जल संसाधनों की वैश्विक स्थिति

भारतीय नदियों में पानी का प्रवाह और इसकी गुणवत्ता बुरी तरह से प्रभावित हुई है। जबकि पानी की माँग लगातार बढ़ती जा रही है। बड़ी नदियों की सहायक नदियों और जलधाराएँ लगातार सूखती जा रही हैं। इससे साफ हो गया है पानी कभी न ख़त्म होने वाला संसाधन नहींं है। पानी के स्रोतों का जरूरत से ज्यादा दोहन हो रहा है और फैक्टरियाँ लगातार अपना कचरा नदियों में गिराती जा रही हैं। औद्योगिक फार्मिंग और शहरीकरण की वजह से पानी की गुणवत्ता में लगातार कमी आ रही है।

जल इंसान की ऐसी बुनियादी जरूरत है, जिसके बिना मानव जीवन की कल्पना नहींं की जा सकती। लेकिन सिर्फ जल होना ही पर्याप्त नहींं है। इसका स्वच्छ होना भी स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी है। परन्तु चिन्ता का विषय यह है कि विश्व स्तर पर जल निरन्तर दूषित होता जा रहा है। दुनिया की बहुत बड़ी आबादी को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहींं हो पाता है।

स्वच्छ जल के अभाव में जलजन्य रोगों से पीड़ित लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। इस वजह से लाखों लोग असमय मौत का शिकार हो जाते हैं। दुनिया में सफाई की समुचित व्यवस्था का अभाव इस संकट को और जटिल बना रहा है। अन्धाधुन्ध अव्यस्थित विकास परियोजनाएँ जल के प्रमुख स्रोत नदियों की अविरल धारा को बाधित कर रही हैं।

नदियों की स्थिति


गर्मी शुरू होते ही पूरे देश में पानी को लेकर तनाव बढ़ जाता है। नगरपालिकाएँ लोगों की प्यास बुझाने के लिए संघर्ष करती नजर आती हैं। हर साल जल संसाधनों और उपभोक्ताओं के बीच माँग और आपूर्ति की दूरी बढ़ती ही जाती है। देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई पानी के टैंकरों पर बुरी तरह निर्भर हो जाती है।

दिल्ली को अपनी प्यास बुझाने के लिए हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की ओर देखना पड़ता है। जयपुर से लेकर बिसल तक, हल्द्वानी से लेकर जामरानी तक, भोपाल से होशंगाबाद और इन्दौर से लेकर माहेश्वर तक यानी हर जगह पानी के लिए हाहाकार देखा जा सकता है। हमारे नीति निर्माता न तो जल भंडारण और न ही नए जलस्रोतों के विकास पर ध्यान दे रहे हैं।

हजारों किलोमीटर से नहर और पाइपलाइन से पानी लाने में सारा जोर लगा रहता है। इस कवायद पर लोगों का ध्यान इतना ज्यादा है कि गिरते भूजल स्तर को रोकना प्राथमिकता में शामिल नहींं है।

भारतीय नदियों में पानी का प्रवाह और इसकी गुणवत्ता बुरी तरह से प्रभावित हुई है। जबकि पानी की माँग लगातार बढ़ती जा रही है। बड़ी नदियों की सहायक नदियों और जलधाराएँ लगातार सूखती जा रही हैं। इससे साफ हो गया है पानी कभी न ख़त्म होने वाला संसाधन नहींं है। पानी के स्रोतों का जरूरत से ज्यादा दोहन हो रहा है और फैक्टरियाँ लगातार अपना कचरा नदियों में गिराती जा रही हैं।

औद्योगिक फार्मिंग और शहरीकरण की वजह से पानी की गुणवत्ता में लगातार कमी आ रही है। यहाँ तक कि नदियों के करीब रहने वाले समुदायों को भी पानी का संकट झेलना पड़ रहा है।

दिल्ली में पानी की माँग का दबाव इतना ज्यादा है कि सरकार को इसके लिए दूर-दूर तक तलाश करनी पड़ रही है। इस मद में ज्यादा-से-ज्यादा पैसे झोंके जा रहे हैं। दिल्ली सरकार ने हिमाचल प्रदेश में गिरी नदी पर बनी डैम के लिए 2, 000 करोड़ रुपए ख़र्च किए।

दिल्ली सरकार को उम्मीद है वह यहाँ से पानी ला सकेगी। लेकिन इस पानी की लागत काफी ज्यादा होगी। डैम की वजह से कई गाँव पूरे-के-पूरे विस्थापित होंगे। उनके पुनर्वास में भारी रकम ख़र्च होगी। विडम्बना यह है कि दिल्ली यमुना के किनारे बसी हुई है लेकिन गन्दे नाले में तब्दील हो चुकी इस नदी को पुनर्जीवित करने की कोशिश नहींं की जा रही है।

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली इस देश के सभी शहरों के लिए एक सबक है। अगर हम नदियों को इसी तरह से गन्दा करते रहे तो हर शहर के सामने ऐसी समस्या आ सकती है। यानी नदी घर के पास से बह रही होगी लेकिन आप इससे अपनी प्यास नहींं बुझा सकेंगे। एक पानी से भरी नदी को गन्दे पानी के नाले में तब्दील कर राजधानीवासी अब सैकड़ों किलोमीटर पहाड़ी नदियों से पानी लाने की कोशिश कर जाती है।

देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई पानी के टैंकरों पर बुरी तरह निर्भर हो जाती है। दिल्ली को अपनी प्यास बुझानेके लिए हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड की ओर देखना पड़ता है। जयपुर से लेकर बिसल तक, हल्द्वानी से लेकर जामरानी तक, भोपाल से होशंगाबाद और इन्दौर से लेकर माहेश्वर तक यानी हर जगह पानी के लिए हाहाकारदेखा जा सकता है।

हमारे नीति निर्माता न तो जल भण्डारण और रहे हैं। मध्य भारत की नदियों की स्थिति अच्छी नहींं है। नर्मदाका उदाहरण ले सकते हैं। मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र के करोड़ों लोग इस पर निर्भर हैं।

वर्ष 1990-91 से लेकर 2008-09 तक पानी की प्रवाह दर 1, 77,766 क्यूबिक मीटर घट गई है। 42 सहायक नदियों में प्रवाह 42 फीसदी घट गया है। इस अवधि में पानी की माँग में कई गुना वृद्धि हुई है। शाहजंग से भोपाल तक बिछी नयी पाइपलाइन से झीलों के इस शहर को हर दिन 18 करोड़ लीटर पानी मुहैया कराया जाएगा।

पानी के अन्धाधुन्ध दोहन से कई दूसरी तरह की समस्याएँ पैदा हुई हैं। नर्मदा नदी में मिलने वाली मशहूर महाशीर मछली का अस्तित्व संकट में है। डैमों के निर्माण और प्रदूषण बढ़ने से स्वच्छ पानी में मिलने वाली मछलियों कीकई प्रजातियाँ ख़तरे का सामना कर रही हैं।

ऐसी नदियों में औद्योगिक कचरा बहाया जा रहा है। कोयला खदानों और वाशरीज से निकलने वाली गन्दगी का सबसे बुरा उदाहरण दामोदर नदी है। ताप बिजलीघर, कोयला भट्ठी और रासायनिक उद्योगों से निकलने वाले कचरे ने दामोदर नदी को पूरी तरह प्रदूषित कर दिया है।

कई जगह तो नदी एक पतली धार में तब्दील हो गई है और पानी कहीं ज्यादा अम्लीय तो कहीं अति क्षारीय हो गया है। नदियों के पानी में भारी मात्रा धातु घुल चुके हैं। पानी में मौजूद जैव विविधता पूरी तरह ख़त्म हो चुकी है। अब ये नदियाँ किनारों पर रहने वाले लोगों के लिए संक्रामक बीमारियों की सौगात बन गई हैं।

नदियों का पुनर्जीवन राजनीतिक रूप से जोख़िमभरा मामला बन गया है। पर्यावरण के लिहाज से काफी बुरा असर पड़ने के बावजूद कोई भी पनबिजली परियोजनाओं का विरोध करने की स्थिति में नहींं है। लेकिन, अगर हमें नदियों या दूसरे जल स्रोतों से अपनी प्यास बुझानी है तो इस दिशा में भारी अनुशासन की जरूरत है।

जागरुकता जरूरी


विवादों का जल्द निपटारा


जल विवाद कई देशों के बीच संघर्ष का कारण बन चुका है। आज भी इस समस्या को लेकर कुछ देशों के मध्य टकराव के हालात हैं। देशों के भीतर राज्यों के बीच जल बँटवारे को लेकर मतभेद उभरते रहते हैं। कहीं-न-कहीं ऐसे विवाद जल संकट को बढ़ाने का ही काम कर रहे हैं। ऐसे विवाद मुख्यतः तब ही होते हैं जब कोई देश या राज्य अपनी सीमा में आवश्यकता से अधिक जल का संचय कर लेता है। ग्रीष्म काल में यह जल संचय दूसरे स्थानों पर जल की कमी का कारण बन जाता है तो बरसात के समय दूसरी जगहों पर बाढ़ से तबाही भी ला देता है।

जल संकट के समाधान के लिए राष्ट्रीय ही नहींं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक ठोस रणनीति बनाने की आवश्यकता है। जल संकट पर कई बार अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन हुआ है जिसमें इस समस्या के समाधान के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाई गईं। लेकिन ये सारी योजनाएँ एक तरह से प्रभावहीन ही साबित हो रही हैं। इसका प्रमुख कारण वैश्विक स्तर पर किसी भी तरह के बाध्यकारी कानून का न होना है। सभी देशों के लिए आज उनके निजी हित ही सर्वोपरि हैं न कि वैश्विक हित।

जल संकट से निपटने का समाधान करना अब जरूरी हो गया है। इस सन्दर्भ में अगर कोई ऐसी वैश्विक नीति बना ली जाए कि पानी पर एक निर्धारित आवश्यकता से अधिक कोई नियन्त्रण नहींं कर सकता, तो शायद इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है।

जितनी आवश्यकता उतना उपयोग


आज अपने देश सहित कई ऐसे देश हैं जहाँ नदियाँ तो प्रचुरता में हैं और वहाँ के अधिकांश हिस्सों में वर्षा भी ठीक-ठाक ही होती है, फिर भी वे वर्तमान समय में जल संकट का सामना कर रहे हैं। इसका प्रमुख कारण लोगों द्वारा पानी के महत्व को न समझना है। इन देशों में जल की प्रचुरता ही कहीं-न-कहीं जल संकट का कारण बन रही है।

आवश्यकता से अधिक जल दोहन करने वाले देशों की सूची में अब भारत का नाम भी शामिल हो गया है। देश में सर्वाधिक गम्भीर हालात उत्तर भारत के कई राज्यों की है। इस स्थिति से तभी निपटा जा सकता है जब लोग यह अच्छी तरह से समझ लें कि वे उतने ही जल का उपयोग करें जितने की उन्हें आवश्यकता है।

जनसंख्या नियन्त्रण


वैसे देश जहाँ पर्याप्त मात्रा में जल संसाधन हैं और जनसंख्या कम है, जल संकट की समस्या से कम प्रभावित हैं। वहीं जिन देशों की जनसंख्या अधिक है वे जल संकट की समस्या से ज्यादा जूझ रहे हैं। इसका सीधा कारण यह है कि जल संसाधन सीमित है और जनसंख्या बढ़ने से उन पर बोझ बढ़ता है।

बढ़ती जनसंख्या कहीं न कहीं जल-प्रदूषण के साथ ही अन्य समस्याओं का कारण भी बन रही है। यदि जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण कर लिया जाए तो इस समस्या को बढ़ने से रोका जा सकता है।

वैश्विक हितों को वरीयता


जल संकट के समाधान के लिए राष्ट्रीय ही नहींं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक ठोस रणनीति बनाने की आवश्यकता है। जल संकट पर कई बार अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन हुआ है जिसमें इस समस्या के समाधान के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाई गईं। लेकिन ये सारी योजनाएँ एक तरह से प्रभावहीन ही साबित हो रही हैं। इसका प्रमुख कारण वैश्विक स्तर पर किसी भी तरह के बाध्यकारी कानून का न होना है। सभी देशों के लिए आज उनके निजीहित ही सर्वोपरि हैं न कि वैश्विक हित।

कमोबेश विभिन्न देशों के भीतर प्रान्तों की भी ठीक यही स्थिति है। अगर जल को वैश्विक सम्पत्ति मानकर इसके संरक्षण के लिए विश्व के सभी देश संयुक्त रूप से प्रयास करें तो यह समस्या स्वतः ही ख़त्म हो जाएगी।

भविष्य का ख़तरा


अन्तरराष्ट्रीय जल परिषद द्वारा जारी एक रिपोर्ट जल प्रदूषण सम्बन्धी पहलुओं पर विस्तार से रोजनी डालती है। रिपोर्ट के मुताबिक, प्रतिदिन 20 लाख टन नालों में बहने वाला मल और औद्योगिक व कृषि कचरा पानी में मिल जाता है। इसकी मुख्य वजह है सफाई की अपर्याप्त व्यवस्था। दुनिया में 2.5 अरब लोग अपर्याप्त सफाई से रहते हैं। इसके 70 प्रतिशत यानी 1.8 अरब लोग एशिया में हैं। सब सहारा अफ्रीका में 31 प्रतिशत परिवारों के पास ही सफाई के साधन हैं।

यहाँ सफाई सुधार की गति भी काफी धीमी है। दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी यानी लगभग 1.2 अरब लोग खुले मेंशौच करते हैं। ग्रामीण इलाकों में यह अनुपात 3 व्यक्तियों में से एक का है। दक्षिण एशिया में ऐसे लोगों की ग्रामीण आबादी 63 प्रतिशत है।

औद्योगीकरण, खनन और बुनियादी ढाँचा भी पानी को दूषित कर रहा है। विकासशील देशों में 70 प्रतिशत असंशोधित औद्योगिक कचरा पेयजल में घुल कर लोगों के घरों में पहुँच जाता है। नदियाँ पानी का सबसे बड़ा स्रोत हैं। कल-कारखानों से निकला रसायन जलाशयों को भारी मात्रा में दूषित कर रहा है।

खनन कार्य से भी नदियाँ दूषित हो रही हैं। अमरीका के एक प्रान्त में खनन के बाद छोड़ दी गई 23,000 खानों के कारण वहाँ बहने वाली छोटी-बड़ी नदियों का 3,200 किमी का जल प्रदूषित हो गया है। दुनिया में विकास के नाम पर बनने वाली बड़ी परियोजनाओं का शिकार भी पानी हो रहा है। बाँधों व अन्य बुनियादी संरचना परियोजनाओं ने विश्व की सबसे बड़ी 227 नदियों की धाराओं को बाधित किया है, जोकि कुल नदियों का 60 प्रतिशत है।

दूषित जल का सीधा प्रभाव मानव जीवन पर पड़ रहा है। पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मौत का सर्वाधिक जिम्मेदार दूषित जल ही है। दुनिया में होने वाली कुल मौतों में 3.1 प्रतिशत मौतें अस्वच्छ जल और सफाई केअभाव के कारण होती हैं। जल के कारण प्रतिवर्ष 4 अरब डायरिया के मामले सामने आते हैं। परिणामस्वरूप 22 लाख लोग प्रतिवर्ष मौत के गाल में समा जाते हैं, जिसमें अधिकांश पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चे होते हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक 15 प्रतिशत बच्चे डायरिया के कारण असमय मौत का शिकार हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में हर 15 सेकेण्ड में एक बच्चा दूषित जल का शिकार होता है। भारत में भी बच्चों के ख़राब स्वास्थ्य और असमय मौतोंका कारण डायरिया ही है।

नदियों में बढ़ता प्रदूषण


पिछले कुछ वर्षों में औद्योगीकरण एवं शहरीकरण के कारण प्रमुख नदियों में प्रदूषण का बोझ बढ़ गया है। सिंचाई, पीने के लिए, बिजली तथा अन्य उद्देश्यों के लिए पानी के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल से चुनौती काफी बढ़ गई है।

प्रदूषण का स्रोत


नदियाँ नगर निगमों के शोधित एवं अशोधित अपशिष्ट एवं औद्योगिक कचरे से प्रदूषित होती हैं। सभी बड़े एवं मझोलेउद्योगों ने तरल अपशिष्ट शोधन संयन्त्र लगा रखे हैं और वे सामान्यतः जैव रसायन आॅक्सीजन माँग (बीओडी) के निर्धारित मानकों का पालन करते हैं। हालांकि अब भी अनेक औद्योगिक क्षेत्र देश के कई हिस्सों में प्रदूषण को काफीबढ़ा रहे हैं।

नदी संरक्षण केन्द्र और राज्य सरकारों के सामूहिक प्रयास से लगातार कार्य चल रहा है। राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (एनआरसीपी) के तहत नदियों के पानी की गुणवत्ता में सुधार के लिए प्रदूषण घटाने सम्बन्धी कार्य चलाए जा रहेहैं। एनआरसीपी के तहत 20 राज्यों में गंगा, यमुना, दामोदर और स्वर्ण रेखा समेत 37 नदियों के प्रदूषित खण्डों पर ध्यान दिया जा रहा है।

जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन जैसी अन्य केन्द्रीय योजनाओं तथा राज्यों की शहरी अवसंरचना विकास योजना जैसी योजनाओं के तहत भी नदी संरक्षण सम्बन्धी गतिविधियाँ चल रही हैं। नदी संरक्षण के क्रियान्वयन पर भूमि अधिग्रहण की समस्या, सृजित परिसम्पत्तियों का सही प्रबन्धन नहींं हो पाने, अनियमित बिजलीआपूर्ति, सीवरेज शोधन संयन्त्रों के कम इस्तेमाल आदि का प्रतिकूल असर पड़ता है।

एनआरसीपी एवं इसका कवरेज


केन्द्र प्रायोजित राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना को केन्द्र एवं राज्य सरकारें मिलकर चलाती हैं और दोनों मिलकर इसका ख़र्च वहन करती हैं। देश में एनआरसीपी के तहत 20 राज्यों के 166 शहरों में 37 प्रमुख नदियों के चिह्नित कर प्रदूषित खण्डों में प्रदूषण कम करने का कार्य चल रहा है। एनआरसीपी के तहत इन परियोजनाओं के लिए 4,391.83 करोड़ रुपए अनुमोदित किए गए हैं जबकि अब तक 3,868.49 करोड़ रुपए व्यय किए जा चुके हैं।

फिलहाल 1, 064 अनुमोदित परियोजनाओं में से 783 पूरी हो चुकी हैं तथा 4,212.81 एमएलडी अनुमोदित क्षमता में से 3,057.29 एमएलडी तक की सीवेज क्षमता तैयार कर ली गई है। इन आँकड़ों में गंगा कार्ययोजना के तहत किएजा रहे कार्य शामिल हैं और नदी कार्ययोजनाओं के तहत तैयार की गई जीएपी-1ए सीवेज शोधन क्षमता इसमें शामिल है।

एनआरसीपी के उद्देश्य


सिंचाई, पीने के लिए तथा बिजली के लिए भी राज्यों द्वारा पानी का दोहन नियन्त्रित ढंग से नहींं किया जाता है। पानी के दोहन जैसे मुद्दों पर अन्तर-मन्त्रालयीय समन्वय का भी अभाव है। अब तक नदियों का संरक्षण कार्य घरेलू तरल अपशिष्ट की वजह से होने वाले प्रदूषण की रोकथाम तक ही सीमित है। जलीय जीवन की देखभाल, मृदा, अपरदन की रोकथाम आदि के माध्यम से नदियों की पारस्थितिकी में सुधार आदि कार्यों पर पर्याप्त ध्यान नहींं दिया गया।

एनआरसीपी के तहत नदियों में पानी की गुणवत्ता में सुधार के लिए प्रदूषण निम्नीकरण सम्बन्धी कार्य किए जाते हैं ताकि पानी स्नान के लायक हो। इसमें अपशिष्टों को नदी में बहाने से रोकना और उसे शोधन के लिए भेजना, नदी तट पर खुले में शौच पर रोक लगाने के लिए सस्ते शौचालय की व्यवस्था करना, शवों की अन्त्येष्टि के लिए बिजली शवदाह गृह या उन्नत किस्म के जलावन वाले शवदाह गृह की व्यवस्था करना, स्नान के लिए घाटों में सुधार, जैसे-सौन्दर्यीकरण के कार्य करना तथा लोगों के बीच प्रदूषण के प्रति जागरुकता फैलाना शामिल है।

एनआरसीपी के तहत धन की व्यवस्था


नदी स्वच्छता कार्यक्रम के लिए धन जुटाने की व्यवस्था में पिछले कई वर्षों के दौरान कई बदलाव हुए हैं। गंगा कार्ययोजना (जीएपी), जो 1985 में शुरू हुई थी, शत-प्रतिशत केन्द्र पोषित योजना थी। जीएपी के दूसरे चरण में1993 में आधी राशि केन्द्र सरकार और आधी राशि सम्बन्धित राज्य सरकारों द्वारा जुटाए जाने की व्यवस्था की गई।

एक अप्रैल, 1997 को यह व्यवस्था बदल गई और शत-प्रतिशत धन केन्द्र मुहैया कराने लगा। एक अप्रैल, 2001 सेकेन्द्र द्वारा 70 प्रतिशत राशि और राज्य द्वारा 30 प्रतिशत राशि जुटाने की व्यवस्था लागू हो गई। इस 39 प्रतिशत राशि का एक-तिहाई सार्वजनिक या स्थानीय निकाय के शेयर से जुटाया जाना था।

ग्यारहवीं योजना में एनआरसीपी के तहत कार्यों के लिए 2,100 करोड़ रुपए दिए गए जबकि अनुमानित आवश्यकता 8, 303 करोड़ रुपए की थी और यह अनुमान योजना द्वारा नदियों के मुद्दे पर गठित कार्यबल की रिपोर्ट में जारी किया गया था। एनआरसीपी के तहत वित्तीय वर्ष 2007-08 के दौरान 251.83 करोड़ रुपए तथा 2008-09 के दौरान 276 करोड़ रुपए व्यय किए गए।

कार्यान्वयन में समस्याएँ


यह देखा गया कि सीवरेश शोधन संयन्त्रों जैसी परिसम्पत्तियों के निर्माण के बाद राज्य सरकारों के स्थानीय शहरी निकायों ने उनके प्रबन्धन एवं रखरखाव पर ध्यान नहींं दिया। प्रबन्धन एवं रखरखाव के लिए बिजली की आपूर्ति नहींं करने, इन परिसम्पत्तियों के प्रबन्धन एवं रखरखाव के लिए उपयुक्त कौशल एवं क्षमता के अभाव जैसे कई मामले सामने आए हैं।

नदी तटों पर लगातार बढ़ती जनसंख्या और औद्योगीकरण तथा फिर जनसंख्या के हिसाब से प्रदूषण निम्नीकरण कार्य शुरू करने के लिए वित्तीय संसाधनों की कमी के चलते हमेशा ही प्रदूषण निम्नीकरण कार्यों में पिछला कुछ कार्यबच जाता है।

नदी कार्ययोजना की आंशिक सफलता


एसटीपी के माध्यम से नदियों के प्रदूषण रोकने की सीमित पहल की गई है। राज्य सरकारें अपनी क्रियान्वयन एजेंसियों के माध्यम से प्रदूषण निम्नीकरण कार्य करती हैं। लेकिन इस कार्य को उचित प्राथमिकता नहींं दी जाती।परिसम्पत्तियों के प्रबन्धन एवं रख-रखाव पक्ष की अकसर उपेक्षा होती है। दूसरा कारण यह है कि कई एसटीपी में बीओडी और एसएस के अलावा काॅलीफार्म के नियन्त्रण के लिए सीवेज प्रबन्धन नहींं किया जाता है।

सिंचाई, पीने के लिए तथा बिजली के लिए भी राज्यों द्वारा पानी का दोहन नियन्त्रित ढंग से नहींं किया जाता है।पानी के दोहन जैसे मुद्दों पर अन्तर-मन्त्रालयीय समन्वय का भी अभाव है। अब तक नदियों का संरक्षण कार्य घरेलू तरल अपशिष्ट की वजह से होने वाले प्रदूषण की रोकथाम तक ही सीमित है। जलीय जीवन की देखभाल, मृदा, अपरदन की रोकथाम आदि के माध्यम से नदियों की पारस्थितिकी में सुधार आदि कार्यों पर पर्याप्त ध्यान नहींं दिया गया।

तय कीजिए प्राथमिकताएँ


इस बार के बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए 22, 330 करोड़ रुपए का प्रावधान तक किया गया है। हालांकि यह पिछले वर्ष की तुलना में 2,700 करोड़ रुपए अधिक है लेकिन जानकार मानते हैं कि देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की जैसी स्थिति है उसे देखते हुए यह राशि काफी कम है। देश में जलजनित बीमारियों से 377 लाख लोग प्रभावित हैं और सालाना 730 लाख श्रम दिवस नष्ट हो जाते हैं।

जाहिर है कि शुद्ध पेयजल मुहैया कराकर हम न केवल करोड़ों लोगों की समस्या का समाधान कर सकते हैं बल्कि लाखों श्रम दिवसों को नष्ट होने से बचा सकते हैं और 6 करोड़ पौंड के श्रम को वापस ला सकते हैं। देश की प्राथमिकता शुद्ध पानी उपलब्ध करवाने की होनी चाहिए, इससे जनस्वास्थ्य में मूलभूत बदलाव अपने आप देखने को मिलेगा।

यह समाज सेवा भी है


शुद्ध पेयजल मुहैया कराना आम आदमी से जुड़ा मसला है। भारत जैसे विकासशील देशों में रहने वाले 20 फीसदी लोगों को जहाँ प्रतिदिन 200 लीटर साफ पानी भी नसीब नहींं हो रहा वहाँ अमरीका और यूरोप में प्रतिदिन पानी की औसत ख़पत 200 से 600 लीटर का आँकड़ा पार कर रही है। असमान विकास के चलते पेयजल जैसे सामूहिक संसाधन का सही बँटवारा नहींं हो पा रहा है। इसका एक दुखद पहलू यह भी है कि पेयजल की कमी सबसे ज्यादा गरीब ही झेल रहे हैं वह चाहे अपने स्वास्थ्य की कीमत पर हो या फिर शान की कीमत पर।

यूएनडीपी के ही एक शोध के मुताबिक विकासशील देशों में मलिन बस्तियों में रहने वाले लोग पाइपलाइन से जलापूर्ति वाले क्षेत्रों की तुलना में पाँच से दस गुना ज्यादा कीमत अदा कर रहे हैं।

हमें कोई अधिकार नहींं है कि प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन कर आने वाली पीढ़ियों का हिस्सा हड़प लें। भले ही यह क्षणिक आर्थिक वृद्धि लाए मगर इसकी भयावहता हमारे इस छद्म विकास को भी हड़प जाएगी।

पानी का बाजारीकरण


देश में संगठित क्षेत्र के बोतल बन्द पानी का कारोबार करीब 2,000 करोड़ रुपए का है। इसमें से 50 फीसदी हिस्सेदारी 20 लीटर की बड़ी बोतलों की है। जबकि 50 फीसदी हिस्सा एक लीटर, दो लीटर की बोतलों और पाउच में बिकने वाले पानी का है।

इसमें कम्पनियों की हिस्सेदारी अलग-अलग 8-10 फीसदी के बीच रहती है। जबकि 20 फीसदी हिस्सा क्षेत्रीय और छोटी कम्पनियों का है जो स्थानीय स्तर पर कारोबार करती हैं। इस समय देश में छोटी-बड़ी करीब 1,500 कम्पनियाँहैं जो बोतल बन्द पानी का कारोबार करती हैं।

इन सबकी गुणवत्ता पर नियन्त्रण करने का काम भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) करता है। बीआईएस ने बोतल बन्द पेयजल के दो मानक बनाए हैं। वर्तमान में बीआईएस का मानक आईएस 14543-2004 कम्पनियों पर लागू होता है।

बोतलबन्द पानी में मानकों का उल्लंघन हो रहा है, सबसे पहले इसकी शिकायत सेंटर फाॅर साइंस एण्ड इंवायरमेंट (सीएसई) ने वर्ष 2002 में की। सीएसई ने जुलाई से दिसम्बर 2002 के दौरान राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में 17 विभिन्नब्रांडों के आईएसआई की मुहर लगी हुई 34 बोतलों के सैम्पल लिए।

परीक्षण में सभी प्रमुख ब्राण्डों में आर्गेनोक्लोरीन, लिण्डेन, डीडीटी जैसे कीटनाशकों का स्तर 14-45 गुना तक ज्यादा पाया गया। प्रमुख बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने इस रिपोर्ट को गलत करार देते हुए दावा किया कि बोतल बन्द पानी के लिए वह अन्तरराष्ट्रीय मानकों का इस्तेमाल करती हैं।

बढ़ते विरोध को देखते हुए तत्कालीन सरकार ने उपभोक्ता मामलों, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मन्त्रालयके अतिरिक्त सचिव सतवंत रेड्डी की अध्यक्षता में चार सदस्यीय समिति बना दी। साथ ही बीआईएस ने भी विशेषज्ञों का एक समूह बनाया जिसने अपनी सिफारिश में अन्तरराष्ट्रीय गुणवत्ता वाली प्रयोगशाला में 32 कीटनाशकों की जाँच करवाने की सिफारिश की।

अतिरिक्त सचिव की अध्यक्षता में गठित समिति ने 25 मार्च, 2003 को अपनी सिफारिशें दीं। सिफारिशें मिलने के बाद तत्कालीन स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मन्त्री ने नये मानक एक अप्रैल, 2003 से ही लागू करने की बात कही। उन्होंने खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम, 1955 में संशोधन करने की बात कही। नये मानकों को एक जनवरी, 2004 से लागू कर दिया गया है।

इस मामले में सेंटर फाॅर साइंस एण्ड एनवायरमेंट के कुशल सिंह यादव का कहना है कि उनके आन्दोलन का ही परिणाम है कि सरकार और बीआईएस सख़्त हुए हैं। हमारी जांच में साफ हो गया था कि आईएसआई मानकों के बाद भी देश में पानी के रूप में लोगों को शहर दिया जा रहा है। हालांकि अब स्थिति बदली है। सरकारी एजेंसियाँ मानकों पर कड़ाई से नजर रख रही हैं।

बीआईएस के अनुसार बोतल बन्द पानी का कारोबार करने वाली कम्पनियाँ मानकों का पालन कर रही हैं या नहींं, इसके लिए बीआईएस के स्थानीय अधिकारी हर साल इन कम्पनियों के संयन्त्र का निरीक्षण करते हैं। यदि इनमें कोईख़ामी पाई जाती है तो उन्हें 15 से 30 दिन के भीतर दूर करने के निर्देश दिए जाते हैं। इसके बाद भी अगर उसमें सुधार नहींं होता है तो उस प्लांट से उत्पादन रोक दिया जाता है।

इस मामले पर खाद्य अपमिश्रण निवारण विभाग के निदेशक मोहन लाल का कहना है कि हर तरह के बोतल बन्द पानी के परीक्षण किए जाते हैं। इसी के तहत विभाग ने एक मई, 2008 से अप्रैल 2009 तक बोतल बन्द और पाउच वाले पानी के 97 सैंपल लिए है। इनमें से 95 के नतीजे आ चुके हैं। केवल नौ में लेबलिंग के नियमों का पालन किया गया है।

हालांकि मिलावट किसी में भी नहींं पाई गई है। पानी में मिलावट की जाँच करना काफी मुश्किल होता है। इसके लिए लगभग 25 जांच किए जाते हैं और इसमें चार से पाँच दिन लग जाते हैं। ईएव वाटर प्राइवेट लिमिटेड के वाइस प्रेसीडेंट एचसुब्रमण्य म ने बताया कि पानी की गुणवत्ता क्षेत्रीय आधार पर निर्भर करती है। उदाहरण के तौर पर केरल में स्थित प्लांट के लिए प्रयोग होने वाले पानी की गुणवत्ता, उत्तर भारत में लिए जाने वाले पानी से अलग होगी।

इसके बावजूद यह तय है कि सभी कम्पनियाँ बीआईएस के मानकों के तहत ही पानी का कारोबार करती हैं। इस समय देश में बोतल बन्द पानी का खुदरा कारोबार 15 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। जहाँ तक मिलावट का सवाल है तो संगठित क्षेत्र से लेकर असंगठित क्षेत्र दोनों में काफी कमी आई है। प्लांट पर पानी की आपूर्ति का काम कम्पनियाँ या तो खुद करती हैं या फिर अपने एजेंट के जरिए करती हैं जिन्हें बाॅटलर कहा जाता है। सबसे पहले बीआईएस ने वर्ष2001 में पानी के लिए मानक बनाए थे।

इसे बाद में वर्ष 2003 में संशोधित किया गया। देशभर में पानी में कीटनाशकों का स्तर मानक से ज्यादा है, इस विवाद के उठने के बाद बीआईएस ने एक बार फिर मानक में संशोधन कर वर्ष 2004 में नये मानक बनाए हैं।

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं।
ई-मेलः yogesh.sahkarita@yahoo.com

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