ध्यान देना जरूरी है:

1. जलागम क्षेत्र के विभिन्न गाँव में गरीब वर्ग की सही पहचान
2. सफल जलागम कार्यक्रम, विशेषतः लाभों के बँटवारे के सार्थक उदाहरणों का अध्ययन एवं उनकी चर्चा
3. जलागम कार्यों से होने वाले विभिन्न लाभों का अनुमान लगाना
4. परियोजना से प्राप्त होने वाले अनुमानित लाभों के बँटवारे के नियम एवं व्यवस्था, ग्राम समाज के बीच इस तरह से तय करना, जिससे गरीब वर्ग को अधिक से अधिक लाभ मिल सके।

भारतवर्ष को समृद्ध और खुशहाल साम्राज्य बनाने के लिये हमें पिछड़े वर्ग को सशक्त करना होगा तथा जलागम प्रबन्धन में उनकी भूमिका को प्रोत्साहित करना होगा।

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